परमात्मा की सिर्फ चर्चा करें या ध्यान करें ? .....
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हम भगवान की आराधना और ध्यान कितने समय तक करते हैं ? महत्व इसी का है, मात्र उसकी चर्चा या प्रशंसा का नहीं | भगवान को प्रेम करना सबसे अधिक बुद्धिमानी का कार्य है, और भगवान को समर्पित हो जाना सबसे बड़ी सफलता है | यदि किसी के सामने मिठाई रखी हो तो बुद्धिमानी उसकी विवेचना करने में है या उसको खाने में ? मैं सोचता हूँ कि बुद्धिमान उसे खा कर प्रसन्न होगा और विवेचक उसकी विवेचना ही करता रह जाएगा कि इसमें कितनी चीनी है, कितना दूध है, कितना मेवा है, किस विधि से बनाया और इसके क्या हानि लाभ हैं -- आदि आदि| वैसे ही भगवान भी एक रस है| उसे चखो, उसका स्वाद लो, और उसके रस में डूब जाओ| इसी में सार्थकता और आनंद है| उसकी विवेचना मात्र से शायद ही कोई लाभ हो|
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हम कितनी देर तक प्रार्थना करते हैं या ध्यान करते हैं ? अंततः महत्व इसी का है| ध्यान और प्रार्थना के समय मन कहाँ रहता है ? यदि मन चारों दिशाओं में सर्वत्र घूमता रहता है तो ऐसी प्रार्थना किसी काम की नहीं है| हमें ध्यान की गहराई में जाना ही पड़ेगा और हर समय भगवान का स्मरण भी करना ही पड़ेगा| हम छोटी मोटी गपशप में, अखवार पढने में और मनोरंजन में घंटों तक का समय नष्ट कर देते हैं, पर भगवान का नाम पाँच मिनट भी भारी लगने लगता है| चौबीस घंटे का दसवाँ भाग यानि कम से कम लगभग अढाई तीन घंटे तो नित्य हमें ध्यान करना ही चाहिए|
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जब हम अग्नि के समक्ष बैठते हैं तो ताप की अनुभूति होती ही है वैसे ही परमात्मा के समक्ष बैठने से उनका अनुग्रह भी मिलता ही है| प्रभु के समक्ष हमारे सारे दोष भस्म हो जाते हैं| ध्यान साधना से सम्पूर्ण परिवर्तन आ सकता है| जब एक बार निश्चय कर लिया कि मुझे परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए तो भगवान आ ही जाते है ---- यह आश्वासन शास्त्रों में भगवान ने स्वयं ही दिया है| जब ह्रदय में अहैतुकी परम प्रेम और निष्ठा होती है तब भगवान मार्गदर्शन भी स्वयं ही करते हैं| पात्रता होने पर सद्गुरु का आविर्भाव भी स्वतः ही होता है|
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अपने प्रेमास्पद का ध्यान निरंतर तेलधारा के सामान होना चाहिए| प्रेम हो तो आगे का सारा ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है और आगे के सारे द्वार स्वतः ही खुल जाते हैं| इस सृष्टि में निःशुल्क कुछ भी नहीं है| हर चीज की कीमत चुकानी पडती है|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन ! आप सब की जय हो |
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हम भगवान की आराधना और ध्यान कितने समय तक करते हैं ? महत्व इसी का है, मात्र उसकी चर्चा या प्रशंसा का नहीं | भगवान को प्रेम करना सबसे अधिक बुद्धिमानी का कार्य है, और भगवान को समर्पित हो जाना सबसे बड़ी सफलता है | यदि किसी के सामने मिठाई रखी हो तो बुद्धिमानी उसकी विवेचना करने में है या उसको खाने में ? मैं सोचता हूँ कि बुद्धिमान उसे खा कर प्रसन्न होगा और विवेचक उसकी विवेचना ही करता रह जाएगा कि इसमें कितनी चीनी है, कितना दूध है, कितना मेवा है, किस विधि से बनाया और इसके क्या हानि लाभ हैं -- आदि आदि| वैसे ही भगवान भी एक रस है| उसे चखो, उसका स्वाद लो, और उसके रस में डूब जाओ| इसी में सार्थकता और आनंद है| उसकी विवेचना मात्र से शायद ही कोई लाभ हो|
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हम कितनी देर तक प्रार्थना करते हैं या ध्यान करते हैं ? अंततः महत्व इसी का है| ध्यान और प्रार्थना के समय मन कहाँ रहता है ? यदि मन चारों दिशाओं में सर्वत्र घूमता रहता है तो ऐसी प्रार्थना किसी काम की नहीं है| हमें ध्यान की गहराई में जाना ही पड़ेगा और हर समय भगवान का स्मरण भी करना ही पड़ेगा| हम छोटी मोटी गपशप में, अखवार पढने में और मनोरंजन में घंटों तक का समय नष्ट कर देते हैं, पर भगवान का नाम पाँच मिनट भी भारी लगने लगता है| चौबीस घंटे का दसवाँ भाग यानि कम से कम लगभग अढाई तीन घंटे तो नित्य हमें ध्यान करना ही चाहिए|
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जब हम अग्नि के समक्ष बैठते हैं तो ताप की अनुभूति होती ही है वैसे ही परमात्मा के समक्ष बैठने से उनका अनुग्रह भी मिलता ही है| प्रभु के समक्ष हमारे सारे दोष भस्म हो जाते हैं| ध्यान साधना से सम्पूर्ण परिवर्तन आ सकता है| जब एक बार निश्चय कर लिया कि मुझे परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए तो भगवान आ ही जाते है ---- यह आश्वासन शास्त्रों में भगवान ने स्वयं ही दिया है| जब ह्रदय में अहैतुकी परम प्रेम और निष्ठा होती है तब भगवान मार्गदर्शन भी स्वयं ही करते हैं| पात्रता होने पर सद्गुरु का आविर्भाव भी स्वतः ही होता है|
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अपने प्रेमास्पद का ध्यान निरंतर तेलधारा के सामान होना चाहिए| प्रेम हो तो आगे का सारा ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है और आगे के सारे द्वार स्वतः ही खुल जाते हैं| इस सृष्टि में निःशुल्क कुछ भी नहीं है| हर चीज की कीमत चुकानी पडती है|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन ! आप सब की जय हो |
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
२८ अप्रेल, २०१५
कृपाशंकर
२८ अप्रेल, २०१५