Tuesday, 26 September 2017

सृष्टिकर्ता के बनाए नियम अपरिवर्तनीय हैं ......

सृष्टिकर्ता के बनाए नियम अपरिवर्तनीय हैं ......
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मनुष्य द्वारा बनाए गए नियम परिवर्तित हो सकते हैं, पर परमात्मा द्वारा बनाए गए नियम सदा अपरिवर्तनीय हैं| जैसे सत्य बोलना, परोपकार करना आदि पहले पुण्य थे तो आज भी पुण्य हैं| झूठ बोलना, चोरी करना, हिंसा करना पाप था तो आज भी पाप है| परमात्मा के बनाए हुए नियम अटल हैं, और पूरी प्रकृति उनका पालन कर रही है|
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हम ने जन्म लिया था परमात्मा की प्राप्ति के लिए, पर कुबुद्धि से कुतर्क कर के स्वयं को तो भटका ही रहे हैं, अहंकारवश औरों को भी भटका रहे हैं| हम जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त होने का उपाय न करने के लिए तरह तरह के बहाने बना रहे हैं| सही शिक्षा जो हमें आत्मज्ञान की और प्रवृत करती है, उसको हमने साम्प्रदायिक और पुराने जमाने की बेकार की बात बताकर हीन मान लिया है|
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हम जहाँ भी हैं, वहीं से परमात्मा की ओर उन्मुख हो जाएँ निश्चित रूप से मार्गदर्शन मिल सकता है| परमात्मा की ओर उन्मुख तो होना ही पडेगा, आज नहीं तो फिर किसी अन्य जन्म में| अभी सुविधाजनक नहीं है तो अगले जन्मों की प्रतीक्षा करते रहिये| शुभ कामनाएँ| 

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ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
२७ सितम्बर २०१७

हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है ? हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है ?......

हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है ? हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है ?......
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योगिराज श्री श्री श्याचरण लाहिड़ी महाशय (30 सितम्बर 1828 – 26 सितम्बर 1895) की आज १२२ वीं पुण्यतिथि है| मैं उन्हीं की क्रियायोग मार्ग की परम्परा में दीक्षित हूँ, अतः निम्न पंक्तियाँ उन्हें प्रणाम निवेदित करता हुआ उन की पुण्य स्मृति में लिख रहा हूँ .....
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हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है ? हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है ? जीवन और मृत्यु दोनों ही प्रकाश और अन्धकार के खेल हैं| कभी प्रकाश हावी हो जाता है और कभी अन्धकार, पर विजय सदा प्रकाश की ही होती है यद्यपि अन्धकार के बिना प्रकाश का कोई महत्त्व नहीं है| सृष्टि द्वंद्वात्मक यानि दो विपरीत गुणों से बनी है| जीवन और मृत्यु भी दो विपरीत गुण हैं, पर मृत्यु एक मिथ्या भ्रम मात्र है, और जीवन है वास्तविकता| जीवात्मा कभी मरती नहीं है, सिर्फ अपना चोला बदलती है, अतः विजय सदा जीवन की ही है, मृत्यु की नहीं|
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भगवान श्रीकृष्ण का वचन है ....
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहणाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही" ||
जिस प्रकार मनुष्य फटे हुए जीर्ण वस्त्र उतार कर नए वस्त्र धारण कर लेता है, वैसे ही यह देही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है|
(गीता में आस्था रखने वालों को समाधियों, मक़बरों और कब्रों की पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि दिवंगत आत्मा तो तुरंत दूसरा शरीर धारण कर लेती है| महापुरुष तो परमात्मा के साथ सर्वव्यापी हैं)
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जीवात्मा सदा शाश्वत है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ...
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः | न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः" ||
जीवात्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, पानी गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती"|
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भगवान श्रीकृष्ण ने ही कहा है ....
"न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे"||
जीवात्मा अनादि व अनन्त है| यह न कभी पैदा होता है और न मरता है| यह कभी होकर नहीं रहता और फिर कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है| यह (अज) अजन्मा अर्थात् अनादि, नित्य और शाश्वत सनातन है|
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शरीर के मरने वा मारे जाने पर भी जीवात्मा मरती नहीं है| बाइबिल के अनुसार भी ...
{1 Corinthians 15:54-55New International Version (NIV)}
54 "When the perishable has been clothed with the imperishable, and the mortal with immortality, then the saying that is written will come true: “Death has been swallowed up in victory.”[a]
55 “Where, O death, is your victory?
Where, O death, is your sting?”[b]
Footnotes:
1 Corinthians 15:54 Isaiah 25:8
1 Corinthians 15:55 Hosea 13:14
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श्री श्री लाहिड़ी महाशय अपनी देहत्याग के दूसरे दिन प्रातः दस बजे दूरस्थ अपने तीन शिष्यों के समक्ष एक साथ एक ही समय में अपनी रूपांतरित देह में यह बताने को साकार प्रकट हुए कि उन्होंने अपनी उस भौतिक देह को त्याग दिया है, और उन्हें उनके दर्शनार्थ काशी आने की शीघ्रता नहीं है| उनके साथ उन्होंने और भी बातें की| समय समय पर उन्होंने अपने अनेक शिष्यों के समक्ष प्रकट होकर उन्हें साकार दर्शन दिए हैं| विस्तृत वर्णन उनकी जीवनियों में उपलब्ध है|
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सचेतन देहत्याग के पूर्व उन्होंने कई घंटों तक गीता के श्लोकों की व्याख्या की और अचानक कहा कि "मैं अब घर जा रहा हूँ"| यह कह कर वे अपने आसन से उठ खड़े हुए, तीन बार परिक्रमा की और उत्तराभिमुख हो कर पद्मासन में बैठ गए और ध्यानस्थ होकर अपनी नश्वर देह को सचेतन रूप से त्याग दिया| पावन गंगा के तट पर मणिकर्णिका घाट पर गृहस्थोचित विधि से उनका दाह संस्कार किया गया| वे मनुष्य देह में साक्षात शिव थे|
ऐसे महान गृहस्थ योगी को नमन करते हुए मैं इस लेख का समापन करता हूँ|
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
आश्विन शुक्ल ६, विक्रम संवत २०७४.
२६ सितम्बर २०१७

नवरात्रों में किये जाने वाले "गरबा" का उद्देश्य सिर्फ जगन्माता की भक्ति है .....

नवरात्रों में किये जाने वाले "गरबा" का उद्देश्य सिर्फ जगन्माता की भक्ति है .....
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नवरात्रों में किये जाने वाले "गरबा" नृत्य का एकमात्र उद्देश्य जगन्माता की भक्ति है| मैं गुजरात की संस्कृति से अच्छी तरह परिचित हूँ| चालीस पचास वर्ष पूर्व तक गरबों में सिर्फ भजन ही गाये जाते थे, संगीत भी हृदय और कानों को प्यारा लगता था| सारे स्त्री और पुरुष सब अति भक्तिभाव से विभोर होकर नृत्य करते थे| यह उत्सव अपने भक्तिभाव को प्रकट करने का ही उत्सव होता था| पर अब कुछ अपवादों को छोड़कर बहुत अधिक विकृति आ गयी है| इसका कारण सिनेमा का असर भी हो सकता है और समय का प्रभाव भी|
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अब धीरे धीरे यह उत्सव एक आडम्बर हो गया है| फिल्मी धुनो पर थिरकते हुए गरबा करना, भक्तों का अत्यधिक सज धज कर आना, और जगन्माता को रिझाने की बजाय विपरीत लिंग (Opposite Sex) को रिझाने का प्रयास ..... क्या पतन नहीं है?
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इस से तो अच्छा है कि परिवार के सदस्य ही आपस में गरबा कर लें| भक्ति ही करनी है तो बाहरी दिखावे व बाहरी मनोरंजन की कोई आवश्यकता नहीं है|
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मैंने तो यहाँ अपनी भावनाओं को मात्र व्यक्त किया है| जो हो रहा है उस पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं है| मैं किसी की निंदा नहीं कर रहा हूँ, मेरा किसी से कोई द्वेष या अपेक्षा नहीं है| भगवान जो करेंगे वह अच्छा ही करेंगे| सभी को शुभ कामनाएँ| आप सब के ह्रदय में जगन्माता की भक्ति पूर्णतः जागृत हो|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
२६ सितम्बर २०१७

संसार की अथाह पीड़ा से मुक्ति का उपाय .... साक्षी भाव ....

संसार की अथाह पीड़ा से मुक्ति का
मुझे तो एक ही उपाय लगता है, और वह है ..... "साक्षी भाव" |

जितनी हमारी सामर्थ्य है, जितनी हमारी क्षमता और योग्यता है, उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ करें और बाकी सब परमात्मा को समर्पित कर साक्षी भाव में जीएँ| हम यह देह नहीं हैं, यह देह हमारा एक वाहन मात्र है जिस पर हम यह लोकयात्रा कर रहे हैं| पीड़ा है तो वह इस देह की पीड़ा है जिस के साक्षी होने को हम प्रारब्धानुसार बाध्य हैं|
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अपने विचारों को परमात्मा पर केन्द्रित कर दीजिये| हमारे माध्यम से स्वयं परमात्मा ही इस पीड़ा को भुगत रहे हैं| हमारे दुःख-सुख पाप-पुण्य सब उन्हीं के हैं| उन सच्चिदानंद भगवान परमशिव का कौन क्या बिगाड़ सकता है जिन का कभी जन्म ही नहीं हुआ| मृत्यु उसी की होती है जिसका जन्म होता है| हम उन परमात्मा के साथ अपनी चेतना को जोड़ें जो जन्म और मृत्यु से परे हैं| हम यह देह नहीं, शाश्वत अजर अमर चैतन्य आत्मा हैं|
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सारे कष्ट हमारे ही कर्मों के फल हैं जिन्हें हम रो कर भुगतें या हँस कर| पूर्व जन्मों में हमने मुक्ति के उपाय नहीं किये इस लिये यह कष्टमय जन्म लेना पड़ा| अब इस दुःख से स्थायी मुक्ति पाने की चेष्टा करें| यह वेदना और पीड़ा हमारी नहीं, परमात्मा की है| कोई भी पीड़ा स्थायी नहीं है, सिर्फ हमारे ह्रदय का प्रेम और आनंद ही स्थायी हैं|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
२३ सितम्बर २०१७