Saturday, 16 September 2017

रूस-जापान का युद्ध और भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर उसका प्रभाव ......

रूस-जापान का युद्ध और भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर उसका प्रभाव ......
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अंग्रेजों ने भारतीयों पर बहुत अधिक अत्याचार किये और भारतीयों को इतना अधिक आतंकित कर दिया था कि भारत के जनमानस में एक सामान्य धारणा बैठ गयी कि गोरी चमड़ी वाले योरोपियन लोग एक श्रेष्ठतर जाति के लोग हैं जिन्हें कभी पराजित नहीं किया जा सकता| पर सन १९०५ ई.में मंचूरिया पर हुए एक युद्ध में जापान ने रूस को पूरी तरह से पराजित कर दिया था, जिससे भारतीयों में यह आत्म-विश्वास जागृत हुआ कि जब जापान जैसा एक एशियाई देश रूस जैसे महा शक्तिशाली देश को हरा सकता है तो हम भारतीय भी ब्रिटेन को पराजित कर सकते हैं| इस से भारतीय क्रांतिकारियों को बल मिला और उन्होंने एक नई ऊर्जा और उत्साह से भारत में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को बढ़ाकर अंग्रेजों के ह्रदय भय से भर दिए|
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कभी मुझे समय मिलेगा तो भूमध्य सागर में फ़्रांस और ब्रिटेन की नौसेनाओं के बीच हुए एक भयानक युद्ध के बारे में भी लिखूँगा जिसमें अपनी एक ज़रा सी गलत सोच के कारण फ्रांस लगभग जीता हुआ युद्ध हार गया था| उस युद्ध में ब्रिटेन की जीत ने भारत में अंग्रेजी शासन को पक्का कर दिया| उस युद्ध में अगर फ्रांस जीतता तो वह भारत पर से अंग्रेजों के अधिकार को छीनकर अपना राज्य स्थापित कर लेता|
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यहाँ बात जापान रूस के बीच हुए युद्ध के बारे में है| समयाभाव के कारण मैं विस्तार से उसका वर्णन करने में असमर्थ हूँ| पर यह बात मेरे पाठकों को बता देना चाहता हूँ कि रूस में हुई बोल्शेविक क्रान्ति की नीव यहीं से पड़ी| रूसी बोल्शेविक क्रांति कोई सर्वहारा की क्रांति नहीं थी, एक सैनिक विद्रोह था जो वोल्गा नदी में खड़े एक नौसैनिक जहाज "अवरौरा" से आरंभ हुआ| जो विद्रोही सैनिक बहुमत में थे वे बोल्शेविक कहलाए, और जो अल्पमत में वहाँ के रूसी शासक जार के पक्ष में थे वे मेन्शेविक कहलाए| इन दोनों पक्षों में गृहयुद्ध हुआ| बोल्शेविक सिपाहियों का कोई नेता नहीं था| अतः पेरिस में निर्वासित जीवन बिता रहा व्लादीमीर इलिविच लेनिन जर्मनी की मदद से चोरी-छिपे रूस में आया और इस सैनिक विद्रोह का नेता बन गया, और इस विद्रोह को सर्वहारा की क्रांति का रूप देकर मार्क्सवादी साम्यवादी सता स्थापित कर दी| कभी समय मिला तो इस विषय पर भी लिखूंगा|
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अभी तो आध्यामिक लेख ही ठाकुर जी लिखवा रहे हैं| ॐ तत्सत | ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्चः : --- चीन में भी साम्यवादी सत्ता माओ के लॉन्ग मार्च से नहीं, बल्कि स्टालिन की सेना के टैंकों की सहायता से से आई थी जिसे मार्क्सवादी इतिहासकारों ने छिपाया है| सारी साम्यवादी सत्ताएँ धोखे और छल-कपट से आईं और अपने पीछे एक भयानकतम विनाश लीला छोड़ गईं|

चीन और जापान सदा पारंपरिक शत्रु रहे हैं .....

चीन और जापान सदा पारंपरिक शत्रु रहे हैं .....
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चीनी शासकों की सदा जापान विजय की इच्छा रही पर वे कभी सफल नहीं हो पाए| पिछले एक हज़ार वर्षों में अंग्रेज़ी साम्राज्य से पूर्व इस पृथ्वी पर सबसे अधिक शक्तिशाली और पराक्रमी राजा कुबलई ख़ान (Хубилай хаан) (忽必烈) (२३ सितम्बर १२१५ – १८ फ़रवरी १२९४) हुआ है जो मंगोल साम्राज्य का पाँचवा ख़ागान (सबसे बड़ा ख़ान शासक) चीन का शासक था| वह बौद्ध धर्म को मानता था| उसने सन १२६० से १२९४ ई.तक शासन किया| वह युआन वंश का संस्थापक था| उसका राज्य उत्तर में साइबेरिया से लेकर दक्षिण में विएतनाम और अफगानिस्तान तक, और पूर्व में कोरिया से लेकर पश्चिम में कश्यप सागर तक था| महाभारत के समय के बाद से इतने बड़े भूभाग पर राज्य अंग्रेजों से पूर्व किसी ने भी नहीं किया था| वह पृथ्वी के २०% भूभाग का स्वामी था| उसी के समय चीनी लिपि का आविष्कार हुआ था| मार्को पोलो भी उसी के समय चीन गया था| उसके समय से पहले ही बौद्ध धर्म चीन और जापान का राजधर्म हो गया था|
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कुबलई खान की सबसे बड़ी इच्छा थी जापान पर विजय करने की जिसे उसके पूर्वज नहीं कर पाए थे| मंगोल जाति अत्यधिक क्रूर थी| वह जापान के द्वीपों पर आकमण करती और जापानी महिलाओं पर तो बहुत क्रूरता बरतती| सन १२७४ ई में उसने जापान पर पहला आक्रमण किया जो सफल नहीं हुआ| मंगोल सेना के घुड़सवारों के मार्ग में जापानियों ने खूब खाइयाँ खोद दीं जिस से वे आगे न बढ़ सकें, और खूब कुशलता से जापानियों ने युद्ध किया| चीनी मंगोल सेना विफल रही और लौट गयी|
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फिर उसने सन १२८१ ई.में जापान पर सबसे बड़ा आक्रमण किया | हजारों नौकाओं में लाखों सैनिक और हज़ारों घोड़े लाद कर के उसकी सेना दो स्थानों से समुद्री मार्ग से जापान की ओर बढ़ी .... एक तो कोरिया से और दूसरी चीन की मुख्य भूमि से| इस विशाल सेना को कोई भी नहीं रोक सकता था| पर जब तक वो सेना जापान सागर में जापान तट पर पहुँचती उससे पूर्व ही एक भयानक समुद्री तूफ़ान आया और कुबलई खान का सारा बेड़ा लाखों सैनिकों, हज़ारो घोड़ों और हज़ारो नौकाओं के साथ समुद्र में गर्क हो गया| यहाँ से चीन में मंगोल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया| जापान में समुद्री तूफानों को पवित्र वायु मानते हैं क्योंकि उन्होंने जापान की विदेशी आक्रमणकारियों से सदा रक्षा की है|
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इसके बाद भी चीन के सभी शासकों की इच्छा रही जापान को विजित करने की पर कर नहीं पाए| द्वितीय विश्व युद्ध में जापान ने चीन पर अधिकार कर लिया था| जापानी तो मंगोलों से भी अधिक क्रूर निकले| उन्होंने चीन में बहुत अधिक क्रूर और निर्मम अत्याचार किये| जापानियों ने चीन में ही नहीं, कोरिया, विएतनाम मलय प्रायद्वीप, बर्मा व अंडमान-निकोबार में भी सभी जगह बड़े क्रूर अत्याचार किये| अन्य देशों ने तो जापान को क्षमा कर दिया पर चीन और उत्तरी कोरिया ने नहीं| चीन जापान का हर अवसर पर और हर स्थान पर विरोध करता है| वह कैदियों से मुफ्त में सामान बनवाकर इतना सस्ता बेचता है सिर्फ जापान की अर्थव्यवस्था को हानि पहुँचाने के लिए|
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भारत और जापान का समीप आना भी चीन को बुरा लग रहा है जापान से द्वेष के कारण| अगले पंद्रह-बीस वर्षों तक तो चीन और जापान मित्र नहीं बन सकेंगे| भविष्य की कोई कह नहीं सकता| पर चीन की काट के लिए भारत की जापान के साथ मित्रता बड़ी आवश्यक है|


१५ सितम्बर २०१७

प्रभु को आना ही पड़ेगा .....

प्रभु को आना ही पड़ेगा .....
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वेदांत की दृष्टी से तो एकमात्र "मैं" ही हूँ, मेरे अतिरिक्त दूसरा कोई अन्य नहीं है | सब प्राणी मेरे ही प्रतिविम्ब हैं | मैं विभिन्न रूपों में स्वयं से ही मिलता रहता हूँ | मैं द्वैत भी हूँ और अद्वैत भी, मैं साकार भी हूँ और निराकार भी, एकमात्र अस्तित्व मेरा ही है | सोहं, ॐ ॐ ॐ मैं ही हूँ | मैं ही परमशिव हूँ और मैं ही परमब्रह्म हूँ, मैं यह देह नहीं हूँ |
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परमात्मा प्रदत्त विवेक हम सब को प्राप्त है | उस विवेक के प्रकाश में ही उचित निर्णय लेकर सारे कार्य करने चाहिएँ | वह विवेक ही हमें एक-दुसरे की पहिचान कराएगा और यह विवेक ही बताएगा कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं |
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परमात्मा के संकल्प से सृष्टि बनी है अतः वे सब कर्मफलों से परे हैं | अपनी संतानों के माध्यम से वे ही उनके फलों को भी भुगत रहे हैं | हम कर्म फलों को भोगने के लिए अपने अहंकार और ममत्व के कारण ही बाध्य हैं | माया के बंधन शाश्वत नहीं हैं, उनकी कृपा से एक न एक दिन वे भी टूट जायेंगे | वे आशुतोष हैं, प्रेम और कृपा करना उनका स्वभाव है | वे अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकते |
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परमात्मा के पास सब कुछ है पर एक ही चीज की कमी है, जिसके लिए वे भी सदा तरसते हैं, और वह है ..... "हमारा प्रेम" | उन्हें प्रसन्नता भी तभी होती है जब उन्हें हमारा परम प्रेम मिलता है | कभी न कभी तो हमारे प्रेम में भी पूर्णता आ ही जाएगी, और कृपा कर के हमसे वे हमारा समर्पण भी करवा लेंगे |
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कोई भी पिता अपने पुत्र के बिना सुखी नहीं रह सकता | जितनी पीड़ा मुझे परमात्मा से वियोग की है, उससे अधिक पीड़ा परमात्मा को मुझसे वियोग की है | वे भी मेरे बिना नहीं रह सकते | एक न एक दिन तो वे आयेंगे ही, अवश्य आयेंगे, उन्होंने मुझे जहाँ भी रखा है, वहीं उन्हें आना ही पड़ेगा | मैं कहीं भी नहीं जाऊँगा | मुझे उनके दिए जीवन से पूर्ण संतुष्टि और तृप्ति है |
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कोई प्रार्थना नहीं है, सब प्रार्थनाएँ व्यर्थ हैं | क्या अपने माँ-बाप से मिलने के लिए भी कोई प्रार्थना करनी पडती है ? अब तो प्रार्थना करना फालतू सी बात लगती है | यह तो मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है | मेरी न कोई माँग है और न ही कोई प्रार्थना | जो मैं हूँ सो हूँ, यह मेरा स्वभाव है |
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तत्वमसि | सोहं | अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||

१५ सितम्बर २०१७