Friday 12 August 2016

मेरी दृष्टी में 'स्वधर्म' और 'परधर्म' ......

मेरी दृष्टी में 'स्वधर्म' और 'परधर्म' .............
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'स्वधर्म' और 'परधर्म' का अर्थ जो मेरी अल्प और सीमित बुद्धि से समझ में आया है वह यहाँ लिख रहा हूँ| गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि 'स्वधर्म' में मरना श्रेयष्कर है और 'परधर्म' भयावह है| जब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं यह बात कह रहे हैं तब इसका अर्थ समझना हमारा परम धर्म है|
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'स्वधर्म' ......
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मनुष्य यह देह नहीं है अपितु एक शाश्वत आत्मा है| यहाँ 'स्व' का अर्थ 'आत्मा' ही हो सकता है| आत्मा का धर्म है ------ सच्चिदानंद की प्राप्ति|
मनुष्य की मौज-मस्ती में सुख की खोज, विषयों में सुख की खोज और अहंकार में सुख की खोज अप्रत्यक्ष रूप से सच्चिदानंद की ही खोज है| मनुष्य संसार में सुख खोजता है पर उसे दुःख और पीड़ा ही मिलती है| अंततः दुखी होकर या फिर हरिकृपा से वह स्थायी सुख यानि आनंद की खोज में परमात्मा की ओर ही उन्मुख होता है, वहीँ उसे भक्ति से सच्चिदानंद की प्राप्ति होती है|
= सच्चिदानंद का अर्थ है --- नित्य अस्तित्ववान, नित्य सचेतन और नित्य नवीन ---- आनन्द| =
सार रूप में कह सकते हैं कि भगवान की भक्ति जो भगवान की ओर ले जाए वह ही 'स्वधर्म' है| भगवान की भक्ति करते करते यानि भगवान को स्मरण करते करते मर जाना ही श्रेयष्कर है|
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परधर्म .........
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काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर्य, चुगली यानि द्वेषपूर्ण परनिंदा, परस्त्री व पराये धन की कामना ही 'परधर्म' है, जो मनुष्य को परमात्मा से दूर ले जाती है| इस की चेतना में मरने वाले को चौरासी का चक्कर एक भयावह दुश्चक्र में डाल देता है| भगवान से विमुख होना ही 'परधर्म' है|
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अतः 'स्वधर्म' में ही मरना कल्याणकारी है, ना कि परधर्म में| धन्यवाद |
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ॐ नमः शिवाय | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ

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