जिस प्रकार जल की एक बूंद, जल में मिलने पर, जल ही हो जाती है; उसी प्रकार ब्रह्म-चिंतन करते-करते, हम स्वयं भी ब्रह्म ही हो जाते हैं। वीतराग होकर आत्मा में रमण ही वास्तविक पुरुषार्थ है। हम सदा ब्रह्मभाव में स्थित रहें। हम बूँद नहीं, महासागर हैं। कण नहीं, प्रवाह हैं। अंश नहीं, पूर्णता हैं। परमशिव के साथ एक है। परमशिव ही यह "मैं" बन गए हैं। वास्तव में हमारी आयु एक ही है और वह है --- 'अनंतता'। परमात्मा की सर्वव्यापकता हमारा अस्तित्व है, और उसका दिव्य प्रेम ही हमारा आनन्द।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ सितंबर २०२१
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