Tuesday, 24 June 2025

(Re-edited & Re-posted) कर्म सन्यास योग ---

कर्म सन्यास योग
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गीता में भगवान कहते हैं --
"ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥५:३॥"
अर्थात् - जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा, वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि, हे महाबाहो ! द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है॥
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हम निमित्त मात्र होकर नित्य नियमित रूप से भगवान का ध्यान करें, तो हम सन्यासी ही हैं। हम किंचित् मात्र कोई भी कर्म नहीं करते हैं -- देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूंघते, खाते, चलते, सोते, और श्वास लेते हुए -- भगवान ही सारे कर्म कर रहे हैं। हम तो निमित्त, एक साक्षी मात्र हैं। राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति को वीतरागता कहते हैं। वीतराग व्यक्ति ही स्थितप्रज्ञ हो सकता है, यानि जिसकी प्रज्ञा -- निरंतर परमात्मा में स्थित है। भगवत्-प्राप्ति के लिए स्थितप्रज्ञता आवश्यक है।
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सभी प्राणियों की आत्मा ही हमारी आत्मा है। आत्मा के साथ एकत्व -- ध्यान साधना में ही हो सकता है। अपने अन्तःकरण को आत्मा में लगाये रखें। हमारी आत्मा ही सारी सृष्टि की आत्मा है। भगवान कहते हैं --
"ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥५:१०॥"
अर्थात् - जो पुरुष आसक्ति को त्याग, सब कर्म ब्रह्म में अर्पण कर के करता है, वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता॥
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हमारे में अज्ञान का नाश होगा तभी भगवान हम में प्रकट और व्यक्त होंगे। हमारा लक्ष्य ब्रह्म यानि भगवत्-प्राप्ति है। निरंतर ब्रह्म-चिंतन से हम कर्मफलों से मुक्त हो जाते हैं। समत्व भाव का आना स्वयं के सिद्ध होने का आरंभ है। भगवान कहते है कि अक्षय सुख की प्राप्ति ब्रह्म के ध्यान में समाहित चित्त वाले पुरुष को ही होती है --
"बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥५:२१॥"
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥५:२२॥"
अर्थात् -- बाह्य विषयों में आसक्तिरहित अन्त:करण वाला पुरुष आत्मा में ही सुख प्राप्त करता है; ब्रह्म के ध्यान में समाहित चित्त वाला पुरुष अक्षय सुख प्राप्त करता है॥
हे कौन्तेय (इन्द्रिय तथा विषयों के) संयोग से उत्पन्न होने वाले जो भोग हैं वे दु:ख के ही हेतु हैं, क्योंकि वे आदि-अन्त वाले हैं। बुद्धिमान् पुरुष उनमें नहीं रमता॥
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इस शरीर के शांत होने से पूर्व ही हम इंद्रिय सुख की कामनाओं और क्रोध से मुक्त हो जाएँ, तो ही हमारा कल्याण होगा। आत्म-ज्ञान में ही वास्तविक सुख है।
बाह्य पदार्थों को बाहर ही छोड़कर, और नेत्रों की दृष्टि को भ्रूमध्य में स्थिर कर, नासिका में विचरनेवाले प्राण और अपान वायु को अजपा-जप (हंसःयोग) द्वारा स्थिर करेंगे तो भगवान हमें आगे का मार्ग अवश्य दिखायेंगे।
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कई बाते ऐसी हैं जो सार्वजनिक मंचों पर नहीं बताई जातीं। उनकी चर्चा गुरु-परंपरा के भीतर ही की जा सकती हैं। अपने मन को पूर्ण प्रेम यानि भक्ति से भगवान में लगा कर अन्य विषयों का चिंतन न करें। यही भगवान के ध्यान का आरंभ है, जो हमें जीवनमुक्त और सन्यासी बना देगा।
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भगवान ने जैसी अल्प और सीमित बुद्धि व प्रेरणा मुझे दी है, उसके अनुसार वैसा ही यहाँ लिख दिया है।
भगवान से प्रार्थना करता हूँ --
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥"
ॐ तत्सत्ॐ॥ नमो भगवते वासुदेवाय॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
२५ जून २०२५

कर्म सन्यास योग ---

कर्म सन्यास योग ---
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गीता में भगवान अर्जुन से कहते हैं --
"ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥५:३॥"
अर्थात् - जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा, वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि, हे महाबाहो ! द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है॥
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अब विचारणीय विषय यह है कि हम द्वन्द्वों से मुक्त कैसे हों? सांख्य-योग और कर्म-योग में मेरी समझ से कोई अंतर नहीं है। यदि कोई अंतर है, तो वह मुझे समझ में नहीं आया है। मेरी समझ से हम निमित्त मात्र होकर नित्य नियमित रूप से भगवान का ध्यान करें, और कर्ता भाव से मुक्त हो जाएँ, तो हम सन्यासी ही हैं।
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हम किंचित् मात्र कोई भी कर्म नहीं करते हैं। देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूंघते, खाते, चलते, सोते, और श्वास लेते हुए -- भगवान ही सारे कर्म कर रहे हैं। हम तो निमित्त, एक साक्षी मात्र हैं। राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति को वीतरागता कहते हैं। वीतराग व्यक्ति ही स्थितप्रज्ञ हो सकता है। सभी प्राणियों की आत्मा ही हमारी आत्मा है। आत्मा के साथ एकत्व -- ध्यान साधना में ही हो सकता है। अपने अन्तःकरण को आत्मा में लगाए रखें। हमारी आत्मा ही सारी सृष्टि की आत्मा है। भगवान कहते हैं --
"ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥५:१०॥"
अर्थात् - जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर करता है, वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता॥
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हमारे में अज्ञान का नाश होगा तभी भगवान हम में प्रकट और व्यक्त होंगे। हमारा लक्ष्य ब्रह्म यानि भगवत्-प्राप्ति है। निरंतर ब्रह्म-चिंतन से हम कर्मफलों से मुक्त हो जाते हैं। समत्व भाव का आना स्वयं के सिद्ध होने का आरंभ है। भगवान कहते है कि अक्षय सुख की प्राप्ति ब्रह्म के ध्यान में समाहित चित्त वाले पुरुष को ही होती है --
"स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।" (५:२१)
भगवान कहते हैं --
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥५:२२॥"
अर्थात् -- हे कौन्तेय (इन्द्रिय तथा विषयों के) संयोग से उत्पन्न होने वाले जो भोग हैं वे दु:ख के ही हेतु हैं, क्योंकि वे आदि-अन्त वाले हैं। बुद्धिमान् पुरुष उनमें नहीं रमता॥
इस शरीर के शांत होने से पूर्व ही हम इंद्रिय सुख की कामनाओं और क्रोध से मुक्त हो जाएँ, तो हमारा कल्याण होगा। आत्म-ज्ञान में ही वास्तविक सुख है।
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बाह्य पदार्थों को बाहर ही छोड़कर, और नेत्रों की दृष्टि को भ्रूमध्य में स्थिर कर, नासिका में विचरनेवाले प्राण और अपान वायु को अजपा-जप (हंसःयोग) द्वारा स्थिर करेंगे तो भगवान हमें आगे का मार्ग अवश्य दिखायेंगे।
कई बाते ऐसी हैं जो सार्वजनिक मंचों पर नहीं बताई जातीं। उनकी चर्चा गुरु-परंपरा के भीतर ही की जा सकती हैं।
अपने मन को पूर्ण प्रेम यानि भक्ति से भगवान में लगा कर अन्य विषयों का चिंतन न करें। यही भगवान के ध्यान का आरंभ है, जो हमें जीवनमुक्त और सन्यासी बना देगा।
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भगवान ने जैसी बुद्धि और जैसी प्रेरणा मुझे दी, वैसा ही यहाँ लिख दिया। भगवान से प्रार्थना करता हूँ --
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥"
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ जून २०२३

पिछले बारह-तेरह वर्षों में मुझे फेसबुक पर लिखने के लिए अनेक आध्यात्मिक मनीषी विद्वानों ने खूब प्रोत्साहित किया है, जिनका मैं ऋणी हूँ।

 पिछले बारह-तेरह वर्षों में मुझे फेसबुक पर लिखने के लिए अनेक आध्यात्मिक मनीषी विद्वानों ने खूब प्रोत्साहित किया है, जिनका मैं ऋणी हूँ। उन्हीं के प्रोत्साहन के फलस्वरूप मैंने बहुत कुछ सीखा, अनुभूत किया और कुछ लिख पाया, अन्यथा मैं शून्य था।

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सबसे पहिले वैष्णवाचार्य आचार्य सियाराम दास नैयायिक जी से फेसबुक पर मेरा परिचय सन २०११ में हुआ था। उन्होने हिन्दी भाषा में धार्मिक लेख लिखने के लिए मुझे खूब प्रोत्साहित किया। तब तक मुझे हिन्दी भाषा में लिखने का अभ्यास नहीं था। उल्टे-सीधे गलत-सलत अनेक लेख मैंने लिखे जिनका उन्होंने कभी बुरा नहीं माना, और लगातार प्रोत्साहित करते रहे। उन्हीं के कहने से मैंने हिन्दी में लिखना आरंभ किया। अब तो हिन्दी के सिवाय किसी अन्य भाषा में लिखने का आनंद ही नहीं आता।
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तत्पश्चात हिन्दी में देशभक्ति पर लिखने वाले अनेक लोगों से परिचय हुआ। अनेक संत-महात्माओं और विद्वानों से भी परिचय हुआ। मुंबई के प्रख्यात ज्योतिषी श्री हर्षदेव तिवारी शास्त्री जी ने मेरा परिचय प्रयागराज के एक साहित्यकार विद्वान पण्डित (स्वर्गीय) श्री मिथिलेश द्विवेदी जी से कराया। उनसे बहुत अच्छी मित्रता भी हुई। उनसे प्रेरणा लेकर मैंने खूब परिष्कृत और संस्कृतनिष्ठ भाषा में लिखना आरंभ कर दिया। किसी भी तरह की कोई कठिनाई मुझे नहीं हुई।
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उन्हीं दिनों जोधपुर में रहने वाले परम विद्वान वयोवृद्ध दण्डी स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी से परिचय और मित्रता हुई। वे एक विशुद्ध वेदांती और शास्त्रज्ञ महात्मा हैं। अब तो उन्होने जोधपुर छोड़ दिया है और बिहार के पूर्वी-चंपारण जिले में नेपाल सीमा के पास घने वन में एक मठ बनाकर रहते हैं। उन से उनकी अनुमति के बिना कोई मिल नहीं सकता है। उन दण्डी स्वामी जी से ही मैंने व्यावहारिक वेदान्त सीखा। उन्होने मुझे वेदान्त की प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ भी कराईं और मुझ में खूब प्रखर वेदान्त-वासना भी जागृत की जो बहुत दुर्लभ है। उनके प्रभाव से मेरी भाषा में वेदान्त और आध्यात्म और भी अधिक आ गया।
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वहीं जोधपुर में ही मेरी मित्रता एक युवा तपस्वी विद्वान साधु ब्रह्मचारी शिवेंद्र स्वरूप जी से हुई थी। उन्होंने मेरा परिचय अपने गुरु दण्डी स्वामी जोगेन्द्राश्रम जी से करवाया। दण्डी स्वामी जोगेन्द्राश्रम जी एक विलक्षण महात्मा हैं जिन की थाह लेना असंभव है। वे हर किसी से नहीं मिलते। सामने वाले की पात्रता देखकर ही बात करते हैं। उनकी कृपा से भी बहुत कुछ सीखा। उनसे सीखने के लिए तो अभी भी बहुत कुछ है लेकिन मुझ में अब कोई क्षमता नहीं बची है। अब आगे जो कुछ भी सीखना है, वह अगले जन्म में ही होगा, इस जन्म में नहीं।
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विद्वानों में मेरा परिचय और मित्रता श्री अरुण उपाध्याय जी से भी हुई, जो एक उच्च कोटि के विलक्षण वैदिक विद्वान, साहित्यकार और गणितज्ञ हैं। ज्योतिष में उनकी गणनाओं को भारत के सारे धर्माचार्य स्वीकार करते हैं। वे एक IPS अधिकारी हैं जो पुलिस में ADG के पद से सेवानिवृत हुए। पुलिस में किसी को समय नहीं मिलता। मेरे लिए यह एक रहस्य था कि पुलिस की नौकरी करते हुए उन्होने इतनी विद्वता कहाँ से और कैसे अर्जित की ? यह जानने के लिए मैं एक दिन उनसे मिलने ओड़ीशा में भुवनेश्वर उनके घर पहुँच गया। उनके घर पर एक घंटे तक मेरी उनसे वेदों और पुराणों के आपसी सम्बन्धों पर चर्चा हुई। उसी चर्चा में उनका रहस्य मुझे समझ में आया कि उन्हें अपने पिछले दो-तीन जन्मों की पूरी स्मृति है। अपने पूर्व जन्मों में वे एक वैदिक विद्वान, साहित्यकार और गणितज्ञ थे। अपने पिछले दो जन्मों में जो कुछ भी उन्होने सीखा, वह सब इस जन्म में भी याद था। ऐसे विलक्षण विद्वान से परिचय, मित्रता, और अनेक बार मिलना मेरा सौभाग्य था।
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पिछले जन्म में तो मैंने भी एक बहुत बड़े योगी से क्रियायोग की दीक्षा ली थी (उनका नाम नहीं बताऊंगा), सूक्ष्म जगत में उनकी एक बहुत बड़ी सत्ता भी है। उन्होंने इस जन्म में भी अनेक बार मेरी रक्षा की है, और मार्गदर्शन भी किया है। उनकी स्मृति इस जन्म में बहुत देरी से जागृत हुई।
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पूर्व जन्मों में कोई विशेष अच्छे कर्म नहीं किए थे। इसलिए कर्मफल भुगतने के लिए यह जन्म लेना पड़ा। इस जन्म में तो सन १९८१ में स्वामी भावानन्द गिरि से मैंने क्रियायोग की दीक्षा ली थी। उन्होने मुझे सिखाने के लिए बहुत अधिक मेहनत की। ऐसे महात्माओं का कृपापात्र होना बहुत दुर्लभ है।
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फेसबुक पर अनेक भक्त उद्योगपतियों से भी परिचय और मित्रता हुई है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि स्वयं भगवान से ही हमारी मित्रता हो गई है। भगवान से मेरे संबंध एक मित्र के से ही हैं। जीवन में मैंने खूब लंबी आयु और अच्छा स्वास्थ्य पाया है। अब अवशिष्ट जीवन भगवान के साथ ही उनके स्मरण, चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान में ही व्यतीत हो जाएगा। किसी से कुछ भी नहीं चाहिए। मेरा एक ही कहना है कि भगवान से प्रेम करो, खूब प्रेम करो, और हर समय प्रेम करो। मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन॥
कृपा शंकर
२५ जून २०२४

भारत में समाज को देखकर मैं निराश क्यों हूँ?

 (प्रश्न) : भारत में समाज को देखकर मैं निराश क्यों हूँ?

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(उत्तर) : भारत का लगभग सारा संभ्रांत वर्ग यानि Elite class अपने बच्चों को अग्रेज़ बनाना चाहता है, न कि भारतीय। कोई सुनता ही नहीं है। हम जब बच्चे थे तब हमारे माँ-बाप हमें उठते ही इन मंत्रों को बोलना सिखाते थे --
"कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती।
करमूले तु गोविन्द: प्रभाते करदर्शनम्॥"
"समुद्रवसने देवीपर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्वमे॥"
"ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरांतकारी भानु: शशि भूमि सुतो बुधश्च।
गुरुश्च शुक्र शनि राहु केतव सर्वे ग्रहा शांति करा भवंतु॥"
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अब इन्हें पिछड़ेपन की निशानी माना जाता है। अब प्रणाम तो कोई नहीं बोलता। सब Good morning बोलते हैं। रात्री को सोने से पूर्व भी भगवान विष्णु का मंत्र बोलकर और विष्णु का ध्यान कर के सोते थे। अब तो बच्चे लोग मोबाइल पर सिनेमा देखते हुए या वीडियो गेम देखते हुए सोते हैं।
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हमें कालातीत (outdated) समझा जाता है। इस पतन के साक्षी हैं। यही चलता रहा तो भारत हिंदुस्तान नहीं, इंग्लिस्तान बन जायेगा। आजकल के बच्चे जब अङ्ग्रेज़ी में चटर-पटर करते हैं तो माँ-बाप बड़े प्रसन्न होते हैं कि हमारा बेटा अङ्ग्रेज़ी बोल रहा है।
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बच्चों को भोजन मंत्र (श्रीमद्भगवद्गीता वाला या अन्नपूर्णा स्तोत्र का), और शांति-पाठ तो आते ही नहीं है। बच्चे वही सीखते हैं जो विद्यालय में उनके मास्टर पढ़ाते हैं। स्कूलों में ईसाईयों की प्रार्थना सिखाई जाती है, न कि हिंदुओं की। अपने सामने ही अपना विनाश देख रहे हैं। असहाय हैं।
ॐ तत्सत् !!
२५ जून २०२४