जिन्हें इसी जीवनकाल में मुक्ति या मोक्ष चाहिए, उनके लिए श्रीमद्भगवद्गीता का आठवाँ अध्याय "अक्षरब्रह्म योग" है। इसका सिद्धान्त पक्ष तो कोई भी विद्वान आचार्य सिखा देखा, लेकिन व्यावहारिक पक्ष सीखने के लिए विरक्त तपस्वी महात्माओं का सत्संग करना होगा, और स्वयं को भी तपस्वी महात्मा बनना होगा।
एक पथ-प्रदर्शक गुरु का सान्निध्य चाहिए जो हमें उठा कर अमृत-कुंड में फेंक सके। यदि सत्यनिष्ठा है तो भगवान उसकी भी व्यवस्था कर देते हैं।।
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" यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति "
भूमा तत्व में यानि परमात्मा की व्यापकता और विराटता में जो सुख है, वह अल्पता में नहीं है। जो भूमा है, व्यापक है वह सुख है। कम में सुख नहीं है।
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"भूमा" एक वैदिक विद्या है जिसके प्रथम आचार्य भगवान सनतकुमार हैं। वे "ब्रह्मविद्या" के भी प्रथम आचार्य हैं। इनको सीखने के लिए सिद्ध सन्यासी संतों का सत्संग करें। "श्रीविद्या" पौराणिक है, इसके आचार्य भी प्रायः सन्यासी ही होते हैं। भारत में विद्वान सन्यासी संतों की कोई कमी नहीं है। भगवान की कृपा से इस जीवन में अनेक संतों का सत्संग और आशीर्वाद प्राप्त हुआ है। उनसे बहुत कुछ सीखा है। उन सब का आभारी हूँ।