Thursday 4 May 2017

भारत को परम वैभव पर पहुँचाने की दो सीढ़ियाँ .....

भारत को परम वैभव पर पहुँचाने की दो सीढ़ियाँ ............
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जब मैं भारत की सोचता हूँ तो पाता हूँ कि भारत का अर्थ है सनातन धर्म| मेरे लिए श्री अरविन्द के शब्दों में सनातन धर्म ही भारत है और भारत ही सनातन धर्म है| दोनों कभी पृथक नहीं हो सकते| सनातन धर्म का विस्तार ही भारत का विस्तार है और सनातन धर्म का उत्थान ही भारत का उत्थान है|
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भारत एक ऊर्ध्वमुखी चेतना है| भारत एक ऐसे लोगों का समूह है जो जीवन में श्रेष्ठतम और उच्चतम को पाने का प्रयास करते है, जो अपनी चेतना को विस्तृत कर समष्टि से जुड़ना चाहते हैं, और नर में नारायण को साकार करते हैं|
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कालखंड में एक अल्प समय ऐसा आता है जब अज्ञान, दू:ख, दुर्बलता, स्वार्थपरता और तामसिकता में विश्व डूब जाता है और भारत भी दुर्बलता और अवनति के गड्ढे में गिर जाता है ताकि वह आत्मसंवरण कर ले| इस काल खंड में भारत के योगी और तपस्वी गण भी संसार से अलग होकर केवल अपनी मुक्ति या आनन्द या अपने शिष्यों की मुक्ति के लिए ही प्रयासरत हो जाते है| जन सामान्य को भी अपने भौतिक सुख के आगे कुछ और दिखाई नहीं देता| (श्रीअरविन्द १९०५)
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पर अब वह समय निकल चूका है| अब ईश्वर की इच्छा है की भारत फिर ऊपर उठे| भारत के अभ्युदय को अब कोई नहीं रोक सकता| साक्षात् भगवती चेतना ने अब भारत को शने: शने: ऊपर उठाने का कार्य अपने हाथ में ले लिया है| ज्ञान की गति भी पुन: प्रसारित होने लगी है और भारत की आत्मा का भी प्रसार होने लगा है| भारत भूमि में दिव्य चेतना से युक्त महान आत्माओं का अवतरण हो रहा है और वह दिन अधिक दूर नहीं है जब तामसिक और जड़ बुद्धि के लोगों का भारत से सम्पूर्ण विनाश होगा|
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भौतिक स्तर पर भारत को सिर्फ दो कार्य करने होंगे फिर सब अपने आप सही हो जाएगा ........
(1) सर्वप्रथम भारत को अपनी प्राचीन शिक्षा व्यवस्था और कृषि व्यवस्था को पुनर्स्थापित करना होगा|
(2) आध्यात्मिक स्तर पर हमें जीवन का केंद्रबिंदु परमात्मा को बनाना होगा|
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फिर भारत के अभ्युदय को कोई नहीं रोक सकता|
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मैंने यहाँ जो भी लिखा है वह अब तक के मेरे अनुभव और अंतर्प्रज्ञा से है|
मुझे न तो किसी का सहयोग चाहिए और न समर्थन|
"निराश्रयम् मां जगदीश रक्ष:|"
मेरे आश्रय सिर्फ जगदीश हैं| अन्य किसी का आश्रय मुझे नहीं चाहिए|
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एक व्यक्ति का संकल्प भी समस्त सृष्टि को बदल सकता है| हो सकता है कि वह व्यक्ति आप ही हों| ॐ|

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ जय श्रीराम !
कृपाशंकर
03May2013

भगवान शिव के शीश पर गंगा क्यों बहती है ? --

भगवान शिव के शीश पर गंगा क्यों बहती है ? ---------
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यह प्रश्न मेरे मस्तिष्क में किशोरावस्था से ही था| मैंने महाभारत की एक उपकथा में भागीरथ और गंगावतरण के बारे में पढ़ा था, तभी से यह उत्सुकता थी| अनेक विद्वानों ने अपने लेखों में इस की अनेक तरह से व्याख्याएँ की हैं पर वे मुझे जँची नहीं| अंततः यह कथा मुझे प्रतीकात्मक ही लगने लगी| पर फिर भी लगता था इसके पीछे कोई ना कोई आध्यात्मिक सत्य अवश्य है|
अब मैं निश्चित तौर से यह कह सकता हूँ कि भगवान शिव भी सत्य है और उनके सिर पर बहने वाली गंगा भी सत्य है| यह बात बौद्धिक रूप से नहीं समझाई जा सकती पर गहन ध्यान में अनुभूत की जा सकती है|
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गहन ध्यान में साधक को अपने शिवस्वरूप यानि शिव तत्व की अनुभूति तब होती है जब गुरु कृपा से उसकी घनीभूत प्राण चेतना (जिसे तन्त्र में कुण्डलिनी कहते हैं) उसे जागृत कर सुषुम्ना मार्ग (मूलाधार से आज्ञा चक्र) को पार कर उत्तरा सुषुम्ना (आज्ञा चक्र से सहस्त्रार) में विचरण करते हुए शनेः शनेः सहस्त्रार से भी परे की अनुभूतियाँ करने लगती है| तब साधक और भी अधिक गहन साधना द्वारा गुरुकृपा से अपनी देह की चेतना से मुक्त होकर समष्टि यानि ईश्वर की सर्वव्यापकता से एकाकार होने लगता है| तब उसे शिव तत्व और ज्ञान रुपी गंगा का प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है| यह सिर्फ गुरु की परम कृपा से ही सम्भव है| ऐसी स्थिति में साधक अपनी थोड़ी बहुत चेतना आज्ञा चक्र में रखता है अन्यथा देह का साथ छूट जाता है|
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गंगा का अर्थ है --- ज्ञान|
हमारे पंचकोषात्मक (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय) देह के मस्तिष्क में ज्ञान गंगा नित्य विराजमान है|
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भगवान शिव तो परम चैतन्य के प्रतीक ही नहीं स्वयं परम चैतन्य हैं| समस्त सृष्टि के उद्भव और संहार यानि सर्जन-विसर्जन की क्रिया उनका नृत्य है| परमात्मा की ऊँची से ऊँची परिकल्पना जो एक विराट से विराट मनुष्य का मस्तिष्क कर सकता है वह भगवान शिव का स्वरुप है| उनके माथे पर चन्द्रमा कूटस्थ चैतन्य, गले में सर्प कुण्डलिनी, उनकी दिगंबरता सर्वव्यापकता, और देह पर भभूत वैराग्य के प्रतीक हैं|
ऐसे ही उनके माथे पर गंगा जी समस्त ज्ञान का प्रतीक है जो निरंतर प्रवाहित हो रही है|
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जिस तरह मनुष्य के मस्तिष्क में ज्ञान और बुद्धिमता का भंडार भरा पड़ा है वैसे ही सर्व व्यापक भगवान शिव के माथे पर समस्त चैतन्य और ज्ञान की आधार माँ गंगाजी नित्य विराजमान हैं|
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ॐ नमः शिवाय | ॐ शिव शिव शिव | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२ मई २०१३

परमात्मा की माया क्या परमात्मा की एक मुस्कान मात्र है? हम अपने परिजनों के असह्य कष्टों के साक्षी होने को बाध्य क्यों हैं?

परमात्मा की माया क्या परमात्मा की एक मुस्कान मात्र है?
हम अपने परिजनों के असह्य कष्टों के साक्षी होने को बाध्य क्यों हैं?
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प्रेम से चिंतन करने पर विचार तो आता है कि परमात्मा की माया उनकी एक मुस्कान मात्र है, पर हम अपने प्रियजनों के कष्टों के साक्षी होने को बाध्य क्यों हैं? इसका भी चिंतन होता है| हम दिन रात एक करके हाडतोड़ परिश्रम करते हैं ताकि हम पर आश्रित परिजन सुखी रहें, पर उन पर आये हुए कष्टों के साक्षी होने को भी बाध्य होते हैं| इसका क्या कारण है? इसका कुछ कुछ आभास होता है|
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संभवतः प्रकृति यह बोध कराना चाहती है कि हम यह देह ही नहीं हैं तब ये परिजन हमारे कैसे हुए? सब के अपने अपने प्रारब्ध हैं, सबका अपना अपना भाग्य है| सभी अपने कर्मों का फल भोगने को जन्म लेते हैं| पूर्व जन्मों के शत्रु और मित्र अगले जन्मों में या तो एक ही परिवार या समाज में जन्म लेते हैं या फिर पुनश्चः आपस में एक दूसरे से मिलते हैं, और पुराना हिसाब किताब चुकाते हैं| यह बात सभी पर लागू होती है| मेरे साथ भी ऐसा ही हो रहा है| मैं भी अपने घर-परिवार के सदस्यों के असह्य कष्टों का साक्षी होने को बाध्य हूँ| पर मैं क्या शिकायत करूँ? ऐसा तो सभी के साथ हो रहा है| किसी का कष्ट कम है, किसी का अधिक, कष्ट तो सब को है|
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जो लोग आध्यात्म मार्ग के पथिक हैं उनको तो ये कष्ट अधिक ही होते हैं|
साधना के मार्ग में भी "विक्षेप" व "आवरण" नाम की राक्षसियाँ, और "राग", "द्वेष" व "अहंकार" नाम के महा असुर, भयावह कष्ट देते हैं| इनसे बचने का प्रयास करते हैं तो ये अपने अनेक भाई-बंधुओं सहित आकर बार बार हमें चारों खाने चित गिरा ही देते हैं| ये कभी नहीं हटेंगे, स्थायी रूप से यहीं रहेंगे| इनके साथ संघर्ष करते है तो ये हमें अपनी बिरादरी में ही मिला लेने का प्रयास करते हैं| परमात्मा को शरणागति द्वारा समर्पित होने का निरंतर प्रयास और प्रभु के प्रति प्रेम, प्रेम, प्रेम और परम प्रेम ही हमारी रक्षा कर सकता है, अन्य कोई उपाय नहीं है |
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ ||

रामनाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार .....

" रामनाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार| तुलसी भीतर बाहिरऊ, जो चाहसि उजियार ||"
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यहाँ संत तुलसीदास जी ने बहुत ही सुन्दर बात कही है कि देह रूपी मंदिर के द्वार की देहरी पर रामनाम रुपी दीपक को जला देने से बाहर और भीतर चारों और उजियाला छा जाएगा| पर राम नाम रूपी दीपक को कब प्रज्जवलित किया जाए?
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कबीरदास जी ने कहा है --
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब| पल में परलय होएगी, बहुरी करोगे कब||"
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इस बारे में योगवाशिष्ठ का आदेश है .....
"अद्यैव कुरु यच्छ्रेयो वृद्ध: सन किम् करिष्यसि| स्वगात्राण्यपि भाराय भवन्ति ही विपर्यये||"
अर्थात जो श्रेय कर्म है उसे आज से ही नहीं बल्कि अभी से ही करना आरम्भ करो| बुढ़ापे में भला कितना काम पूरा कर सकोगे? उस समय तो अपना शरीर ही तुम्हे भारी बोझा सा लगेगा तब तुम श्रेय साधना का अभ्यास करने के अनुपयुक्त हो जाओगे|
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मनुष्य कुछ दशाब्दियों के लिए यह देह धारण करता है| अनंत जीवन में इन दशाब्दियों का क्या महत्व है? जीवन बहुत छोटा है अतः कैसे इस का सदुपयोग किया जाए इस पर विचार करें|
कुछ लोग कहते हैं कि जब हाथ पैर काम करना बंद कर देंगे तब भगवान का नाम लेंगे| तब वे क्या सचमुच ऐसा कर पायेंगे? इस पर विचार करें|
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वर्षों पूर्व मैं एक बार मॉरिशस गया था| वहाँ अधिकाँश लोगों को भोजपुरी बोलते देखकर आश्चर्य हुआ| एक गाँव में अनेक लोग मेरे से मिलने आये| उन्होंने अपने पूर्वजों के बारे में बताया कि कैसे अँगरेज़ लोग धोखे से गिरमिटिया मजदूर बना कर उन्हें यहाँ ले आये और बापस जाने के सब मार्ग बंद कर दिए| सिर्फ राम नाम के भरोसे उन्होंने हाड-तोड़ मेहनत की और इस पथरीली धरा को कृषियोग्य और स्वर्ग बना दिया| उनका एकमात्र आश्रय राम का नाम ही था और वही उनका मनोरंजन था| यही हाल फिजी और वेस्ट इंडीज़ में गए भारतीयों का हुआ| राम का नाम सबसे बड़ा सहारा है|
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कृपाशंकर
१ मई २०१३


अक्षय तृतीया और परशुराम जयंती की हार्दिक शुभ कामनाएँ

अक्षय तृतीया और परशुराम जयंती की हार्दिक शुभ कामनाएँ .....
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हमारे पुण्य अक्षय हों. हमारा राष्ट्र परम वैभव को प्राप्त हो. हमारे राष्ट्र को सदा सही नेतृत्व मिले और कायरता का कोई अवशेष हम में न रहे. हम सब के जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो. ॐ ॐ ॐ ||
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आज की जैसी परिस्थितियाँ हैं और वातावरण है उसमें हमें परशुराम जैसे अनेक व्यक्तित्वों की आवश्यकता है जो अधर्म का नाश कर धर्म की पुनर्स्थापना कर सके| हमें परशुराम की प्रतीक्षा है|
पत्थर सी हों मांसपेशियाँ, लौहदंड भुजबल अभय;
नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।
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श्री रामधारी सिंह दिनकर जी की "परशुराम की प्रतीक्षा" नामक कविता का एक अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ जो उन्होंने भारत पर चीनी आक्रमण और भारत की पराजय के उपरांत भारतीयों में पुनः उत्साह और जोश भरने के लिए लिखी थी|
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"जब परशुराम पर मातृ-हत्या का पाप चढ़ा, वे उससे मुक्ति पाने को सभी तीर्थों में फिरे, किन्तु, कहीं भी परशु पर से उनकी वज्रमूठ नहीं खुली यानी उनके मन में से पाप का भान नहीं दूर हुआ। तब पिता ने उनसे कहा कि कैलास के समीप जो ब्रह्मकुण्ड है, उसमें स्नान करने से यह पाप छूट जायगा। निदान, परशुराम हिमालय पर चढ़कर कैलास पहुँचे और ब्रह्मकुण्ड में उन्होंने स्नान किया। ब्रह्मकुण्ड में डुबकी लगाते ही परशु उनके हाश से छूट कर गिर गया अर्थात् उनका मन पाप-मुक्त हो गया।
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तीर्थ को इतना जाग्रत देखकर परशुराम के मन में यह भाव जगा कि इस कुण्ड के पवित्र जल को पृथ्वी पर उतार देना चाहिए। अतएव, उन्होंने पर्वत काट कर कुण्ड से एक धारा निकाली, जिसका नाम, ब्रह्मकुण्ड से निकलने के कारण, ब्रह्मपुत्र हुआ। ब्रह्मकुण्ड का एक नाम लोहित-कुण्ड भी मिलता है। एक जगह यह भी लिखा है कि ब्रह्मपुत्र की धारा परशुराम ने ब्रह्मकुण्ड से ही निकाली थी, किन्तु, आगे चलकर वह धारा लोहित-कुण्ड नामक एक अन्य कुण्ड में समा गयी। परशुराम ने उस कुण्ड से भी धारा को आगे निकाला, इसलिए, ब्रह्मपुत्र का एक नाम लोहित भी मिलता है। स्वयं कालिदास ने ब्रह्मपुत्र को लोहित नाम से ही अभिहित किया है। और जहाँ ब्रह्मपुत्र नदी पर्वत से पृथ्वी पर अवतीर्ण होती है, वहाँ आज भी परशुराम-कुण्ड मौजूद है, जो हिन्दुओं को परम पवित्र तीर्थ माना जाता है।
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लोहित में गिर कर जब परशुराम का कुठार-पाप-मुक्त हो गया, तब उस कुठार से उन्होंने एक सौ वर्ष तक लड़ाइयाँ लड़ीं और समन्तपंचक में पाँच शोणित-ह्रद बना कर उन्होंने पितरों का तर्पण किया। जब उनका प्रतिशोध शान्त हो गया, उन्होंने कोंकण के पास पहुँच कर अपना कुठार समुद्र में फेंक दिया और वे नवनिर्माण में प्रवृत्त हो गये। भारत का वह भाग, जो अब कोंकण और केरल कहलाता है, भगवान् परशुराम का ही बसाया हुआ है।
लोहित भारतवर्ष का बड़ा ही पवित्र भाग है। पुरा काल में वहाँ परशुराम का पाप-मोचन हुआ था। आज एक बार फिर लोहित में ही भारतवर्ष का पाप छूटा है। इसीलिए, भविष्य मुझे आशा से पूर्ण दिखाई देता है।"
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परशुराम की प्रतीक्षा (शक्ति और कर्तव्य)
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जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
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चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
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यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
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है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है।
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नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।
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ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
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जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
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तलवार पुण्य की सखी‚ धर्मपालक है‚
लालच पर अंकुश कठिन‚ लोभ–सालक है।
असि छोड़‚ भीरु बन जहां धर्म सोता है‚
पातक प्रचंडतम वहीं प्रगट होता है।
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तलवारें सोतीं जहां बंद म्यानों में‚
किस्मतें वहां सड़ती हैं तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियें–नथें चढ़ती हैं‚
सोने की ईंटें‚ मगर‚ नहीं कढ़ती हैं।
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पूछो कुबेर से कब सुवर्ण वे देंगे?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे?
तूफान उठेगा‚ प्रलय बाण छूटेगा‚
है जहां स्वर्ण‚ बम वहीं‚ स्यात्‚ फूटेगा।
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जो करें‚ किंतु‚ कंचन यह नहीं बचेगा‚
शायद‚ सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें‚
कह दो सब से‚ अपना दायित्व संभालें।
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कह दो प्रपंचकारी‚ कपटी‚ जाली से‚
आलसी‚ अकर्मठ‚ काहिल‚ हड़ताली से‚
सी लें जबान‚ चुपचाप काम पर जायें‚
हम यहां रक्त‚ वे घर पर स्वेद बहायें।
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हम दे दें उस को विजय‚ हमें तुम बल दो‚
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहां यदि घर में‚
है कौन हमें जीते जो यहां समर में?
∼ रामधारी सिंह ‘दिनकर