Thursday, 11 September 2025

यह लेख उनके लिए है जो परमात्मा की उपासना मातृरूप में करते हैं ---

 यह लेख उनके लिए है जो परमात्मा की उपासना मातृरूप में करते हैं| स्वनामधन्य भगवान आचार्य शंकर (आदि शंकराचार्य) साक्षात शिव थे पर भगवती के उपासक थे| उनके ग्रंथ "सौंदर्य लहरी" के स्वाध्याय से लगता है वे श्रीविद्या के उपासक थे, यद्यपि सभी विद्यायें उन्हें सिद्ध थीं| इस ग्रंथ में एकसौ श्लोक हैं| उनका उपरोक्त ग्रंथ भगवती के उपासकों के लिए अति महत्वपूर्ण है| इस ग्रंथ के २७ वें श्लोक में वे माँ भगवती से निवेदन करते हैं .....

"जपो जल्प: शिल्पं सकलमपि मुद्राविरचनं
गति: प्रादक्षिण्यभ्रमणमशनाद्याहुतिविधी: ।
प्रणाम: संवेश: सुखमखिलमात्मार्पणदृशा
समर्यापर्यायस्तेव भवतु यन्मे विलसितम् ॥२७॥"
अर्थात- हे भगवती! आत्मार्पण दृष्टि से इस देह से जो कुछ भी बाह्यन्तर साधन किया हो, वह अपनी आराधना रूप मान लें और स्वीकार करें| मेरा बोलना आपके लिए मंत्र जप हो जाए, शिल्पादि बाह्य क्रिया मुद्रा प्रदर्शन हो जाए, देह की गति (चलना) आपकी प्रदक्षिणा हो जाए, देह का सोना (शयन) अष्टांग नमस्कार हो तथा दूसरे शारीरिक सुख या दुख भोग भी सर्वार्पण भाव में आप स्वीकार करें||
आत्मसमर्पण के भाव से परमात्मा के किसी भी रूप की उपासना की जाए तो परमात्मा स्वयं उपासक के जीवन का संचालन करते हैं| उपासक सुख, समृद्धि और सफलता तो पाता ही है, सत् चित आनंद भी उसके लिए सुलभ हो जाता है| वैसे शाक्त साधनाओं में श्रीविद्या की उपासना उच्चतम है| जिन्हें श्रीविद्या (राजराजेश्वरी भगवती ललिता त्रिपुर महासुंदरी) की दीक्षा मिल गई है, उनके लिए अन्य कोई दीक्षा नहीं है| यह उच्चतम दीक्षा है|, इसके बाद कोई अन्य दीक्षा नहीं है| इस दीक्षा में भी कई भेद हैं जिन्हें सिद्ध गुरु ही समझा सकते हैं|
ॐ तत्सत्! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय! ॐ ॐ ॐ !!
१२ सितंबर २०१९
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पुनश्च :---- सौन्दर्य लहरी ग्रंथ में श्रीविद्या के गोपनीय मंत्र का कूट रूप से उल्लेख और व्याख्या है| अतः सार्वजनिक मंच पर चर्चा का निषेध है|

कुछ दिन पूर्व जयपुर के डा.योगेश चन्द्र मिश्र के देहावसान से एक विलक्षण व्यक्तित्व का अभाव हो गया| ----

 कुछ दिन पूर्व जयपुर के डा.योगेश चन्द्र मिश्र के देहावसान से एक विलक्षण व्यक्तित्व का अभाव हो गया| वर्षों पूर्व जब मेरा उनसे परिचय हुआ था तब वे जयपुर में सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज में नेत्र चिकित्सा विभाग के प्रमुख थे| मेरे बड़े भाई साहब भी नेत्र शल्य चिकित्सक हैं, और दोनों में अच्छी आत्मीयता थी, इसी कारण मेरा परिचय उनसे हुआ था| मेडिकल कॉलेज में आने से पूर्व डा.मिश्र स्थल सेना में डॉक्टर थे|

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उनसे मैं प्रभावित तो किसी अन्य कारण से ही हुआ था| वे माँ बगलामुखी के एक महान सिद्ध साधक संत थे| शक्ति-तत्व और तंत्र शास्त्रों का जितना गहन ज्ञान उन्हें था, वैसा कोई अन्य मनीषी मुझे इस जीवन में आज तक नहीं मिला है| वे मुझसे अत्यधिक स्नेह रखते थे| मुझे तंत्र और मन्त्रों का नाम मात्र का जो भी अति अति अति अल्पतम ज्ञान है वह उनकी कृपा से ही है| दो बार नवरात्रियों का अनुष्ठान भी मैंने उनके सान्निध्य में किया था| माँ भगवती का साक्षात्कार भी उन्हें हुआ था| शक्ति तत्व के उपासक होने के कारण उनका व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था|
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दतिया की पीताम्बरा पीठ के संस्थापक स्वामीजी महाराज जो एक महान योगी, तांत्रिक और परम सिद्ध पुरुष थे, के पट्ट शिष्यों में डा.योगेश चन्द्र मिश्र जी भी थे| डा.योगेश चन्द्र मिश्र ने अपने गुरु की प्रसन्नता के लिए संस्कृत भाषा सीखी और अनेक ग्रंथों का संस्कृत से आंग्ल भाषा में अनुवाद किया|
मेरी रूचि अन्यत्र थी अतः उनके मार्ग का अनुयायी तो नहीं बना पर अप्रत्यक्ष रूप से उनकी कृपा का पात्र अवश्य रहा|
उनको मेरी श्रद्धांजलि | ॐ ॐ ॐ |
१२ सितंबर २०१५

भगवान की माया के दो अस्त्र हैं; एक है "आवरण" और दूसरा है "विक्षेप ---

 भगवान की माया के दो अस्त्र हैं; एक है "आवरण" और दूसरा है "विक्षेप"। माया का आकर्षण बड़ा प्रबल है। माया से मुक्ति मायापति की परमकृपा ही दिला सकती है। इस समय उनकी माया का प्रकोप प्रबलतम है। भगवान वासुदेव मेरी रक्षा करें।

"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
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इन दिनों माया का आकर्षण बड़ा प्रबल है। भगवान ही मेरी रक्षा कर सकते हैं। परमात्मा की समग्रता ही मेरा इष्ट है। मुझे अपना माध्यम बनाकर भगवान स्वयं ही जिस भी रूप में चाहें, उसी रूप में अपनी उपासना स्वयं करते हैं। कभी वे स्वयं को परमशिव के रूप में, कभी पुरुषोत्तम के रूप में, कभी राम या हनुमान जी के रूप में, कभी भगवती बालासुंदरी या श्रीललितामहात्रिपुरसुंदरी के रूप में, कभी भगवती छिन्नमस्ता के रूप में स्वयं को व्यक्त करते हैं। अपनी साधना भी वे स्वयं ही करते हैं। मेरा अपना कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। अब तो इस विषय पर सोचना ही छोड़ दिया है।
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इस जीवन के आरंभ में मैंने अत्यधिक विषमतायें देखीं, लेकिन अब उनका कोई महत्व नहीं हे। पूर्व जन्मों में कोई विशेष अच्छे कर्म नहीं किए थे, यह उनका फल था।
किसी पूर्वजन्म में कोई अच्छे कर्म किए होंगे, उनका फल ही अब परमात्मा के प्रति परमप्रेम और अनुराग के रूप में प्राप्त हो रहा है।
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जो लोग सांसरिक मोह-माया और दुराचार में डूबे हुए हैं, वे स्वयं का उपकार करने के लिये एक बार गरुड़पुराण का प्रेतखंड पढ़ लें और स्वयं उस स्थान का चयन कर लें, जहां उनको जाना है। वहाँ जाना तो पड़ेगा ही, कोई विकल्प नहीं मिलेगा। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ सितंबर २०२५

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री (पंडित?) जवाहर लाल नेहरू के एक सगा बड़ा भाई भी था जिसका नाम मंजूर अली था ---

 https://www.youtube.com/watch?v=ooxKk_HcuvQ

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री (पंडित?) जवाहर लाल नेहरू के एक सगा बड़ा भाई भी था जिसका नाम मंजूर अली था। यह बात छिपायी गयी थी। उसने अपने बाप मोतीलाल नेहरू की संपत्ति पर अपने दावे के लिए अदालत में एक मुकदमा दायर किया था। लेकिन मंजूर अली को ही गायब कर दिया गया। पूरी कहानी इस वीडियो में देखिये जिसे सप्रमाण प्रस्तुत किया गया है।
यह है मंजूर अली की पूरी कहानी
मंज़ूर अली आगे चलकर मंज़ूर अली सोख़्त के नाम से बहुत बड़े मज़दूर नेता बने और साल 1924 में उन्होंने यह कहकर देशभर में सनसनी फैला दी कि मैं मोतीलाल नेहरू का बेटा और जवाहरलाल नेहरू का बड़ा भाई हूं.
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उधर एक रोज़ लखनऊ नवाब के बुलावे पर जद्दनबाई मुजरा करने लखनऊ गयीं तो दिलीपा भी उनके साथ थी. जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के किसी काम से उन दिनों लखनऊ में थे.
उन्हें पता चला तो वो उन दोनों से मिलने चले आए. दिलीपा जवाहरलाल नेहरू से लिपट गयीं और रो-रोकर मोतीलाल नेहरू का हालचाल पूछने लगीं. मुजरा ख़त्म हुआ तो जद्दनबाई ने जवाहरलाल नेहरू को राखी बांधी.
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एक छोटी सी कहानी इस खानदान की सुन लीजिये
नरगिस की नानी दिलीपा, मंगल पाण्डेय के ननिहाल के राजेन्द्र पाण्डेय की बेटी थीं. उनकी शादी 1880 में बलिया में हुई थी लेकिन शादी के एक हफ़्ते के अंदर ही उनके पति गुज़र गए थे.
दिलीपा की उम्र उस वक़्त सिर्फ़ 13 साल थी. उस ज़माने में विधवाओं की ज़िंदगी बेहद तक़लीफ़ों भरी होती थी. ज़िंदगी से निराश होकर दिलीपा एक रोज़ आत्महत्या के इरादे से गंगा की तरफ़ चल पड़ीं लेकिन रात में रास्ता भटककर मियांजान नाम के एक सारंगीवादक के झोंपड़े में पहुंच गयीं जो तवायफ़ों के कोठों पर सारंगी बजाता था.
मियांजान के परिवार में उसकी बीवी और एक बेटी मलिका थे. वो मलिका को भी तवायफ़ बनाना चाहता था. दिलीपा को मियांजान ने अपने घर में शरण दी और फिर मलिका के साथ साथ दिलीपा भी धीरेधीरे तवायफ़ों वाले तमाम तौर-तरीक़े सीख गयीं और एक रोज़ चिलबिला की मशहूर तवायफ़ रोशनजान के कोठे पर बैठ गयीं.
रोशनजान के कोठे पर उस ज़माने के नामी वक़ील मोतीलाल का आना जाना रहता था जिनकी पत्नी पहले बच्चे के जन्म के समय गुज़र गयी थी. दिलीपा के सम्बन्ध मोतीलाल से बन गए. इस बात का पता चलते ही मोतीलाल के घरवालों ने उनकी दूसरी शादी लाहौर की स्वरूप रानी से करा दी जिनकी उम्र उस वक़्त 15 साल थी.
इसके बावजूद मोतीलाल ने दिलीपा के साथ सम्बन्ध बनाए रखे. इधर दिलीपा का एक बेटा हुआ जिसका नाम मंज़ूर अली रखा गया. उधर कुछ ही दिनों बाद 14 नवम्बर 1889 को स्वरूपरानी ने जवाहरलाल को जन्म दिया.
साल 1900 में स्वरूप रानी ने विजयलक्ष्मी पंडित को जन्म दिया और 1901 में दिलीपा के जद्दनबाई पैदा हुईं.
अभिनेत्री नरगिस इन्हीं जद्दनबाई की बेटी थीं.
मंज़ूर अली आगे चलकर मंज़ूर अली सोख़्त के नाम से बहुत बड़े मज़दूर नेता बने और साल 1924 में उन्होंने यह कहकर देशभर में सनसनी फैला दी कि मैं मोतीलाल नेहरू का बेटा और जवाहरलाल नेहरू का बड़ा भाई हूं.
उधर एक रोज़ लखनऊ नवाब के बुलावे पर जद्दनबाई मुजरा करने लखनऊ गयीं तो दिलीपा भी उनके साथ थी. जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के किसी काम से उन दिनों लखनऊ में थे.
उन्हें पता चला तो वो उन दोनों से मिलने चले आए. दिलीपा जवाहरलाल नेहरू से लिपट गयीं और रो-रोकर मोतीलाल नेहरू का हालचाल पूछने लगीं. मुजरा ख़त्म हुआ तो जद्दनबाई ने जवाहरलाल नेहरू को राखी बांधी.
साल 1931 में मोतीलाल नेहरू ग़ुज़रे तो दिलीपा ने अपनी चूड़ियां तोड़ डालीं और उसके बाद से वो विधवा की तरह रहने लगीं.
(गुजराती के वरिष्ठ लेखक रजनीकुमार पंड्या जी की क़िताब ‘आप की परछाईयां’ से साभार.)
वीडियो के लिए उसका निर्माता जिम्मेदार है, अन्य कोई या मैं नहीं। किसी भी तरह की टिप्पणी में अपनी मर्यादा का ध्यान रखें।

ब्रह्म-चिंतन करते-करते, हम स्वयं भी ब्रह्म ही हो जाते हैं ---

  जिस प्रकार जल की एक बूंद, जल में मिलने पर, जल ही हो जाती है; उसी प्रकार ब्रह्म-चिंतन करते-करते, हम स्वयं भी ब्रह्म ही हो जाते हैं। वीतराग होकर आत्मा में रमण ही वास्तविक पुरुषार्थ है। हम सदा ब्रह्मभाव में स्थित रहें। हम बूँद नहीं, महासागर हैं। कण नहीं, प्रवाह हैं। अंश नहीं, पूर्णता हैं। परमशिव के साथ एक है। परमशिव ही यह "मैं" बन गए हैं। वास्तव में हमारी आयु एक ही है और वह है --- 'अनंतता'। परमात्मा की सर्वव्यापकता हमारा अस्तित्व है, और उसका दिव्य प्रेम ही हमारा आनन्द।

ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ सितंबर २०२१

२ सितम्बर १९४५ को अमेरिकी नौसेना के युद्धपोत USS Missoury पर जापान के औपचारिक आत्म-समर्पण के साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हुआ था।

(Re-Posted) २ सितम्बर १९४५ को अमेरिकी नौसेना के युद्धपोत USS Missoury पर जापान के औपचारिक आत्म-समर्पण के साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हुआ था। ६ और ९ अगस्त १९४५ को अमेरिका ने जापान के हीरोशीमा व नागासाकी नगरों पर अणु बम गिराये थे जो जापान की पराजय के कारण बने। इससे पूर्व ८ मई १९४५ को यूरोप में नाजी जर्मनी को रूसी सेना ने परास्त कर आत्म-समर्पण करने को बाध्य कर दिया था। इस युद्ध का आरम्भ १ सितम्बर १९३९ को जर्मनी द्वारा पोलैंड पर आक्रमण के साथ हुआ था। यह युद्ध ६ वर्षों तक चला और इसमें ७ करोड़ से अधिक लोग मारे गये थे। लगभग ६१ देशों की सेनाएँ इस युद्ध में शामिल हुईं थीं।
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भारत के लाखों सिपाही इस युद्ध में मारे गये। अग्रेजों ने भारतीय सिपाहियों का उपयोग युद्ध में चारे के रूप में किया। आग में ईंधन की तरह मरने के लिए लाखों भारतीयों को झोंक दिया गया था। बर्मा के क्षेत्र में तो लगभग १५ लाख भारतीय सैनिकों को भूख से मरने के लिए छोड़ दिया गया। उनका राशन यूरोप भेज दिया गया। प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध में सबसे अधिक भारतीय सैनिक ही वीर गति को प्राप्त हुये। इस युद्ध में सबसे अधिक संख्या में भारतीय सैनिकों ने ही भाग लिया था। दोनों विश्व युद्धों में लगाया गया अंग्रेजों का सारा धन अंग्रेजों द्वारा भारत से ही लूटा हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजों ने भारत का सारा अनाज यूरोप भेज दिया था, जिसके कारण भारत में तीन करोड़ से अधिक लोग भूख से मर गये। द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत उत्पन्न हुई परिस्थितियों के कारण ही पूरे विश्व से अंग्रेजों का राज समाप्त हुआ। भारत में हम द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ती का उत्सव नहीं मनाते। इसे रूसी परंपरा ही कहते हैं।
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भारत तो अंग्रेजों के आधीन था, अतः भारतीय सिपाहियों का लड़ना उनकी विवशता थी। प्रथम विश्व युद्ध में केवल जयपुर (राजस्थान) राज्य के (जिसमें शेखावाटी भी सम्मिलित था) सात हजार से अधिक सैनिक वीर गति को प्राप्त हुये, व द्वितीय विश्वयुद्ध में उनकी संख्या चालीस हजार से अधिक थी।
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इस युद्ध में अंग्रेजों की कमर टूट गयी थी जिसके परिणाम स्वरुप भारत को स्वतन्त्रता मिली। भारतीय सैनिकों ने अङ्ग्रेज़ी अधिकारियों के आदेश मानने व उन्हें सैल्यूट मारने से मना कर दिया था। तभी अङ्ग्रेज़ी सरकार ने भारत का अधिकतम विनाश करके भारत छोडने का निर्णय लिया। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना भी इस युद्ध के बाद ही हुई थी।
दोनों विश्वयुद्धों में आहूत हुए सभी भारतीय सैनिकों को विनम्र श्रद्धांजलि व नमन !!
कृपा शंकर
२ सितंबर २०१८

अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए पूरे हिन्दू समाज को अपनी सोच में, और अपने बच्चों के विवाह की आयु में परिवर्तन करना ही पड़ेगा।

 अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए पूरे हिन्दू समाज को अपनी सोच में, और अपने बच्चों के विवाह की आयु में परिवर्तन करना ही पड़ेगा। बाकी सब अपने आप ही होगा।

हरेक युवती का विवाह १८ से २१ वर्ष की आयु तक में हो ही जाना चाहिए। और
हरेक युवक का विवाह १८ से २४ वर्ष की आयु तक में हो ही जाना चाहिए। दूसरा कोई उपाय नहीं है।
आजीविका का साधन (Career) विवाह के बाद भी बनता रहेगा। स्वयं का मकान भी बाद में बन जाएगा।
स्त्री और पुरुष दोनों में विपरीत लिंग के प्रति स्वभाविक जैविक आकर्षण (Natural Sexual attraction) १८ से २४ वर्ष तक की आयु में ही होता है। तब तक विवाह हो जाना चाहिए। कानूनी दृष्ट से भी यह मान्य है। लव-जिहाद, लिव-इन-रिलेशनशिप, अमर्यादित अनैतिक संबंध, आदि से अपने बच्चों की रक्षा हम तभी कर सकेंगे। इस समय तो हम पश्चिम की नकल कर, बच्चों को बूढ़ा बनाकर उनका विवाह कर रहे हैं। किसी भी जिले के किसी भी पारिवारिक न्यायालय में जाकर आप वर्तमान की भयावह वास्तविकता का आंकलन कर सकते हैं।
बाकी आपकी मर्जी। शुभ कामना।
इस लेख को आप कॉपी/पेस्ट या साझा करने को स्वतंत्र हैं।
कृपा शंकर
३ सितम्बर २०२५

सम्पूर्ण भारत से असत्य का अंधकार दूर हो ---

 इस समय भारत को Ex-India बनाने यानि तोड़कर अनेक अधर्मी देश बनाने का अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र चल रहा है, जिसे कभी सफल नहीं होने देंगे। कुछ असत्य और अंधकार की शक्तियाँ भारत से सनातन धर्म और संस्कृति को समूल नष्ट करना चाहती हैं। सबसे पहिले वे ब्राह्मणों के विरुद्ध अधिकतम दुष्प्रचार कर ब्राह्मणों की संस्था को नष्ट कर सत्य सनातन धर्म को ही मिटाना चाहती हैं। वे असुर कभी सफल नहीं होंगे।

गीता में भगवान कहते हैं --
"य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिम् मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥१८:६८॥"
"न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिंमे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥१८:६९॥"
अर्थात् -- जो पुरुष मुझसे परम प्रेम (परा भक्ति) करके इस परम गुह्य ज्ञान का उपदेश मेरे भक्तों को देता है, वह नि:सन्देह मुझे ही प्राप्त होता है॥
न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर दूसरा कोई होगा॥
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ सितंबर २०२५

भारत की अस्मिता को सबसे बड़ा खतरा किससे है? --

 भारत की अस्मिता को सबसे बड़ा खतरा किससे है? --

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(१) मज़हबी उग्रवाद, (२) मिशनरी विस्तारवाद, (३) नास्तिक मार्क्सवाद, और
(४) धर्मशिक्षा के अभाव में उत्पन्न हुई जड़ता, अज्ञानता, और किंकर्तव्यविमूढ़ता के कारण है। अन्य कोई कारण नहीं है।
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वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था हमें यूरो ईसाई मान्यताओं को ही भारतीय मानने का दुराग्रह कर रही है। दूसरों को सम्मान देने की शिक्षा हम हिंदुओं को ही दी जाती है। जब कि हिंदुओं से पृथक अन्य सब को बचपन से ही हिंदुओं को निंदनीय व हीन मानना और हिंदुओं से घृणा करना सिखाया जाता है।
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मेरी आस्था गीता में दिये हुए भगवान के वचन पर है। यह सृष्टि उन्हीं की है। सत्य की विजय होगी। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ सितंबर २०२५

भारत सरकार के ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट का मैं पूरी तरह समर्थन करता हूँ ---

 भारत सरकार के ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट का मैं पूरी तरह समर्थन करता हूँ। भारत की सुरक्षा के लिए यह बहुत आवश्यक है। मुझे इस विषय की जानकारी है इसीलिये मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ। इसका कुछ भी नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ने वाला है।

यह प्रोजेक्ट चीनी नौसेना के बंगाल की खाड़ी में प्रवेश को नियंत्रित कर सकेगा। चीन ने बंगाल की खाड़ी में उत्तरी अंडमान द्वीप समूह के पास स्थित कोको द्वीप को म्यांमार से ९९ वर्ष की लीज पर ले रखा है जहाँ से वह भारत पर जासूसी करता है। उसके युद्धपोत भी वहाँ आते-जाते रहते हैं। निम्न मानचित्र सार्वजनिक है इसमें कोई गोपनीयता नहीं है। ग्रेट निकोबार द्वीप सहित अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के अनेक द्वीपों में मैं वर्षों पूर्व खूब घूमा हूँ। मलयेशिया, इन्डोनेशिया और सिंगापूर भी अनेक बार गया हूँ, और मलक्का-जलडमरूमध्य की भी जानकारी है जहां से चीन के ९०% खनिज तेल का परिवहन होता है। युद्ध की स्थिति में भारत सरकार चीनी जहाजों के आवागमन को पूरी तरह अवरुद्ध कर सकती है।
चीनी हितों की रक्षा के लिए कॉंग्रेस पार्टी इस प्रोजेक्ट का विरोध कर रही है। १० सितम्बर २०२५

आत्म-ज्ञान के बिना जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने का कोई अन्य मार्ग संभव नहीं है।

आत्म-ज्ञान के बिना जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने का कोई अन्य मार्ग संभव नहीं है। आत्म-ज्ञान ही एकमात्र मार्ग है जो हमें परमात्मा से संयुक्त कर सकता है ---

नान्य: पन्था ॥ जो मैं हूँ, जैसे मेरे संकल्प हैं, उन्हीं के अनुरूप सृष्टि मेरे चारों ओर सृष्ट हो रही है। मेरे व्यक्तिगत विचार महत्वहीन हैं, लेकिन मेरे अंतरतम संकल्पों की -- ऊर्जा, स्पंदन, और आवृतियाँ -- घनीभूत होकर इस सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण कर रही हैं। कोई कमी है तो वह मुझ में है, कहीं बाहर नहीं। मुझे मेरे स्वयं के संकल्पों की आवृतियों को ही घनीभूत और परिवर्तित करना होगा। अन्य कोई मार्ग नहीं है। श्रुति भगवती कहती है --
"वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात् ।
तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय ॥"
ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ सितंबर २०२५

सनातन धर्म बहुत समृद्ध है। उसे किसी रिलीजन या मज़हब के सहारे, या किसी विदेशी देवता की आवश्यकता नहीं है।

 सनातन धर्म बहुत समृद्ध है। उसे किसी रिलीजन या मज़हब के सहारे, या किसी विदेशी देवता की आवश्यकता नहीं है। हमारी सबसे बड़ी समस्या है कि हम --

(१) भगवान का स्मरण हर समय कैसे करें? (२) समभाव में स्थिति कैसे हो?
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हमारे जीवन के अंतिम काल यानि मृत्यु के समय की भावना ही पुनर्जन्म का कारण होती है, इसलिए गीता में भगवान श्रीकृष्ण हमें हर समय भगवान का स्मरण करते हुए साथ-साथ शास्त्राज्ञानुसार स्वधर्मरूप युद्ध भी करने का आदेश देते हैं। भगवान कहते हैं ---
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् -- "इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥"
भगवान ने यह नहीं कहा कि दिन में दो-ढाई घंटे मेरा स्मरण करना और बाकी समय संसार का काम करना। भगवान ने कहा है कि जो व्यक्ति समभाव को प्राप्त है, वह हर समय मुझे उपलब्ध है --
"जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥६:७॥"
अर्थात् -- "शीत-उष्ण, सुख-दु:ख तथा मान-अपमान में जो प्रशान्त रहता है, ऐसे जितात्मा पुरुष के लिये परमात्मा सम्यक् प्रकार से स्थित है, अर्थात्, आत्मरूप से विद्यमान है॥".
आचार्य शंकर अपने भाष्य में कहते हैं -- जिस ने मन-इन्द्रिय आदि के संघातरूप इस शरीर को अपने वश में कर लिया है, और जो प्रशान्त है, जिसका अन्तःकरण सदा प्रसन्न रहता है, उस को भली प्रकार से सर्वत्र परमात्मा प्राप्त है; अर्थात् वह साक्षात् आत्मभाव से विद्यमान है। वह सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख एवं मान और अपमान में यानी पूजा और तिरस्कार में भी (सम हो जाता है)॥
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उपरोक्त स्थिति को प्राप्त करने के लिए हमें तप करना होगा, यानि साधना करनी होगी। हमें शरीर, मन और बुद्धि के द्वन्द्वों से ऊपर उठ कर अद्वय होना होगा। भगवान कहते हैं --
"इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥५:१९॥"
अर्थात् -- जिनका अन्तःकरण समता में स्थित है, उन्होंने इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार को जीत लिया है; ब्रह्म निर्दोष और सम है, इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं।
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परमात्मा से भिन्न स्वयं को समझना अज्ञान है। भगवान से भिन्न विषयों का चिंतन भी हमारे दुःखों का कारण है। गीता में भगवान कहते हैं --
"ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥२:६२॥"
"क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥२:६३॥"
अर्थात् - विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उसमें आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से इच्छा और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है॥
क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है॥
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संसार की वस्तुओं में दोष नहीं है, दोष तो उनके चिंतन में है। मनुष्य जीवन भर अपनी इच्छाओं के पीछे भागता रहता है। इच्छाओं की पूर्ति का सारा श्रेय मनुष्य स्वयं लेता है, और जब इच्छा की पूर्ति नहीं होती तब दोष भगवान को देने लगता है। कामनाएँ कभी पूर्ण नहीं होतीं।
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अपने दिन का आरंभ भगवान के ध्यान से करें। इस तरह से उठें जैसे जगन्माता की गोद में से सो कर उठ रहे हैं। प्रातः उठते ही लघुशंका आदि से निवृत होकर एक कंबल के आसन पर कमर सीधी रखते हुए पूर्व दिशा की ओर मुंह कर के बैठ जाएँ। आपको हठयोग के जितने भी प्राणायाम आते हैं, थोड़ी देर वे सब प्राणायाम करें। फिर अपनी गुरुपरंपरानुसार भगवान का गहनतम ध्यान करें।
रात्रि को सोने से पहिले भगवान का गहनतम ध्यान अपनी गुरुपरंपरानुसार कर के सोएँ। इस भाव से निश्चिंत होकर सोएँ जैसे जगन्माता की गोद में सो रहे हैं।
पूरे दिन भगवान को अपनी स्मृति में रखे। यह भाव रखें कि भगवान ही आपके माध्यम से सारा कार्य कर रहे हैं। जब भूल जाएँ तब याद आते ही भगवान का स्मरण फिर से करना आरंभ कर दें। गीता के निम्न ५ श्लोकों को एक बार समझ लें --
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥६:२४॥"
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥६:२५॥"
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६:२९॥
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥ श्रीमते रामचंद्राय नमः॥
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१२ सितंबर २०२५

वृद्धावस्था में सांसारिकता में न्यूनतम रुचि लो, स्वाध्याय जितना आवश्यक है उतना ही करो, और यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करो --- .

वृद्धावस्था में सांसारिकता में न्यूनतम रुचि लो, स्वाध्याय जितना आवश्यक है उतना ही करो, और यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करो ---
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किसी अन्य को तो मैं कुछ कह नहीं सकता, इसलिए स्वयं को ही कह रहा हूँ। इस समय मेरे जीवन का यह संध्याकाल है, जिसका अवसान कभी भी हो सकता है। मेरी आयु इस समय ७९ वर्ष की है। मुझे इसी समय से जीवन-पर्यंत अब नित्य यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करना चाहिए। दिन में सांसारिक कार्यों और स्वाध्याय के लिए दो घंटे बहुत हैं। जितना आवश्यक है उतना आराम करना चाहिए। सब कुछ सांसारिक अपने उत्तराधिकारियों को सौंप कर अब निश्चिंत हो जाना चाहिए।
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श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार हमारी भक्ति अनन्य और अव्यभिचारिणी हो --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा॥१३:१२॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि।
अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है॥
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ध्यान एक स्वभाविक अवस्था है। जप-योग का अभ्यास करते करते, ध्यान अपने आप ही होने लगता है। ओंकार और राम दोनों का फल एक ही है। पूरी सृष्टि ओंकार का यानि राम-नाम का जप कर रही है। हमें उसी को निरंतर सुनना और उसी में विलीन हो जाना है। इस आयु में उतना ही पढो जिससे प्रेरणा और शक्ति मिलती है। पढने का उद्देश्य ही प्रेरणा और शक्ति प्राप्त करना है। जब परमात्मा का साथ मिल जाये तब किसी अन्य के साथ की आवश्यकता नहीं है। साथ करना ही है तो उन्हीं का करो जो हमारी साधना में सहायक हों। यही सत्संग है। साधना भी वही है, जो हमें निरंतर परमात्मा की चेतना में रखे।
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सृष्टि निरंतर गतिशील है| कहीं भी जड़ता नहीं है। जड़ता का आभास माया का आवरण है। यह भौतिक विश्व जिन अणुओं से बना है उनका निरंतर विखंडन और नवसृजन हो रहा है। यह विखंडन और नवसृजन की प्रक्रिया ही नटराज भगवान शिव का नृत्य है। वह परम चेतना जिससे समस्त ऊर्जा और सृष्टि निर्मित हुई है, वे शिव हैं। सारी आकाश-गंगाएँ, सारे नक्षत्र अपने ग्रहों और उपग्रहों के साथ अत्यधिक तीब्र गति से किसी न किसी की तो परिक्रमा कर ही रहे हैं, जिसका हमें ज्ञान नहीं है। यदि सृष्टि का कहीं ना कहीं कोई तो केंद्र है, वह "विष्णु-नाभि" है। जिनसे यह सारी सृष्टि निर्मित हुई है और समस्त सृष्टि को जिन्होंने धारण कर रखा है वे स्वयं विष्णु हैं।
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥" (विष्णु सहस्त्रनाम)
जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता है उसे वषट्कार कहते हैं। भूतभव्यभवत्प्रभुः का अर्थ भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी होता है। सब जीवों के निर्माता को भूतकृत् कहते हैं, और सभी जीवों के पालनकर्ता को भूतभृत्। आगे कुछ बचा ही नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!
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इस सृष्टि की गति और प्रवाह, व उनसे निःसृत हो रही एक ध्वनी भी हम स्वयं हैं, उसी का ध्यान किया जाता है। श्रौत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु से उपदेश व आदेश लेकर बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में प्रणव की ध्वनि को सुनते हुए उसी में सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करनी चाहिए। समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान एक देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होटी है। उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है; जिसमें स्थिति योगमार्ग की एक अति उच्च उपलब्धी है। गीता में भगवान कहते हैं --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥
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प्रणव मंत्र "ॐ" और तारक मंत्र "रां" दोनों का फल एक ही है। अपने विभिन्न लेखों में मैंने इस विषय पर खूब लिखा है। अब समय नहीं है। जिनका मुझसे मतभेद हैं, वे अपने मत पर स्थिर रहें। कोई आवश्यक नहीं है कि वे मुझसे सहमत ही हों।
आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन। ॐ स्वस्ति॥
ॐ नमः शिवाय। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
४ सितंबर २०२५
.
अब स्वनिर्मित एकांत में ही रहने की प्रेरणा मिल रही है। केवल यह याद रखो कि भगवान हैं, इसी समय हैं, और यहीं पर हैं। वे सर्वत्र हैं, वे सर्वदा हैं। जहां भी हम हैं, वहीं परमात्मा हैं।
आप सब में मैं परमशिव/पुरुषोत्तम को नमन करता हूँ। आप के माध्यम से मुझे जो परमात्मा का परम प्रेम मिला है, उसके लिए मैं आप सब का आभारी हूँ। आप परमात्मा के साकार रूप हो। इस समय तो मुझे परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी अनुभूत नहीं हो रहा है। उन्हीं की चेतना में हूँ। ॐ तत्सत्। ॐ ॐ ॐ॥
बहुत ही अधिक आवश्यक होगा तभी फेसबुक पर आऊँगा, अन्यथा नहीं।
(संशोधित व पुनःप्रस्तुत) वृद्धावस्था में सांसारिकता में न्यूनतम रुचि लो, स्वाध्याय जितना आवश्यक है उतना ही करो, और यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करो ---
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किसी अन्य को तो मैं कुछ कह नहीं सकता, इसलिए स्वयं को ही कह रहा हूँ। इस समय मेरे जीवन का यह संध्याकाल है, जिसका अवसान कभी भी हो सकता है। मेरी आयु इस समय ७९ वर्ष की है। मुझे इसी समय से जीवन-पर्यंत अब नित्य यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करना चाहिए। दिन में सांसारिक कार्यों और स्वाध्याय के लिए दो घंटे बहुत हैं। जितना आवश्यक है उतना आराम करना चाहिए। सब कुछ सांसारिक अपने उत्तराधिकारियों को सौंप कर अब निश्चिंत हो जाना चाहिए।
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श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार हमारी भक्ति अनन्य और अव्यभिचारिणी हो --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा॥१३:१२॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि।
अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है॥
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ध्यान एक स्वभाविक अवस्था है। जप-योग का अभ्यास करते करते, ध्यान अपने आप ही होने लगता है। ओंकार और राम दोनों का फल एक ही है। पूरी सृष्टि ओंकार का यानि राम-नाम का जप कर रही है। हमें उसी को निरंतर सुनना और उसी में विलीन हो जाना है। इस आयु में उतना ही पढो जिससे प्रेरणा और शक्ति मिलती है। पढने का उद्देश्य ही प्रेरणा और शक्ति प्राप्त करना है। जब परमात्मा का साथ मिल जाये तब किसी अन्य के साथ की आवश्यकता नहीं है। साथ करना ही है तो उन्हीं का करो जो हमारी साधना में सहायक हों। यही सत्संग है। साधना भी वही है, जो हमें निरंतर परमात्मा की चेतना में रखे।
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सृष्टि निरंतर गतिशील है| कहीं भी जड़ता नहीं है। जड़ता का आभास माया का आवरण है। यह भौतिक विश्व जिन अणुओं से बना है उनका निरंतर विखंडन और नवसृजन हो रहा है। यह विखंडन और नवसृजन की प्रक्रिया ही नटराज भगवान शिव का नृत्य है। वह परम चेतना जिससे समस्त ऊर्जा और सृष्टि निर्मित हुई है, वे शिव हैं। सारी आकाश-गंगाएँ, सारे नक्षत्र अपने ग्रहों और उपग्रहों के साथ अत्यधिक तीब्र गति से किसी न किसी की तो परिक्रमा कर ही रहे हैं, जिसका हमें ज्ञान नहीं है। यदि सृष्टि का कहीं ना कहीं कोई तो केंद्र है, वह "विष्णु-नाभि" है। जिनसे यह सारी सृष्टि निर्मित हुई है और समस्त सृष्टि को जिन्होंने धारण कर रखा है वे स्वयं विष्णु हैं।
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥" (विष्णु सहस्त्रनाम)
जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता है उसे वषट्कार कहते हैं। भूतभव्यभवत्प्रभुः का अर्थ भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी होता है। सब जीवों के निर्माता को भूतकृत् कहते हैं, और सभी जीवों के पालनकर्ता को भूतभृत्। आगे कुछ बचा ही नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!
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इस सृष्टि की गति और प्रवाह, व उनसे निःसृत हो रही एक ध्वनी भी हम स्वयं हैं, उसी का ध्यान किया जाता है। श्रौत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु से उपदेश व आदेश लेकर बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में प्रणव की ध्वनि को सुनते हुए उसी में सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करनी चाहिए। समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान एक देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होटी है। उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है; जिसमें स्थिति योगमार्ग की एक अति उच्च उपलब्धी है। गीता में भगवान कहते हैं --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥
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प्रणव मंत्र "ॐ" और तारक मंत्र "रां" दोनों का फल एक ही है। अपने विभिन्न लेखों में मैंने इस विषय पर खूब लिखा है। अब समय नहीं है। जिनका मुझसे मतभेद हैं, वे अपने मत पर स्थिर रहें। कोई आवश्यक नहीं है कि वे मुझसे सहमत ही हों।
आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन। ॐ स्वस्ति॥
ॐ नमः शिवाय। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
४ सितंबर २०२५
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अब स्वनिर्मित एकांत में ही रहने की प्रेरणा मिल रही है। केवल यह याद रखो कि भगवान हैं, इसी समय हैं, और यहीं पर हैं। वे सर्वत्र हैं, वे सर्वदा हैं। जहां भी हम हैं, वहीं परमात्मा हैं।
आप सब में मैं परमशिव/पुरुषोत्तम को नमन करता हूँ। आप के माध्यम से मुझे जो परमात्मा का परम प्रेम मिला है, उसके लिए मैं आप सब का आभारी हूँ। आप परमात्मा के साकार रूप हो। इस समय तो मुझे परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी अनुभूत नहीं हो रहा है। उन्हीं की चेतना में हूँ। ॐ तत्सत्। ॐ ॐ ॐ॥
बहुत ही अधिक आवश्यक होगा तभी फेसबुक पर आऊँगा, अन्यथा नहीं।
(संशोधित व पुनःप्रस्तुत) वृद्धावस्था में सांसारिकता में न्यूनतम रुचि लो, स्वाध्याय जितना आवश्यक है उतना ही करो, और यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करो ---
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किसी अन्य को तो मैं कुछ कह नहीं सकता, इसलिए स्वयं को ही कह रहा हूँ। इस समय मेरे जीवन का यह संध्याकाल है, जिसका अवसान कभी भी हो सकता है। मेरी आयु इस समय ७९ वर्ष की है। मुझे इसी समय से जीवन-पर्यंत अब नित्य यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करना चाहिए। दिन में सांसारिक कार्यों और स्वाध्याय के लिए दो घंटे बहुत हैं। जितना आवश्यक है उतना आराम करना चाहिए। सब कुछ सांसारिक अपने उत्तराधिकारियों को सौंप कर अब निश्चिंत हो जाना चाहिए।
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श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार हमारी भक्ति अनन्य और अव्यभिचारिणी हो --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा॥१३:१२॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि।
अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है॥
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ध्यान एक स्वभाविक अवस्था है। जप-योग का अभ्यास करते करते, ध्यान अपने आप ही होने लगता है। ओंकार और राम दोनों का फल एक ही है। पूरी सृष्टि ओंकार का यानि राम-नाम का जप कर रही है। हमें उसी को निरंतर सुनना और उसी में विलीन हो जाना है। इस आयु में उतना ही पढो जिससे प्रेरणा और शक्ति मिलती है। पढने का उद्देश्य ही प्रेरणा और शक्ति प्राप्त करना है। जब परमात्मा का साथ मिल जाये तब किसी अन्य के साथ की आवश्यकता नहीं है। साथ करना ही है तो उन्हीं का करो जो हमारी साधना में सहायक हों। यही सत्संग है। साधना भी वही है, जो हमें निरंतर परमात्मा की चेतना में रखे।
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सृष्टि निरंतर गतिशील है| कहीं भी जड़ता नहीं है। जड़ता का आभास माया का आवरण है। यह भौतिक विश्व जिन अणुओं से बना है उनका निरंतर विखंडन और नवसृजन हो रहा है। यह विखंडन और नवसृजन की प्रक्रिया ही नटराज भगवान शिव का नृत्य है। वह परम चेतना जिससे समस्त ऊर्जा और सृष्टि निर्मित हुई है, वे शिव हैं। सारी आकाश-गंगाएँ, सारे नक्षत्र अपने ग्रहों और उपग्रहों के साथ अत्यधिक तीब्र गति से किसी न किसी की तो परिक्रमा कर ही रहे हैं, जिसका हमें ज्ञान नहीं है। यदि सृष्टि का कहीं ना कहीं कोई तो केंद्र है, वह "विष्णु-नाभि" है। जिनसे यह सारी सृष्टि निर्मित हुई है और समस्त सृष्टि को जिन्होंने धारण कर रखा है वे स्वयं विष्णु हैं।
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥" (विष्णु सहस्त्रनाम)
जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता है उसे वषट्कार कहते हैं। भूतभव्यभवत्प्रभुः का अर्थ भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी होता है। सब जीवों के निर्माता को भूतकृत् कहते हैं, और सभी जीवों के पालनकर्ता को भूतभृत्। आगे कुछ बचा ही नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!
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इस सृष्टि की गति और प्रवाह, व उनसे निःसृत हो रही एक ध्वनी भी हम स्वयं हैं, उसी का ध्यान किया जाता है। श्रौत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु से उपदेश व आदेश लेकर बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में प्रणव की ध्वनि को सुनते हुए उसी में सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करनी चाहिए। समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान एक देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होटी है। उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है; जिसमें स्थिति योगमार्ग की एक अति उच्च उपलब्धी है। गीता में भगवान कहते हैं --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥
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प्रणव मंत्र "ॐ" और तारक मंत्र "रां" दोनों का फल एक ही है। अपने विभिन्न लेखों में मैंने इस विषय पर खूब लिखा है। अब समय नहीं है। जिनका मुझसे मतभेद हैं, वे अपने मत पर स्थिर रहें। कोई आवश्यक नहीं है कि वे मुझसे सहमत ही हों।
आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन। ॐ स्वस्ति॥
ॐ नमः शिवाय। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
४ सितंबर २०२५
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अब स्वनिर्मित एकांत में ही रहने की प्रेरणा मिल रही है। केवल यह याद रखो कि भगवान हैं, इसी समय हैं, और यहीं पर हैं। वे सर्वत्र हैं, वे सर्वदा हैं। जहां भी हम हैं, वहीं परमात्मा हैं।
आप सब में मैं परमशिव/पुरुषोत्तम को नमन करता हूँ। आप के माध्यम से मुझे जो परमात्मा का परम प्रेम मिला है, उसके लिए मैं आप सब का आभारी हूँ। आप परमात्मा के साकार रूप हो। इस समय तो मुझे परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी अनुभूत नहीं हो रहा है। उन्हीं की चेतना में हूँ। ॐ तत्सत्। ॐ ॐ ॐ॥
बहुत ही अधिक आवश्यक होगा तभी फेसबुक पर आऊँगा, अन्यथा नहीं।
(संशोधित व पुनःप्रस्तुत) वृद्धावस्था में सांसारिकता में न्यूनतम रुचि लो, स्वाध्याय जितना आवश्यक है उतना ही करो, और यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करो ---
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किसी अन्य को तो मैं कुछ कह नहीं सकता, इसलिए स्वयं को ही कह रहा हूँ। इस समय मेरे जीवन का यह संध्याकाल है, जिसका अवसान कभी भी हो सकता है। मेरी आयु इस समय ७९ वर्ष की है। मुझे इसी समय से जीवन-पर्यंत अब नित्य यथासंभव अधिकाधिक समय तक परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करना चाहिए। दिन में सांसारिक कार्यों और स्वाध्याय के लिए दो घंटे बहुत हैं। जितना आवश्यक है उतना आराम करना चाहिए। सब कुछ सांसारिक अपने उत्तराधिकारियों को सौंप कर अब निश्चिंत हो जाना चाहिए।
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श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार हमारी भक्ति अनन्य और अव्यभिचारिणी हो --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा॥१३:१२॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि।
अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है॥
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ध्यान एक स्वभाविक अवस्था है। जप-योग का अभ्यास करते करते, ध्यान अपने आप ही होने लगता है। ओंकार और राम दोनों का फल एक ही है। पूरी सृष्टि ओंकार का यानि राम-नाम का जप कर रही है। हमें उसी को निरंतर सुनना और उसी में विलीन हो जाना है। इस आयु में उतना ही पढो जिससे प्रेरणा और शक्ति मिलती है। पढने का उद्देश्य ही प्रेरणा और शक्ति प्राप्त करना है। जब परमात्मा का साथ मिल जाये तब किसी अन्य के साथ की आवश्यकता नहीं है। साथ करना ही है तो उन्हीं का करो जो हमारी साधना में सहायक हों। यही सत्संग है। साधना भी वही है, जो हमें निरंतर परमात्मा की चेतना में रखे।
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सृष्टि निरंतर गतिशील है| कहीं भी जड़ता नहीं है। जड़ता का आभास माया का आवरण है। यह भौतिक विश्व जिन अणुओं से बना है उनका निरंतर विखंडन और नवसृजन हो रहा है। यह विखंडन और नवसृजन की प्रक्रिया ही नटराज भगवान शिव का नृत्य है। वह परम चेतना जिससे समस्त ऊर्जा और सृष्टि निर्मित हुई है, वे शिव हैं। सारी आकाश-गंगाएँ, सारे नक्षत्र अपने ग्रहों और उपग्रहों के साथ अत्यधिक तीब्र गति से किसी न किसी की तो परिक्रमा कर ही रहे हैं, जिसका हमें ज्ञान नहीं है। यदि सृष्टि का कहीं ना कहीं कोई तो केंद्र है, वह "विष्णु-नाभि" है। जिनसे यह सारी सृष्टि निर्मित हुई है और समस्त सृष्टि को जिन्होंने धारण कर रखा है वे स्वयं विष्णु हैं।
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥" (विष्णु सहस्त्रनाम)
जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता है उसे वषट्कार कहते हैं। भूतभव्यभवत्प्रभुः का अर्थ भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी होता है। सब जीवों के निर्माता को भूतकृत् कहते हैं, और सभी जीवों के पालनकर्ता को भूतभृत्। आगे कुछ बचा ही नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!
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इस सृष्टि की गति और प्रवाह, व उनसे निःसृत हो रही एक ध्वनी भी हम स्वयं हैं, उसी का ध्यान किया जाता है। श्रौत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु से उपदेश व आदेश लेकर बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में प्रणव की ध्वनि को सुनते हुए उसी में सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करनी चाहिए। समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान एक देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होटी है। उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है; जिसमें स्थिति योगमार्ग की एक अति उच्च उपलब्धी है। गीता में भगवान कहते हैं --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥
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प्रणव मंत्र "ॐ" और तारक मंत्र "रां" दोनों का फल एक ही है। अपने विभिन्न लेखों में मैंने इस विषय पर खूब लिखा है। अब समय नहीं है। जिनका मुझसे मतभेद हैं, वे अपने मत पर स्थिर रहें। कोई आवश्यक नहीं है कि वे मुझसे सहमत ही हों।
आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन। ॐ स्वस्ति॥
ॐ नमः शिवाय। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
४ सितंबर २०२५
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अब स्वनिर्मित एकांत में ही रहने की प्रेरणा मिल रही है। केवल यह याद रखो कि भगवान हैं, इसी समय हैं, और यहीं पर हैं। वे सर्वत्र हैं, वे सर्वदा हैं। जहां भी हम हैं, वहीं परमात्मा हैं।
आप सब में मैं परमशिव/पुरुषोत्तम को नमन करता हूँ। आप के माध्यम से मुझे जो परमात्मा का परम प्रेम मिला है, उसके लिए मैं आप सब का आभारी हूँ। आप परमात्मा के साकार रूप हो। इस समय तो मुझे परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी अनुभूत नहीं हो रहा है। उन्हीं की चेतना में हूँ। ॐ तत्सत्। ॐ ॐ ॐ॥
बहुत ही अधिक आवश्यक होगा तभी फेसबुक पर आऊँगा, अन्यथा नहीं।
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