Thursday, 20 December 2018

भगवान तो अनंत हैं, वे इस छोटे से हृदय में कैसे समा सकते हैं?

भगवान तो अनंत हैं, वे इस छोटे से हृदय में कैसे समा सकते हैं?
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भगवान अनंत हैं, वे इस छोटे से भौतिक हृदय में नहीं समा सकते| ये आँखें तो हृदय से भी छोटी हैं जो उनकी सीमित अनंतता को ही देख पा रही हैं| इस भौतिक दृष्टी की एक सीमा है, दृश्य तो अनंत है| पर जिनसे यह सम्पूर्ण सृष्टि आच्छादित है, वे वासुदेव ही सर्वस्व हैं| उनकी अनंतता ही मेरा ह्रदय है| उनका अस्तित्व ही मेरा अस्तित्व है, जो वे हैं वह ही मैं हूँ| उनसे पृथक अन्य कुछ भी नहीं है| वे असीम हैं, उन्हें किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता| स्कन्दपुराण में वे स्वयं ही स्वयं को नमन कर रहे हैं ....
नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमोनमः | अहं त्वं त्वमहं सर्वं जगदेतच्चराचरम् ||
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गीता में वे कहते हैं .....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||
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वे अंतर्रात्मा परमात्वतत्व वासुदेव ही सर्वस्व हैं| सम्पूर्ण सृष्टि उन्हीं की स्वतन्त्र सत्ता है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० दिसंबर २०१८

ब्राह्मी स्थिति क्या है ?.....

ब्राह्मी स्थिति क्या है ?.....
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मी स्थिति के बारे में कहते हैं ....
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||
अर्थात् हे पार्थ, यह ब्राह्मी स्थिति है जिसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता| अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है||
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यह अवस्था ब्रह्म में होनेवाली स्थिति है| यह सर्व कर्मों का संन्यास कर के केवल ब्रह्मरूप से स्थित हो जाना है| इस स्थिति को पाकर मनुष्य फिर मोहको प्राप्त नहीं होता| इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर मनुष्य ब्रह्म में लीनता रूप मोक्ष का लाभ प्राप्त करता है| अब प्रश्न यह है कि यह स्थिति कैसे प्राप्त हो सकती है? इस पर विचार करें| योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी के अनुसार यह क्रिया की परावस्था है| मेरे विचार से यह कूटस्थ चैतन्य से भी उच्चतर स्थिति है| यही हमारा लक्ष्य होना चाहिए |


ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ दिसंबर २०१८
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पुनश्चः ---- इस से पूर्व भगवान ने कहा है जिस पर भी विचार करें ......
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ (७०)
भावार्थ : जिस प्रकार अनेकों नदियाँ सभी ओर से परिपूर्ण, दृड़-प्रतिष्ठा वाले समुद्र में समुद्र को विचलित किए बिना ही समा जाती हैं, उसी प्रकार सभी इच्छायें स्थित-प्रज्ञ मनुष्य में बिना विकार उत्पन्न किए ही समा जाती हैं, वही मनुष्य परम-शान्ति को प्राप्त होता है, न कि इन्द्रिय सुख चाहने वाला। (२:७०)

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ (२:७१)
भावार्थ : जो मनुष्य समस्त भौतिक कामनाओं का परित्याग कर इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-रहित रहता है, वही परम-शांति को प्राप्त कर सकता है। (२:७१)