Tuesday, 23 January 2018

सर्वोच्च उपलब्धि .....

सर्वोच्च उपलब्धि .....
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जल की एक बूँद की सर्वोच्च उपलब्धी है ..... महासागर में विलीन हो जाना|
जल की बूँद महासागर में विलीन होकर स्वयं महासागर बन जाती है| इसके लिए क्या वह महासागर की ऋणी है? नहीं, कभी नहीं| उसका उद्गम महासागर से हुआ था और वह अन्ततः उसी में विलीन हो गयी| यही उसका नैसर्गिक धर्म था|
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वैसे ही जीव की सर्वोच्च उपलब्धि है -- परम शिव परमात्मा से मिलन| यही आत्मज्ञान है, और यही आत्मसाक्षात्कार है|
भगवान कहते हैं .....
"मम दरसन फल परम अनूपा | जीव पाव निज सहज सरूपा" ||
भगवान यह भी कहते हैं .....
"सन्मुख होइ जीव मोहि जबही | जनम कोटि अघ नासहिं तबही" ||
हमारा सहज स्वरुप परमात्मा है, हम परमात्मा से आये हैं, परमात्मा में हैं, और परमात्मा में ही उसी तरह बापस चले जायेंगे जिस तरह जल की एक बूँद बापस महासागर में चली जाती है| यह ही हमारा नैसर्गिक धर्म है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ जनवरी २०१८

भगवान की अनन्य भक्ति क्या है ? .....

भगवान की अनन्य भक्ति क्या है ? .....
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ध्यान साधना और भगवान की अनन्य भक्ति में मैं कोई भेद नहीं पाता| मेरी अनुभूति में ये दोनों एक ही हैं, इन में कोई अंतर नहीं है| ध्यान साधना में हम ध्यान परमात्मा की अनंतता पर करते हैं, जिसमें सब समाहित है और कुछ भी पृथक नहीं है| अनन्य भक्ति भी यही है|
परमात्मा से मैं पृथक नहीं हूँ, इस प्रकार परमात्मा को अपने से एक जानकर जो परम प्रेम किया जाता है, वह ही अनन्य भक्ति है| भगवान से मैं अन्य नहीं हूँ, वे मेरे साथ एक हैं, वे ही वे हैं, अन्य कोई नहीं है, सिर्फ वे ही वे हैं, यह जो 'मैं' हूँ, वह भी वास्तव में स्वयं परमात्मा ही हैं| मैं उन परम पुरुष से अलग नहीं हूँ, इस प्रकार से उनको अपने से एक जान कर जो प्रेम किया जाता है वह ही अनन्य है| परमात्मा को मैं जब अपना स्वरुप मानता हूँ, तब उनसे जो प्रेम होता वह ही परम प्रेम है, और वह ही अनन्य भक्ति है| उस परम प्रेम से ही भगवान मिलते हैं| इस धारणा का गहन चिंतन ही ध्यान है|
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भगवान कहते हैं .....
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया |
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्‌ ||८.२२||
संधि विच्छेद :--
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यः तु अनन्या |
यस्य अन्तः स्थानि भूतानि येन सर्वम् इदं ततम्‌ ||
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ जनवरी २०१८