Friday, 12 August 2016

विचारपूर्वक दृढ़ निश्चय से किया हुआ हिन्दू राष्ट्र का हमारा संकल्प अवश्य पूर्ण होगा ... .....

विचारपूर्वक दृढ़ निश्चय से किया हुआ हिन्दू राष्ट्र का हमारा संकल्प अवश्य पूर्ण होगा ... .....
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एक व्यक्ति का दृढ़ संकल्प भी विश्व के घटना क्रम और विचारों को बदल सकता है| अनेक व्यक्तियों का शिव संकल्प राष्ट्र की नियति बदल सकता है|
अपने संकल्प को ईश्वर के संकल्प से जोड़कर हम भारतवर्ष को परम वैभव के साथ अखंड हिन्दू राष्ट्र भी बना सकते हैं और रामराज्य की स्थापना भी कर सकते हैं|
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भारत की आत्मा आध्यात्मिक है| भारत का पुनरोत्थान एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति से होगा| इसके लिए हम सब सब की सहभागिता अपेक्षित है| अब समय आ गया है| यह कार्य आरम्भ हो चुका है| हम सब इस संकल्प से जुड़ें और परम वैभव युक्त आध्यात्मिक अखंड भारत का ध्यान अपनी चेतना में सदैव करें| भारत पुनश्च अखंड होगा और धर्म की पुनर्स्थापना होगी| अज्ञान और असत्य का अन्धकार दूर होगा और भारत माँ अपने परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर विराजमान होगी|
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हमें सब सिद्धियाँ भी चाहिएँ, देवत्व भी चाहिए, दिव्यास्त्र भी चाहिएँ और समस्त शक्तियाँ भी चाहिएँ| अपने अहम् के लिए नहीं, राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए इन सब का होना अति आवश्यक है| न तो हमें मोक्ष की कामना है और न मुक्ति की| ईश्वर की आराधना भी हम सिर्फ धर्म और राष्ट्र के लिए करते हैं|
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जीवन में संकल्पों का बहुत महत्व है| हमारे द्धारा लिए गये संकल्प हमारी इच्छाशक्ति और जीवन सिद्धांतों के प्रति दृढता को प्रतिबिंबित करते हैं| संकल्प हमारे मन को बांधने का कार्य करते हैं| उसे दिशाहीनता से बचाते हैं| मन में आए दिन अनगिनत इच्छाएं पैदा होती हैं| अक्सर हर तरह विचार बिना दस्तक दिए ही भीतर चले आते हैं| ऐसे में ज्ञान और नियमों के सहारे सही मार्ग को चुनने की आवश्यकता होती है जो बिना संकल्प लिए नहीं किया जा सकता| संकल्प कुछ भी हो सकता है, कैसा भी हो सकता है, मौन रहने का संकल्प....... सुबह जल्दी उठ जाने का संकल्प....... किसी बुरी आदत या लत से मुक्ति पाने का संकल्प........ स्वस्थ जीवन शैली अपनाने का संकल्प........ या फिर अपनी दिनचर्या व्यवस्थित रखने का संकल्प..........! संकल्प कोई भी हो उसे निभाने के लिए एक संघर्ष करना पङता है| खुद से लड़ना पड़ता है|
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मुझे तो कभी कभी यह भी महसूस होता है कि अपने आप से लड़ना सबसे मुश्किल है| शायद यही कारण है कि खुद से द्वंद्व करते समय हमारा मन किसी संकल्प के टूट जाने की स्थिति में कई सारे विकल्प हमारे सामने ले आता है| विशेष बात यह भी है कि इन परिस्थितियों में हमारा अंर्तमन हमें उलाहना भी नहीं देता| आज हमारा जीवन कुछ ऐसा बन गया है कि ही जैसे ही संकल्प लेने की सोचते हैं उससे जुड़े विकल्पों तक मन-मस्तिष्क पहले पहुंच जाता है|
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संकल्‍प एक विचार है, जब तक चित्‍त एकाग्र नहीं होता तब तक कोई संकल्‍प साकार नहीं होता| जिधर संकल्‍प जाता है उधर प्राण चेतना स्‍वत: सक्रिय हो जाती है| संकल्‍प के घर्षण से प्राण में एक प्रकार का विद्युतीय प्रवाह उत्‍पन्‍न होता है जो लक्ष्‍य बिंदु पर केन्द्रित होकर व्‍यक्ति की मनोकामना पूर्ण करता है|
हमारा संकल्‍प हमारा शत्रु भी है और हमारा मित्र भी|
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विचारपूर्वक दृढ़ निश्चय से हमारा संकल्प हो --- अखंड भारत हिन्दू राष्ट्र|
लोग मेरी बात पर हंसते हैं की ऐसा नहीं हो सकता| पर मुझे पता है की एक दिन ऐसा निश्चित होगा| हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपू, रावण और कंस, व यवनों और अंग्रेजों का शासन भी रहा है जिसमे किसी ने कल्पना भी नहीं की थी इन से मुक्ति मिल भी सकती है क्या|
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विगत दो शताब्दियों में अनेक चमत्कार हुए हैं जिनकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी .......
(1) सन १९०५ में रूस की जापान द्वारा पराजय और मंचूरिया का पतन,
(2) तुर्की में खिलाफत का अंत और ओटोमन साम्राज्य का विघटन,
(3) बोल्शेविक क्रांति,
(4) जर्मनी की पराजय,
(5) ब्रिटिश साम्राज्य का पतन और विघटन,
(6) बंगला देश का जन्म,
(7) सोवियत रूस का विघटन और साम्यवाद का पतन .....
...... आदि आदि अनेक ऐसी घटनाएं हुई हैं जो किसी चमत्कार से कम नहीं थीं| कल को कुछ भी हो सकता है| वर्त्तमान सभ्यता वैसे भी विनाश के कगार पर है| आसुरी भाव जैसे जैसे बढ़ रहे हैं विनाशकाल सनीप आता जा रहा है जो अवश्यम्भावी है| उसके बाद हिन्दू राष्ट्र का निर्माण निश्चित रूप से होगा|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

अंततः हम अपने आप को क्या अकेला ही पाते हैं ? .....

अंततः हम अपने आप को क्या अकेला ही पाते हैं ? ......
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अकेलेपन से बचने के लिए हम पता नहीं कितनी ही क्लबों में, गोष्ठियों में, मित्रमंडलियों में, पार्टियों में और बाहर की दुनियाँ में जाते हैं, पर अंततः अकेलेपन से बच नहीं सकते|
एक समय आता है जब हमारे प्रिय विश्व के लिए हम उपयोगी नहीं रह जाते और हमारे प्रियजन ही हम से किनारा करने लगते हैं| जहाँ कभी हमारी उपस्थिति मात्र से ही रौनक आ जाती थी, हमें देखकर सबके बुझे हुए चहरे खिल उठते थे, वहीं पाते हैं कि हम महत्वहीन हो गए हैं और किसी की भी रूचि हमारे में नहीं है|
यह बहुत अधिक निराशा का क्षण होता है जिससे बचने के लोग नशा करने लगते हैं| पर वहाँ भी अकेलापन मनुष्य को और भी अधिक दुखी करने लगता है| टेलिविज़न, इन्टरनेट, ताश-पत्ते आदि से भी लोग अंततः कुंठित ही हो जाते हैं| अपने ही बच्चों की और उम्र में अपने से छोटे सम्बन्धियों की उपेक्षा से आहत होकर व्यक्ति मृत्यु की कामना करने लगता है| पर क्या मृत्यु भी अकेलेपन को समाप्त कर सकती है?
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इस अकेलेपण की पीड़ा मैंने भारत में ही नहीं विश्व के अनेक भागों में देखी हैं .... विश्व के समृद्धतम देशों के प्रवासी भारतीयों में भी, और वहाँ के स्थानीय निवासियों में भी| पूर्व साम्यवादी देशों में तो यह पीड़ा बहुत अधिक मैंने देखी है|
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लगता है यह संसार एक पाठशाला है जहाँ एक ही पाठ निरंतर पढ़ाया जा रहा है| कुछ लोग इसे शीघ्र सीख लेते हैं, कुछ देरी से और कुछ लोग अनेक जन्मों में जाकर सीखते हैं| जो लोग इस पाठ को नहीं सीखते हैं वे इसे सीखने के लिए बाध्य कर दिए जाते हैं| यह नीरसता की पीड़ा भी वह पाठ सीखने की ही बाध्यता है| इस संसार में हम सुख ढूंढते हैं, पर निराशा ही हाथ लगती है| हम किसी का साथ चाहते हैं पर वह साथ नहीं मिलता|
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अत्यधिक निराशा के पश्चात सृष्टिकर्ता की परम कृपा से अंतत हम पाते हैं कि इस बाहरी संसार में कोई पूर्णता नहीं है| पूर्णता है तो सिर्फ आध्यात्म में| हमारा एक अदृष्य शाश्वत साथी है जो सदा हमारे साथ है| उस साथी से मित्रता कर के ही हमें पूर्णता का अहसास होता है| तब जीवन में कोई नीरसता नहीं रहती|
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आप सब मेरे प्रिय निजात्मगणों को शुभ कामनाएँ और पूर्ण हार्दिक प्यार |
ॐ नमःशिवाय | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ !!

स्वधर्म और परधर्म .....

स्वधर्म और परधर्म ......
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श्रेयान्स्वधर्मोविगुणः परधर्मान्स्पनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: ।।
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अच्‍छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से, गुणरहित भी, अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में मरना भी कल्याण्स्कारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।
प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजता, अपनी इडिविजुएलिटी है। प्रत्येक व्यक्ति का कुछ अपना निज है; वही उसकी आत्मा है। उस निजता में ही जीना आनंद है और उस निजता से च्युत हो जाना, भटक जाना ही दुख है।
कृष्ण के इस सूत्र में दो बातें कृष्ण ने कही हैं। एक, स्वधर्म में मर जाना भी श्रेयस्कर है। स्वधर्म में भूल-चूक से भटक जाना भी श्रेयस्कर है। स्वधर्म में असफल हो जाना भी श्रेयस्कर है, बजाय परधर्म में सफल हो जाने के।
स्वधर्म क्या है? और परधर्म क्या है? प्रत्येक व्यक्ति का स्वधर्म है। और किन्हीं दो व्यक्तियों का एक स्वधर्म नहीं है। पिता का धर्म भी बेटे का धर्म नहीं है। गुरु का धर्म भी शिष्य का धर्म नहीं है। यहां धर्म से अर्थ है, स्वभाव, प्रकृति, अंतःप्रकृति। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अंतःप्रकृति है, लेकिन है बीज की तरह बंद, अविकसित, पोटेंशियल है। और जब तक बीज अपने में बंद है, तब तक बेचैन है। जब तक बीज अपने में बंद है और खिल न सके, फूट न सके, अंकुर न बन सके, और फूल बनकर बिखर न सके जगत सत्ता में, तब तक बेचैनी रहेगी। जिस दिन बीज अंकुरित होकर वृक्ष बन जाता है, फूल खिल जाते हैं, उस दिन परमात्मा के चरणों में वह अपनी निजता को समर्पित कर देता है। फूल के खिले हुए होने में जो आनंद है, वैसा ही आनंद स्वयं में जो छिपा है, उसके खिलने में भी है। और परमात्मा के चरणों में एक ही नैवेद्य, एक ही फूल चढ़ाया जा सकता है, वह है स्वयं की निजता का खिला हुआ फूल—Flowering of individuality। और कुछ हमारे पास चढाने को भी नहीं है।
जब तक हमारे भीतर का फूल पूरी तरह न खिल पाए, तब तक हम संताप, दुख, बेचैनी, तनाव में जीएंगे। इसलिए जो व्यक्ति परधर्म को ओढ़ने की कोशिश करेगा, वह वैसी ही मुश्किल में पड़ जाएगा, जैसे चमेली का वृक्ष चंपा के फूल लाने की कोशिश में पड़ जाए। गुलाब का फूल कमल होने की कोशिश में पड़ जाए। और बेचैनी दोहरी होगी। एक तो गुलाब का फूल कमल का फूल कितना ही होना चाहे, हो नहीं सकता है; असफलता सुनिश्चित है। गुलाब का फूल कुछ भी चाहे, तो कमल का फूल नहीं हो सकता। न कमल का फूल कुछ चाहे, तो गुलाब का फूल हो सकता है। वह असंभव है। स्वभाव के प्रतिकूल होने की कोशिश भर हो सकती है, होना नहीं हो सकता।
गुलाब का फूल कमल का फूल होना चाहे, तो कमल का फूल तो कभी न हो सकेगा, इसलिए विफलता, फ्रस्ट्रेशन, हार, हीनता उसके मन में घूमती रहेगी। और दूसरी उससे भी बड़ी दुर्घटना घटेगी कि उसकी शक्ति कमल होने में नष्ट हो जाएगी और वह गुलाब भी कभी न हो सकेगा। क्योंकि गुलाब होने के लिए जो शक्ति चाहिए थी, वह कमल होने में लगी है। कमल हो नहीं सकता; गुलाब हो नहीं सकेगा, जो हो सकता था, क्योंकि शक्ति सीमित है। उचित है कि गुलाब का फूल गुलाब का फूल हो जाए। और गुलाब का फूल चाहे छोटा भी हो जाए, तो भी हर्ज नहीं। न हो बड़ा फूल कमल का, गुलाब का फूल छोटा भी हो जाए, तो भी हर्ज नहीं है। और अगर न भी हो पाए, गुलाब होने की कोशिश भी कर ले, तो भी एक तृप्ति है; कि जो मैं हो सकता था, उसके होने की मैंने पूरी कोशिश की। उस असफलता में भी एक सफलता है कि मैंने वह होने की पूरी कोशिश कर ली, कुछ बचा नहीं रखा था, कुछ छोड़ नहीं रखा था।
कृष्ण ने यहां बहुत बीज—मंत्र कहा है। अर्जुन को वे कह रहे हैं कि स्वधर्म में—जो तेरा धर्म हो उसकी तू खोज कर। पहले तू इसको खोज कि तू क्या हो सकता है। तू अभी दूसरी बातें मत खोज कि तेरे वह होने से क्या होगा। सबसे पहले तू यह खोज कि तू क्या हो सकता है। तू जो हो सकता है, उसका पहले निर्णय ले ले। और फिर वही होने में लग जा। और सारी चिंताओं को छोड़ दे। तो ही तू किसी दिन संतृप्ति के अंतिम मुकाम तक पहुंच सकता है।
परधर्म लुभाता है, क्योंकि परधर्म खिला हुआ दिखाई पड़ता है। स्वधर्म का पता नहीं चलता, क्योंकि वह भविष्य में है। परधर्म अभी है, पड़ोस में खिला है, वह आकर्षित करता है कि मैं भी ऐसा हो जाऊं।
साभार : स्व. श्री मिथिलेश द्विवेदी जी.

मेरी दृष्टी में 'स्वधर्म' और 'परधर्म' ......

मेरी दृष्टी में 'स्वधर्म' और 'परधर्म' .............
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'स्वधर्म' और 'परधर्म' का अर्थ जो मेरी अल्प और सीमित बुद्धि से समझ में आया है वह यहाँ लिख रहा हूँ| गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि 'स्वधर्म' में मरना श्रेयष्कर है और 'परधर्म' भयावह है| जब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं यह बात कह रहे हैं तब इसका अर्थ समझना हमारा परम धर्म है|
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'स्वधर्म' ......
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मनुष्य यह देह नहीं है अपितु एक शाश्वत आत्मा है| यहाँ 'स्व' का अर्थ 'आत्मा' ही हो सकता है| आत्मा का धर्म है ------ सच्चिदानंद की प्राप्ति|
मनुष्य की मौज-मस्ती में सुख की खोज, विषयों में सुख की खोज और अहंकार में सुख की खोज अप्रत्यक्ष रूप से सच्चिदानंद की ही खोज है| मनुष्य संसार में सुख खोजता है पर उसे दुःख और पीड़ा ही मिलती है| अंततः दुखी होकर या फिर हरिकृपा से वह स्थायी सुख यानि आनंद की खोज में परमात्मा की ओर ही उन्मुख होता है, वहीँ उसे भक्ति से सच्चिदानंद की प्राप्ति होती है|
= सच्चिदानंद का अर्थ है --- नित्य अस्तित्ववान, नित्य सचेतन और नित्य नवीन ---- आनन्द| =
सार रूप में कह सकते हैं कि भगवान की भक्ति जो भगवान की ओर ले जाए वह ही 'स्वधर्म' है| भगवान की भक्ति करते करते यानि भगवान को स्मरण करते करते मर जाना ही श्रेयष्कर है|
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परधर्म .........
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काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर्य, चुगली यानि द्वेषपूर्ण परनिंदा, परस्त्री व पराये धन की कामना ही 'परधर्म' है, जो मनुष्य को परमात्मा से दूर ले जाती है| इस की चेतना में मरने वाले को चौरासी का चक्कर एक भयावह दुश्चक्र में डाल देता है| भगवान से विमुख होना ही 'परधर्म' है|
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अतः 'स्वधर्म' में ही मरना कल्याणकारी है, ना कि परधर्म में| धन्यवाद |
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ॐ नमः शिवाय | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ

इस देश भारतवर्ष में रहने वाले सभी लोग हिन्दू ही हैं ..........

इस देश भारतवर्ष में रहने वाले सभी लोग हिन्दू ही हैं ..........
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हिंदुत्व ही इस देश की अस्मिता है| हिंदुत्व के बिना भारतवर्ष का कोई अस्तित्व ही नहीं है| यह शब्द सांस्कृतिक और राष्ट्रीयता का प्रतीक है|
विभिन्न मतों और पंथों के लोग हैं उनकी पूजा पद्धति पृथक पृथक हो सकती है पर राष्ट्रीयता सबकी हिन्दू ही है|

मैं कई बार सऊदी अरब और मिश्र जा चुका हूँ| वहां के वीजा में भी भारत से आने वालों की राष्ट्रीयता 'हिन्दू' ही लिखते हैं, इंडियन नहीं| पूर्वी योरोप और रूस में भारत से आने वालों को इन्दो या हिंदो ही लिखते हैं| मध्य एशिया के सभी मुस्लिम देशों में सभी भारतीयों को हिन्दू ही बोलते हैं|
फिर भारत में हमें हिन्दू कहलाने में स्वयं को अपमानित और शर्मिन्दा क्यों महसूस होना चाहिए?
जो स्वयं को हिन्दू होने पर शर्मिंदा हो वे अपना DNA टेस्ट कराएंगे तो वे भारतीय ही सिद्ध होंगे, ना कि अँगरेज़ या अरब| हिंदुत्व सभी पंथों और पूजा पद्धतियों का सम्मान करता है| अपने मत या पंथ से किसी के विचार ना मिलने से औरों का नरसंहार नहीं करता|
वर्तमान में इराक और सीरिया में रहने वाले शिया, ईसाई, और यज़ीदियों का बिना रहम के जिस तरह नरसंहार हो रहा है, उन्हें ज़िंदा दफ़न भी किया जा रहा है, और उनकी महिलाओं को सरेआम नीलाम किया वैसा हिन्दू कहलाने वालों ने तो कभी नहीं किया, जब कि उनके साथ ऐसा ही भारत से पृथक हुए भागों में किया गया|
सभी को शुभ कामनाएँ| सभी का कल्याण हो| जय जननी, जय भारत|
ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

वास्तविक स्नान ....

वास्तविक स्नान ....
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सामान्यतः हम अपनी देह को जल से स्वच्छ रखने को ही स्नान कहते हैं|
पर अपनी देह की स्वच्छता के साथ साथ अपने अंतःकरण यानि मन और बुद्धि को भी निर्मल रखना .... वास्तविक स्नान है| हिंसा, क्रोध और वासनात्मक विचार मन के मैल हैं|
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कभी भी अपने आप को असहाय ना समझें| हम परिस्थितियों के शिकार नहीं बल्कि उनके जन्मदाता हैं| जिन भी परिस्थितियों में हम हैं उनको हमने ही अपने भूतकाल में अपने विचारों और भावों से जन्म दिया है|
हमारा सबसे बड़ा भ्रम और हमारी सभी पीड़ाओं का कारण ...... परमात्मा से पृथकता की भावना है| यह भी एक विकार है, जिससे हमें मुक्त होना है|
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अपने अंतःकरण को हम परमात्मा के ध्यान द्वारा ही स्वच्छ रख सकते हैं| अतः परमात्मा की निरंतर उपासना ही वास्तविक स्नान है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||