सर्वोच्च उपलब्धि .....
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जल की एक बूँद की सर्वोच्च उपलब्धी है ..... महासागर में विलीन हो जाना|
जल की बूँद महासागर में विलीन होकर स्वयं महासागर बन जाती है| इसके लिए क्या वह महासागर की ऋणी है? नहीं, कभी नहीं| उसका उद्गम महासागर से हुआ था और वह अन्ततः उसी में विलीन हो गयी| यही उसका नैसर्गिक धर्म था|
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वैसे ही जीव की सर्वोच्च उपलब्धि है -- परम शिव परमात्मा से मिलन| यही आत्मज्ञान है, और यही आत्मसाक्षात्कार है|
भगवान कहते हैं .....
"मम दरसन फल परम अनूपा | जीव पाव निज सहज सरूपा" ||
भगवान यह भी कहते हैं .....
"सन्मुख होइ जीव मोहि जबही | जनम कोटि अघ नासहिं तबही" ||
हमारा सहज स्वरुप परमात्मा है, हम परमात्मा से आये हैं, परमात्मा में हैं, और परमात्मा में ही उसी तरह बापस चले जायेंगे जिस तरह जल की एक बूँद बापस महासागर में चली जाती है| यह ही हमारा नैसर्गिक धर्म है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ जनवरी २०१८
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जल की एक बूँद की सर्वोच्च उपलब्धी है ..... महासागर में विलीन हो जाना|
जल की बूँद महासागर में विलीन होकर स्वयं महासागर बन जाती है| इसके लिए क्या वह महासागर की ऋणी है? नहीं, कभी नहीं| उसका उद्गम महासागर से हुआ था और वह अन्ततः उसी में विलीन हो गयी| यही उसका नैसर्गिक धर्म था|
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वैसे ही जीव की सर्वोच्च उपलब्धि है -- परम शिव परमात्मा से मिलन| यही आत्मज्ञान है, और यही आत्मसाक्षात्कार है|
भगवान कहते हैं .....
"मम दरसन फल परम अनूपा | जीव पाव निज सहज सरूपा" ||
भगवान यह भी कहते हैं .....
"सन्मुख होइ जीव मोहि जबही | जनम कोटि अघ नासहिं तबही" ||
हमारा सहज स्वरुप परमात्मा है, हम परमात्मा से आये हैं, परमात्मा में हैं, और परमात्मा में ही उसी तरह बापस चले जायेंगे जिस तरह जल की एक बूँद बापस महासागर में चली जाती है| यह ही हमारा नैसर्गिक धर्म है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ जनवरी २०१८
वेद/उपनिषदों और ब्रह्मसूत्र को समझना तो मेरी बौद्धिक क्षमता से परे है| अब तो उनको समझने का प्रयास करना भी छोड़ दिया है| सारे प्रश्न भी तिरोहित हो गये हैं, कोई शंका या संदेह नहीं है| कोई जिज्ञासा भी अब नहीं है| यह सीमित मन भी शांत है| कोई पीड़ा या व्याकुलता अब नहीं रही है| जीवन में पूर्ण संतुष्टि है| ह्रदय के सिंहासन पर जब से परम प्रिय आकर बिराजमान हो गए हैं, तब से अन्य कोई आकर्षण नहीं रहा है| उनका मनोहारी रूप इतना आकर्षक है जिसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव है| बस वे ही इस चेतना में निरंतर रहें, और कुछ भी नहीं चाहिए|
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