Sunday 1 August 2021

हम अपनी अस्मिता की रक्षा कैसे करें? ---

 

हम अपनी अस्मिता की रक्षा कैसे करें?
.
हमारी राष्ट्रीय/सामाजिक समस्याएँ एक जलते हुए घर की सी हैं| उस जलते हुए घर की रक्षा कैसे करें? इस पर चिंतन व्यावहारिक हो, सैद्धान्तिक नहीं| हमें अपने अस्तित्व, अपने धर्म, समाज, राष्ट्र व देश की रक्षा स्वयं करनी होगी| हमारी रक्षा करने कोई दूसरा नहीं आयेगा| भगवान भी तभी हमारी रक्षा करेंगे जब अपनी रक्षा हम स्वयं करेंगे| हम अपनी रक्षा करने में पूर्ण रूप से समर्थ हों|
.
"राष्ट्रीय स्वयं संघ" की संघटन पद्धति सर्वश्रेष्ठ है, पर उसमें आध्यात्म नहीं है| आध्यात्म में भी अनेक धाराएँ हैं, अनेक मार्ग हैं| कौन से मार्ग का चुनाव करें? एक ही मार्ग सभी के लिए नहीं हो सकता| इसलिए संघ में भगवा-ध्वज को ही गुरु का स्थान दिया गया है| संघ में गुरु कोई व्यक्ति नहीं है, बल्कि भगवा-ध्वज ही गुरु है, जो त्याग-तपस्या व तेजस्विता का प्रतीक है| फिर भी बिना ईश्वर के वहाँ पर एक अभाव ही है|
.
हमें निज जीवन में देवत्व की शक्तियों को अर्जित करना ही होगा| एक ब्रह्मतेज स्वयं में प्रकट करना होगा तभी अन्य गुण जैसे क्षत्रियत्व, वाणिज्य, कला, कौशल व सेवाभाव आदि आएंगे| इस दिशा में कुछ संस्थाएँ बहुत अच्छा कार्य कर रही है, जिन में ज़ोर उपासना पर है, फिर संगठन पर| जो भी विचारधारा हमारी प्रकृति के अनुकूल है, उसका सहयोग हमें लेना चाहिए और देना भी चाहिए| लेकिन यह न भूलें कि हमारा लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार यानि ईश्वर की प्राप्ति है| जो भी संस्था, गुरु या संत-महात्मा, हमारे में भक्ति यानि परमात्मा के प्रति प्रेम जागृत न कर सके, और हमें परमात्मा की ओर चलने की निरंतर प्रेरणा व मार्ग-दर्शन न दे सके, उन्हें तुरंत छोड़ देना चाहिए|
.
अपने निज जीवन में परमात्मा के प्रति परम प्रेम जागृत करें, व परमात्मा को अपने आचरण में व्यक्त करें| अपने दिन का आरंभ और समापन परमात्मा के यथासंभव गहनतम ध्यान से करें| हर समय परमात्मा का स्मरण करें| अपनी चेतना भ्रूमध्य से ऊपर रखें|
.
भारतवर्ष एक अखंड परम वैभवशाली आध्यात्मिक राष्ट्र बने| भारत की राजनीति सनातन धर्म हो| भारत माता की जय|
आप अब महान आत्माओं को नमन ! ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
२ अगस्त २०२०

भगवान एक प्रवाह हैं, जिन्हें स्वयं के माध्यम से प्रवाहित होने दें ---

भगवान हमारे जीवन में आ कर हमारे हृदय में स्थायी रूप से बिराजमान हो जायें, तो जीवन में सब सही होगा। किसी भी न्यायालय में जब तक न्यायाधीश आकर अपनी कुर्सी पर नहीं बैठता, तब तक सब कुछ अव्यवस्थित रहता है। ज्यों ही न्यायाधीश आकर अपनी कुर्सी पर बैठता है, सब कुछ व्यवस्थित हो जाता है।

.
भगवान एक प्रवाह हैं, जिन्हें स्वयं के माध्यम से प्रवाहित होने दें। वे एक रस हैं, जिन्हें हम हर समय चखते रहें। हम जो खाते हैं, जो खा रहा है, जो साँस हम ले रहे हैं वह हर साँस, हृदय की हर धड़कन और सारा अस्तित्व भगवान है। उनसे पृथक कुछ भी अन्य नहीं है। उनसे सहायता मांगो, जो निश्चित रूप से मिलेगी। साक्षी भाव में निमित्त मात्र हो कर रहो। वे ही हमारी गति हैं। उनके बिना हमारा कुछ भी नहीं है। वे ही सर्वस्व हैं। भगवान को पाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। हम पापी नहीं हैं। स्वयं को पापी कहना सबसे बड़ा पाप है। हम परमात्मा के अमृतपुत्र हैं। ॐ तत्सत् । ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
४ जुलाई २०२१

स्वधर्म ---

 स्वधर्म ---

हम शाश्वत आत्मा हैं, इसलिए परमात्मा को पाने की अभीप्सा, उनसे परमप्रेम, उनकी उपासना, निज जीवन में उनकी अभिव्यक्ति और सदाचरण -- ये हमारे स्वधर्म हैं। हमारी श्रद्धा और विश्वास एकमात्र परमात्मा पर ही होनी चाहिए। स्वधर्म में निधन होना ही श्रेष्ठ है। स्वधर्म पर अडिग रहें। भगवान कहते हैं --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् - सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥
.
भगवान कहते हैं कि थोड़ा-बहुत धर्म का आचरण भी महाभय से हमारी रक्षा करता है --
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् - इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥
.
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
४ जुलाई २०२१

पलटू सोइ सुहागनी, हीरा झलके माथ ---

पलटू सोइ सुहागनी, हीरा झलके माथ ---

सुहागन वो ही है जिसके माथे पर हीरा झलक रहा है| अब यह प्रश्न उठता है कि सुहागन कौन है और माथे का हीरा क्या है ?
.
वह हीरा है ब्रह्मज्योति का जो हमारे माथे पर कूटस्थ में देदीप्यमान है| सुहागन है वह जीवात्मा जो परमात्मा के प्रति पूर्णतः समर्पित है| हमें सुहागन भी बनना है और माथे पर हीरा भी धारण करना है| हमारा सुहाग परमात्मा है|
ॐ तत्सत् |
३ जुलाई २०२१

"म्लेच्छ" कौन है? ---

संसार में असत्य का अन्धकार म्लेच्छों ने ही फैला रखा है। "म्लेच्छ" कौन है? ---

.
जो लोग इंद्रीय वासनाओं की तृप्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं, जिन्हें बुरे कामों से घृणा या लज्जा न हो, जो स्वभाव से ही हिंसक और दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं, ऐसे विवेकहीन व्यक्ति -- "म्लेच्छ" हैं।
.
दानवों के गुरु शुक्राचार्य ने म्लेच्छों को परिभाषित किया है --
"त्यक्तस्वधर्माचरणा निर्घृणा: परपीडका:।
चण्डाश्चहिंसका नित्यं म्लेच्छास्ते ह्यविवेकिन:॥"
अर्थात् - जिन्होंने अपने धर्म का आचरण करना छोड़ दिया हो, जो निर्घृण (जिसे बुरे कामों से घृणा या लज्जा न हो) हैं, दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं, क्रोध करते हैं, नित्य हिंसा करते हैं, अविवेकी हैं - वे म्लेच्छ हैं।
२ जुलाई २०२१

सबसे बड़ी सेवा ---

सबसे बड़ी सेवा जो हम अपने स्वयं, परिवार, समाज, देश और विश्व की कर सकते हैं, और सबसे बड़ा उपहार जो हम किसी को दे सकते हैं, वह है -- आत्मसाक्षात्कार, यानि परमात्मा की प्राप्ति। निरंतर परमात्मा की चेतना में स्थिर रहें, यह बोध रखें कि हमारी आभा और स्पंदन पूरी सृष्टि और सभी प्राणियों की सामूहिक चेतना में व्याप्त हैं, और सब का कल्याण कर रहे हैं। परमात्मा की सर्वव्यापकता हमारी सर्वव्यापकता है, सभी प्राणियों और सृष्टि के साथ हम एक हैं। हमारा प्रेम पूरी समष्टि का कल्याण कर रहा है। हम और परमात्मा एक हैं।

.
स्वयं को यह भौतिक देह मानना ही अहंकार है। इस देह की वासनाओं का चिंतन ही हमारा पतन है जो हमें परमात्मा से दूर ले जाता है। धर्मशिक्षा के अभाव में हम धर्म के नाम पर मुर्ख बना दिए जाते हैं। अनेक झूठे उपदेश हम चुपचाप मानते रहे हैं। असत्य का प्रतिकार करें।
.
माता और पिता दोनों को अपने बच्चों के सामने एक-दूसरे की आलोचना या निंदा नहीं करनी चाहिए। इसका बहुत बुरा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। अपने बच्चों की उपस्थिती में माँ-बाप जो भी करेंगे, बच्चे उसी को आदर्श मानेंगे। बच्चों की उपस्थिती में माता-पिता को भगवान की उपासना करनी चाहिए। भगवान जिस भी भावरूप में हमारे समक्ष आते हैं, हमारे हित के लिए ही आते हैं।
.
किसी भी तरह का दुराग्रह या पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिए। कमजोरी के क्षणों में सदा सफल हनुमान जी ही याद आते हैं। वे तत्क्षण आ भी जाते हैं। और कोई आए या ना आए, वे वास्तव में संकट-मोचन हैं।
"अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानं ज्ञानिनामग्रगण्यं।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपति प्रियभक्तं वातजातं नमामि॥"
.
वासनाओं से मुक्ति के लिए -- आहार शुद्धि, अभ्यास, वैराग्य, स्वाध्याय, सत्संग, व कुसंग त्याग आवश्यक है। दुष्ट व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा विद्वान या धनाढ्य हो, तब भी उसका संग नहीं करना चाहिये। कैसी भी परिस्थिति हो, कुसंग-त्याग आवश्यक है।
.
आप सब को नमन !! परमात्मा की आरोग्यकारी उपस्थिती आप सब की अंतर्रात्मा में प्रकट हो। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
०२ जुलाई २०२१

आप ही जानने योग्य (वेदितव्यम्) परम अक्षर हैं ---

 आप ही जानने योग्य (वेदितव्यम्) परम अक्षर हैं ---

.
गीता का निम्न श्लोक ठीक से समझने के पश्चात् अब बात ही दूसरी हो गई है। अब निश्चिंत होकर अपने लक्ष्य की ओर सब को आगे बढ़ना चाहिए।
अर्जुन कहते हैं --
"त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे॥११:१८॥"
अर्थात् -- आप ही जानने योग्य (वेदितव्यम्) परम अक्षर हैं; आप ही इस विश्व के परम आश्रय (निधान) हैं ! आप ही शाश्वत धर्म के रक्षक हैं और आप ही सनातन पुरुष हैं,ऐसा मेरा मत है॥
.
आप ही मुमुक्षु पुरुषों द्वारा जानने योग्य परम अक्षर परम ब्रह्म परमात्मा हैं। आप ही इस समस्त जगत् के परम उत्तम निधान परम आश्रय हैं। आप अविनाशी हैं, और सनातन धर्म के रक्षक हैं। आप ही सनातन परम पुरुष हैं -- यह मेरा मत है।
.
हे मेरे मन, उन दिव्य परम पुरुष को अब अपनी चेतना से एक क्षण के लिए भी ओझल मत होने दे, सब कुछ उन्हें सौंप कर निश्चिंत हो जा। इधर-उधर मत झांक, दृष्टि कूटस्थ में ही रख। अब और विचलित मत होना। जो कुछ भी तुम्हें परमात्मा से दूर करे, उसे उसी समय त्याग दे।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
०१ जुलाई २०२१