Saturday 17 July 2021

अभ्यास और वैराग्य ---

 

अभ्यास और वैराग्य ---
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हमारे चैतन्य में सदा से एक बड़ी भयंकर रस्साकशी चल रही है, और वह इस जीवन के अंत तक चलती रहेगी| एक शक्ति हमें ऊपर परमात्मा की ओर खींच रही है, व दूसरी शक्ति नीचे वासनाओं की ओर| हम बीच में असहाय हैं| जो शक्ति नीचे की ओर खींच रही है वह बड़ी आकर्षक और सुहावनी है, पर अंततः दुःखदायी है| जो शक्ति ऊपर खींच रही है वह लग तो रही है कष्टमय, पर अंत में स्थायी आनंददायक है| योगसूत्रों के व्यास भाष्य में इसे "उभयतो वाहिनी नदी" यानि परस्पर विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होने वाली अद्भुत नदी कहा गया है|
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हमें उस प्रवाह को शक्ति देनी है जो ऊपर की ओर बह रहा है| वह कल्याण का मार्ग है| योगदर्शन में एक सूत्र है ... "अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः|" अर्थात् अभ्यास और वैराग्य से उन चित्तवृत्तियों का निरोध होता है| गीता में भी भगवान कहते हैं ...
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं| अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते||६:३५||"
अर्थात् हे महबाहो निसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है|
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यहाँ अभ्यास का अर्थ है .... अपनी चित्तभूमि में एक समान वृत्ति की बारंबार आवृत्ति| वैराग्य का अर्थ है दृष्ट व अदृष्ट प्रिय भोगों में बारंबार दोषदर्शन और उन से विरक्ति| सुषुम्ना में नीचे के तीन चक्रों में यदि चेतना रहेगी तो वह अधोगामी होगी और ऊपर के तीन चक्रों में ऊर्ध्वगामी| अपनी चेतना को सदा प्रयासपूर्वक उत्तरा-सुषुम्ना में यानि आज्ञाचक्र से ऊपर रखें| सूक्ष्म देह में मूलाधार चक्र से स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि व आज्ञा चक्रों से होते हुए सहस्त्रार तक एक अति-अति सूक्ष्म प्राण शक्ति प्रवाहित हे रही है, उसके प्रति सजग रहें व अजपा-जप की साधना और नादानुसंधान करें| अपने हृदय का सर्वश्रेष्ठ और पूर्ण प्रेम परमात्मा को दें| निश्चित रूप से कल्याण होगा|
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यह सच्चिदानंद परमात्मा की करुणा, कृपा और अनुग्रह है कि हमें उनकी याद आ रही है, और हमें उनसे परमप्रेम हो गया है| लिखने को तो बहुत कुछ है पर मेरा स्वास्थ्य इसकी अनुमति नहीं दे रहा है| फेसबुक पर भगवान की परम कृपा से मैं पिछले आठ-नौ वर्षों में हिन्दू राष्ट्रवाद और आध्यात्म पर सैंकड़ों लेख (दो हज़ार से भी अधिक) लिख चुका हूँ| अब स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता, अतः लिखने में बड़ी कठिनाई होती है| अब कभी भगवान लिखवाएँगे तभी लिखूंगा, अन्यथा नहीं| जितना समय लेख लिखने में लगता है वह समय गुरुदेव भगवान श्रीहरिः के चरम-कमलों के ध्यान और उनकी स्मृति में ही बिताऊँगा| किसी भी तरह की किसी से कोई भी अपेक्षा नहीं है| भगवान ने इस जीवन में जितनी अत्यल्प और अति-अति सीमित क्षमता दी, उसकी सीमा में रहते हुए जितना भी संभव था वह किया और जो संकल्प पूर्ण नहीं हुए हैं वे अगले जन्मों में होंगे| किसी भी तरह की कोई मुक्ति या मोक्ष नहीं चाहिए| बार-बार जन्म हों, व हर जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो|
ॐ नमो भगवते वसुदेवाय| ॐ नमः शिवाय| हरिः ॐ तत्सत| ॐ ॐ ॐ||
कृपा शंकर
१८ जुलाई २०२०
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पुनश्च :--- अभ्यास और वैराग्य की उपेक्षा न करें, अन्यथा यह जीवन यों ही व्यर्थ में बीत जाएगा| प्रमाद और दीर्घसूत्रता हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं जिनके आगे हम असहाय हो जाते हैं| महिषासुर हमारे अंतर में प्रमाद और दीर्घसूत्रता के रूप में अभी भी जीवित है, बाकी अन्य सारे शत्रु (राग-द्वेष रूपी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर्य) इसके पीछे पीछे चलते हैं| यह प्रमाद रूपी महिषासुर ही हमारी मृत्यु है| निरंतर प्रभु से प्रेम और उनके प्रेमरूप पर अनवरत ध्यान के अभ्यास और विषयों से वैराग्य द्वारा ही हम इन शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं| हमारे चित्त में तमोगुण की प्रबलता होने पर निद्रा, आलस्य, निरुत्साह, प्रमाद आदि मूढ़ अवस्था के दोष उत्पन्न हो जाते हैं| रजोगुण की प्रबलता होने पर चित्त विक्षिप्त अर्थात् चञ्चल हो जाता है| इन दोनों प्रकार की बाधक वृत्तियों के प्रशमन के लिये अभ्यास तथा वैराग्य सर्वोत्तम साधन हैं| अभ्यास से तमोगुण की निवृत्ति और वैराग्य से रजोगुण की निवृत्ति होती है| वैराग्य से चित्त का बहिर्मुख प्रवाह रोका जाता है, व अभ्यास से आत्मोन्मुख प्रवाह स्थिर किया जा सकता है|