Sunday, 31 October 2021

अक्षरब्रह्म योग व भूमा ---

जिन्हें इसी जीवनकाल में मुक्ति या मोक्ष चाहिए, उनके लिए श्रीमद्भगवद्गीता का आठवाँ अध्याय "अक्षरब्रह्म योग" है। इसका सिद्धान्त पक्ष तो कोई भी विद्वान आचार्य सिखा देखा, लेकिन व्यावहारिक पक्ष सीखने के लिए विरक्त तपस्वी महात्माओं का सत्संग करना होगा, और स्वयं को भी तपस्वी महात्मा बनना होगा।

एक पथ-प्रदर्शक गुरु का सान्निध्य चाहिए जो हमें उठा कर अमृत-कुंड में फेंक सके। यदि सत्यनिष्ठा है तो भगवान उसकी भी व्यवस्था कर देते हैं।।

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" यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति "
भूमा तत्व में यानि परमात्मा की व्यापकता और विराटता में जो सुख है, वह अल्पता में नहीं है। जो भूमा है, व्यापक है वह सुख है। कम में सुख नहीं है।
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"भूमा" एक वैदिक विद्या है जिसके प्रथम आचार्य भगवान सनतकुमार हैं। वे "ब्रह्मविद्या" के भी प्रथम आचार्य हैं। इनको सीखने के लिए सिद्ध सन्यासी संतों का सत्संग करें। "श्रीविद्या" पौराणिक है, इसके आचार्य भी प्रायः सन्यासी ही होते हैं। भारत में विद्वान सन्यासी संतों की कोई कमी नहीं है। भगवान की कृपा से इस जीवन में अनेक संतों का सत्संग और आशीर्वाद प्राप्त हुआ है। उनसे बहुत कुछ सीखा है। उन सब का आभारी हूँ।

हम भगवान के साथ एक हैं, उन से पृथक नहीं ---

 हम भगवान के साथ एक हैं, उन से पृथक नहीं ---

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"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि यह सब वासुदेव है ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है।
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सब नामरूपों से परे भगवान वासुदेव ही सर्वस्व हैं। जो अपने पूर्ण ह्रदय से भगवान से प्रेम करते हैं, जो निरंतर भगवान का स्मरण करते हैं, ऐसे सभी महात्माओं को मैं नमन करता हूँ। सारे उपदेश और सारी बड़ी बड़ी दार्शनिक बातें बेकार हैं यदि परमात्मा से प्रेम न हो तो। परमात्मा से प्रेम ही सारे सद्गुणों को अपनी ओर खींचता है। राष्ट्रभक्ति भी उसी में हो सकती है जिस के हृदय में परमात्मा से प्रेम हो। जो परमात्मा को प्रेम नहीं कर सकता, वह किसी को भी प्रेम नहीं कर सकता। ऐसा व्यक्ति इस धरा पर भार ही है।
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भगवान की भक्ति, भगवान से कुछ लेने के लिए नहीं, उन्हें अपना पृथकत्व का मायावी बोध बापस लौटाने के लिए होती है। हम उन सच्चिदानंद भगवान के अंश हैं, वे स्वयं ही हमारे हैं, और हम उनके हैं, अतः जो कुछ भी भगवान का है, वह हम स्वयं हैं। हम उनके साथ एक हैं, उन से पृथक नहीं।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ नवंबर २०२१

जो कुछ भी भगवान का है, वह हम स्वयं हैं ---

भगवान की भक्ति, भगवान से कुछ लेने के लिए नहीं, उन्हें अपना पृथकत्व का मायावी बोध बापस लौटाने के लिए होती है| हम उन सच्चिदानंद भगवान के अंश हैं, वे स्वयं ही हमारे हैं और हम उनके हैं, अतः जो कुछ भी भगवान का ही, वह हम स्वयं हैं| हम उनके साथ एक हैं, उन से पृथक नहीं|
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प्रश्न : भगवान से हमें पृथक किसने किया है?
उत्तर : हमारे राग-द्वेष और अहंकार ने| और भी स्पष्ट शब्दों में हमारा सत्यनिष्ठा का अभाव, प्रमाद, दीर्घसूत्रता, और लोभ हमें भगवान से दूर करते हैं| हमारा थोड़ा सा भी लोभ, बड़े-बड़े कालनेमि/ठगों को हमारी ओर आकर्षित करता है| जो भी व्यक्ति हमें थोड़ा सा भी प्रलोभन देता है, चाहे वह आर्थिक या धार्मिक प्रलोभन हो, वह शैतान है, उस से दूर रहें|
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जो वास्तव में भगवान का भक्त है, वह भगवान के सिवाय और कुछ भी नहीं चाहता| जो हमारे में भगवान के प्रति प्रेम जागृत करे, जो हमें सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे, वही संत-महात्मा है, उसी का संग करें| अन्य सब विष यानि जहर मिले हुए शहद की तरह हैं| किसी भी तरह के शब्द जाल से बचें| हमारा प्रेम यानि भक्ति सच्ची होगी तो भगवान हमारी रक्षा करेंगे| सभी का कल्याण हो|
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हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ नवंबर २०२०