Saturday 28 December 2019

"हिन्दुत्व" और "हिन्दू राष्ट्र" पर मेरे विचार :-----

"हिन्दुत्व" और "हिन्दू राष्ट्र" पर मेरे विचार :-----
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हिन्दुत्व :---- जिस भी व्यक्ति के अन्तःकरण में परमात्मा के प्रति प्रेम और श्रद्धा-विश्वास है, जो आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म, कर्मफलों के सिद्धान्त, व ईश्वर के अवतारों में आस्था रखता है, वह हिन्दू है, चाहे वह विश्व के किसी भी भाग में रहता है, या उसकी राष्ट्रीयता कुछ भी है| हिन्दू माँ-बाप के घर जन्म लेने से ही कोई हिन्दू नहीं होता| हिन्दू होने के लिए किसी दीक्षा की आवश्यकता नहीं है| स्वयं के विचार ही हमें हिन्दू बनाते हैं|
आध्यात्मिक रूप से हिन्दू वह है जो हिंसा से दूर है| मनुष्य के लोभ और राग-द्वेष व अहंकार को ही मैं हिंसा मानता हूँ| लोभ, राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति .... परमधर्म "अहिंसा" है| जो इस हिंसा (राग-द्वेष, लोभ व अहंकार) से दूर है वह हिन्दू है|
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हिन्दू राष्ट्र :---- एक विचारपूर्वक किया हुआ संकल्प और निजी मान्यता है| हिन्दू राष्ट्र ऐसे व्यक्तियों का एक समूह है जो स्वयं को हिन्दू मानते हैं, जिन की चेतना ऊर्ध्वमुखी है, जो निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करना चाहते हैं, चाहे वे विश्व में कहीं भी रहते हों|
कुछ व्यक्तियों की मान्यता है कि हिन्दू राष्ट्र ऐसे व्यक्तियों का एक समूह है जो भारतवर्ष को अपनी पुण्यभूमि मानता हो| मेरा उन से कोई विरोध नहीं है, पर उनके इस विचार से तो हिन्दू राष्ट्र सीमित हो जाता है| भारत से बाहर रहने वाले वे व्यक्ति जो स्वयं को हिन्दू मानते हैं, फिर हिन्दुत्व से दूर हो जाएँगे| अतः हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को हमें विस्तृत रूप देना होगा|
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उपरोक्त मेरे निजी व्यक्तिगत विचार हैं, अतः किसी को इन से बुरा मानने या आहत होने की आवश्यकता नहीं है| आप सब को नमन| ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२८ दिसंबर २०१९

सुख, शांति, सुरक्षा, आनंद, तृप्ति और संतुष्टि ....

सुख, शांति, सुरक्षा, आनंद, तृप्ति और संतुष्टि .... मुझे परमात्मा के ध्यान में ही मिलती है, अन्यत्र कहीं भी नहीं| किसी भी तरह का कोई संशय नहीं है| अतः अधिकाधिक समय पूर्ण समर्पित भाव से इसी दिशा में लगायेंगे| पूरा मार्गदर्शन स्वयं परमात्मा से प्राप्त है, कोई अभाव नहीं है| सिर्फ स्वयं के प्रयासों में ही कमी है, अन्यत्र कहीं भी नहीं| इस कमी को भी पूरी लगन और निष्ठा से दूर करेंगे| मेरे चिंतन पर सबसे अधिक प्रभाव गीता, वेदान्त और योगदर्शन का है जो अपने आप में पूर्ण है|
(१) कर्मयोग :-- परमात्मा की अनुभूतियों की निरंतरता और उनके प्रकाश का विस्तार ही मेरा कर्मयोग है|
(२) ज्ञानयोग :-- कूटस्थ चैतन्य में स्थिति ही मेरा ज्ञानयोग है|
(३) भक्तियोग :-- परमप्रेम रूपी अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति ही मेरा भक्तियोग है|
अब बचा ही क्या है? ॐ ॐ ॐ
कृपा शंकर
२७ दिसंबर २०१९

मुमुक्षुत्व व फलार्थित्व ..... दोनों एक साथ नहीं हो सकते .....

मुमुक्षुत्व व फलार्थित्व ..... दोनों एक साथ नहीं हो सकते .....
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हमारे वश में कुछ भी नहीं है| जगन्माता स्वयम् ही अंगुली पकड़ कर ले जाएगी| सब तरह के भौतिक और मानसिक अहंकार को त्याग कर उन के शरणागत होना पड़ेगा| किसी भी तरह की हीनता का या श्रेष्ठता का भाव नहीं होना चाहिए| अपना अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) उन्हें समर्पित करें| यही एकमात्र उपहार है जो हम भगवान को दे सकते हैं| निष्ठा और श्रद्धा होगी तो वे अंगुली थाम लेंगे|
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बाहरी नामों से उलझन में न पड़ें| जगन्माता भी वे हैं और पिता भी वे हैं, राधा भी वे है और कृष्ण भी वे हैं, सीता भी वे हैं और राम भी वे हैं| राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, नारायण आदि सब वे ही हैं| जहां तक मेरी निजी व्यक्तिगत दृष्टि जाती है, मेरे लिए साकार रूप में वे श्रीकृष्ण हैं तो निराकार रूप में परमशिव हैं| जैसी स्वयं की भावना है वैसे ही वे भी स्वयं को व्यक्त करते हैं .....
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||४:११)"
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जो भक्त जिस फल प्राप्ति की इच्छा से भगवान को भजते हैं, भगवान भी उन को उसी प्रकार भजते हैं| उन की कामना के अनुसार ही फल देकर उन पर अनुग्रह करते हैं| आचार्य शंकर के अनुसार एक ही व्यक्ति में मुमुक्षुत्व (मोक्ष की अभीप्सा) और फलार्थित्व (फल की कामना) दोनों एक साथ नहीं हो सकते| इसलिये जो फल की इच्छा वाले हैं उन्हें फल, व जो मुमुक्षु हैं, भगवान उन्हें मोक्ष प्रदान करते हैं| यह सब हमारे स्वयं पर निर्भर है कि हम भगवान से क्या चाहते हैं|
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ || ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |
कृपा शंकर
२६ दिसंबर २०१९

Friday 27 December 2019

हमारे गरीब और लाचार हिंदुओं का धर्म-परिवर्तन मत करो ....

हे ईसाई धर्म प्रचारको, आप लोग अपने मत में आस्था रखो पर हमारे गरीब और लाचार हिंदुओं का धर्म-परिवर्तन मत करो| हमारे सनातन धर्म की निंदा और हम पर झूठे दोषारोपण मत करो|
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क्राइस्ट एक चेतना है -- श्रीकृष्ण चैतन्य या कूटस्थ चैतन्य| ईश्वर को प्राप्त करना हम सब का जन्मसिद्ध अधिकार है| सभी प्राणी ईश्वर की संतान हैं| जन्म से कोई भी पापी नहीं है| सभी अमृतपुत्र हैं परमात्मा के| मनुष्य को पापी कहना सबसे बड़ा पाप है| अपने पूर्ण ह्रदय से परमात्मा को प्यार करो|
सभी जीसस क्राइस्ट में आस्था वालों को क्रिसमस की शुभ कामनाएँ|
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२४ दिसंबर २०१९

मैं एक सलिल-बिन्दु हूँ तो आप महासागर हो -----

मैं एक सलिल-बिन्दु हूँ तो आप महासागर हो -----
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मैं नहीं चाहता कि मैं किसी पर भार बनूँ ..... न तो जीवन में और न ही मृत्यु में| मैं नित्य मुक्त हूँ| मेरे परमप्रिय परमात्मा की इच्छा ही मेरा जीवन है| मेरा आदि, अंत और मध्य ..... सब कुछ परमात्मा स्वयं हैं| यह शरीर-महाराज रूपी पिंड भी परमात्मा को अर्पित है| मेरे सारे बुरे-अच्छे कर्मफल, पाप-पुण्य, और सारे कर्म परमात्मा को अर्पित हैं| मुझे कोई उद्धार नहीं चाहिए| उद्धार तो कभी का हो चुका है| कोई किसी भी तरह की मुक्ति भी नहीं चाहिए, क्योंकि मैं तो बहुत पहिले से ही नित्यमुक्त हूँ|
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्| आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः||६:५||
अर्थात मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध: पतन नहीं करना चाहिये; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है||
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श्रुति भगवती कहती है ..... "एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्नि: सलिले संनिविष्ट:| तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेSयनाय||"
इस ब्रह्मांड के मध्य में जो एक ..... >>> "हंसः" <<< यानि एक प्रकाशस्वरूप परमात्मा परिपूर्ण है; जल में स्थितअग्नि: है| उसे जानकर ही (मनुष्य) मृत्यु रूप संसार से सर्वथा पार हो जाता है| दिव्य परमधाम की प्राप्ति के लिए अन्य मार्ग नही है||
(यह संभवतः अजपा-जप की साधना है जिसका निर्देश कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद में दिया हुआ है)
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गुरुकृपा से इस सत्य को को समझते हुए भी यदि मैं अपने बिलकुल समक्ष परमात्मा को समर्पित न हो सकूँ तो मेरा जैसा अभागा अन्य कोई नहीं हो सकता| हे प्रभु, मैं तो निमित्तमात्र आप का एक उपकरण हूँ| इसमें जो प्राण, ऊर्जा, स्पंदन, आवृति और गति है, वह तो आप स्वयं ही हैं| मैं एक सलिल-बिन्दु हूँ तो आप महासागर हो| मैं जो कुछ भी हूँ वह आप ही हो| ॐ ॐ ॐ ||
ॐ तत्सत् |
कृपा शंकर
२३ दिसंबर २०१९

जीसस क्राइस्ट का जन्मदिन 25 दिसंबर को ही क्यों मनाया जाता है? ....।

जीसस क्राइस्ट का जन्मदिन 25 दिसंबर को ही क्यों मनाया जाता है?
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जीसस क्राइस्ट के जन्म दिवस का कोई प्रमाण नहीं है, बाइबल की किसी भी पुस्तक में उनके जन्मदिवस का उल्लेख नहीं है| ईसा की तीसरी शताब्दी तक जीसस का जन्मदिवस नहीं मनाया जाता था| जहाँ तक प्रमाण मिलते हैं 336 AD से इसकी मान्यता के पीछे रोमन सम्राट कोन्स्टेंटाइन द ग्रेट की भूमिका है| उनका जन्म 27 फरवरी 272 AD को सर्बिया में हुआ था, और उनकी मृत्यु 22 मई 337 AD को निकोमीडिया में हुई| वे सूर्य के उपासक थे और जिस मत को मानते थे उसे Pagan कहा जाता था जिसका अर्थ है 'मूर्तिपूजक'| उन्होने ईसाई मत का प्रयोग अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए किया, और कोन्स्टेंटिनपोल (कुस्तुनतुनिया) (वर्तमान इस्तांबूल जो तुर्की में है) को 324 AD में बसाया| वे पहले रोमन शासक थे जिन्हें ईसाई बनाया गया था| 'दा विंसी कोड' के अनुसार जब वे मर रहे थे और अपनी मृत्यु शैया पर असहाय थे तब पादरियों ने बलात् उन का बपतिस्मा कर दिया| उन दिनों पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में 24 दिसंबर वर्ष का सबसे छोटा दिन होता था (अब 21दिसंबर), और 25 दिसंबर (अब 22 दिसंबर) से दिन बड़े होने प्रारम्भ हो जाते थे| सूर्योपासक होने के नाते कोन्स्टेंटाइन द ग्रेट ने यह तय किया कि 25 दिसंबर को ही जीसस क्राइस्ट का जन्मदिन मनाया जाये क्योंकि 25 दिसंबर से बड़े दिन होने प्रारम्भ हो जाते हैं| तभी से 25 दिसंबर को क्रिसमिस मनाई जाती है|
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25 दिसंबर के बारे में दूसरी मान्यता यह है कि उस दिन रोम के मूर्तिपूजक श्रद्धालु लोग 'शनि' (Saturn) नाम के देवता की आराधना करते थे| शनि को कृषि का देवता माना जाता था| उसी दिन फारस के लोग "मित्र" (Mithra) नाम के देवता की आराधना करते थे जिसे प्रकाश का देवता माना जाता था| अतः तत्कालीन पादरियों ने यह तय किया इसी दिन को यदि जीसस का जन्मदिन भी मनाया जाये तो रोमन और फारसी लोग इसे तुरंत स्वीकार कर लेंगे| इस आधार पर ईसाईयत को रोम का आधिकारिक मत और 25 दिसम्बर को आधिकारिक रूप से जीसस क्राइस्ट का जन्म दिन मनाया जाने लगा|
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संयुक्त राज्य अमेरिका में सन 1870 ई.तक क्रिसमिस को एक ब्रिटिश परंपरा मान कर नहीं मनाया जाता था| सन 1870 ई.से इसे आधिकारिक रूप से मनाया जाने लगा| 24 दिसंबर की पूरी रात श्रद्धालु लोग जागकर क्रिसमस के भजन गाते हैं जिन्हें Christmas carols कहते हैं| स्पेन और पुर्तगाल की परंपरा में इसे नाच गा कर मनाते हैं| भारत में पुर्तगालियों का प्रभाव रोमन कैथॉलिकों पर अधिक है विशेषकर गोआ और मुंबई में| इसलिए इस त्योहार को शराब पी कर और नाच गा कर मनाया जाता है| 25 दिसंबर को क्रिसमस की पार्टी में टर्की नाम के एक पक्षी का मांस और शराब परोसी जाती है| इस दिन एक-दूसरे को खूब उपहार भी दिये जाते हैं| सैंटा क्लोज वाली कहानी तो कपोल कल्पित और बच्चों को बहलाने वाली है| यह स्कैंडेनेवियन देशों जहाँ बर्फ खूब पड़ती है से आरंभ हुई परंपरा है|
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मेरी मान्यता :--- मेरी मान्यता है कि भगवान के भजन का कोई न कोई तो बहाना चाहिए ही| मैं विशुद्ध शाकाहारी हूँ और कोई नशा नहीं करता इसलिए कोई नशा या मांसाहार का तो प्रश्न ही नहीं है| इस दिन यथासंभव भगवान का खूब ध्यान और भजन करेंगे| मैं मानता हूँ कि जीसस क्राइस्ट ने भारत में रहकर शिक्षा ग्रहण की और सनातन धर्म की शिक्षाओं का ही फिलिस्तीन में प्रचार किया जहाँ आध्यात्मिक रूप से अज्ञान रूपी अंधकार ही अंधकार था| उन की शिक्षायें समय के साथ विकृत हो गईं| क्रिश्चियनिटी वास्तव में कृष्णनीति है| जब उन्हें शूली पर चढ़ाया गया तब वे मरे नहीं थे| उन्हें बचा लिया गया और वे अपने कबीले के साथ भारत आ गये| कश्मीर के पहलगाँव में उन्होने देह-त्याग किया| उनकी माँ मरियम का देहांत पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के मरी नाम के स्थान पर हुआ था जहाँ उन की कब्र भी है और उन के नाम पर ही उस स्थान का नाम 'मरी' है| 'दा विंसी कोड' के अनुसार उन की पत्नी मार्था और पुत्री सारा को यहूदी लोग सुरक्षित रूप से फ्रांस ले गये थे, जहाँ उन की मजार की एक संप्रदाय विशेष ने रक्षा की जिन्हें बाद में एक दूसरे संप्रदाय ने मरवा दिया|
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सार की बात यह है कि उन्होने भगवान श्रीकृष्ण की ही शिक्षा का ही प्रसार किया| इस दिन मेरे अनेक मित्र 12 घंटे भगवान का ध्यान करेंगे| अतः मैं भी पूरा प्रयास करूंगा उनका साथ देने में| आप सब मुझे अपना आशीर्वाद प्रदान करें|
"वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् | देवकीपरमानन्दं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् ||"
"वंशी विभूषित करा नवनीर दाभात्, पीताम्बरा दरुण बिंब फला धरोष्ठात् |
पूर्णेन्दु सुन्दर मुखादर बिंदु नेत्रात्, कृष्णात परम किमपि तत्व अहं न जानि ||"
"ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने, प्रणत क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:||"
"ॐ नमो ब्रह्मण्य देवाय गो ब्राह्मण हिताय च, जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः||"
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्||"
"कस्तुरी तिलकम् ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम् ,
नासाग्रे वरमौक्तिकम् करतले, वेणु करे कंकणम् |
सर्वांगे हरिचन्दनम् सुललितम्, कंठे च मुक्तावलि |
गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी ||"
"ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||"
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ दिसंबर २०१९

देश प्रथम, देश है तो सब कुछ है, देश नहीं तो कुछ भी नहीं ....

देश प्रथम| देश है तो सब कुछ है, देश नहीं तो कुछ भी नहीं| हम अपनी अस्मिता की रक्षा करें| भारत विजयी होगा| धर्म की पुनर्स्थापना होगी| असत्य और अंधकार की शक्तियों का पराभव होगा| हम जहाँ भी हैं, अपना सर्वश्रेष्ठ करें| राष्ट्र के प्रति अपना दायित्व न भूलें| भारत माता की जय|
जब तक इस शरीर को धारण कर रखा है तब तक मैं सर्वप्रथम भारतवर्ष का एक विचारशील नागरिक हूँ| भारतवर्ष में ही नहीं पूरे विश्व में होने वाली हर घटना का मुझ पर ही नहीं सब पर प्रभाव पड़ता है| आध्यात्म के नाम पर भौतिक जगत से मैं तटस्थ नहीं रह सकता| यदि भारत, भारत ही नहीं रहेगा तब धर्म भी नहीं रहेगा, श्रुतियाँ-स्मृतियाँ भी नहीं रहेंगी, यानि वेद आदि ग्रन्थ भी नष्ट हो जायेंगे, साधू-संत भी नहीं रहेंगे, सदाचार भी नहीं रहेगा और देश की अस्मिता ही नष्ट हो जायेगी| इसी तरह यदि धर्म ही नहीं रहा तो भारत भी नहीं रहेगा| दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं| अतः राष्ट्रहित हमारा सर्वोपरि दायित्व है| धर्म के बिना राष्ट्र नहीं है, और राष्ट्र के बिना धर्म नहीं है| भारतवर्ष की अस्मिता सनातन धर्म है, वही इसकी रक्षा कर सकता है| भारतवर्ष की रक्षा न तो मार्क्सवाद कर सकता है, न समाजवाद, न धर्मनिर्पेक्षतावाद न सर्वधर्मसमभाववाद और न अल्पसंख्यकवाद| यदि सनातन धर्म ही नष्ट हो गया तो भारतवर्ष भी नष्ट हो जाएगा| भारत के बिना सनातन धर्म भी नहीं है, और सनातन धर्म के बिना भारत भी नहीं है| विश्व का भविष्य भारतवर्ष से है, और भारत का भविष्य सनातन धर्म से है| यदि सनातन धर्म ही नष्ट हो गया तो यह संसार भी आपस में मार-काट मचा कर नष्ट हो जायेगा|
कृपा शंकर
२१ दिसंबर २०१९

जीसस क्राइस्ट .... एक चेतना है .....

जहाँ आसुरी शक्तियाँ अपना तांडव कर रही है, वहीं समय के साथ बदली हुई परिस्थितियों में अब एक समय ऐसा भी आ गया है कि धीरे धीरे मनुष्य की चेतना ऊर्ध्वमुखी हो रही है| धीरे धीरे पूरे विश्व में जागरूक क्रिश्चियन मतावलंबी यानि जीसस क्राइस्ट के अनुयायी स्वेच्छा से सनातन धर्म का अनुसरण आरंभ कर देंगे| पश्चिमी जगत में करोड़ों लोग नित्य नियमित ध्यान साधना और प्राणायाम करने लगे हैं| लाखों लोग नित्य नियमित रूप से गीता का स्वाध्याय करते हैं| "कूटस्थ चैतन्य" या "श्रीकृष्ण चैतन्य" शब्द को "Christ Consciousness" के रूप में कहना बहुत लोकप्रिय हो रहा है| वास्तव में Christ किसी का नाम नहीं है, Christ का अर्थ है ...."अभिषेक", जिसका अभिषेक हुआ हो (anointed one)|
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जीसस क्राइस्ट को मैं एक व्यक्ति नहीं, एक चेतना मानता हूँ जो वास्तव में
"श्रीकृष्ण चैतन्य" यानि "कूटस्थ चैतन्य" ही थी| उस चेतना की अनुभूति गहन ध्यान में होती है| वर्तमान ईसाई मत तो एक चर्चवाद है, जिस का क्राइस्ट से कोई लेनदेन नहीं है| अजपा-जप, आज्ञाचक्र और उस से ऊपर अनंत में असीम ज्योतिर्मय ब्रह्म के ध्यान, नादानुसंधान,और जपयोग से जिस चेतना का प्रादुर्भाव होता है वह "कूटस्थ चैतन्य" यानि "Christ Consciousness" है| यह चेतना ही भविष्य में मानवता को जोड़ेगी और विश्व को एक करेगी| संसार का बीज "कूटस्थ" है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ दिसंबर २०१९

यह वसुंधरा न तो किसी की हुई है और न किसी की होगी .....

यह वसुंधरा न तो किसी की हुई है और न किसी की होगी .....
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यह सृष्टि, यह संसार, यह वसुंधरा न तो किसी की हुई है और न कभी किसी की होगी| पता नहीं कितने ही बड़े-बड़े भूमिचोरों, आतताइयों, तस्करों और अन्यायी शासकों ने अपने आतंक, अत्याचार और कुटिलता से; व कितने ही चक्रवर्ती सम्राटों ने अपनी वीरता से इस वसुंधरा पर अपने अधिकार का प्रयास किया है| वसुंधरा तो वहीं है, पर वे अब कहाँ हैं? सब काल के गाल में समा गए| काल यानि मृत्यु पर विजय तो सिर्फ मृत्युंजयी परमशिव ही दिला सकते हैं जिन का कभी जन्म ही नहीं हुआ| ध्यान हम उन्हीं का करें जिन का कभी जन्म ही नहीं हुआ हो|
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शाश्वत प्रश्न तो यह है कि हम कौन हैं, और कौन हमारा है? इन प्रश्नों पर अपनी पूरी चेतना से मैंने बहुत अधिक विचार किया है| जो दिखाई दे रहा है, वह ही सत्य नहीं है, हमारी दृष्टि-सीमा से परे भी अज्ञात बहुत कुछ है| पता नहीं कितने ही अंधकारमय, कितने ही ज्योतिर्मय और कितने ही हिरण्य लोक हैं| यह वसुंधरा तो इस भौतिक जगत में ही अति अकिंचन महत्वहीन है| इस भौतिक जगत से परे भी बहुत अधिक विशाल एक सूक्ष्म जगत है, उस से भी परे कारण जगत है और उस से भी परे हिरण्यलोक हैं| यह सृष्टि अनंत है| वर्षों पहिले की बात है| एक बार बैठे हुए मैं ध्यान कर रहा था कि अचानक ही चेतना इस शरीर से निकल कर एक अंधकारमय लोक में चली गई जहाँ सिर्फ अंधकार ही अंधकार था, कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था| एक अंधेरी सुरंग की तरह का खड़ा हुआ बहुत विशाल लोक था| ऐसा लग रहा था कि यहाँ और भी बहुत अधिक लोग हैं जो अत्यधिक कष्ट में हैं| कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था| अचानक ही किसी ने बहुत ही कड़क आवाज़ में कहा कि "तुम यहाँ कैसे आ गए? निकलो यहाँ से बाहर", फिर उस ने धक्का मार कर वहाँ से बलात् बाहर फेंक दिया| उसी क्षण बापस इस शरीर में आ गया| भगवान से प्रार्थना की कि ऐसा कोई अनुभव दुबारा न हो| फिर दुबारा कोई वैसा अनुभव नहीं हुआ और कभी होगा भी नहीं| ध्यान में जब चेतना एक अतिन्द्रीय अवस्था में थी तब दो-तीन बार सूक्ष्म जगत के कुछ महात्माओं ने अपना आशीर्वाद अवश्य दिया है| उन्हीं के आशीर्वाद से शक्तिपात की अनुभूति हुई और हृदय में भक्ति जागृत हुई| यह एक गोपनीय विषय है जिस पर एक अज्ञात प्रेरणावश चर्चा कर बैठा| अब और नहीं करूँगा| कोई मुझ से इस विषय पर चर्चा भी न करे| मैं कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करूंगा|
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इस सृष्टि के पीछे एकमात्र सत्य सृष्टिकर्ता परमात्मा ही हमारे हो सकते हैं, अन्य कोई या कुछ भी नहीं| किसी की अपेक्षाओं की पूर्ति हम नहीं कर सकते, और न कोई हमारी अपेक्षाओं पर ही खरा उतर सकता है| परमात्मा की अनंतता ही हमारा अस्तित्व है और स्वयं परमात्मा ही हमारे हैं| अन्य कोई नहीं| उन परमात्मा को हम परमशिव, ब्रह्म, पारब्रह्म, नारायण, वासुदेव, विष्णु, भगवान, आदि आदि किसी भी नाम से संबोधित करें, कोई फर्क नहीं पड़ता| एकमात्र सत्य वे ही हैं, बाकी सब मिथ्या है|
ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
१९ दिसंबर २०१९

परमात्मा की उपस्थिती का आभास ही आनंद है .....

परमात्मा की उपस्थिती का आभास ही आनंद है .....
जिस आनंद को हम अपने से बाहर खोज रहे हैं, वह आनंद तो हम स्वयं हैं| संसार में हम विषयभोगों में, अभिमान में, और इच्छाओं की पूर्ति में,सुख की खोज करते हैं, पर उस से तृप्ति और संतोष नहीं मिलता| संसार में सुख की खोज अनजाने में आनंद की ही खोज है|
भगवान की अनन्य भक्ति और समर्पण से ही हमें आनंद प्राप्त हो सकता है| अन्य कोई स्त्रोत नहीं है| सार की बात है कि आनंद कुछ पाना नहीं, बल्कि स्वयं का होना है| हम आनंद को कहीं से पा नहीं सकते, स्वयं आनंदमय हो सकते हैं| हमारा वास्तविक अस्तित्व ही आनंद है|
ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः| ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
कृपा शंकर
१७ दिसंबर २०१९

जीवन में संतुष्टि और तृप्ति कैसे मिले? ....

जीवन में संतुष्टि और तृप्ति कैसे मिले? जीवन में प्राप्त करने योग्य क्या है? जीवन में क्या करें और क्या न करें? ......
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इन जैसे प्रश्नों ने बहुत उलझाये रखा है| इन सब का उत्तर भगवान से यही मिला है कि अपना छोटे से छोटा हर काम खूब मन लगाकर करो, किसी भी काम को आधे-अधूरे मन से मत करो| हर काम अपनी सर्वश्रेष्ठ लगन से और अपनी पूर्णता से करो|
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इससे जीवन में मुझे वास्तव में बड़ी संतुष्टि और तृप्ति मिली है| जो काम आधे-अधूरे मन से किए, वे सब इस जीवन में असंतोष और कुंठा के कारण बने| गीता के कुछ श्लोकों ने जीवन को नई दिशा दी और उत्साह बनाए रखा| जीवन की हर समस्या का समाधान और हर प्रश्न का उत्तर मुझे गीता में मिला|
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"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि|१८:५८||
"नेहाभिक्रम-नाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते| स्वल्पम् अप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्||२:४०||"
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्धय्-असिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||"
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भगवान ने इतनी बड़ी बात कह दी है, अब और कुछ है ही नहीं| भगवान "हैं", यहीं "हैं", सर्वत्र "हैं", इसी समय "हैं", सर्वदा "हैं", और वे ही वे "हैं"| अन्य कोई है ही नहीं| पृथकता का बोध एक भ्रम है|
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ || ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
कृपा शंकर
१६ दिसंबर २०१९

१९७१ में हम युद्ध में विजयी रहे पर कूटनीति में हार गए ....

हम युद्ध में विजयी रहे पर कूटनीति में हार गए| हम विजयी हैं और सदा विजयी ही रहेंगे -----
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आज एक गर्व का दिन है| आज से 48 वर्ष पूर्व 16 दिसम्बर 1971 को भारत ने पाकिस्तान को पूर्ण रूप से हराकर पाकिस्तान के 93,000 सैनिकों को बंदी बना कर बांग्लादेश का निर्माण किया था| इसी दिन की स्मृति में विजय दिवस मनाया जाता है|
हम युद्ध में जीते तो अवश्य पर वार्ता की टेबल पर पाकिस्तान की कूटनीति से हार गए| पाकिस्तान अपने सैनिकों के बदले कुछ भी देने को तैयार था| हम उनके बदले पाक-अधिकृत कश्मीर का सौदा कर सकते थे, लाहोर भी ले सकते थे| पर अपने भोलेपन (या मूर्खता) के कारण अपने लगभग 55 युद्धबंदियों को भी पाकिस्तान से नहीं छुड़ा पाये और पाकिस्तान के 93,000 सैनिकों को सही सलामत बिना एक भी खरौंच भी आए छोड़कर पाकिस्तान पहुंचा दिया| भारतीय युद्धबंदियों को पाकिस्तान ने बहुत ही यातना दे देकर मार दिया| यह हमारी कूटनीतिक पराजय थी|
फिर भी यह हमारी सैनिक विजय थी जिस पर हमें गर्व है| उस युद्ध में मारे गए सभी भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि | जो भी उस समय के पूर्व सैनिक जीवित हैं, उन सब को नमन | भारत माता की जय |
१६ दिसंबर २०१९

हमारे हृदय के एकमात्र राजा भगवान श्रीराम हैं ....

इस राष्ट्र भारतवर्ष में धर्म रूपी बैल पर बैठकर भगवान शिव ही विचरण करेंगे, भगवान श्रीराम के धनुष की ही टंकार सुनेगी और नवचेतना को जागृत करने हेतु भगवान श्रीकृष्ण की ही बांसुरी बजेगी| सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा होगी व असत्य और अन्धकार की शक्तियों का निश्चित रूप से पराभव होगा|
हमारे हृदय के एकमात्र राजा भगवान श्रीराम हैं| उन्होंने ही सदा हमारी ह्रदय भूमि पर राज्य किया है, और सदा वे ही हमारे राजा रहेंगे| अन्य कोई हमारा राजा नहीं हो सकता| हमारे ह्रदय की एकमात्र महारानी सीता जी हैं| वे हमारे ह्रदय की अहैतुकी परम प्रेमरूपा भक्ति हैं| वे ही हमारी गति हैं| वे ही सब भेदों को नष्ट कर हमें राम से मिला सकती हैं, अन्य किसी में ऐसा सामर्थ्य नहीं है| हमारे शत्रु कहीं बाहर नहीं, हमारे भीतर ही अवचेतन मन में छिपे बैठे विषय-वासना रुपी रावण और प्रमाद व दीर्घसूत्रता रूपी महिषासुर हैं|
राम से एकाकार होने तक इस ह्रदय की प्रचंड अग्नि का दाह नहीं मिटेगा, और राम से पृथक होने की यह घनीभूत पीड़ा हर समय निरंतर दग्ध करती रहेगी| राम ही हमारे अस्तित्व हैं और उनसे एक हुए बिना इस भटकाव का अंत नहीं होगा| उन से जुड़कर ही हमारी वेदना का अंत होगा|
अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए हमें स्वयं को भी और निर्वीर्य हो चुके असंगठित बिखरे हुए बलहीन समाज को भी संगठित व शक्तिशाली बनाना होगा| इसके लिए सूक्ष्म दैवीय शक्तियों की सहायता भी लेनी होगी| सिर्फ जयजयकार करने से काम नहीं चलेगा| निज जीवन में देवत्व को व्यक्त करना होगा| तभी हम स्वयं की, समाज की और धर्म की रक्षा कर सकेंगे|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ दिसंबर २०१९

भगवान स्वयं हम सब के समक्ष खड़े हैं, कहीं दूर नहीं हैं .....

भगवान स्वयं हम सब के समक्ष खड़े हैं, कहीं दूर नहीं हैं .....
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हम जहाँ हैं वहीं वृंदावन है, ठाकुर जी भी दूर नहीं, हमारे समक्ष ही खड़े हैं| इस हृदय की भावभूमि में जब से वे आए हैं, तब से स्वयं ही आड़े होकर फँस गए हैं| अब वे बाहर नहीं निकल सकते| कभी निकलेंगे भी नहीं| यही उनका आनंद है जिसमें हमारी भी प्रसन्नता है|
हमारे समक्ष भगवान स्वयं त्रिभंग मुद्रा में खड़े हैं| उन्होने कहीं भी अन्यत्र जाने के हमारे सारे मार्ग रोक दिये हैं| जंगल में यदि शेर सामने से आ जाये तो हम क्या कर सकते हैं? कुछ भी नहीं! जो करना है वह शेर ही करेगा| ऐसे ही जब भगवान स्वयं रास्ता रोक कर सामने खड़े हैं तो अन्यत्र जाएँ भी कहाँ? सर्वत्र तो वे ही वे हैं| उनकी यह त्रिभंग मुद्रा हमारे अज्ञान की तीन ग्रंथियों (ब्रह्म ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि और रुद्र ग्रंथि) के भेदन की प्रतीक है| द्वादशाक्षरी भागवत मंत्र की एक विशिष्ट विधि से षड़चक्रों में जाप से इन ग्रंथियों का भेदन होता है| उनका एक नाम त्रिभंग-मुरारी है| मुर नामक असुर के वे अरि हैं इसलिए वे मुरारी हैं| यह मुर कौन है? हमारा आसुरी भाव और अज्ञान ही मुरासुर है जिसका नाश भगवान स्वयं ही कर सकते हैं| अपना परम प्रेम भगवान को दें और स्वयं को उन्हें समर्पित कर दें| भगवान बहुत भोले हैं| उन्हें ठगने का प्रयास न करें, अन्यथा वे चले जाएँगे| फिर वे ठगगुरु बन कर आएंगे और हमारा सब कुछ ठग लेंगे|
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्| मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः||४:११||"
उनका आदेश है .....
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
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हे प्रभु, आपकी जय हो .....
"कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे|
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्||११.३७||"
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण-स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्|
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप||११.३८||"
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च|
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते||११.३९||"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व|
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं-सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः||११.४०||"
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ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ दिसंबर २०१९

हिन्दू कौन है? .....

(प्रश्न). हिन्दू कौन है? .....
(उत्तर). मेरी व्यक्तिगत निजी मान्यता है कि जिस भी व्यक्ति के अन्तःकरण में परमात्मा के प्रति प्रेम और श्रद्धा-विश्वास है, जो आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म, कर्मफलों के सिद्धान्त, व ईश्वर के अवतारों में आस्था रखता है, वह हिन्दू है, चाहे वह विश्व के किसी भी भाग में रहता है और उसकी राष्ट्रीयता कुछ भी है|
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क्या हिन्दू माँ-बाप के घर जन्म लेने से ही हम हिंदु हैं? क्या दीक्षा लेकर ही कोई हिन्दू हो सकता है? या किसी दीक्षा की आवश्यकता ही नहीं है? इन सब प्रश्नों का उत्तर देना मेरे बौद्धिक सामर्थ्य से परे है| हिन्दू एक बहुत ही व्यापक नाम है जो विदेशियों ने दिया है| भारत के प्राचीन शास्त्रों में केवल धर्म और अधर्म का ही नाम है| धर्म को शास्त्रों ने परिभाषित किया है और धर्म के लक्षण बताए गए हैं, पर कहीं भी उसे सीमित नहीं किया गया है| धर्म को सीमाओं में नहीं बांध सकते| इस विषय पर अनेक स्वनामधन्य मनीषियों द्वारा इतना अधिक लिखा गया है कि उसका एक लाखवाँ भाग भी मैं नहीं लिख सकता| अतः यहाँ मैं अपनी निजी मान्यता की ही बात कर रहा हूँ|
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यह मेरी अपनी निजी दृढ़ मान्यता है इसलिए किसी विवाद का प्रश्न ही नहीं है| मैं अपना मार्गदर्शन गीता से लेता हूँ| वेदों को समझना मेरी बौद्धिक क्षमता से परे है| श्रुति-स्मृतियों व आगम शास्त्रों का मुझे कोई ज्ञान नहीं है| जो भी मेरा हृदय और अंतरात्मा कहती है उसे ही मैं मानता हूँ|
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आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब को नमन|
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ दिसंबर २०१९

जीवन का एक अति गूढ रहस्य ......

जीवन का एक अति गूढ रहस्य ......
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जब हम साँस लेते हैं तब यह सारी सृष्टि .... ये सारे प्राणी हमारे साथ ही साँस लेते हैं| सत्य तो यह है कि स्वयं सृष्टिकर्ता परमात्मा ही ये सांसें ले रहे हैं| उनसे पृथकता का आभास एक भ्रम है| वास्तव में हम यह मनुष्य देह नहीं, परमात्मा की अनंत सर्वव्यापकता हैं| वे ही सर्वस्व हैं| यह देह तो उनका उपकरण मात्र एक वाहन है जो इस जीवात्मा को अपनी लोकयात्रा के लिए दिया हुआ है| यह सारी सृष्टि, परमात्मा का ही एक संकल्प है| उन्हीं से इस सृष्टि का उद्भव है, वे ही जीवनाधार हैं, और उन्हीं में यह सृष्टि बापस विलीन हो जाएगी|
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इस सूक्ष्म देह के ब्रह्मरंध्र से परे जो अनंत महाकाश है, जिसमें समस्त सृष्टि समाहित है और जो सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है, उस परम चैतन्य को मैं परमशिव कहता हूँ| वे ही वासुदेव हैं, वे ही विष्णु हैं, वे ही नारायण, और वे ही पारब्रह्म परमात्मा हैं| उन परमशिव की जिस शक्ति ने, इस ब्रह्मांड, यानि इस सारी सृष्टि को धारण कर रखा है, और जो इस सारी सृष्टि को संचालित कर रही हैं, वे पराशक्ति भगवती जगन्माता हैं| यह सारा अनंताकाश परम ज्योतिर्मय है, उसमें कहीं कोई अंधकार नहीं है| वह अनंत प्रकाश और उसकी शाश्वत अनंतता ही हम हैं, यह नश्वर देह नहीं|
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प्राण-तत्व यानि प्राण-ऊर्जा के रूप में जगन्माता ब्रह्मरंध्र से सहस्त्रार होते हुए सुषुम्ना पथ से सब चक्रों को जीवंत करते हुए नीचे उतरती है| उनके स्पर्श से सब चक्र मंत्रमय हो जाते हैं, और उन चक्रों में जागृत ऊर्जा ही इस देह को जीवंत रखती है| मूलाधार को स्पर्श करते हुए वे बापस इसी पथ से बापस लौट जाती हैं| मेरी अनुभूति यह है कि मूलाधार के त्रिकोण पर एक शिवलिंग भी है जिसका स्पर्श कर और भी अधिक घनीभूत होकर ऊपर यह प्राणऊर्जा ऊपर उठती है| इसका घनीभूत रूप ही कुंडलिनी महाशक्ति है|
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इस प्राणऊर्जा के विचरण और स्पंदन की प्रतिक्रिया से ही हमारी साँसे चल रही हैं| यह अपने आप में एक बहुत बड़ा विज्ञान है जो एक न एक दिन भारत की पाठ्य पुस्तकों में भी पढ़ाया जाएगा|
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जो मुमुक्षु जीवन में परमात्मा को पाना चाहते हैं, उन्हें जब यह बात समझ में आ जाये तभी से अपना अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में ही बिताना चाहिए| संसार में अधिकांश परिवारों में आध्यात्मिक रूप से अच्छा वातावरण नहीं होता| घर-परिवार के सदस्यों के नकारात्मक विचार अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहते| मेरी सलाह तो यह है कि विवाह और घर-गृहस्थी के बंधन में भी तभी पड़ना चाहिए जब होने वाले जीवन साथी के विचारों और सोच में साम्यता हो| विपरीत सेक्स का आकर्षण सबसे अधिक भटकाने वाला होता है| जिसने राग-द्वेष, लोभ व अहंकार को जीत लिया है वह वीतराग व्यक्ति ही विश्व-विजयी है| गीता में तो भगवान श्रीकृष्ण ने वीतरागता से भी आगे की बात कही है| सभी का कल्याण हो|
ॐ तत्सत !
कृपा शंकर
10 दिसंबर 2019

Thursday 26 December 2019

जो चुनावों में वोट नहीं डालते वे हमारी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है .....

हमारी दुर्दशा के लिए मैं उन लोगों को जिम्मेदार मानता हूँ जो चुनावों में वोट नहीं डालते| उन लोगों के कारण ही हमारा लोकतंत्र विफल है| हिंदुओं में सिर्फ जो तथाकथित दलित वर्ग है, वह ही शत-प्रतिशत मतदान करता है| मुसलमान भी शत-प्रतिशत मतदान करते हैं| हिंदुओं में पचास प्रतिशत सवर्ण हिन्दू ही मतदान करते हैं, पचास प्रतिशत तो घर से बाहर ही नहीं निकलते| इसलिए सवर्ण हिंदुओं की कोई कीमत नहीं है|जिनके मत अधिक होते हैं, उनकी ही कद्र होती है| मुसलमानों का वोट बैंक है और दलितों का भी है, पर सवर्ण हिंदुओं का नहीं है|
लोकतंत्र मतदाताओं द्वारा, मतदाताओं के लिए, मतदाता का ही शासन होता है| राजनेताओं को भी इस बात का पता है कि सवर्ण हिंदुओं का कोई वोट बैंक नहीं है, इसलिए वे मुसलमानों का तुष्टीकरण करते है और दलितों की हर बात मान कर उनका आरक्षण बढ़ा देते हैं| सवर्ण हिन्दू सिर्फ शोर मचा कर ही रह जाते हैं| जब तक सवर्ण हिन्दू अपना वोट बैंक नहीं बढ़ाते तब तक उनकी कोई कद्र नहीं होगी|
कृपा शंकर
१० दिसंबर २०१९

मैं क्यों व कैसे जीवित हूँ? ......

मैं क्यों व कैसे जीवित हूँ? ......
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जन्म-मरण और जीवन .... ये सब मेरे वश में नहीं हैं| अब तक मैं यही सोचता था कि अनेक जन्मों के संचित कर्मफलों के प्रारब्ध को भोगने के लिए यह जीवन जी रहा हूँ| पर अब सारा परिदृश्य और धारणा बदल गई है| जिन्होंने इस समस्त सृष्टि की रचना की है वे माँ भगवती जगन्माता ही यह जीवन जी रही हैं| मेरे और इस संसार के मध्य की कड़ी .... ये सांसें हैं| यह जगन्माता का सबसे बड़ा उपहार है| जिस क्षण ये साँसें चलनी बंद हो जाएंगी, उसी क्षण इस संसार से सारे संबंध टूट जाएँगे|
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ये साँसें चल रही हैं जगन्माता के अनुग्रह से| इन दो साँसों के पीछे का रहस्य भी भगवती की कृपा से मुझे पता है कि कैसे प्राणशक्ति इस देह में प्रवेश कर संचारित हो रही है और कैसे उसकी प्रतिक्रया से ये साँसें चल रही हैं| ये सांस कोई क्रिया नहीं, प्राणशक्ति के संचलन की प्रतिक्रिया है| इस प्राण का स्त्रोत और अंत कहाँ है, यह रहस्य भी स्पष्ट है| जिस क्षण जगन्माता की प्राणशक्ति का यह संचलन रुक जाएगा, उसी क्षण ये साँसें भी रुक जाएँगी और यह देह निष्प्राण हो जाएगी|
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कई रहस्य हैं जो जगन्माता के अनुग्रह से ही अनावृत होते हैं| वे रहस्य रहस्य ही रहें तो ठीक है| आप सब को नमन| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
९ दिसंबर २०१९

जबतक हम प्रकाशमान हैं, पूरी समष्टि ही प्रकाशमान है ....

सारी सृष्टि का अंधकार मिलकर भी एक छोटे से दीपक के प्रकाश को नहीं बुझा सकता| चारों ओर से प्राप्त हो रहे नकारात्मक समाचारों को पढ़कर मन लगभग पक्का मान लेता है कि समय बुरा है, विश्व-देश-समाज की स्थिति बुरी है| किन्तु ऐसा नहीं है| भगवान वासुदेव सर्वत्र हैं, उन का ध्यान करो|
>>>>> जबतक हम प्रकाशमान हैं, पूरी समष्टि ही प्रकाशमान है <<<<<
अपने कूटस्थ चैतन्य को ज्योतिर्मय परमात्मा की दिव्य ज्योति से आलोकित रखें| जब भी समय मिले, अपने चैतन्य में ओंकार के रूप में निरंतर प्रवाहित हो रही परमात्मा की वाणी को सुनें| हम आलोकमय होंगे तो पूरी सृष्टि आलोकित होगी| ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
९ दिसंबर २०१९

हमारा युद्ध 'अधर्म' से है .....

हमारा युद्ध 'अधर्म' से है| हमारी सबसे बड़ी समस्या हमारा भ्रष्ट आचरण है| हमारे भ्रष्ट आचरण के कारण ही पर्यावरण का प्रदूषण है| हमारी सारी समस्याओं के पीछे हमारा लोभ और अहंकार है| यह लोभ और अहंकार ही हिंसा की जननी है| हर कदम पर हमें घूसखोरी, बेईमानी, मिलावट, ठगी, झूठ, कपट, कुटिलता, परस्त्री/पुरुष व पराए धन की कामना ..... आदि दिखाई दे रही है, यह सत्य पर असत्य की विजय है|
अब मेरी आस्था सिर्फ परमात्मा में ही रह गई है, इस संसार से मैं निराश हूँ| आजकल लोग भगवान से प्रार्थना भी अपने झूठ, कपट और बेईमानी में सिद्धि के लिए करते हैं| लोग धर्म की बड़ी बड़ी बातें करते हैं, पर अधर्म एक शिष्टाचार बन गया है| भारत की सबसे बड़ी समस्या और असली युद्ध अधर्म से है, जिसे हम ठगी, भ्रष्टाचार, घूसखोरी और बेईमानी कहते हैं| अन्य समस्यायें गौण हैं| ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ दिसंबर २०१९

गीता जयंती पर सभी को शुभ कामनाएँ, अभिनंदन व नमन ....

गीता जयंती पर सभी को शुभ कामनाएँ, अभिनंदन व नमन ....
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गीता की सैंकड़ों टीकाएँ हैं| हर टीकाकार ने अपने अपने दृष्टिकोण व मान्यताओं के अनुसार गीता जी की अलग अलग टीका की है| किन्हीं भी दो टीकाओं में समानता नहीं है| गीता का ज्ञान देते समय भगवान श्रीकृष्ण के मन में क्या था यह तो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही बता सकते हैं| हम उनकी कृपा के पात्र बनें और उन्हीं की चेतना में रहें| गीता का ज्ञान हमें प्रत्यक्ष भगवान श्रीकृष्ण से ही प्राप्त हो| हम इस योग्य बनें|
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गीता पर मुझे सबसे प्रिय तो शंकर भाष्य है| फिर उसके बाद श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय की परंपरा में ..... भूपेन्द्रनाथ सान्याल, स्वामी प्रणवानन्द, व परमहंस स्वामी योगानन्द की लिखी टीकायें पसंद हैं| लखनऊ के रामतीर्थ प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित गीता की टीका भी बहुत ही अच्छी है| इन के अलावा भी दस-बारह विद्वानों की लिखी टीकाओं का अवलोकन किया है जो मेरे पास हैं|
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अब किसी भी टीका या भाष्य के स्वाध्याय की कोई अभिलाषा नहीं है| प्रत्यक्ष परमात्मा के साक्षात्कार की ही अभीप्सा है|
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अपना कर्ताभाव यदि हम भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित कर दें और स्वयं एक निमित्त मात्र बन कर उपासना करें तो सब कुछ समझ में आ जाएगा| यदि हम इस रथ का सारथी स्वयं भगवान पार्थसारथी को बनायेंगे तो वे स्वयं ही हमारे स्थान पर रथी बन जाएँगे, और शनैः शनैः यह रथ भी वे ही बन जाएँगे| दूसरे शब्दों में इस नौका के कर्णधार भी वे हैं, और यह नौका भी वे ही हैं| इस विमान के पायलट भी वे हैं और यह विमान भी वे ही हैं|
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ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !
कृपा शंकर
८ दिसंबर २०१९

बिना परमात्मा की चेतना के यह शरीर भी इस पृथ्वी पर एक भार ही है .....

बिना परमात्मा की चेतना के यह शरीर भी इस पृथ्वी पर एक भार ही है .....
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चैतन्य में सिर्फ परमात्मा हों| उनके किस रूप की उपासना करें इसका निर्णय उपासक स्वयं करे| सब रूप उन्हीं के हैं व सारी सत्ता भी उन्हीं की है| परमात्मा से कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं हो| किसी भी तरह की निरर्थक टीका-टिप्पणी वालों से कोई मतलब न हो, और न ही आत्म-घोषित ज्ञानियों से| तरह तरह के लोग मिलते हैं, जो एक नदी-नाव का संयोग मात्र है, उससे अधिक कुछ भी नहीं| भूख-प्यास, सुख-दुःख, शीत-उष्ण, हानि-लाभ, मान-अपमान और जीवन-मरण ..... ये सब इस सृष्टि के भाग हैं जिनसे कोई नहीं बच सकता| इनसे हमें प्रभावित भी नहीं होना चाहिए| ये सब सिर्फ शरीर और मन को ही प्रभावित करते हैं| देह और मन की चेतना से ऊपर उठने के सिवा कोई अन्य विकल्प हमारे पास नहीं है| चारों ओर छाए अविद्या के साम्राज्य से हमें बचना है और सिर्फ परमात्मा के सिवाय अन्य किसी भी ओर नहीं देखना है| नित्य आध्यात्म में ही स्थित रहें, यही हमारा परम कर्तव्य है| स्वयं साक्षात् परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं, कुछ भी हमें नहीं चाहिए| यह शरीर रहे या न रहे इसका भी कोई महत्व नहीं है| बिना परमात्मा के यह शरीर भी इस पृथ्वी पर एक भार ही है|
७ दिसंबर २०१९

रहस्यों का रहस्य .....

रहस्यों का रहस्य .....
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यह सारी सृष्टि परमात्मा परमशिव और पराशक्ति की कल्पना, अभिव्यक्ति और एक खेलमात्र है| सारी लीला वे ही खेल रहे हैं| हम तो उन के एक उपकरण और निमित्त मात्र हैं| जो भी दायित्व हमें परमात्मा ने दिया है वह हमें अपने पूर्ण मनोयोग से परमात्मा को ही कर्ता मानकर करना चाहिए| आधे-अधूरे मन से कोई काम न करें| हर काम पूरा मन लगाकर यथासंभव पूर्णता से करें| हमारे किसी भी कार्य में प्रमाद और दीर्घसूत्रता न हो| परमात्मा को स्वयं के माध्यम से कार्य करने दें|अपनी आध्यात्मिक साधना भी निमित्त मात्र होने के भाव से करें| भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है ....
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||"
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अपने माध्यम से सारा कार्य परमात्मा को करने दें| एक अकिंचन साक्षी की तरह रहें, उस से अधिक कुछ भी नहीं| महासागर के जल की एक बूंद, जो प्रचंड विकराल लहरों की साक्षी है, महासागर से मिलकर स्वयं भी महासागर हो सकती है| नारायण नारायण नारायण !
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हर जीव की देह के भीतर एक परिक्रमा-पथ है जिस पर प्राण-तत्व के रूप में वे जगन्माता भगवती स्वयं विचरण कर रही हैं| इस प्राण-तत्व ने ही सारी सृष्टि को चैतन्य कर रखा है| जिस जीव के परिक्रमा-पथ पर प्राण-तत्व अवरुद्ध या रुक जाता है, उसी क्षण उस की देह निष्प्राण हो जाती है|
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हर जीवात्मा परमशिव का ही एक अव्यक्त रूप है, जिसे एक न एक दिन क्रमशः व्यक्त होकर परमशिव में ही मिल जाना है| यही चौरासी का चक्र है| वे परमशिव हमारे ज्योतिर्मय अनंताकाश में सर्वव्यापी सूर्यमण्डल के मध्य में देदीप्यमान हैं| हम उनके साथ नित्यमुक्त और एक हैं पर इस लीलाभूमि में उनसे बिछुड़े हुए हैं|
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"जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे।।
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा।।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।"
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"आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा।।
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना।।
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा।।
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी।।
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धर्मस्य तत्वम् निहितं गुहायाम्, धर्म का तत्व तो निविड़ अगम्य गुहाओं में छिपा हुआ है, पर जगन्माता उसे करुणावश सुगम भी बना देती है| सुगम ही नहीं, उसे स्वयं प्रकाशित भी कर देती हैं| यह उनका अनुग्रह है| यह अनुग्रह सभी पर हो|
आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब को नमन!
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
७ दिसंबर २०१९

हृदय रोग से बचाव:-----

हृदय रोग से बचाव:-----
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(१) चिंतामुक्त जीवन तो जीना ही होगा| (२) नित्य प्रातः उठते ही हल्के गर्म पानी में आधा नीबू निचोड़ कर, एक चम्मच शहद, और एक चम्मच सेव का सिरका (Apple Cider Vinegar) मिला कर पीना चाहिए| (३) दिन में एक या दो लहसुन, थोड़ी सी अदरक, लगभग दस ग्राम अलसी, और एक अनार नित्य खाना चाहिए| (४) रात्री में सोने से पहिले अर्जुन की छाल का काढ़ा पीना चाहिए| अर्जुन की छाल को दूध में भी उबाल सकते हैं| अर्जुन की छाल के साथ थोड़ी सी दालचीनी भी हो तो यह काढ़ा अधिक प्रभावशाली होगा| (४) चीनी, नमक, मैदा, मावा और घी का प्रयोग कम से कम हो| (५) नित्य आधा घंटा खुली हवा में तेजी से घूमना भी चाहिए| (६) यह हृदय रोग का रामबाण इलाज है| इस से हृदयाघात (heart attack) से पूरी तरह बचाव होता है|

मंदिरों में आरती के समय घंटे-घड़ियाल-टाली-शंख आदि क्यों बजाते हैं? ....

मंदिरों में आरती के समय घंटे-घड़ियाल-टाली-शंख आदि बजाना पूर्णतः एक वैज्ञानिक विधि है जो भक्ति को जागृत करती है| मैं जो लिख रहा हूँ वह अपने प्रत्यक्ष अनुभवों से लिख रहा हूँ, किसी की नकल नहीं कर रहा| जो नियमित ध्यान साधना करते हैं, और जिन्होने प्राचीन भक्ति साहित्य का अध्ययन किया है, वे मेरी बात को बहुत अच्छी तरह से समझ सकते हैं| यही बात अनेक संत-महात्मा-योगियों द्वारा लिखी गई है जिस का भक्ति साहित्य में बहुत अच्छा और स्पष्ट वर्णन है| लगभग चालीस वर्ष पूर्व मैंने भक्ति साहित्य में से ढूंढ ढूंढ कर इन्हीं बातों का एक संकलन भी किया था जो अब पता नहीं कहाँ खो गया| पर वे बातें मेरे स्मृति में हैं, जिनको मैंने अनुभूत भी किया है|
भक्ति का स्थान हमारी सूक्ष्म देह में अनाहत चक्र है| अनाहत चक्र का स्थान मेरुदंड में पीछे की ओर Shoulder Blades यानि कंधों के नीचे जो पल्लू हैं, उनके मध्य में है| ध्यान साधना में गहराई आने पर विभिन्न चक्रों में विभिन्न ध्वनियाँ सुनाई देती हैं, जैसे मूलाधार में भ्रमर गुंजन, स्वाधिष्ठान में बांसुरी, मणिपुर में वीणा, और अनाहत चक्र में घंटे-घड़ियालों-नगाड़े-टाली-शंख आदि की मिश्रित ध्वनि| इस ध्वनि पर ध्यान करने से हृदय में भक्ति जागृत होती है| इसी की नकल कर के मंदिरों में आरती के समय ये बाजे बजाने की परंपरा का आरंभ हुआ| यह ध्वनि सीधे अनाहत चक्र को आहत करती है जहाँ भक्ति का स्थान है| इनसे भक्ति जागृत होती है|
फिर सिर भी स्वतः ही झुक जाता है और हाथ जुड़कर भ्रूमध्य को स्पर्श करने लगते हैं| भ्रूमध्य से ठीक सामने पीछे की ओर Medulla (मेरुशीर्ष) में आज्ञाचक्र है जहाँ जीवात्मा का निवास है| भ्रूमध्य से अँगूठों का स्पर्श होते ही अंगुलियों में एक सूक्ष्म ऊर्जा बनती है और सामने प्रतिष्ठित देवता को निवेदित हो जाती है| हाथ जोड़कर नमस्कार करने के पीछे भी यही विज्ञान है|
इस विषय पर लिखने को बहुत कुछ है पर विषय लंबा न हो इसलिए फिर कभी लिखूंगा| आप सब को नमन !
ॐ तत्सत |
६ दिसंबर २०१९

जगन्माता के एक स्तोत्र "श्रीललिता सहस्त्रनाम" का परिचय ....

जगन्माता के एक स्तोत्र "श्रीललिता सहस्त्रनाम" का परिचय ......
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भारतीय दर्शन में परमात्मा की "परम पुरुष" के रूप में ही नहीं, "जगन्माता" के रूप में भी आराधना होती है| जगन्माता के सैंकड़ों स्तोत्र हैं, पर जिन्हें संस्कृत भाषा का थोड़ा सा भी ज्ञान है, उनके लिए काव्यात्मक और आध्यात्मिक दृष्टि से जगन्माता का सर्वाधिक प्रभावशाली स्तोत्र "श्रीललिता सहस्रनाम" है| यह ब्रह्माण्ड पुराण का अंश है| ब्रह्माण्ड पुराण के उत्तर खण्ड में "ललितोपाख्यान" के रूप में भगवान हयग्रीव और महामुनि अगस्त्य के संवाद के रूप में इसका विवेचन मिलता है| कुछ भक्त इसकी रचना का श्रेय लोपामुद्रा को देते हैं जो अगस्त्य ऋषि की पत्नी थीं| जो भी हो यह स्तोत्र उतना ही शक्तिशाली है जितना "विष्णु सहस्त्रनाम" या "शिव सहस्त्रनाम" है|
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इसको समझकर सुनते ही कोई भी निष्ठावान साधक स्वतः ही ध्यानस्थ हो जाएगा| ध्यान साधना से पूर्व इस स्तोत्र को सुनने या पढ़ने से बड़ी शक्ति मिलती है| किसी भी भक्त की अंतर्चेतना पर इसके अत्यधिक प्रभावशाली मन्त्रों का सकारात्मक प्रभाव निश्चित रूप से पड़ता है|
इसकी प्रथम पंक्ति है .....
"श्रीमाता श्रीमहाराज्ञी श्रीमत्सिंहासनेश्वरी, चिद्ग्निकुण्डसम्भूता देवकार्यसमुद्यता"
इसका भावार्थ होगा .....
श्रीमाता :---- सबका आदि उत्स एवं पालन करने वाली शक्ति|
श्रीमहाराज्ञी :---- शास्त्रों में जो राजाओं का वर्णन है उसके अनुसार इंद्रियों का राजा मन, मन का श्वास , श्वास का लय एवं लय का नाद| नाद सबका राजा| उसका स्त्रीलिंग करें तो राज्ञी| श्री महाराज्ञी अर्थात आदि सृष्टि की महान निस्पन्द निःशब्दता की अधिष्ठात्री|
श्रीमत सिंहासनेश्वरी :---- सब तत्त्वों से ऊपर जो तत्त्व है उसके ऊपर विराजने वाली| (सौंदर्य लहरी में "सुधा सिन्धोर्मध्ये ......" मंत्र देखें)
चिदग्नि कुण्ड संभुता :---- चेतना कुंड से प्रकट होने वाली ।
दो त्रिकोणाकार अग्नि कुण्ड हैं .... एक मूलाधार में, जिसका वर्णन कुंडलिनी ध्यान तथा नारायण सूक्त में आता है| दूसरा सहस्रार का मूल त्रिकोण| सहस्रार के त्रिकोण से प्रकट होकर सृष्टि करती हुई मूलाधार के त्रिकोण में सोती है|
देव कार्य समुद्यता :---- शरीर में ईश्वरीय शक्ति के कारण जो क्रियाएं होती हैं वो जो करवाती हैं|
यहाँ पर ध्वनि, ज्योति एवं स्पन्दन का संकेत दिखता है .....
श्री महाराज्ञी से ध्वनि, श्रीमत सिंहासनेश्वरी से स्पन्दन और चिदग्नि..... से ज्योति|
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श्रीविद्या के आचार्य अगस्त्य ऋषि हैं| वे सारे तंत्रागमों के भी आचार्य हैं, जैसे शैवागमों के आचार्य दुर्वासा ऋषि, और भक्तिसूत्रों के आचार्य देवर्षि नारद हैं| आदि शंकराचार्य (आचार्य शंकर) श्रीविद्या के उपासक थे| आचार्य शंकर ने तत्कालीन अनेक मतों का खंडन किया था अतः तांत्रिक कापालिकों की अभिचार क्रिया से उन्हें भयंकर शारीरिक पीड़ा हो गई| उनका पूरा शरीर रोगग्रस्त हो गया| तब उन्होने सौ श्लोकों की रचना कर त्रिपुरसुंदरी राजराजेश्वरी श्रीललिता की आराधना की, जिससे वे तत्काल पूर्ण स्वस्थ हो गए| वे श्लोक "सौंदर्य लहरी" के नाम से प्रसिद्ध हैं| श्रीविद्या के गूढ़तम और सर्वाधिक प्रभावशाली मंत्र इन श्लोकों में छिपे हुए हैं| आचार्य शंकर की परंपरा में श्रीविद्या की दीक्षा अंतिम दीक्षा है, जिसके बाद और कोई दीक्षा नहीं दी जाती| इसे किसी अधिकृत आचार्य से ही सीख कर साधना करनी चाहिए, पुस्तकें पढ़कर नहीं| यह लेख एक परिचयात्मक लेख ही है|
(पुनश्च :-- आचार्य शंकर को अद्वैत दर्शन का आचार्य कहा जाता है जो गलत है| अद्वैत दर्शन को प्रतिपादित किया था आचार्य गौड़पाद ने जो आचार्य शंकर के गुरु आचार्य गोविंदपाद के गुरु थे|)
ॐ तत्सत् ||
५ दिसंबर २०१९ 

कूटस्थ चैतन्य में निरंतर परमप्रेममय होकर रहो .....

कूटस्थ चैतन्य में रहो, कूटस्थ चैतन्य में रहो, और कूटस्थ चैतन्य में निरंतर परमप्रेममय होकर रहो .....
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यह मेरी सीमित और अल्प बुद्धि के अनुसार सबसे बड़ी साधना है| इस से बड़ी कोई अन्य साधना नहीं है| इसका अर्थ बहुत अच्छी तरह से समझाया जा चुका है| हम अपना पूर्ण प्रेम भगवान को देंगे तो हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) भी स्वतः ही भगवान का हो जाएगा| भगवान हमारे से हमारा रुपया-पैसा नहीं मांग रहे हैं, सिर्फ हमारा प्रेम ही मांग रहे हैं| प्रेम के अतिरिक्त हमारे पास है ही क्या? सब कुछ तो उन्हीं का दिया हुआ है| प्रकृति में कुछ भी निःशुल्क नहीं है| हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है| प्रेम के बदले में भगवान स्वयं को ही दे रहे हैं| इससे अधिक और है ही क्या?
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
अर्थात (तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो मुझे नमस्कार करो इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे||
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
अर्थात तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो| (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ, (क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो||
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गीता में आध्यात्म के सबसे बड़े, बड़े से बड़े रहस्य छिपे हुए हैं जो बुद्धि की समझ से परे हैं| वे भगवान की परम कृपा से ही समझ में आते हैं| अपनी कृपा वे उन्हीं पर करते हैं, जो उन्हें प्रेम करते हैं| गीता भारत का प्राण है| भगवान वासुदेव की परम कृपा सब पर हो|
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव |
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव ||
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ दिसंबर २०१९

जब कृपा होय रघुनाथ की बाल न बांका होय .....

"जितने तारे गगन मे उतने शत्रु होंय, जब कृपा होय रघुनाथ की बाल न बांका होय||"
भय की क्या बात है? भगवान श्रीराम स्वयं हमारी रक्षा कर रहे हैं| वाल्मीकि रामायण में उनका दिया हुआ वचन है ....
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते| अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम||"
(६/१८/३३)
अर्थात जो एक बार भी शरण में आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मेरे से रक्षा की याचना करता है, उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ’‒यह मेरा व्रत है|
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ऐसे ही वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण का शरणागत कभी इस संसार-बंधन में बापस नहीं आ सकता| चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाए, यदि गीता वाले वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण हृदय में हैं तो कोई किसी का कुछ भी नहीं बिगड़ सकता| उस महाविनाश के मध्य में भी निर्भय खड़े होकर हम कह सकते हैं....
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२||"
भगवान वासुदेव हम सब की रक्षा करें|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ दिसंबर २०१९

हे पुरोहितो, इस राष्ट्र में जागृति लाओ और इस राष्ट्र की रक्षा करो .....

हे पुरोहितो, इस राष्ट्र में जागृति लाओ और इस राष्ट्र की रक्षा करो .....
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'पुरोहित' शब्द का अर्थ है जो इस पुर का हित करता है| प्राचीन भारत में जिन ब्राह्मणों को पुरोहित कहते थे वे राष्ट्र का दूरगामी हित समझकर उसकी प्राप्ति की व्यवस्था करते थे| पुरोहित में चिन्तक और साधक दोनों के गुण होते हैं, जो सही परामर्श दे सकें| एक वैदिक मंत्र है .....
वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः ..... (यजुर्वेद ९:२३)
अर्थात् "हम पुरोहित राष्ट्र को जीवंत ओर जाग्रत बनाए रखेंगे"|
ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र है ....
"अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् | होतारं रत्नधातमम् ||"
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उपरोक्त मंत्र का आध्यात्मिक अर्थ तो मैं नहीं लिख सकता क्योंकि वह बहुत गहन और लंबा है और उसे कोई पढ़ेगा भी नहीं| पर भौतिक अर्थ आंशिक रूप से समझाया जा सकता है|
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इस पृथ्वी के देवता अग्नि हैं| भूगर्भ में जो अग्नि रूपी ऊर्जा (geothermal energy) है, उस ऊर्जा, और सूर्य की किरणों से प्राप्त ऊर्जा से ही पृथ्वी पर जीवन है| वह अग्नि ही हमें जीवित रखे हुए है| इस पृथ्वी से हमें जो भी धातुएं और रत्न प्राप्त होते हैं वे इस भूगर्भीय अग्नि रूपी ऊर्जा से ही निर्मित होते हैं| अतः यह ऊर्जा यानी अग्निदेव ही इस पृथ्वी के पुरोहित हैं|
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ऊर्जा को ही अग्नि का नाम दिया हुआ है| हमारे विचारों और संकल्प के पीछे भी एक ऊर्जा है| ऐसे ऊर्जावान व्यक्तियों को ही हम पुरोहित कह सकते हैं जो अपने संकल्पों, विचारों व कार्यों से हमारा हित करने में समर्थ हों|
ऐसे लोगों को ही मैं निवेदन करता हूँ कि वे इस राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ दिसंबर २०१९

हमारा एकमात्र संबंधी हमारा 'आत्म-तत्व' है, यह 'आत्म-तत्व' ही 'कूटस्थ ब्रह्म' है .....

हमारा एकमात्र संबंधी हमारा 'आत्म-तत्व' है, यह 'आत्म-तत्व' ही 'कूटस्थ ब्रह्म' है .....
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मेरी आस्था 'कूटस्थ परमात्मा' में है| 'कूटस्थ चैतन्य' में अब उनकी कृपा से किसी भी तरह का कोई आध्यात्मिक संशय या रहस्य नहीं रहा है| गुरुकृपा से सारे आंतरिक द्वार खुले हैं, प्रकाश ही प्रकाश है, कहीं कोई अंधकार नहीं है| जब मुझ जैसे अकिंचन, साधनहीन, अशिक्षित, सामान्य से भी बहुत कम सामान्य व्यक्ति पर भगवान कृपा कर सकते हैं, तो आप तो बहुत बड़े बड़े साधन-सम्पन्न, उच्च-शिक्षित और प्रबुद्ध लोग हैं| अपने जीवन का केन्द्रबिन्दु परमात्मा को बनाइये| निश्चित रूप से सभी पर भगवान की कृपा होगी|
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यह "कूटस्थ" शब्द बहुत प्यारा है| भगवान श्रीकृष्ण ने इस शब्द का प्रयोग गीता में किया है| भगवान सर्वत्र हैं पर कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं है, इसलिए वे 'कूटस्थ' हैं| वे योगी जो दिन-रात भगवान का ध्यान करते हैं, अपने ध्यान में सहस्त्रार व ब्रह्मरंध्र से भी ऊपर दिखाई देने वाले अनंत ज्योतिर्मय ब्रह्म व अनंत में सुनाई दे रहे नादब्रह्म को 'कूटस्थ' कहते हैं| वे इन्हीं पर ध्यान करते हैं| भगवान वास्तव में 'कूटस्थ' हैं| वे हमारे सभी सामाजिक सम्बन्धों में भी व्याप्त हैं| हमारा एकमात्र संबंध परमात्मा से है| माता-पिता के रूप में भी भगवान ने हमें प्रेम किया है, भाई-बहिनों, सम्बन्धियों और मित्रों के रूप में भी भगवान आये हैं, और सम्पूर्ण अस्तित्व भगवान ही है, और हम भी वही हैं| भगवान की यह चेतना ही 'कूटस्थ चैतन्य' कहलाती है|
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और भी स्पष्टता से कहें तो हमारा असली सम्बन्धी हमारा "आत्म-तत्व" ही है| वही 'प्रत्यगात्मा' है| भगवान ही हमारे एकमात्र सम्बन्धी हैं, प्रतीत होने वाले अन्य सब उसी के रूप हैं| भगवान को उपलब्ध होने के अतिरिक्त अन्य सब कामनाएँ हमें त्यागनी होंगी, तभी हम इस सत्य को समझ पायेंगे| ये भगवान ही हैं जो इस "मैं" में भी व्यक्त हो रहे हैं| पृथकता का आभास ही 'आवरण' है जो हमें सत्य को समझने नहीं देता| इस सत्य से परे जाने का आकर्षण ही 'विक्षेप' है| यह आवरण और विक्षेप ही भगवान की 'माया' है जो उनकी कृपा से ही हमारा पीछा छोड़ती हैं| इन आवरण और विक्षेप का प्रभाव दूर होने पर ही भगवान का बोध होता है|
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भगवान हैं, यहीं पर हैं और सर्वत्र हैं, इसी समय हैं, सर्वदा हैं, और सर्वदा रहेंगे| सभी पर उन की कृपा हो|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ |
कृपा शंकर
३ दिसंबर २०१९

Wednesday 25 December 2019

ध्यान साधना में उपासना .....

ध्यान साधना में उपासना .....
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ध्यान सदा पूर्णता का होता है| परमात्मा का जो ज्योतिर्मय अनंत अखंड मंडलाकार कूटस्थ रूप है, वह हमारा उपास्य है| जिस में सब कुछ समाहित है, कुछ भी जिस से पृथक नहीं है, उस पूर्णता का ध्यान करते करते हम पूर्ण हो सकते हैं| जिन परमशिव का कभी जन्म नहीं हुआ, उन का ध्यान हमें मृत्युंजयी बना सकता है| इस संसार में जो कुछ भी हम ढूँढ रहे हैं ..... सुख, शांति, सुरक्षा, आनंद, समृद्धि, वैभव, यश, और कीर्ति ...... वह सब तो हम स्वयं ही हैं| बाहर के विश्व में इन सब की खोज एक मृगतृष्णा है|
यह पूर्णता ही सत्य यानि परमात्मा है| अपनी अपूर्णता का पूर्णता में पूर्ण समर्पण उपासना है|
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परमात्मा की परम कल्याणकारक पूर्णता परमशिव है| उस पूर्णता को उपलब्ध होने के लिए हमने जन्म लिया है| जब तक हम उसमें समर्पित नहीं होंगे तब तक यह अपूर्णता रहेगी| पूर्णता का एकमात्र मार्ग है ..... परम प्रेम, पवित्रता और उसे पाने की गहन अभीप्सा| अन्य कोई मार्ग नहीं है| जब हम इस मार्ग पर चलते हैं तब परमप्रेमवश प्रभु स्वयं निरंतर हमारा मार्गदर्शन करते हैं|
इस उपासना में उपासक और उपास्य दोनों एक हैं| यह बड़े रहस्य की गोपनीय बात है| यह मेरा परम गोपनीय रहस्य है जिसे मैं अनावृत नहीं कर सकता क्योंकि इसके अतिरिक्त मेरे पास और कुछ है भी नहीं|
"नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमोनमः| अहं त्वं त्वमहं सर्वं जगदेतच्चराचरम्|| (स्कन्दपुराण:२:२:२७:३०)"
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते| पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते|| ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः||
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
३० नवम्बर २०१९

सप्त व्याहृतियों के साथ गायत्री मंत्र का जप और प्राणायाम .....

सप्त व्याहृतियों के साथ गायत्री मंत्र का जप और प्राणायाम .....
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यहाँ मैं जो कुछ भी लिख रहा हूँ वह व्यक्तिगत सत्संगों से प्राप्त ज्ञान, साधना के निजी अनुभवों और स्वाध्याय पर आधारित है, अतः कोई विवाद का विषय नहीं हैं|
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सर्वप्रथम तो यह ज्ञात होना चाहिए कि गायत्री मंत्र के जप के अधिकारी कौन कौन हैं| इस विषय पर थोड़ा विवाद है| पारंपरिक रूप से जिन का यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका है, वे ही गायत्री मंत्र के जप के अधिकारी हैं| कुछ आचार्यों के अनुसार जिन का यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका है उनकी पत्नियों को भी गायत्री मंत्र के जप का अधिकार है| कुछ आचार्य दीक्षा देकर सभी को यह अधिकार देते हैं| अतः अपनी गुरु-परंपरा या कुल-परंपरा के अनुसार ही गायत्री मंत्र की साधना करें|
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ब्राह्मण के लिए एक दिन में कम से कम दस गायत्री मंत्र का जप अनिवार्य है| इस की एक विशेष विधि भी है जो आचार्य द्वारा सामने बैठा कर बताई जाती है| अगर कोई ब्राह्मण दिन में एक बार भी गायत्री मंत्र का जप नहीं करता तो अपने ब्राह्मणत्व से च्युत हो जाता है, यानि वह ब्राह्मण नहीं रहता| फिर उसे प्रायश्चित करना पड़ता है| ब्राह्मण को नित्य कम से कम तीन माला गायत्री मंत्र की तो करनी ही चाहिए| सभी को अपनी अपनी श्रद्धानुसार यथासंभव खूब जप करना चाहिए| गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को ”यज्ञानां जप यज्ञोस्मि” और "गायत्री छन्दसामहम्" कहा है|
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गायत्री जप की एक विशेष योगिक व तांत्रिक विधि है जिसमें सप्त व्याहृतियों के साथ अपने सूक्ष्म शरीर में मेरुदंड की सुषुम्ना नाड़ी के सभी चक्रों पर जप किया जाता है| मन्त्र शास्त्र में ‘भूः’, ‘भुवः’, ‘स्वः’, ‘महः’, ‘जनः’, ‘तपः’, ‘सत्यम्’ ये सात व्याहृतियाँ कही गयी हैं| इनमें ‘भूः’, ‘भुवः’, और ‘स्वः’ ये तीन महाव्याहृतियाँ हैं| ये व्याहृतियाँ गायत्री मंत्र के प्रारम्भ में विशेष मानसिक रूप से जपी जाती हैं|
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गायत्री मन्त्र को ही सावित्री मन्त्र भी कहते है| महाभारत में गायत्री मंत्र की महिमा कई स्थानों पर गाई गयी है| भीष्म पितामह युद्ध के समय जब शरशय्या पर पड़े होते हैं तो उस समय अन्तिम उपदेश के रूप में युधिष्ठिर आदि को गायत्री उपासना की प्रेरणा देते हैं। भीष्म पितामह का यह उपदेश महाभारत के अनुशासन पर्व में दिया गया है ........
''जो व्यक्ति गायत्री का जप करते हैं उनको धन, पुत्र, गृह सभी भौतिक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं| उनको राजा, दुष्ट, राक्षस, अग्नि, जल, वायु और सर्प किसी से भय नहीं लगता| जो लोग इस उत्तम मन्त्र गायत्री का जप करते हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्ण एवं चारों आश्रमों में सफल रहते हैं| जिस स्थान पर गायत्री का पाठ किया जाता है, उस स्थान में अग्नि काष्ठों को हानि नहीं पहुँचाती है, बच्चों की आकस्मिक मृत्यु नहीं होती, न ही वहाँ अपङ्ग रहते हैं| जो लोग गायत्री का जप करते हैं उन्हें किसी प्रकार का कष्ट एवं क्लेश नहीं होता है तथा वे जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करते हैं| गौवों के बीच गायत्री का पाठ करने से गौवों का दूध अधिक पौष्टिक होता है| घर हो अथवा बाहर, चलते फिरते सदा ही गायत्री का जप किया करें| गायत्री से बढ़कर कोई जप नहीं है|"
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गायत्री का दूसरा नाम सावित्री, सविता की शक्ति ब्रह्मशक्ति होने के कारण रखा गया है| गायत्री मन्त्र के देवता सविता हैं और साधक उनकी भर्गः ज्योति का ध्यान करते हैं जो आज्ञा चक्र से ऊपर सहस्त्रार में या उससे भी ऊपर दिखाई देती है| वैसे तो वेद की महिमा अनन्त है, किंतु महर्षि विश्वामित्र जी के द्वारा दृष्ट ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के ६२वें सूक्त का दसवाँ मन्त्र 'ब्रह्म गायत्री-मन्त्र' के नाम से विख्यात है, जो इस प्रकार है ----
"तत्सवितुर्वरेण्यं| भर्गो देवस्य धीमहि| धियो यो न: प्रचोदयात||"
उपरोक्त मन्त्र का अर्थ तो सभी को ज्ञात है अतः उस पर चर्चा नहीं करेंगे| गायत्री की महिमा अनंत है|
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योग साधना में गायत्री मन्त्र का जाप गुरु प्रदत्त विधि से सूक्ष्म शरीरस्थ सुषुम्ना नाड़ी में होता है| गुरु कृपा से ही सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खुलता है जो मूलाधार से आज्ञा चक्र तक है| उससे भी आगे परा सुषुम्ना है जो आज्ञाचक्र से भ्रूमध्य तक होकर वहाँ से सहस्त्रार में जाती है| और उत्तरा सुषुम्ना है जो आज्ञाचक्र से सीधे सहस्त्रार में जाती है| उत्तरा सुषुम्ना में प्रवेश तो गुरु की अति विशेष कृपा से ही हो पाता है|
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आज्ञाचक्र से ऊपर जो कूटस्थ ज्योति दिखाई देती है वही सविता देव की भर्गः ज्योति है जिसका ध्यान किया जाता है और जिसकी आराधना होती है| इसका क्रम इस प्रकार मेरुदंड व मस्तिष्क के सूक्ष्म चक्रों पर मानसिक जप करते हुए है ---
ॐ भू: ------ मूलाधार चक्र,
ॐ भुवः ---- स्वाधिष्ठान चक्र,
ॐ स्वः ----- मणिपुर चक्र,
ॐ महः ---- अनाहत चक्र,
ॐ जनः -- -- विशुद्धि चक्र,
ॐ तपः ------ आज्ञा चक्र,
ॐ सत्यम् --- सहस्त्रार ||
फिर आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में या सहस्त्रार के ऊपर एक विराट ज्योति दिखाई देती है जिस पर ध्यान किया जाता है| जब चित्त में थोड़ी स्थिरता आती है तब फिर प्रार्थना और जप किया जाता है ....
ॐ "तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गोदेवस्य धीमहि, धियो योन: प्रचोदयात् |
"यह त्रिपदा गायत्री है| इसमें चौबीस अक्षर हैं| जप से पूर्व संकल्प करना पड़ता है कि आप कितने जप करेंगे| जितनों का संकल्प लिया है उतने तो करने ही पड़ेंगे| फिर जप के पश्चात् उस ज्योति का ध्यान, नाद-श्रवण और ईश्वर की सर्वव्यापकता में मानसिक अजपा-जप (हंसः/सोहं) करते रहो| ईश्वर की सर्वव्यापकता हम स्वयं ही हैं|
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समापन --
ॐ "आपो ज्योति" मानसिक रूप से बोलते हुए दायें हाथ की तीन अँगुलियों से बाईँ आँख का स्पर्श करें,
"रसोsमृतं" से दायीं आँख का,
और "ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम्" से भ्रूमध्य का स्पर्श करें|
फिर लम्बे समय तक अपने आसन पर बैठे और सर्वस्व के कल्याण की कामना करें| प्रभु को अपना सम्पूर्ण परम प्रेम अर्पित करो और स्वयं ही वह परम प्रेम बन जाओ|
यह सप्त व्याहृतियों से युक्त गायत्री साधना की विधि बहुत अधिक शक्तिशाली है और समाधी के लिए बहुत प्रभावी है| इस साधना में यम नियमों का पालन, व भक्ति अनिवार्य है|
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आप सब में परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब को नमन |
ॐ तत्सत्| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२९ नवम्बर २०१९

और क्या देखने को बाक़ी है? आप से दिल लगा के देख लिया .....

और क्या देखने को बाक़ी है? आप से दिल लगा के देख लिया .....
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भगवान की भक्ति एक स्वभाविक प्रक्रिया है जो भगवान की कृपा से ही होती है| स्वयं के प्रयास से कोई भक्त नहीं बनता| प्रेमवश मैं बहुत सोच-समझ कर और पूरी जिम्मेदारी से लिख रहा हूँ कि भगवान की भक्ति भी एक धोखा है| जो एक बार भक्ति के चक्कर में पड़ जाता है उसके लिए बापस लौटना संभव नहीं रहता| फिर मिर्जा गालिब का वह शेर याद आता है कि .....
"इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के"|
मीराबाई का भी एक भजन है .....
"जो मैं ऐसा जानती प्रीत किए दुख होय, नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोई"|
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जब से भगवान से प्रेम हुआ है, भगवान ने पकड़ लिया है| हर समय वे ही वे याद आते हैं और चारों ओर जिधर ही दृष्टि जाती है, उधर भी वे ही वे नज़र आते है| दुनिया के लिए अब अनुपयुक्त यानि misfit हो गए हैं| अतः सोच समझ कर ही भक्ति करें|
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हमारा पीड़ित, दुःखी और बेचैन होना हमारी भगवान की ओर यात्रा का आरंभ है| मनुष्य इस संसार में सुख ढूँढता है, पर उसे निराशा ही हाथ लगती है| यह संसार सुखी होने का वादा करता है पर वास्तव में दुःखी ही करता है| दुःख आते ही हैं भगवान की याद दिलाने के लिए, अन्यथा भगवान को कोई याद नहीं करता| 'ख' आकाश तत्व को कहते है जो भगवान के लिए प्रयुक्त होता है (खं ब्रह्म:)| 'दुः' यानि दूरी| भगवान से दूरी ही दुःख है|
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जब कोई अपने प्रेमास्पद को बिना किसी अपेक्षा या माँग के, निरंतर प्रेम करता है तो प्रेमास्पद को प्रेमी के पास आना ही पड़ता है| उसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता| प्रेमी स्वयं परम प्रेम बन जाता है| वह पाता है कि उसमें और प्रेमास्पद में कोई अंतर नहीं है| प्रेम की "कामना" और "बेचैनी" हमें प्रभु के दिए हुए वरदान हैं| मैं लौकिक दृष्टी से यहाँ उल्टी बात कह रहा हूँ पर यह सत्य है| किसी भी वस्तु की "कामना" इंगित करती है कि कहीं ना कहीं किसी चीज का "अभाव" है| यह "अभाव" ही हमें बेचैन करता है और हम उस बेचैनी को दूर करने के लिए दिन रात एक कर देते हैं, पर वह बेचैनी दूर नहीं होती और एक "अभाव" सदा बना ही रहता है| उस अभाव को सिर्फ भगवान की उपस्थिति ही भर सकती है, अन्य कुछ भी नहीं|
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संसार की कोई भी उपलब्धि हमें "संतोष" नहीं देती क्योंकि "संतोष" तो हमारा स्वभाव है| वह हमें बाहर से नहीं मिलता बल्कि स्वयं उसे जागृत करना होता है| "संतोष" और "आनंद" दोनों ही हमारे स्वभाव हैं जिनकी प्राप्ति "परम प्रेम" से होती है| हमारा पीड़ित और बेचैन होना ही हमारी परमात्मा की ओर यात्रा की शुरुआत है| हमारे दुःख, पीडाएं और बेचैनी ही हमें भगवान की ओर जाने को बाध्य करते हैं| अगर ये नहीं होंगे तो हमें भगवान कभी भी नहीं मिलेंगे| अतः दुनिया वालो, दुःखी ना हों| भगवान को खूब प्रेम करो, प्रेम करो और पूर्ण प्रेम करो| हम को सभी कुछ मिल जायेगा| स्वयं प्रेममय बन जाओ|
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अपना दुःख-सुख, अपयश-यश , हानि -लाभ, पाप-पुण्य, विफलता-सफलता, बुराई-अच्छाई, जीवन-मरण यहाँ तक कि अपना अस्तित्व भी सृष्टिकर्ता को बापस सौंप दो| उनके कृपासिन्धु में हमारी हिमालय सी भूलें, कमियाँ और पाप भी छोटे मोटे कंकर पत्थर से अधिक नहीं है| वे वहाँ भी शोभा दे रहे हैं| इस नारकीय जीवन से तो अच्छा है उस परम प्रेम में समर्पित हो जाएँ| वहाँ संतोषधन भी मिलेगा और आनंद भी मिलेगा| "प्रेम" ही भगवान का स्वभाव है|
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भगवान के पास सब कुछ है पर एक चीज नहीं है जिसके लिए वे भी तरस रहे हैं, और वह है हमारा प्रेम| हम रूपया पैसा, पत्र पुष्प आदि जो कुछ भी चढाते हैं क्या वह सचमुच हमारा है? हम एक ही चीज भगवान को दे सकते हैं और वह है हमारा "प्रेम"| तो उसको देने में भी कंजूसी क्यों?
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२८ नवम्बर २०१९

जहाँ पर भी हम हैं, भगवान को वहीं पर आना होगा ....

जहाँ पर भी हम हैं, भगवान को वहीं पर आना होगा| भगवान हमारे स्वयं में ही व्यक्त होंगे| भगवान कहीं बाहर नहीं, स्वयं में ही मिलेंगे| हमारा शिवत्व स्वयं में ही व्यक्त होगा| अतः इधर-उधर भागना बेकार है|
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शिव तत्व है 'पूर्णता'| पूर्णता ही शिवत्व है| शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है| दोनों एक ही हैं, सिर्फ अभिव्यक्तियाँ पृथक पृथक हैं| शब्द 'स्वयं' से मेरा तात्पर्य हमारे इस शरीर से नहीं है| शरीर तो एक साधन, एक वाहन है जिसे भगवान ने हमें साधना यानि इस लोकयात्रा के लिए दिया है| जो अनंत सर्वव्यापी ज्योतिर्मय चेतना है जिसने इस सारी सृष्टि को चैतन्य कर रखा है, वह हम हैं| उसी का ध्यान करें| पूर्णता शिव में है, जीव में नहीं; पूर्णता शिव में ढूंढें, जीव में नहीं| पूर्णता शिव में ही हो सकती है, मनुष्य में तो कभी भी नहीं| शिव कोई दूसरा नहीं है, हमें स्वयं को ही शिव बनना होगा| मनुष्य शिव रूप में ही पूर्ण है, मनुष्य रूप में नहीं| कोई भी मनुष्य पूर्ण नहीं है, संसार की दृष्टि में वह चाहे कितना भी बड़ा, महान, संत, तपस्वी या महात्मा हो|
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साधना के क्रम अपनी पात्रता पर निर्भर हैं| फिर भी ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर एक ऊनी आसन पर बैठ जाएँ| चाहें तो एक कंबल को ही अपना आसन बना लें| मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर हो| कमर सदा सीधी हो| यदि सीधे बैठने में कोई कठिनाई हो तो नितंबों के नीचे एक पतली गद्दी रख लीजिये| (पश्चिमोत्तानासन या महामुद्रा जैसे आसनों के नियमित अभ्यास से कमर सदा सीधी रहेगी) दृष्टिपथ भ्रूमध्य में हो| अपनी चेतना को सदा भ्रूमध्य से ऊपर ही रखें, किसी भी तरह का कोई तनाव नहीं हो|
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कुछ देर हठयोग के कुछ प्राणायाम करें| आगे की साधना अपनी अपनी गुरु परंपरानुसार करें| भगवान स्वयं किसी न किसी माध्यम से मार्गदर्शन करेंगे, यह हमारी श्रद्धा और भक्ति पर निर्भर है| जितनी अधिक श्रद्धा-विश्वास और भक्ति (परम-प्रेम) होगी उसी अनुपात में परमात्मा से सहायता प्राप्त होगी| सभी के प्रति सद्भाव रखें, किसी का बुरा न सोचें और किसी का बुरा न करें| हर आती-जाती सांस के साथ, या हर क्षण अपनी श्रद्धा और गुरु-परंपरानुसार जप करें| भगवान निश्चित रूप से मार्गदर्शन करेंगे|
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आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं|आप सब को प्रणाम!
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवम्बर २०१९

भगवान की भक्ति बड़ी खतरनाक चीज है .....

भगवान की भक्ति बड़ी खतरनाक चीज है, किसी संक्रामक रोग से भी अधिक| एक बार जो इसके चक्रव्यूह में फँस जाता है वह इस से बाहर कभी नहीं निकल पाता| पानी का जहाज जब किनारे पर होता है तब उस पर कबूतर आदि पक्षी बैठ जाते हैं| जहाज के छूटने के बाद वे पक्षी बापस जमीन पर जाना चाहते हैं, पर चारों ओर पानी ही पानी, कहीं भी जमीन दिखाई नहीं देती, अतः चारों ओर उड़कर बापस जहाज पर आ जाते हैं|
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भगवान भी अपने भक्त के चारों ओर एक ऐसा घेरा डाल देते हैं कि वह जीवन भर उस से बाहर नहीं निकल सकता| भक्त जिधर भी देखता है उधर भगवान ही भगवान दिखाई देते हैं| सूरदास जी ने लिखा है ....
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"मेरो मन अनत कहां सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै॥
कमलनैन कौ छांड़ि महातम और देव को ध्यावै।
परमगंग कों छांड़ि पियासो दुर्मति कूप खनावै॥
जिन मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यों करील-फल खावै।
सूरदास, प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै॥"
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जीवात्मा परमात्मा की अंश-स्वरूपा है| उसका विश्रान्ति-स्थल परमात्मा ही है| अन्यत्र उसे सच्ची सुख-शान्ति नहीं मिलती| प्रभु को छोड़कर जो इधर-उधर सुख खोजता है, वह मूढ़ है| कमल-रसास्वादी भ्रमर भला करील का कड़वा फल चखेगा? कामधेनु छोड़कर बकरी को कौन मूर्ख दुहेगा?
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अंतिम बात यह कहना चाहूँगा कि भगवान की भक्ति में कुछ भी नहीं मिलता| जो कुछ पास में है वह भी बापस ले लिया जाता है| यहाँ तो मात्र समर्पण ही समर्पण है| एकमात्र चीज जो मिलती है वह है आनंद और तृप्ति, और कुछ भी नहीं|
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ॐ तत्सत | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२६ नवम्बर २०१९