भोजन विधि ---
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हम जो कुछ भी खाते या पीते हैं, वह आहार हम नहीं खाते-पीते, बल्कि भगवान को अर्पित करते हैं, जिसे भगवान स्वयं वेश्वानर (जठराग्नि) के रूप में हमारे माध्यम से ग्रहण करते हैं; और उस से पूरी सृष्टि का भरण-पोषण होता है| अतः वही आहार ग्रहण करें जो भगवान को प्रिय है| उतना ही भोजन अपनी थाली में लें, जितना हम पूरी तरह खा सकें; जूठा छोड़ना -- भगवान का अपमान है| भोजन एक सोमयज्ञ है जिसमें हम भगवान को सोम की आहूति देते हैं| भगवान कहते हैं --
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः |
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ||१५:१४||"
प्राण और अपान वायु के संयोग से जठराग्नि बनती है, जिस के रूप में वैश्वानर भगवान स्वयं हमारी देह में भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य अन्न रूपी सोम को पचाते हैं| इस से सम्पूर्ण सृष्टि के प्राणियों का भरण-पोषण होता है|
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गीता में बताए हुए निम्न मंत्र का पाठ कर के ही भोजन करना चाहिए ---
" ॐ ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् |
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ||४:२४||"
अर्थात् अर्पण (अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है, और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||
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जो परमात्मा के मातृ रूप भगवती अन्नपूर्णा के भक्त हैं, वे अन्नपूर्णा स्तोत्र के निम्न भाग का पाठ कर अन्नपूर्णा से माँगे हुए भिक्षान्न के रूप में भोजन करते हैं ---
"अन्नपूर्णे सदा पूर्णे शंकरप्राणवल्लभे |
ज्ञान वैराग्य-सिद्ध्यर्थं भिक्षां देहिं च पार्वति ||"
"भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ||"
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जो मैंने संत-महात्माओं के प्रवचनों में सुना है, उसके अनुसार पञ्च-प्राणों को मानसिक रूप से आहुति देकर --- "ॐ प्राणाय स्वाहा | ॐ अपानाय स्वाहा | ॐ व्यानाय स्वाहा | ॐ उदानाय स्वाहा | ॐ समानाय स्वाहा |" --- प्रथम पाँच ग्रास उपरोक्त मंत्रों के साथ करने चाहियें| कम से कम प्रथम ग्रास तो -- "ॐ प्राणाय स्वाहा" -- मंत्र के साथ लेना ही चाहिए|
भोजन से पूर्व "˙ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा" मंत्र बोलकर जल से आचमन करना चाहिए, और भोजन के उपरांत "ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा" मंत्र से भी आचमन करना चाहिए|
भोजन बनाने वाले को चाहिए कि जब भोजन बन जाये तब भोजन के बहुत ही छोटे-छोटे तीन ग्रास लेकर तीन बार निम्न मंत्रों के साथ अग्नि को जिमाये --- "ॐ भूपतये स्वाहा", "ॐ भुवनपतये स्वाहा", "ॐ भूतानां पतये स्वाहा"|
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अनेक विद्वान ब्राह्मण, कृष्ण यजुर्वेद के निम्न शांति मंत्र का पाठ कर के ही भोजन करते हैं -
"ॐ सह नाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै || ॐ शांति शांति शांति ||"
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सार की बात :--- भोजन शांतिपूर्वक, मौन होकर, सिर्फ भगवान का चिंतन करते हुए, पूर्ण प्रेम पूर्वक, इस भाव से ही करना चाहिये कि यह भोजन भगवान स्वयं ही ग्रहण कर रहे हैं|
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इस लेख का समापन वैदिक शांतिमंत्र से ही करता हूँ ---
"ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।। ॐ शांति, शांति, शांति ||"
कृपा शंकर
८ दिसंबर २०२०
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पुनश्च: --- भगवान को क्या प्रिय है? भगवान कहते हैं ---
"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति| तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः||९:२६||"
अर्थात् जो भक्त मुझे पत्र, पुष्प, फल, और जल आदि कुछ भी वस्तु भक्तिपूर्वक देता है, उस प्रयतात्मा -- शुद्धबुद्धि भक्त के द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण किये हुए वे पत्र पुष्पादि मैं (स्वयं) खाता हूँ अर्थात् ग्रहण करता हूँ||
भक्तों को केवल अपुनरावृत्तिरूप अनन्त फल मिलता है, और वे अपनी आराधना भी भी सुखपूर्वक कर सकते हैं|