Friday 27 December 2019

भगवान स्वयं हम सब के समक्ष खड़े हैं, कहीं दूर नहीं हैं .....

भगवान स्वयं हम सब के समक्ष खड़े हैं, कहीं दूर नहीं हैं .....
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हम जहाँ हैं वहीं वृंदावन है, ठाकुर जी भी दूर नहीं, हमारे समक्ष ही खड़े हैं| इस हृदय की भावभूमि में जब से वे आए हैं, तब से स्वयं ही आड़े होकर फँस गए हैं| अब वे बाहर नहीं निकल सकते| कभी निकलेंगे भी नहीं| यही उनका आनंद है जिसमें हमारी भी प्रसन्नता है|
हमारे समक्ष भगवान स्वयं त्रिभंग मुद्रा में खड़े हैं| उन्होने कहीं भी अन्यत्र जाने के हमारे सारे मार्ग रोक दिये हैं| जंगल में यदि शेर सामने से आ जाये तो हम क्या कर सकते हैं? कुछ भी नहीं! जो करना है वह शेर ही करेगा| ऐसे ही जब भगवान स्वयं रास्ता रोक कर सामने खड़े हैं तो अन्यत्र जाएँ भी कहाँ? सर्वत्र तो वे ही वे हैं| उनकी यह त्रिभंग मुद्रा हमारे अज्ञान की तीन ग्रंथियों (ब्रह्म ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि और रुद्र ग्रंथि) के भेदन की प्रतीक है| द्वादशाक्षरी भागवत मंत्र की एक विशिष्ट विधि से षड़चक्रों में जाप से इन ग्रंथियों का भेदन होता है| उनका एक नाम त्रिभंग-मुरारी है| मुर नामक असुर के वे अरि हैं इसलिए वे मुरारी हैं| यह मुर कौन है? हमारा आसुरी भाव और अज्ञान ही मुरासुर है जिसका नाश भगवान स्वयं ही कर सकते हैं| अपना परम प्रेम भगवान को दें और स्वयं को उन्हें समर्पित कर दें| भगवान बहुत भोले हैं| उन्हें ठगने का प्रयास न करें, अन्यथा वे चले जाएँगे| फिर वे ठगगुरु बन कर आएंगे और हमारा सब कुछ ठग लेंगे|
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्| मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः||४:११||"
उनका आदेश है .....
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
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हे प्रभु, आपकी जय हो .....
"कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे|
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्||११.३७||"
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण-स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्|
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप||११.३८||"
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च|
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते||११.३९||"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व|
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं-सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः||११.४०||"
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ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ दिसंबर २०१९

1 comment:

  1. हम जहाँ हैं, वहीं भगवान हैं, वहीं सारे तीर्थ हैं, वहीं सारे संत-महात्मा हैं, कहीं भी किसी के भी पीछे-पीछे नहीं भागना है| भगवान हैं, यहीं हैं, इसी समय हैं, और सर्वदा हैं| वे ही इन नासिकाओं से सांस ले रहे हैं, वे ही इस हृदय में धड़क रहे हैं, वे ही इन आँखों से देख रहे हैं, और इस शरीर-महाराज और मन, बुद्धि व चित्त के सारे कार्य वे ही संपादित कर रहे हैं| उनके सिवाय अन्य किसी का कोई अस्तित्व नहीं है| बाहर की भागदौड़ एक मृगतृष्णा है, बाहर कुछ भी नहीं मिलने वाला| परमात्मा की अनुभूति निज कूटस्थ-चैतन्य में ही होगी|

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