Tuesday, 4 March 2025

माया के आवरण को भेद कर हरिः चरणों को भजो

 महात्माओं के सत्संग में बार बार कहा जाता है कि -- "माया के आवरण को भेद कर हरिः चरणों को भजो"।

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माया का आवरण तो समझ में आता है। विषय भोगों की कामना, अभिमान, लोभ, और गलत आचरण व गलत विचार - ये ही माया के आवरण हो सकते हैं। अब प्रश्न उठता है कि हरिः के चरण क्या हैं? कोई चित्र या प्रतीक तो हरिः का चरण नहीं हो सकता। इस विषय पर खूब विचार किया है। जिस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ, वही लिख रहा हूँ। मेरे लेखों को अनेक महात्मा पढ़ कर मुझ पर अनुग्रह करते हैं।वे भी कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें।
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ध्यान साधना में भ्रूमध्य में दिखाई देने वाली ब्रह्मज्योति धीरे धीरे कुछ काल पश्चात सहस्त्रारचक्र में दिखाई देने लगती है। उसके साथ साथ एक नाद भी सुनाई देने लगता है। वह ज्योति और नाद ही भगवान श्रीहरिः के चरणकमल हैं। भगवान श्रीहरिः ही सद्गुरु हैं, वे सब गुरुओं के गुरु हैं। उस ज्योति और नाद का ध्यान ही भगवान और श्रीगुरु महाराज के चरम कमलों का ध्यान है। उसी में समर्पण, गुरुचरणों में समर्पण व शरणागति है।
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आप सब महान आत्माओं का अनुग्रह और कृपा मुझ अकिंचन पर बनी रहे। आपके आशीर्वचनों से ही मेरा कल्याण हो सकता है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
५ मार्च २०२२

ॐ नमो नृसिंहाय, हिरण्यकशिपोर्वक्षस्थल विदारनाय ---

 ॐ नमो नृसिंहाय, हिरण्यकशिपोर्वक्षस्थल विदारनाय ---

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हिरण्यकशिपु इसी समय मेरे भीतर जीवित है। मेरा लोभ और अहंकार ही हिरण्यकशिपु है। भगवान नृसिंह ने जिस तरह हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में लेटाकर उसका वक्षस्थल विदीर्ण कर दिया था, वैसे ही वे मेरे लोभ व अहंकार रूपी हिरण्यकशिपु को मार डालें। कुछ बचे तो उन का प्रेम ही बचे, बाकी सब नष्ट हो जाये।
भारत के भीतर और बाहर के सभी शत्रुओं का नाश हो। भारत में कहीं भी असत्य का अंधकार न रहे। यही होली की शुभ कामनाएँ हैं !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
मार्च २०२३