Friday 12 August 2016

अंततः हम अपने आप को क्या अकेला ही पाते हैं ? .....

अंततः हम अपने आप को क्या अकेला ही पाते हैं ? ......
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अकेलेपन से बचने के लिए हम पता नहीं कितनी ही क्लबों में, गोष्ठियों में, मित्रमंडलियों में, पार्टियों में और बाहर की दुनियाँ में जाते हैं, पर अंततः अकेलेपन से बच नहीं सकते|
एक समय आता है जब हमारे प्रिय विश्व के लिए हम उपयोगी नहीं रह जाते और हमारे प्रियजन ही हम से किनारा करने लगते हैं| जहाँ कभी हमारी उपस्थिति मात्र से ही रौनक आ जाती थी, हमें देखकर सबके बुझे हुए चहरे खिल उठते थे, वहीं पाते हैं कि हम महत्वहीन हो गए हैं और किसी की भी रूचि हमारे में नहीं है|
यह बहुत अधिक निराशा का क्षण होता है जिससे बचने के लोग नशा करने लगते हैं| पर वहाँ भी अकेलापन मनुष्य को और भी अधिक दुखी करने लगता है| टेलिविज़न, इन्टरनेट, ताश-पत्ते आदि से भी लोग अंततः कुंठित ही हो जाते हैं| अपने ही बच्चों की और उम्र में अपने से छोटे सम्बन्धियों की उपेक्षा से आहत होकर व्यक्ति मृत्यु की कामना करने लगता है| पर क्या मृत्यु भी अकेलेपन को समाप्त कर सकती है?
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इस अकेलेपण की पीड़ा मैंने भारत में ही नहीं विश्व के अनेक भागों में देखी हैं .... विश्व के समृद्धतम देशों के प्रवासी भारतीयों में भी, और वहाँ के स्थानीय निवासियों में भी| पूर्व साम्यवादी देशों में तो यह पीड़ा बहुत अधिक मैंने देखी है|
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लगता है यह संसार एक पाठशाला है जहाँ एक ही पाठ निरंतर पढ़ाया जा रहा है| कुछ लोग इसे शीघ्र सीख लेते हैं, कुछ देरी से और कुछ लोग अनेक जन्मों में जाकर सीखते हैं| जो लोग इस पाठ को नहीं सीखते हैं वे इसे सीखने के लिए बाध्य कर दिए जाते हैं| यह नीरसता की पीड़ा भी वह पाठ सीखने की ही बाध्यता है| इस संसार में हम सुख ढूंढते हैं, पर निराशा ही हाथ लगती है| हम किसी का साथ चाहते हैं पर वह साथ नहीं मिलता|
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अत्यधिक निराशा के पश्चात सृष्टिकर्ता की परम कृपा से अंतत हम पाते हैं कि इस बाहरी संसार में कोई पूर्णता नहीं है| पूर्णता है तो सिर्फ आध्यात्म में| हमारा एक अदृष्य शाश्वत साथी है जो सदा हमारे साथ है| उस साथी से मित्रता कर के ही हमें पूर्णता का अहसास होता है| तब जीवन में कोई नीरसता नहीं रहती|
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आप सब मेरे प्रिय निजात्मगणों को शुभ कामनाएँ और पूर्ण हार्दिक प्यार |
ॐ नमःशिवाय | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ !!

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