Saturday, 7 December 2024

सनातन-धर्म के अतिरिक्त, अन्य मतों में आध्यात्म नहीं है ---

सनातन-धर्म के अतिरिक्त, अन्य मतों में आध्यात्म नहीं है। पहले देवों और असुरों में आपस में युद्ध होते थे। कभी देवता प्रबल हो जाते थे, कभी असुर। यह सृष्टि अंधकार और प्रकाश से बनी है। सृष्टि को चलाने के लिए दोनों आवश्यक हैं। कभी अंधकार प्रबल हो जाता है, कभी प्रकाश।

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आप अपने विवेक से निर्णय कीजिये कि सत्य और असत्य क्या हैं। सत्य को जानने की प्रबल शाश्वत जिज्ञासा ही धर्म है। भगवान ही एकमात्र सत्य हैं।
ऐसे ही धर्म और अधर्म क्या है? इस पर भी विचार कीजिये। जो हमें भगवान का साक्षात्कार करवा दे, वही धर्म है। जो हमें भगवान से दूर ले जाये वह अधर्म है।
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जो अधर्म हैं, वे एक आसुरी शक्ति के द्वारा चलाये जा रहे हैं, भगवान के द्वारा नहीं। एक असुर है जो असत्य का संचालन कर रहा है। उस असुर का होना भी सृष्टि संचालन के लिए आवश्यक है, लेकिन उसकी प्रबलता न्यूनतम हो।
इस प्रश्न पर विचार कीजिये कि मैं कौन हूँ? उस वास्तविक "मैं" की खोज ही भगवान की खोज है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
७ दिसंबर २०२३

असुरों का शिकार होने से बचें ---

 असुरों का शिकार होने से बचें ---

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सूक्ष्म-जगत में एक आसुरी सत्ता है जो संसार में अपने शिकार ढूंढ़ती रहती है। इसके शिकार सबसे पहिले अहंकारी और आत्म-मुग्ध व्यक्ति होते हैं। ऐसे लोग बहुत शीघ्र स्वयं असुर बन जाते हैं और दूसरों को भी बहुत अधिक हानि पहुंचाते हैं। ऐसे लोगों का मैं नाम नहीं लूँगा क्योंकि इससे मुझे बहुत अधिक हानि हो सकती है, कोई लाभ नहीं। ऐसे लोगों का नाम लेना भी उनको निमंत्रित करना है।
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आत्म मुग्धता (नार्सिसिस्ट पर्सनैलिटी डिसऑर्डर) -- एक मनोरोग और बहुत घातक मानसिक भटकाव है जो हमारी आध्यात्मिक साधना को तुरंत उसी समय बिल्कुल समाप्त कर देता है। इतना ही नहीं यह हमारे से मिलने-जुलने वाले लोगों को एक बार तो प्रभावित करता है, लेकिन बाद में उन को भी बहुत अधिक हानि पहुंचाता है।
आत्म-मुग्ध व्यक्ति की पहिचान यह है कि वह प्रशंसा का बहुत अधिक भूखा होता है, और स्वयं की बहुत अधिक प्रशंसा करता है। उसके लिए दूसरे सब व्यक्ति महत्वहीन होते हैं, और वह स्वयं सब से अधिक महत्वपूर्ण होता है।
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हमारे मन की पाँच अवस्थाएँ होती हैं -- क्षिप्त (विचलित), मूढ़ (सुस्त), विक्षिप्त (आंशिक रूप से केंद्रित), एकाग्र (एक-केंद्रित), और निरुद्ध (पूरी तरह से नियंत्रित)।
जो क्षिप्त, मूढ़ और विक्षिप्त होते हैं, उनसे आसुरी सत्ता बहुत प्रसन्न रहती है, दैवीय सत्ता नहीं। ऐसे लोगों के लिए आध्यात्मिक साधनाएं वर्जित हैं। ऐसे लोग ध्यान साधना न करें। अन्यथा वे असुरों का शिकार हो जाएँगे।
आध्यात्मिक साधना उन्हीं के लिए होती है जो एकाग्र और निरुद्ध होते हैं। इसी लिए योग सूत्रों में यम-नियमों पर इतना ज़ोर दिया गया है।
विस्तारभय से मैं इस विषय पर अधिक नहीं लिखना चाहता। समझदार को एक संकेत ही बहुत है। इस विषय पर अनेक दार्शनिकों ने बहुत कुछ लिखा है। ढूँढने से ऐसा साहित्य भी खूब मिल जाएगा। अन्यथा किसी ब्रहमनिष्ठ संत-महात्मा से मार्ग-दर्शन प्राप्त करें।
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ दिसंबर २०२३

मेरा अभ्युदय और निःश्रेयस ही सारी सृष्टि का अभ्युदय और निःश्रेयस है ---

धर्म और राष्ट्र के उत्थान हेतु प्रत्येक सच्चे भारतीय को परमात्मा पर ध्यान के द्वारा अपनी दीनता और हीनता का परित्याग कर अपने निज देवत्व को जागृत करना होगा। हम अपनी क्षुद्रात्मा पर परिछिन्न माया के आवरण को साधना द्वारा हटा कर संकल्प करें कि ध्यान-साधना में अनुभूत ज्योतिर्मय नाद-ब्रह्म रूपी सर्वव्यापी कूटस्थ सूर्य मैं ही हूँ, जिसका पूर्ण प्रकाश, ज्योतियों की ज्योति - ज्योतिषांज्योति है। मेरे ही संकल्प से सम्पूर्ण संसार का विस्तार हुआ है। जब मैं सांस लेता हूँ तो सारा ब्रह्मांड साँस लेता है, जब मैं साँस छोड़ता हूँ, तब सम्पूर्ण ब्रह्मांड साँस छोड़ता है। मेरा अभ्युदय और निःश्रेयस ही सारी सृष्टि का अभ्युदय और निःश्रेयस है। परमात्मा की अनंतता और उससे परे जो कुछ भी है, वह मैं ही हूँ, यह नश्वर देह नहीं। मेरे से परे कुछ भी नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ दिसंबर २०२१