Saturday 24 February 2018

साधना काल में प्रगति के लिए के दस नियम .....

जो अपनी आध्यात्मिक साधना में प्रगति चाहते हैं उन्हें साधना काल में निम्न दस नियमों का पालन करना ही पड़ेगा .....
(१) माता पिता परमात्मा के अवतार हैं, उनका पूर्ण सम्मान|
(२) प्रातः और सायं विधिवत साधना, और निरंतर प्रभु का स्मरण|
(३) गीता के कम से कम पाँच श्लोकों का नित्य अर्थ सहित पाठ|
(४) कुसंग का सर्वदा त्याग|
(५) कर्ताभाव से मुक्त रहना| (कर्ता सिर्फ परमात्मा ही हैं)
(६) किसी भी प्रकार के नशे का त्याग|
(७) सदा सात्विक भोजन ही करना|
(७) एकाग्रता से अनन्य भक्ति का अभ्यास|
(८) वैराग्य और एकांत का अभ्यास|
(९) किसी भी प्रकार की तामसिक साधनाओं से बचना|
(१०) साधना का अहंकार न हो अतः उनके फल का भगवान को अर्पण|
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भगवान का हर अनन्य भक्त ब्राह्मण है| हर श्रद्धालु क्षत्रिय है| सिर्फ नाम या वस्त्र बदलने से कोई विरक्त साधू नहीं होता| वैराग्य प्रभु कि कृपा से ही प्राप्त होता है| गुरुलाभ भी भगवान की कृपा से ही प्राप्त होता है| संन्यास मन की अवस्था है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

भगवान को भूलना ब्रह्महत्या का पाप और आत्मतत्व को भूलना आत्महत्या है...

भगवान को भूलना ब्रह्महत्या का पाप और आत्मतत्व को भूलना आत्महत्या है...
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ब्रह्महत्या को सबसे बड़ा पाप माना गया है| मेरी अल्प और सीमित बुद्धि से ब्रह्महत्या के दो अर्थ हैं ..... एक तो अपने स्वयं में अन्तस्थ परमात्मा को विस्मृत कर देना, और दूसरा है किसी ब्रह्मनिष्ठ महात्मा की ह्त्या कर देना| श्रुति भगवती कहती है कि अपने आत्मस्वरूप को विस्मृत कर देना उसका हनन यानि ह्त्या है| सांसारिक उपलब्धियों को हम अपनी महत्वाकांक्षा, लक्ष्य और दायित्व बना लेते हैं| पारिवारिक, सामाजिक व सामुदायिक सेवा कार्य भी हमें करने चाहियें क्योंकि इनसे पुण्य मिलता है, पर इनसे आत्म-साक्षात्कार नहीं होता|
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हमारे कूटस्थ ह्रदय में सच्चिदानन्द ब्रह्म यानि स्वयं परमात्मा बैठे हुए हैं| हम संसार की हर वस्तु की ओर ध्यान देते हैं पर परमात्मा की ओर नहीं| हम कहते हैं कि हमारा यह कर्तव्य बाकी है और वह कर्तव्य बाकी है पर सबसे बड़े कर्तव्य को भूल जाते हैं कि हमें ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना है| बच्चों की शिक्षा, बच्चों को काम पर लगाना, व्यापार की सँभाल करना आदि आदि में ही जीवन व्यतीत हो जाता है| जो लोग कहते हैं कि हमारा समय अभी तक नहीं आया है, उनका समय कभी आयेगा भी नहीं|
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भगवान को भूलना ब्रह्म-ह्त्या का पाप है| आजकल गुरु बनने और गुरु बनाने का भी खूब प्रचलन हो रहा है| गुरु पद पर हर कोई आसीन नहीं हो सकता| एक ब्रह्मनिष्ठ, श्रौत्रीय और परमात्मा को उपलब्ध हुआ महात्मा ही गुरु हो सकता है जिसे अपने गुरु द्वारा अधिकार मिला हुआ हो| सार कि बात यह कि भगवान को भूलना ब्रह्महत्या है, और भगवान को भूलने वाले ब्रह्महत्या के दोषी हैं जो सबसे बड़ा पाप है|
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मनुष्य योनी में जीव का जन्म होता ही है पूर्ण समर्पण का पाठ सीखने के लिए| अन्य सब बातें इसी का विस्तार हैं| यह एक ही पाठ प्रकृति द्वारा निरंतर सिखाया जा रहा है| कोई इसे देरी से सीखता है, कोई शीघ्र| जो नहीं सीखता है वह इसे सीखने को बाध्य कर दिया जाता है| लोकयात्रा के लिए हमें जो देह रूपी वाहन दिया गया है वह नश्वर और अति अल्प क्षमता से संपन्न है| बुद्धि भी अति अल्प और सिमित है, जो कुबुद्धि ही है| चित्त नित-नूतन वासनाओं से भरा है| अहंकार महाभ्रमजाल में उलझाए हुए है| मन अति चंचल और लालची है| ये सब मिलकर इस मायाजाल में फँसाए हुए है जिसे तोड़ने का पूर्ण समर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग ही नहीं है| हमें आता जाता कुछ नहीं है पर सब कुछ जानने का झूठा भ्रम पाल रखा है|
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आप सब को नमन ! ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२५ फरवरी २०१७

भारत सिर्फ भगवान की कृपा से ही जीवित है, अपने बलबूते से नहीं .....

भारत सिर्फ भगवान की कृपा से ही जीवित है, अपने बलबूते से नहीं .....
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पृथ्वी पर इस समय तीन स्थानों से पूरा दिमाग लगाकर सारी कूटनीतिक चालें चली जा रही हैं| वे तीन स्थान हैं ... (१) वाशिंगटन डी.सी., (२) वेटिकन सिटी, और (३) सिटी ऑफ़ लन्दन| इनका लक्ष्य पूरी दुनिया पर अपना अधिकार करना है| ये तीनों आपस में मिले हुए हैं, और इनका लक्ष्य एक ही है| ऊपर से तो ये मित्रता का दिखावा करते हैं, पर भीतर से ये भारतीयता के परम शत्रु हैं|
एक दूसरी शक्ति है ... इस्लामिक जिहाद जो सिर्फ भौतिक बल और आतंक के जोर पर पूरी दुनिया पर शासन करना चाहती है| पर पहले वाली शक्ति के समक्ष यह टिक नहीं पायेगी|
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भगवान की कृपा ही भारत की शक्ति है | भगवान ने भारत को जीवित रखा है सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए | भारत की अस्मिता पर जितने प्रहार हुए हैं उनका दस लाखवाँ हिस्सा भी अन्य किसी संस्कृति पर होता तो वह नष्ट हो जाती| सनातन धर्म ही भारतवर्ष का प्राण है| भारत तो सिर्फ भगवान की कृपा से ही जीवित है| उसमें इतना बल नहीं है कि इनमें से किसी का भी सामना कर सके| जब तक परमात्मा की कृपा है तभी तक भारत भारत रहेगा| उपरोक्त शक्तियों का वश चले तो वे भारत को अभी नष्ट कर दें| पर भारत भगवान की कृपा से ही जीवित है और सदा रहेगा|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

किसी काल विशेष में इस पृथ्वी के कुछ देशों में जन्म लेना ही क्या नर्क की यंत्रणा नहीं है ?

किसी काल विशेष में इस पृथ्वी के कुछ देशों में जन्म लेना ही क्या नर्क की यंत्रणा नहीं है ?
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वर्तमान काल में ही यदि देखें तो इस पृथ्वी के कुछ देशों में नर्क की सी स्थिति है| यह भी अपने स्थान बदलती रहती है| आज की तारीख में पूरा सीरिया देश एक कब्रिस्तान से कम नहीं है| कब किस की मृत्यु कहाँ आ जाए कोई नहीं कह सकता| सारे नगर खंडहर हो चके है, चारों ओर लाखों लाशें बिछी हुई हैं| भुखमरी और आतंक वहां के हर निवासी के चेहरे पर है| विश्व की महाशक्तियाँ वहाँ अपने निजी हित के लिए शह-मात का खेल खेल रही हैं| उन्हें वहाँ के लोगों से कोई मतलब नहीं है|

फिर सूडान है जो आज की तारीख में एक दूसरा नर्क है| और भी कई देश नर्क के समान हैं| नर्क की परिस्थितियाँ पृथ्वी पर अपने स्थान बदलती रहती हैं| इस विषय पर अधिक नहीं लिखना चाहता अन्यथा लेख बहुत लंबा हो जाएगा| पूरा भूगोल मेरे दिमाग में है, पृथ्वी के हर भाग की थोड़ी-बहुत जानकारी है| यह पृथ्वी भोगभूमि भी है और कर्मभूमि भी|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

बाबा रामदेव की शिक्षाएँ और पातंजलि का "योग-दर्शन" ....

बाबा रामदेव की शिक्षाएँ और पातंजलि का "योग-दर्शन" ....
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यह लेख किसी भी तरह की निंदा या आलोचना के लिए नहीं है| सिर्फ एक स्वतंत्र परिचर्चा है| बाबा रामदेव तीन-चार वर्ष पूर्व हमारे गृह-नगर पधारे थे तब हमने उनका खूब सम्मान किया था| उन्होंने भी मेरे गले में एक रुद्राक्ष की माला पहिना कर सम्मान किया था| यहाँ मैं उनकी आलोचना नहीं, सिर्फ एक स्वतंत्र विचार रख रहा हूँ|
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बाबा रामदेव की शिक्षाएँ "हठयोग-प्रदीपिका" और "घेरंड-संहिता" पर आधारित हैं| उन्होंने कुछ भी "पातंजल योगदर्शन" से नहीं लिया है| शेषावतार भगवान पातंजलि की शिक्षाओं का आरम्भ पाँच यमों से हैं जो ..... "अहिंसा", "सत्य", "अस्तेय", "ब्रह्मचर्य", और "अपरिग्रह" हैं| बाबा रामदेव इन पाँच पर तो कभी नहीं बोलते| फिर पाँच नियम हैं ... "शौच", "संतोष", "तप", "स्वाध्याय" और "ईश्वर-प्रणिधान"| इन पर भी बाबा रामदेव कभी कुछ नहीं बोलते| आसनों के बारे में भी पातंजलि ने स्थिर होकर सुख से बैठने को ही आसन कहा है| हठयोग के योगासन पातंजलि के योगदर्शन में कहीं भी नहीं हैं| प्राणायाम गोपनीय हैं क्योंकि वे दुधारी तलवार हैं| बिना शुद्ध आचार-विचार के उनका अभ्यास वर्जित हैं| हठयोग के प्राणायाम पतंजलि ने कहीं पर भी नहीं बताये हैं| फिर आगे प्रत्याहार, धारणा और ध्यान की बातें यहाँ करना अनावश्यक है|
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बाबा रामदेव की शिक्षाएँ पूर्णतः हठयोग की शिक्षाएँ हैं, वे हठयोगियों के लिए आवश्यक हैं| उनका लाभ भी लोगों को बहुत अधिक हो रहा है पर पातंजलि का नाम रखना सही नहीं है क्योंकि पातंजलि की शिक्षाओं का समावेश यहाँ कहीं भी नहीं है| पातंजलि का नाम रखना एक व्यभिचार की श्रेणी में आता है|
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यह लेख कोई निंदा या बुराई नहीं है, मेरे बहुत सारे मित्र बाबा रामदेव की संस्था से जुड़े हुए हैं, वे बुरा नहीं मानें| धन्यवाद!

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय .....

"एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय | रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय ||"
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पेड़ की जड़ को सींचने से ही जैसे पेड़ के सारे फूल और फल प्राप्त किये जा सकते हैं, वैसे ही ....... ज्ञान के एकमात्र स्त्रोत परमात्मा को पाने से ही समस्त ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है| ज्ञान का स्त्रोत तो परमात्मा है, पुस्तकें नहीं| पुस्तकें तो मात्र सूचना ही दे सकती हैं| मनुष्य जीवन अति अति अल्प और सीमित है जिसमें ज्ञान के एक अंश को ही जाना जा सकता है| अतः इधर उधर भटक कर समय नष्ट करने की बजाय यथासंभव अधिकाँश समय परमात्मा को ही दिया जाए| इसी में जीवन की सार्थकता है| ॐ ॐ ॐ !!
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पुनश्चः :---
"जाल परे जल जाती बहि, तज मीनन को मोह| रहिमन मछली नीर को, तऊ ना छाड़त छोह|"
जल व मछली से भरे तालाब में मछुआरा जब जाल फेंकता है तब जल तो मछली को छोड़कर जाल से बाहर निकला जाता है, पर मछली जल के मोह से अपना प्राण त्याग देती है| यही मनुष्य की इस संसार में गति है| काल रूपी जाल से संसार तो निकल जाता है पर मनुष्य नहीं|

हमें चीन की तर्ज पर जनसंख्या नियंत्रण क़ानून बहुत अधिक सख्ती से लागू करना ही होगा....

हमें चीन की तर्ज पर जनसंख्या नियंत्रण क़ानून बहुत अधिक सख्ती से लागू करना ही होगा....
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मैं सन १९८५ में दो महीने के लिए चीन गया था उस समय वहाँ "एक दंपत्ति के एक ही संतान" वाला नियम बहुत अधिक कठोरता से लागू था जिसके अच्छे-बुरे परिणाम भी दिखाई दे रहे थे| इस से कुछ सामाजिक समस्याएँ तो उत्पन्न हुईं पर कुल मिलाकर चीन देश का इस से बहुत अधिक कल्याण हुआ| चीन ने अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या को नियंत्रित किया जिससे बेरोजगारी समाप्त हुई, और संसाधनों की कमी दूर हुई| फिर मुझे दुबारा सन १९९५ के आसपास चीन जाने का अवसर मिला तब सीमित संख्या में कुछ लोगों को दो संतान उत्पन्न करने की छूट मिल गयी थी| तीसरी और अंतिम बार चीन सन २००० में गया तब सभी को दो संतान उत्पन्न करने की छूट मिल गयी थी जो अभी तक है| अब चीन की जनसंख्या पूरी तरह नियंत्रित है| जनसंख्या के नियंत्रण से चीन अपने देश की घोर गरीबी और अव्यवस्था दूर करने में समर्थ हुआ है|
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सन १९८० के दशक तक चीन की स्थिति भारत से तो बहुत ही अधिक खराब थी| वहां घोर गरीबी थी और जीवन बड़ा अभावग्रस्त था| वर्त्तमान में वहाँ साम्यवाद तो समाप्त हो चुका है पर साम्यवादी दल का तानाशाही शासन है| जनसंख्या नियंत्रित करने के बहुत अच्छे परिणाम हुए है| चीन में जनसंख्या नियंत्रण बन्दूक की नोक पर या कह सकते हैं कि डंडे के जोर पर हुआ है| भारत में पता नहीं ऐसा हो पायेगा या नहीं| जनसंख्या नियंत्रित करने की बात करते ही यहाँ अल्पसंख्यक-बहुसन्ख्यक, अगड़ा-पिछड़ा, मानवाधिकार आदि की राजनीति प्रारम्भ हो जायेगी|
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कुछ भी हो जाए पर भारत को अपनी अराजकता, भूखमरी और दरिद्रता से मुक्ति पाने के लिए कठोरता से जनसंख्या नियंत्रित करनी ही पड़ेगी|

हम अपने आनंद रूप में स्थित हों .....

हम अपने आनंद रूप में स्थित हों .....
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गीता में भगवान कहते हैं .....
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः |
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ||१६:२२||
अर्थात जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके मानने में भी नहीं आता, और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता|
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वह लाभ क्या है? वह लाभ है हमारा आनंद स्वरुप, जिसमें स्थित होकर हम भयानक से भयानक दुःख में भी अविचलित रह सकते हैं| तब दुःख एक अतीत का विषय बन जाता है|
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अपने उस आनन्दस्वरूप में स्थित होने के लिए हमारी गुरुप्रदत्त साधना नियमित और नित्य हो| साथ साथ हमारा आचरण भी सही हो| सद आचरण को प्रथम धर्म बताया गया है .....
आचारः प्रथमो धर्मः इत्येतद्विदुषां वचः |
तस्मादरक्षेत् सदाचारं प्राणेभ्योSपि विशेषतः ||
सब के प्रति अच्छा आचरण हमारा सर्व प्रथम धर्म है, ऐसा विद्वज्ज्नों का कहना है| इस लिये सदाचार की रक्षा (अनुपालन) हमें अपने प्राणों से भी अधिक करनी चाहिये|
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बिना सद आचरण के हमारी कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती और हम कभी भी अपने आनंद स्वरुप में स्थित नहीं हो सकते| हम स्वयं के साथ और दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, इसके प्रति सदा सजग रहें, तभी हम अपने आनंद स्वरुप में स्थित हो सकते हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ फरवरी २०१८

Wednesday 21 February 2018

मुक्ति की सोचें, बंधनों की नहीं .....

सावधान :--- इस जीवन में इस पृथ्वी पर, और इस जीवन के पश्चात् एक काल्पनिक स्वर्ग में मौज-मस्ती-मजा लेने की कामना या अपेक्षा घोर निराशाजनक, असत्य व महादुखदायी होगी| ऐसी कामनाएँ और अपेक्षाएँ महाबंधनकारी, झूठी और नर्क में धकेलने वाली हैं| इस खतरे से सावधान! अपनी इन्द्रियों को और मन को वश में रखें|
मुक्ति की सोचें, बंधनों की नहीं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
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 क्या हमें पता है कि हमारी समस्याएँ और हमारी आवश्यकताएँ क्या हैं ? क्या हम अपनी समस्याओं का निदान और अपनी आवश्यकताओं की खोज सही स्थान पर कर रहे हैं ? कहीं हम विज्ञापनों को देखकर या दूसरों से बराबरी करने के लिए या दूसरों के गलत प्रभाव में आकर झूठी आवश्यकताओं का निर्माण तो नहीं कर रहे हैं ?

पूर्णता परमात्मा में ही है .....

पूर्णता परमात्मा में ही है अतः उनकी सृष्टि में भी कोई अपूर्णता नहीं हो सकती| फिर अज्ञान, अन्धकार, असत्य, पाप व दुःख के कारण क्या हैं? वेदान्त कहता है "एकोहं द्वितीयो नास्ति" अर्थात् मेंरे सिवाय अन्य कोई नहीं है| पूर्ण सत्यनिष्ठा से अवलोकन करने पर पाता हूँ कि कोई ऐसी बुराई या भलाई नहीं है जो मुझमें नहीं है| सारे अज्ञान-ज्ञान, अन्धकार-प्रकाश, असत्य-सत्य, पाप-पुण्य और दुःख-सुख का स्त्रोत मैं ही हूँ|
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यह सृष्टि परमात्मा के ही प्रकाश और अन्धकार से बनी है| हमारा कार्य परमात्मा के प्रकाश में वृद्धि करना ही है| उसके अन्धकार में वृद्धि करेंगे तो दंडस्वरूप अज्ञान और दुःख की प्राप्ति होगी ही|
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भगवान बड़े छलिया हैं| लीला रूपी इस सृष्टि की रचना कर वे स्वयं को ही छल रहे हैं| इसी में उनका आनंद है, और उनके आनंद में ही हमारा आनंद है| अतः यहाँ सिर्फ आत्मज्ञान रूपी प्रकाश की ही वृद्धि करो, आवरण और विक्षेप रूपी अन्धकार की नहीं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ फरवरी २०१८

सुख, संपति, परिवार, और बड़ाई ..... ये सब भगवान की भक्ति में बाधक हैं ..

सुख, संपति, परिवार, और बड़ाई ..... ये सब भगवान की भक्ति में बाधक हैं| जिसे भी भगवान की उपासना करनी है, उसे इन सब का मोह त्यागना ही होगा| मैं इस समाज में अनुपयुक्त (Misfit) हूँ, पर फिर भी टिका हुआ और जीवित हूँ .....
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मैं जिस समाज में रहता हूँ, उस समाज में मनुष्य जीवन की सफलता व प्रगति का एकमात्र मापदंड है .... पास में रुपये पैसों का होना, चाहे वे किसी भी माध्यम से अर्जित किये गए हों| जिस व्यक्ति ने जितने अधिक रुपये व संपत्ति अर्जित की हैं वह व्यक्ति उतना ही अधिक सफल और बड़ा माना जाता है| हमारे समाज में पढाई-लिखाई का एकमात्र उद्देश्य है .... अधिक से अधिक रूपये बनाने की योग्यता प्राप्त करना| हमारे समाज में भगवान तो एक साधन मात्र है जिस की आराधना करने से खूब रुपया-पैसा, धन-संपत्ति, यश-कीर्ति, वैभव, व सांसारिक सफलता रूपी साध्य सिद्ध होते हैं| हमारे समाज में भक्ति का अर्थ है ..... सांसारिक मनोकामनाओं की पूर्ती के लिए भगवान को प्रसन्न करना ताकि जीवन सुचारू रूप से बिना विघ्न बाधाओं के चलता रहे| लोग भागवत आदि की कथाएँ करवाते हैं जो एक धार्मिक मनोरंजन मात्र हैं| हमारे समाज में परमात्मा से अहैतुकी प्रेम, समर्पण आदि की बातें सिर्फ एक मानसिक उन्माद मात्र हैं| समाज में बड़ी क्रूरता है, सारा प्रेम दिखावटी है| आर्थिक हित टकराते ही अच्छे से अच्छे आत्मीय भी शत्रु हो जाते हैं| चााहते सब हैं कि भगतसिंह जन्म ले, पर दुसरे के घर में, स्वयं के घर में नहीं| मैं किसी की निंदा नहीं कर रहा, एक वास्तविकता बता रहा हूँ|
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ऐसे समाज में रहकर आत्म-साक्षात्कार हेतु परमात्मा की साधना कितनी कठिन है इसकी आप कल्पना कर सकते हैं| मुँह के सामने तो सब बड़ी बड़ी मीठी मीठी बातें करते हैं पर पीठ फेरते ही तिरस्कार व अपमानजनक निंदनीय शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं|
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पर जहाँ भी भगवान ने रखा है वहाँ सब तरह की विपरीतताओं के पश्चात भी मैं सुखी और प्रसन्न हूँ| किसी भी तरह की कोई शंका या संदेह मुझे नहीं है| मेरे विचार और सोच भी स्पष्ट है| किसी से मिलने की भी कोई इच्छा अब नहीं रही है| भगवान चाहे तो वे स्वयं ही किसी से मिला दें, पर चला कर मैं स्वयं अब किसी से भी नहीं मिलना चाहता|
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पूर्व जन्मों में कोई अच्छे कर्म नहीं किये थे, कोई मुक्ति का उपाय नहीं किया था, इसी लिए उन पूर्व जन्मों के कर्म फलों को भोगने के लिए यह जन्म लेना पड़ा| इसमें किसी अन्य का कोई दोष नहीं है| मेरे शाश्वत साथी भगवान जो सोचते हैं उसी का महत्त्व है, न कि नश्वर मनुष्यों का| मैं जहाँ भी हूँ वहीं परमात्मा हैं| वे मेरे ह्रदय में नहीं, उन्होंने ही मुझे अपने स्वयं के हृदय में बैठा रखा है| मैं परमात्मा के साथ एक हूँ और सदा रहूँगा| किसी से भी मेरी कोई अपेक्षा और कामना नहीं है|
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"सुख संपति परिवार बड़ाई, सब परिहरि करिहउँ सेवकाई |
ये सब रामभगति के बाधक, कहहिं संत तव पद अवराधक |"
सुख संपति परिवार और बड़ाई ..... ये सब राम भक्ति में बाधक हैं| जिसे भी भगवान की उपासना करनी है, उसे इन सब से मोह त्यागना ही होगा|
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आप सब में हृदयस्थ भगवान नारायण को नमन ! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ फरवरी २०१८

हमें पानीपत के तृतीय युद्ध वाली मानसिकता से बाहर आना ही होगा .....

हमें पानीपत के तृतीय युद्ध वाली मानसिकता से बाहर आना ही होगा .....
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पानीपत का तृतीय युद्ध अति शक्तिशाली मराठा सेना अपने सेनापति की अदूरदर्शिता और गलत निर्णय के कारण हारी थी| वह हिन्दुओं की एक अत्यंत भयावह पराजय थी| पर उससे हमने कोई सबक नहीं लिया, और वे ही भूलें हम अब तक करते आये हैं| चीन से युद्ध भी हम उसी भूल से हारे| कारगिल के युद्ध में भी वही भूल हमने नियंत्रण रेखा को पार नहीं कर के की,
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पानीपत के तृतीय युद्ध में अगर मराठा सेना आगे बढकर पहले आक्रमण करती तो निश्चित रूप से विजयी होतीं और पूरे भारत पर उनका राज्य होता| युद्धभूमि में जो पहले आगे बढकर आक्रमण करता है पलड़ा उसी का भारी रहता है| उनको पता था कि आतताई अहमदशाह अब्दाली कुछ अन्य नवाबों की फौजों के साथ सिर्फ विध्वंश और लूटने के उद्देश्य से आ रहा है| उन्हें आगे बढ़कर मौक़ा मिलते ही उसे नष्ट कर देना चाहिए था| अन्य हिन्दू राजाओं से भी सहायता माँगनी चाहिए थी| पर मराठा सेना उसके यमुना के इस पार आने की प्रतीक्षा करती रहीं| अब्दाली निश्चिन्त था कि जब तक मैं नदी के उस पार नहीं जाऊंगा मराठा सेना आक्रमण नहीं करेगी| उसने कब और कैसे नदी पार की मराठों को पता ही नहीं चला और ऐसे अवसर पर आक्रमण किया जब मराठा सेना असावधान और निश्चिन्त थीं| मराठों को सँभलने का अवसर भी नहीं मिला|
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कारगिल के युद्ध में भी वाजपेयी जी ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि हम काल्पनिक नियंत्रण रेखा को किसी भी स्थिति में पार नहीं करेंगे| पकिस्तान तो निश्चिन्त हो गया था कि भारत किसी भी परिस्थिति में नियंत्रण रेखा को पार नहीं करेगा| यह हमारी मुर्खता थी| यदि हमारी सेना नियंत्रण रेखा को पार कर के आक्रमण करती तो न तो हमारे इतने सैनिक मरते और न युद्ध इतना लंबा चलता|
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पकिस्तान भारत पर कभी भी आणविक आक्रमण कर सकता है| इस से पहिले कि पाकिस्तान भारत पर आक्रमण करे, भारत को उसके आणविक शस्त्रों का नाश कर उसको चार टुकड़ों में बाँट देना चाहिए| तभी भारत में शान्ति स्थापित हो सकती है|

१९ फरवरी २०१७

१८ फरवरी सन १९४६ का भारतीय इतिहास में वह अति महत्वपूर्ण दिवस .....

१८ फरवरी सन १९४६ का भारतीय इतिहास में वह अति महत्वपूर्ण दिवस .....
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१८ फरवरी १९४६ के दिन एक अति महत्वपूर्ण घटना भारत के इतिहास में हुई थी, जिसने भारत से अंग्रेजों को भागने को बाध्य कर दिया था| यह भारतीयों के जनसंहारकारी अंग्रेजी राज के कफन में आख़िरी कील थी| इस घटना के इतिहास को स्वतंत्र भारत में छिपा दिया गया और विद्यालयों में कभी पढ़ाया नहीं गया|
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अगस्त १९४२ का भारत छोड़ो आन्दोलन पूर्ण रूपेण विफल हो गया था| अंग्रेजों ने उसे हिंसात्मक रूप से कुचल दिया था| गांधी जी की नीतियों ने पूरे भारत में एक भ्रम उत्पन्न कर दिया था और उनके द्वारा तुर्की के खलीफा को बापस गद्दी पर बैठाए जाने के लिए किये गए खिलाफत आन्दोलन ने भारत में विनाश ही विनाश किया| उसकी प्रतिक्रियास्वरूप केरल में मोपला विद्रोह हुआ और लाखों हिन्दुओं की हत्याएँ हुई| गाँधी ने उन हत्यारों को स्वतंत्रता सेनानी कहा| पकिस्तान की मांग भी भयावह रूप से तीब्र हो उठी|
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भारत स्वतंत्र हुआ इसका कारण था ..... द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात अंग्रेजी सेना की कमर टूट गयी थी और वह भारत पर नियंत्रण करने में असमर्थ थी| भारतीय सिपाहियों ने अन्ग्रेज़ अधिकारियों के आदेश मानने से मना कर दिया था और नौसेना ने विद्रोह कर दिया जिससे अँगरेज़ बहुत बुरी तरह डर गए और उन्होंने भारत छोड़ने में ही अपनी भलाई समझी| स्वतन्त्रता कोई चरखा कातने से या अहिंसात्मक सत्याग्रह से नहीं मिली जिसका झूठा इतिहास हमें पढ़ाया गया है|
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नेताजी सुभाष चन्द्र बोस व आजाद हिन्द फौज द्वारा भारत की स्वतंत्रता के लिए शुरू किये गये सशस्त्र संघर्ष से प्रेरित होकर रॉयल इंडियन नेवी के भारतीय सैनिकों ने १८ फरवरी १९४६ को HMIS Talwar नाम के जहाज से मुम्बई में अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध मुक्ति संग्राम का उद्घोष कर दिया था| उनके क्रान्तिकारी मुक्ति संग्राम ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा प्रदान की|
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नौसैनिकों का यह मुक्ति संग्राम इतना तीव्र था कि शीघ्र ही यह मुम्बई से चेन्नई, कोलकात्ता, रंगून और कराँची तक फैल गया| महानगर, नगर और गाँवों में अंग्रेज अधिकारियों पर आक्रमण किये जाने लगे तथा कुछ अंग्रेज अधिकारियों को मार दिया गया और उनके घरों पर धावा बोला गया तथा धर्मान्तरण व राष्ट्रीय एकता विखण्डित करने के केन्द्र बने उनके पूजा स्थलों को नष्ट किये जाने लगा| स्थान - स्थान पर मुक्ति सैनिकों की अंग्रेज सैनिकों के साथ मुठभेड होने लगी| ऐसे समय में भारतीय नेताओं ने मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे उन वीर सैनिकों का कोई साथ नहीं दिया , जबकि देश की आम जनता ने उन सैनिकों को पूरा सहयोग दिया|
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नौसैनिकों के मुक्ति संग्राम की मौहम्मद अली जिन्ना, जवाहर लाल नेहरु और मोहनदास गाँधी ने निन्दा की व नौसैनिकों के समर्थन में एक शब्द भी नहीं कहा| क्या अपने देश की स्वतंत्रता के लिए उनका मुक्ति संग्राम करना बुरा था? जिन लोगों ने देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी, कोल्हू में बैल की तरह जोते गये , नंगी पीठ पर कोडे खाए, भारत माता की जय का उद्घोष करते हुए फाँसी के फंदे पर झूल गये, क्या इसमें उनका अपना कोई निजी स्वार्थ था ?
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भारतीय राष्ट्रीय नेताओं के विश्वासघात के कारण नौसैनिको का मुक्ति संग्राम हालाँकि कुचल दिया गया, लेकिन इसने ब्रिटिस साम्राज्य की जड़ें हिला दीं और अंग्रेजों के हृदयों को भय से भर दिया| अंग्रेजों को ज्ञात हो गया कि केवल गोरे सैनिको के भरोसे भारत पर राज नहीं किया किया जा सकता, भारतीय सैनिक कभी भी क्रान्ति का शंखनाद कर १८५७ का स्वतंत्रता समर दोहरा सकते है, और इस बार सशस्त्र क्रान्ति हुई तो उनमें से एक भी जिन्दा नहीं बचेगा, अतः अब भारत को छोडकर वापिस जाने में ही उनकी भलाई है|
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तत्कालीन ब्रिटिस हाई कमिश्नर जॉन फ्रोमैन का मत था कि १९४६ में रॉयल इंडियन नेवी के विद्रोह (मुक्ति संग्राम) के पश्चात भारत की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो गई थी| १९४७ में ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने भारत की स्वतंत्रता विधेयक पर चर्चा के दौरान टोरी दल के आलोचकों को उत्तर देते हुए हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा था कि ....
"हमने भारत को इसलिए छोडा , क्योंकि हम भारत में ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे थे|"
( दि महात्मा एण्ड नेता जी , पृष्ठ -१२५, लेखक - प्रोफेसर समर गुहा)
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नेताजी सुभाष से प्रेरणाप्राप्त इंडियन नेवी के वे क्रान्तिकारी सैनिक ही थे जिन्होंने भारत में अंग्रेजों के विनाश के लिए ज्वालामुखी का निर्माण किया था| इसका स्पष्ट प्रमाण ब्रिटिस प्रधानमंत्री लार्ड एटली और कोलकात्ता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी.बी.चक्रवर्ती जो उस समय पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक राज्यपाल भी थे के वार्तालाप से मिलता है|
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जब चक्रवर्ती ने एटली से सीधे-सीधे पूछा कि गांधी का "अंग्रेजों भारत छोडो आन्दोलन" तो १९४७ से बहुत पहले ही मुरझा चुका था तथा उस समय की भारतीय परिस्थिति में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे अंग्रेजों का भारत छोडना आवश्यक हो जाए, तब आपने ऐसा क्यों किया?
तब एटली ने उत्तर देते हुए कई कारणों का उल्लेख किया , जिनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारण इंडियन नेवी का विद्रोह ( मुक्ति संग्राम ) व नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के कार्यकलाप थे जिसने भारत की जल सेना , थल सेना और वायु सेना के अंग्रेजों के प्रति लगाव को लगभग समाप्त करके उनकों अंग्रेजों के ही विरूद्ध लडने के लिए प्रेरित कर दिया था|
अन्त में जब चक्रवर्ती ने एटली से अंग्रेजों के भारत छोडने के निर्णय पर गांधी जी के कार्यकलाप से पडने वाले प्रभाव के बारे मेँ पूछा तो इस प्रश्न को सुनकर एटली हंसने लगा और हंसते हुए कहा कि "गांधी जी का प्रभाव तो न्यूनतम ही रहा"|
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एटली और चक्रवर्ती का वार्तालाप निम्नलिखित तीन पुस्तकों में मिलता है -
1. हिस्ट्री ऑफ इंडियन इन्डिपेन्डेन्ट्स वाल्यूम - ३, लेखक - डॉ. आर. सी. मजूमदार |
2. हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस , लेखिका - गिरिजा के. मुखर्जी |
3. दि महात्मा एण्ड नेता जी , लेखक - प्रोफेसर समर गुहा |
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पुनश्चः :- आज़ादी हमें कोई चरखा चलाकर या अहिंसा से नहीं मिली| इस आज़ादी के पीछे लाखों लोगों का बलिदान था| नेहरु और जिन्ना दोनों ही अंग्रेजों के हितचिन्तक थे जिन्हें गांधी की मूक स्वीकृति थी| भारत से अँगरेज़ गए और जाते जाते अपने ही मानस पुत्रों .... नेहरु और जिन्ना को सत्ता सौंप गए| जितना अधिकतम भारत का विनाश वे कर सकते थे उतना विनाश जाते जाते भी कर गए|
वन्दे मातरं | भारत माता की जय |
१९ फरवरी २०१७

शैतान यानि असुर एक वास्तविकता है जिसका मैं साक्षी हूँ .....

शैतान यानि असुर एक वास्तविकता है जिसका मैं साक्षी हूँ (The Devil exists, This is my testimony) .......
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हमारे अतृप्त अशांत मन के पीछे आसुरी शक्तियाँ हैं, जिनसे हमें मुक्त होना है| हमारा अतृप्त अशांत मन ही हमारी सब बुराइयों और सब पापों का कारण है|
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जिस तरह से दैवीय जगत होता है वैसे ही आसुरी और पैशाचिक जगत भी होते हैं जो हमारे जीवन पर निरंतर प्रभाव डालते रहते हैं| जैसे देवता हमारी सहायता करते हैं वैसे ही असुर भी निरंतर हमारे ऊपर अधिकार कर हमें बुराई की और धकेलने का प्रयास करते रहते हैं| कई बार हम ऐसे गलत कार्य कर बैठते हैं जिनका हमें स्वयं को भी विश्वास नहीं होता कि हमारे रहते हुए भी ऐसा क्यों हुआ| हमें पता भी नहीं चलता कि कब किसी आसुरी शक्ति ने हमें अपना उपकरण बना कर हमारा प्रयोग या उपयोग कर लिया|
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मैंने आज (१५ फरवरी २०१८ को) स्पष्ट रूप से एक दैवीय जगत को भी स्पष्ट अनुभूत किया है और आसुरी जगत को भी| कई बड़े बड़े शक्तिशाली असुर हैं जिनसे भगवान ही हमारी रक्षा कर सकते हैं| मेरी रक्षा भी भगवान की कृपा से ही होती रही है अन्यथा असुरों ने मुझ पर अधिकार कर मुझे नष्ट करने का पूरा प्रयास किया है| आज तो प्रत्यक्ष रूप से मैंने एक अति शक्तिशाली असुर का अनुभव किया है| यह एक वर्जित विषय है जिसकी चर्चा का भी निषेध है, पर ये पंक्तियाँ एक अंतर्प्रेरणा से मैं लिख रहा हूँ|
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मैनें ३० जनवरी को एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था "शैतान क्या है? आज मैंने यह प्रत्यक्ष अनुभव किया है कि Devil यानी शैतान एक वास्तविकता है| उस लेख को यहाँ पुनर्प्रस्तुत कर रहा हूँ और अंत में एक टिप्पणी जोड़ी है|
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(पुनर्प्रस्तुत लेख) शैतान क्या है .....
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शैतान (Satan या Devil) की परिकल्पना इब्राहिमी (Abrahamic) मजहबों (यहूदी, इस्लाम और ईसाईयत) की है| भारत में उत्पन्न किसी भी मत में शैतान की परिकल्पना नहीं है| शैतान .... इब्राहिमी मज़हबों में सबसे दुष्ट हस्ती का नाम है, जो दुनियाँ की सारी बुराई का प्रतीक है| इन मज़हबों में ईश्वर को सारी अच्छाई प्रदान की जाती है और बुराई शैतान को|
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हिन्दू परम्परा में शैतान जैसी चीज़ का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि हिन्दू मान्यता कहती है कि मनुष्य अज्ञान वश पाप करता है जो दुःखों की सृष्टि करते हैं| इब्राहिमी मतों के अनुसार शैतान पहले ईश्वर का एक फ़रिश्ता था, जिसने ईश्वर से ग़द्दारी की और इसके बदले ईश्वर ने उसे स्वर्ग से निकाल दिया| शैतान पृथ्वी पर मानवों को पाप के लिये उकसाता है|
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ईसाई मत में शैतान बुराई की व्यक्तिगत सत्ता का नाम है, जिसको पतित देवदूत. ईश्वर विरोधी दुष्ट, प्राचीन सर्प आदि कहा गया है| जहाँ ईसा मसीह अथवा उनके शिष्य जाते थे वहाँ वह अधिक सक्रिय हो जाता था क्योंकि ईसा मसीह उसको एक दिन पराजित करेंगे और उसका प्रभुत्व मिटा देंगे| अंततोगत्वा वह सदा के लिए नर्क में डाल दिया जाएगा|
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जिन हिन्दू संतों और विद्वानों ने ईसा मसीह और उनकी शिक्षाओं पर लेख लिखे हैं, उन्होंने मनुष्य की "काम वासना" को ही शैतान बताया है|
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सार की बात यह है कि अपना भटका हुआ, अतृप्त अशांत मन ही शैतान है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० जनवरी २०१८
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पुनश्चः :--- यह मेरी आज १५ फरवरी २०१८ की टिप्पणी है कि यदि मैं यह कहूँ कि हमारे अतृप्त और अशांत मन के पीछे आसुरी शक्तियाँ यानि शैतान है तो मैं गलत नहीं हूँ| शैतान है और मैं इसका साक्षी हूँ| जिन मनुष्यों को हम पापी या दुष्ट कहते हैं वे तो शैतान यानि आसुरी जगत के शिकार हैं, इसमें उनका क्या दोष? हम स्वयं आसुरी प्रभाव से पूर्णतः मुक्त होकर ही उनकी सहायता कर सकते हैं|
१५ फरवरी २०१८

परमात्मा से प्रेम करना हमारा स्वभाव है .....

परमात्मा से प्रेम करना हमारा स्वभाव है| अपने स्वभाव में बने रहना ही आनंद दायक है| चाहे कोई सा भी आध्यात्मिक मार्ग हो, सब का आधार परम प्रेम है| बिना परम प्रेम के एक इंच भी आगे प्रगति नहीं हो सकती| प्रेम प्रेम प्रेम और प्रेम ..... परमात्मा से प्रेम बस यही जीवन का सार है| हृदय में प्रेम हो तभी परमात्मा से मार्गदर्शन मिलता है, अन्यथा नहीं|
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अहंकार और प्रपञ्च से मोह करने वाला आत्मविरोधी-ब्रह्मविरोधी है| अहंकारी और प्रपंची ही दूसरों को ठगता है तथा दूसरों से ठगा जाता है| ऐसे व्यक्ति ही दूसरों को दुःख देते हैं और दूसरों से दुःख पाते हैं| 
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जो कुछ भी वेद विरुद्ध है, वह अमान्य है चाहे वह कितना भी आकर्षक और सुन्दर विचार हो| जो वेद सम्मत है, वही मान्य है| सारी आध्यात्मिक साधनाओं का स्त्रोत वेदों से है, बाकी सब उसी का विस्तार है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१२ फरवरी २०१८

Sunday 11 February 2018

यह जातिवाद और तुष्टिकरण एक दिन इस राष्ट भारत को नष्ट कर देगा .....

यह जातिवाद और तुष्टिकरण एक दिन इस राष्ट भारत को नष्ट कर देगा .....
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भारत को विखंडित करके नष्ट करने का अर्थ है ...सनातन धर्म को नष्ट करना| सनातन धर्म नष्ट हुआ तो शीघ्र ही इस पृथ्वी पर मनुष्य जाति भी अंततः आपस में लड़कर नष्ट हो जायेगी| वह महाप्रलय का आरम्भ होगा जिसमें कोई नहीं बचेगा| फिर नए सिरे से ही सृष्टि बसेगी| इस पृथ्वी पर कभी डायनासोर ही थे, जैसे वे नष्ट हुए वैसे ही मनुष्य भी नष्ट हो जायेंगे| अब जैसे डायनासोर के अवशेष मिलते हैं, वैसे ही मनुष्यों के भी अवशेष ही मिलेंगे| फिर हो सकता है दूसरे किसी ग्रह से मनुष्यों से भी अधिक उन्नत व अधिक गुणों से संपन्न कोई अतिमानुषी जाति यहाँ आकर बसे| वे भी यही पढेंगे कि इस पृथ्वी पर कभी मनुष्य जाति रहती थी जिनमें इतना ईर्ष्या, द्वेष और अहंकार था कि वे आपस में लड़कर नष्ट हो गए| हो सकता है वे अतिमानुषी किसी सूक्ष्म लोक से यहाँ भौतिक रूप से रूपांतरित होकर रहें, पर वे होंगे किसी विज्ञानमय लोक के ही, ऐसा मुझे लगता है| जैसे इस समस्त सृष्टि में हम इस भौतिक सृष्टि के हैं, वैसे ही प्राणिक, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय सृष्टियाँ भी हैं जो इस भौतिक जगत से बहुत बड़ी हैं|
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मेरी बात का अभी तो सब उपहास उड़ा सकते हैं पर अपने कर्म फलों से कोई नहीं बच सकता| परमात्मा का अनुग्रह ही मनुष्यों को बचा सकता है, अन्यथा यह महाविनाश निश्चित है| मनुष्य सिर्फ अपनी मृत्यु से ही डरता है, अन्य किसी से नहीं| पर यह मृत्यु सभी जीवों की होगी सिर्फ मनुष्यों की ही नहीं| काल अनंत है| इस अनंत काल में कुछ लाख वर्ष मनुष्य जाति ने इस पृथ्वी पर राज्य कर लिया, वे भी डायनासोर की तरह भूतकाल के प्राणी हो जाएँगे| कोई दूसरे प्राणी उनका स्थान ले लेंगे, इस से काल पर कोई फर्क नहीं पड़ता|
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भारत व सनातन धर्म को नष्ट करने का प्रयास पिछले एक सहस्त्र वर्षों से हो रहा है| जब भारत की अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे थे तब अनगिनत अनेक भक्तों ओर महान आत्माओं ने जन्म लिया और सनातन धर्म की रक्षा की| आसुरी शक्तियों के भीषणतम प्रहारों के आघात के बाद भी सनातन धर्म बचा रहा, पर अब इस पर और भी अधिक भीषण सूक्ष्म रूप में आघात हो रहे हैं|
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सर्वप्रथम भारत की शिक्षा व्यवस्था और कृषि व्यवस्था को नष्ट किया गया| झूठा इतिहास पढ़ाकर भारतीयों को आत्महीनता का बोध कराया गया| धर्मनिरपेक्षता के नाम पर धर्म की चेतना व धर्म के ज्ञान को लोगों के मानस से मिटाया गया| भारत को मत-मतान्तरों के आधार पर असुरों ने बाँटा, फिर भाषा के आधार पर, अब जाति के आधार पर बाँटा जा रहा है| सारी राजनीति जाति पर आधारित हो गयी है| राष्ट्र के हित की बात करने पर विभिन्न तिरस्कारपूर्ण व् अपमानजनक शब्दों से उपहास किया जाता है| यह जातिवाद और तुष्टिकरण भारत को एक दिन नष्ट कर देगा| भारत नष्ट हुआ तो यह मनुष्य जाति भी नष्ट हो जायेगी|
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पर अब लगता है हम असहाय हैं और आने वाले पहाप्रलय के साक्षी होने वाले हैं| मेरी पीड़ा सिर्फ मेरी ही नहीं है, सारे राष्ट्र की पीड़ा है| हे प्रभु, धर्म और राष्ट्र की रक्षा करना|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
११ फरवरी २०१८
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पुनश्चः : --- कल १० फरवरी को प्रातः कश्मीर में एक सैनिक छावनी पर आतंकवादियों का आकमण हुआ था| वह आक्रमण इस लिए संभव हो पाया क्योंकि उस सैनिक छावनी से सटाकर ही म्यांमार देश से आये अवैध रोहिंग्यों की बस्ती बसाई गयी है जिसमें से छावनी पर जासूसी भी की जा सकती है और छावनी में अवैध प्रवेश भी किया जा सकता है| कश्मीर के शासक वर्ग को यह पीड़ा है कि वहाँ पर हिन्दू जीवित क्यों हैं| उन्हें कश्मीर में हिन्दुओं का रहना असह्य है पर रोहिंग्या मुसलमानों से कोई शिकायत नहीं है|
चीन की योजना यह है की भारत के पूर्वोत्तर को काट कर भारत से अलग कर दे इसीलिये वह डोकलाम पर अधिकार करना चाहता है| पकिस्तान यह चाहता है कि जम्मू मुस्लिम बहुल हो जाए ताकि जम्मू-कश्मीर को भारत से पृथक करने में कोई अड़चन न हो|
चीन, पकिस्तान, और पूरा ईसाई जगत अपने अंतर से यही चाहता है कि भारत नष्ट हो जाए|

पढो कम, पर ध्यान अधिक करो .....

पढो कम, पर ध्यान अधिक करो .....
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भगवान के प्रति परम प्रेम और उन्हें पाने की अभीप्सा, शास्त्रों के ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण और सार्थक है| शास्त्रों के ज्ञान की उपयोगिता तभी तक है जब तक भगवान को पाने की तड़प उत्पन्न नहीं होती| शास्त्रों से हमें प्रेरणा और दिशा-निर्देश ही प्राप्त हो सकते हैं, वास्तविक ज्ञान नहीं| वास्तविक ज्ञान तो हमें भगवान की कृपा से ही मिल सकता है, क्योंकि भगवान ही सारे ज्ञान का स्त्रोत हैं| जब भगवान में मन लग जाये तब भगवान का चिंतन ही करना चाहिए| सब अनात्म विचारों को हटाकर भगवान के प्रियतम रूप का निरंतर चिंतन-मनन ही ध्यान है| भगवान निश्चित रूप से अपने भक्तों का मार्गदर्शन करते हैं|
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शास्त्रों का स्वाध्याय ......... सत्संग, प्रेरणा, मार्गदर्शन और उत्साहवृद्धि के लिए ही करना चाहिए| बिना साधना के मात्र शास्त्रों का अध्ययन विद्वता के एक मिथ्या अहंकार को जन्म देता है| हमारे जीवन का लक्ष्य भगवान की प्राप्ति है, न कि सिर्फ बौद्धिक ज्ञान| सिर्फ ग्रन्थ पढ़ने या सुनने से भगवान नहीं मिलते|
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विश्व की धर्मान्धता, कट्टरता, उग्रवाद और आतंकवाद की सारी समस्याएँ उस दिन दूर हो जाएँगी जिस दिन पृथ्वी पर सभी लोग भगवान से प्रेम करने लगेंगे| वर्तमान में उग्र आतंकवाद का एकमात्र कारण यही है कि पृथ्वी पर कुछ लोग भगवान से तो प्रेम नहीं करते पर अपनी कुछ पुस्तकों की तथाकथित श्रेष्ठता और उन में लिखे विचार सब पर बलात् थोपना चाहते हैं, चाहे दूसरों की ह्त्या ही करनी पड़े| वे लोग मार्क्सवादी हों या नाजी, क्रूसेडर हों या जिहादी, या चाहे फर्जी सेकुलर, सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं||
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हे भगवान, सब को सदबुद्धि और विवेक दो| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
सभी को सप्रेम सादर नमन!
कृपा शंकर
१० फरवरी २०१८

Friday 9 February 2018

कौन सी ऐसी बाधा है जो दूर नहीं हो सकती ? .....

कौन सी ऐसी बाधा है जो दूर नहीं हो सकती ? .....
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राष्ट्र में व्याप्त असत्य रूपी अन्धकार घनीभूत पीड़ा दे रहा है| भूतकाल तो हम बदल नहीं सकते, उसका रोना रोने से कोई लाभ नहीं है| वास्तव में यह हमारे भीतर का ही अंधकार है जो बाहर व्यक्त हो रहा है| इसे दूर करने के लिए तो स्वयं के भीतर ही प्रकाश की वृद्धि करनी होगी, तभी यह अन्धकार दूर होगा| इसके लिए आध्यात्मिक साधना द्वारा आत्मसाक्षात्कार करना होगा|
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परमात्मा ने अपनी परम कृपा कर के पूरी स्पष्टता से मुझे मेरी सारी कमियाँ और उन्हें दूर करने के उपाय भी बताए हैं, और उनका पालन करने या न करने की छूट भी दी है| पर जब स्वयं भगवान की ही आज्ञा है तो उस दिशा में अग्रसर भी होना ही होगा| यही राम काज है जिसे पूरा किये बिना कोई विश्राम नहीं हो सकता है|
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"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम"|
जब धनुर्धारी भगवान श्रीराम, सुदर्शन चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण, और पिनाकपाणी देवाधिदेव महादेव स्वयं हृदय में बिराजमान हैं तब कौन सी ऐसी बाधा है जो पार नहीं हो सकती? जीवन की बची खुची सारी ऊर्जा एकत्र कर के "प्रबिसि नगर कीजे सब काजा हृदयँ राखि कोसलपुर राजा" करना ही होगा| तभी "गरल सुधा रिपु करहिं मिताई गोपद सिंधु अनल सितलाई" होगी|
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महादेव महादेव महादेव ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० फरवरी २०१८
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पुनश्चः : -- उपरोक्त लेख को लिखने के पश्चात् कुछ लिखने योग्य बचा ही नहीं है|

भूतकाल को नहीं बदल सकते, फिर उसे कोसने से कोई लाभ नहीं है .....

भूतकाल में जो भी हुआ है उसे तो हम बदल नहीं सकते, फिर उसे कोसने का कया लाभ? 
वर्तमान व भविष्य तो हमारा ही है जिसका हम अपने संकल्प से सृजन कर सकते हैं| वर्तमान में रहें, वर्तमान में ही रहें, वर्तमान में ही सदा रहें, फिर भविष्य वही होगा जैसा हम चाहेंगे| 

हमारी चेतना में कोई असत्य और अन्धकार न रहे| हमारा ज्योतिर्मय वर्तमान ही उज्ज्वलतम भविष्य का निर्माण करेगा|

ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करें| ओंकार की ध्वनी को सदा सुनें| कूटस्थ चैतन्य में स्थित रहें| सारी नकारात्मकता को भूलकर बार बार सदा चिंतन करें ....  सोहं सोहं सोहं ॐ ॐ ॐ !!

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०८ फरवरी २०१

सभी प्रश्नों के उत्तर परमात्मा में हैं .....

सभी प्रश्नों के उत्तर परमात्मा में हैं .....
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आप एक बड़ा सा चार्ट पेपर लीजिये और उस पर कहीं भी एक पेंसिल की नोक को सिर्फ छूइए, उससे जो हल्का सा निशान पड़ेगा उस की पूरे चार्ट पेपर से तुलना कीजिये| इस पूरे ब्रह्मांड में हमारी पृथ्वी की स्थिति उस से अधिक नहीं है जो उस पेंसिल के निशान की उस चार्ट पेपर पर है| मनुष्य का अहंकार भी इस पृथ्वी पर उस पूरे चार्ट पेपर पर उस पेंसिल के धब्बे से छोटा ही है| पर जिस तरह जल की एक बूँद महासागर से मिल कर स्वयं भी महासागर ही बन जाती है, वैसे ही जीवात्मा भी परमात्मा में समर्पित होकर स्वयं परमात्मा ही बन जाती है|
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मनुष्य ..... परमात्मा की एक विशेष रचना है, और इस सृष्टि का भी एक विशेष उद्देश्य है| हर मनुष्य की एक शाश्वत जिज्ञासा होती है, अनेक प्रश्न मानस में उठते हैं जिनका कहीं समाधान नहीं होता| उनका समाधान सिर्फ परमात्मा में ही होता है| जैसे एक बालक पहली में, एक चौथी में, और एक कॉलेज में पढता है, सब की समझ अलग अलग होती है| वैसे ही आध्यात्मिक क्षेत्र में है| कौन व्यक्ति कौन से क्रम में है उसी के अनुसार उसकी समझ होती है|
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मेरे लिखने का यह उद्देश्य है कि मन में उठने वाली हर जिज्ञासा और हर प्रश्न का उत्तर परमात्मा स्वयं ही कृपा कर के दे देते हैं| परमात्मा ही कृपा कर के हमारी सब कमियाँ और उन का समाधान भी बता देते हैं| यह मेरा अनुभूत सत्य है| कृ का अर्थ है कृत्य यानि कुछ करना, और पा का अर्थ है पाना| कृपा का अर्थ है कुछ कर के पाना| भगवान की कृपा पाने के लिए भी कुछ तो करना ही होगा जो सभी जानते हैं|
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आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार रचनाएँ हैं, ज्योतिषांज्योति उस परम ज्योति के साथ एक एक हैं| आप सब को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ फरवरी २०१८

Wednesday 7 February 2018

ज्ञान और अज्ञान क्या है ? .....

ज्ञान और अज्ञान क्या है ?
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भगवान ने यहाँ ज्ञान क्या है और अज्ञान क्या है, यह स्पष्ट बताया है| निम्न वाक्यों में जो है, वह ज्ञान है, इनके अतिरिक्त जो कुछ भी है वह अज्ञान है|
भगवान कहते हैं :--
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अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् |
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ||१३.८||
इन्दि्रयार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ||१३.९||
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ||१३.१०||
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ||१३.११||
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ||१३.१२||

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अनेक आचार्यों ने अपनी अपनी समझ से इनकी अति स्पष्ट, सुन्दर व सरल टीकाएँ की हैं| गीता के तेरहवें अध्याय में इनका स्वाध्याय अवश्य करें, तभी ज्ञान और अज्ञान के भेद को समझ पायेंगे|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०७ फरवरी २०१८

परमात्मा का निरंतर चिंतन ही सदाचार है, अन्य सब व्यभिचार है .....

परमात्मा का निरंतर चिंतन ही सदाचार है, अन्य सब व्यभिचार है .....
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जीवन में अब परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई आकर्षण नहीं रहा है| मेरे लिए परमात्मा ही जीवन है, बाकि सब मृत्यु है| भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, आधि-व्याधि, सुख-दुःख सब परमात्मा को ही इस शरीर के माध्यम से हो रहे हैं| वही कर्ता है और वह ही भोक्ता है| मन को इधर उधर के दूसरे विषयों में लगाना मेरा व्यभिचार ही था जो अब और नहीं होना चाहिए| यह व्यभिचार अब और नहीं होगा| परमात्मा के अतिरिक्त अब अन्य किसी विषय पर भी नहीं लिखूंगा, सोचूंगा भी नहीं| यह मेरा दृढ़ संकल्प है| परमात्मा का चिंतन ही सदाचार है, बाकी अन्य सब व्यभिचार|
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मेरे एक मित्र हैं जो बहुत बड़े उद्योगपति भी हैं| अपने शानदार आधुनिक भवनों में भी अपने शयन कक्ष के आँगन को देशी गाय के गोबर से ही लीप कर रखते हैं| गाय के गोबर से लीपे हुए आँगन पर ही भोजन करते हैं और सोते भी ऐसे ही आँगन पर हैं| जीवन में एक-दो ऐसे विवाह भी देखे है जहाँ आधुनिकतम भवनों में भी गाय के गोबर से लीपे हुए स्थान पर ही पाणिग्रहण संस्कार करवाया गया|
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कुसंगियों के साथ रहने से भी विघ्न होता है| अब ऐसे लोगों से कोई संपर्क भी नहीं रखना है| जीवन में मैं बहुत अधिक भटका ही भटका हूँ, अब और नहीं भटकना है| मेरे आदर्श वे ही व्यक्ति हैं जो दिन-रात निरंतर परमात्मा का चिंतन करते हैं| भीड़भाड़ से अब विरक्ति हो गयी है, भीड़ वाले स्थानों पर अब भूल कर भी नहीं जाता| सत्संग के नाम पर एकत्र की गयी भीड़ भी अब विरक्ति ही उत्पन्न करती है, वहाँ अब भूल से भी नहीं जाता|
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हे प्रभु आप निरंतर मेरे विचारों में और मेरे आचरण में रहें|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०६ फरवरी २०१८

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जिनमें "अव्यभिचारिणी" भक्ति का प्राकट्य हो गया है वे इस पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देवी/देवता हैं| यह पृथ्वी उनको पाकर सनाथ हो जाती है| जहाँ उनके पैर पड़ते हैं वह भूमि पवित्र हो जाती है| वह कुल और परिवार भी धन्य हो जाता है जहाँ उनका जन्म हुआ है|
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जब सर्वत्र सर्वदा सब में परमात्मा के ही दर्शन हों वह भक्ति "अव्यभिचारिणी" है| भूख लगे तो अन्न में भी परमात्मा के दर्शन हों, प्यास लगे तो जल में भी परमात्मा के दर्शन हों, जब पूरी चेतना ही नाम-रूप से परे ब्रह्ममय हो जाए तब हुई भक्ति "अव्यभिचारिणी" है| वहाँ कोई राग-द्वेष औरअभिमान नहीं रहता है| वहाँ सिर्फ और सिर्फ भगवान ही होते हैं|
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उपासना में जहाँ परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण नहीं है, वह भक्ति "व्यभिचारिणी" है| भूख लगी तो भोजन प्रिय हो गया, प्यास लगी तो पानी प्रिय हो गया, जहाँ जिस चीज की आवश्यकता है वह प्रिय हो गयी, ध्यान करने बैठे तो परमात्मा प्रिय हो गया, यह भक्ति "व्यभिचारिणी" है| जब तक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य विषयों में भी आकर्षण है, तब तक हुई भक्ति "व्यभिचारिणी" है| संसार में प्रायः जो भक्ति हम देखते हैं, वह "व्यभिचारिणी" ही है|

"कैवल्य" शब्द का अर्थ ......

"कैवल्य" का अर्थ ......
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"कैवल्य" शब्द के अर्थ पर कई बार चिंतन किया है पर मेरे विचार से यह निजानुभूति से ही समझ में आने वाला एक दर्शन है| "कैवल्य" एक अवस्था है जिसे प्राप्त कर के ही समझा जा सकता है| राग-द्वेष और अहंकार से परे की वीतराग अवस्था का नाम "कैवल्य" है| जैन दर्शन में भी "कैवल्य" शब्द बहुत बार आता है|
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भारत में कई मठों व आश्रमों का नाम "कैवल्य धाम" है| बांग्लादेश के चटगांव (अंग्रेजी में Chittagong) नगर में भी एक ऊंची पहाड़ी पर "कैवल्य धाम" नाम का एक मठ है| मैं वहाँ की एक यात्रा का अपना अनुभव आपके साथ बाँट रहा हूँ| पैंतीस वर्ष पूर्व सन १९८३ में मुझे किसी काम से बांग्लादेश के चटगांव नगर में जाना पड़ा था| आजादी से पूर्व यह क्षेत्र जब भारत का ही भाग था, तब क्रांतिकारियों का गढ़ और हिन्दू बहुल क्षेत्र रहा था| पर वहाँ जाकर मुझे बड़ी निराशा हुई| जैसी मुझे अपेक्षा थी वैसा वहाँ कुछ भी नहीं था| कहीं पर भी कोई हिन्दू मंदिर तो दूर की बात है, किसी हिन्दू मंदिर के अवशेष भी नहीं मिले| एक पहाडी पर फ़ैयाज़ लेक नाम की एक झील थी जो बड़ी सुन्दर थी| लोगों से मैंने पूछा कि कोई हिन्दू मंदिर भी यहाँ पर है क्या? लोगों ने बताया कि एक पहाड़ी पर "कैवल्य धाम" नाम का एक हिन्दू मठ है जिसे मुझे अवश्य देखना चाहिए| मैं उस पहाड़ी पर स्थित "कैवल्य धाम" नाम के मठ में गया| वह स्थान तो बहुत बड़ा था जिस की दीवारों पर नयी नयी सफेदी हुई थी| वहाँ चार-पांच आदमी बैठे थे जो बड़े मायूस से थे| वे न तो मेरी हिंदी या अंग्रेजी समझ सके और न मैं उनकी बांग्ला समझ सका| उन्होंने अपनी भाषा में कहा तो बहुत कुछ पर मैं कुछ भी नहीं समझ पाया| नीचे लोग तिरस्कार पूर्वक उस स्थान को "केबलाई डैम" बोल रहे थे|
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अमेरिका में भी "कैवल्य धाम" नाम के कई आश्रम हैं जो हिन्दू साधुओं द्वारा बनवाये हुए हैं|
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कभी कैवल्य पद की प्राप्ति होगी तभी बता पाऊंगा कि कैवल्य क्या है| आप सब के आशीर्वाद से कैवल्य अवस्था को भी अनुभूत कर ही लूंगा| सभी को शुभ कामनाएँ और नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

कृपा शंकर 
५ फरवरी २०१८
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"कैवल्य" का अर्थ :--- (साभार स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी)
जीवात्मा का अपने स्वरूप में स्थित हो जाना कैवल्य है । आत्मा को भोग उपलब्ध कराने के लिए प्रवृत्त हुई प्रकृति जब अपने स्वरूप को कार्य रूप में परिणित करती है , तब गुणों में क्रमशः कारण - कार्य भाव उत्पन्न होकर कार्य क्षमता आ जाती है । इस समय चितिशक्ति ही प्रकृति के भोग की अनुभूति करती है । जीव अज्ञानता वश प्रकृति को अपना समझता है । शुद्ध आत्मा तो विकार से रहित है । जब गुण मोक्ष दिलाने का कार्य करते हैं तो क्रमशः अपने - अपने कारण में लीन हो जाते हैं , उसे कैवल्य कहते हैं । जीवात्मा के भोग समाप्त हो जाने पर मन और चित्त से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रह जाता है , तब जीवात्मा अपने निजस्वरूप में स्थित हो जाता है । जीवात्मा का अपने निज स्वरूप में स्थित हो जाने को कैवल्य कहते हैं । कैवल्य का अर्थ है - ' केवल उसी का होना ' अर्थात् उसके साथ किसी अन्य का न होना ।
नारायण स्मृतिः

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साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च --औपनिषद्वचोSनुसारमानन्दस्वरूपे समवस्थिति: कैवल्यम् | जयश्रीराम
साभार: आचार्य सियारामदास नैयायिक 
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कैवल्य अवस्था शुद्ध बोधस्वरुप है !
जहाँ केवल स्वयं है स्वयं के अतिरिक्त कुछ नहीं है !!
कारण - कार्य रूप मायिक द्रश्य को स्वयं से अभिन्न अनुभव करना कैवल्य प्राप्ति का मार्ग है !!

साभार : Adesh Gupta
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मनुष्य की चेतना का केंद्र उसकी सूक्ष्म देह में स्थित आज्ञाचक्र ही है .....

मनुष्य की चेतना का केंद्र उसकी सूक्ष्म देह में स्थित आज्ञाचक्र ही है .....
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यह गुरु-परम्परा और स्वाध्याय से ही नहीं, निज अनुभूतियों से भी अनुभूत सत्य है| भ्रूमध्य में दृष्टि रखते हुए ध्यान करने की श्रुति भगवती द्वारा कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद में, भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में, और गुरु महाराज द्वारा उनके उपदेशों में स्पष्ट आज्ञा है, इसी कारण से हम भ्रूमध्य में दृष्टि रखते हुए ध्यान करते हैं| इस लिए इस क्षेत्र को योग शास्त्रों में आज्ञाचक्र कहते हैं, और योगियों का यही हृदय स्थल है|
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आज्ञा चक्र का स्थान भ्रूमध्य के ठीक बिलकुल सामने खोपड़ी के पीछे के भाग, मेरुशीर्ष (Medulla Oblongata) के मध्य में सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप में है, जहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ मष्तिष्क से मिलती हैं| गहरे ध्यान में यहीं पर ब्रह्मज्योति प्रकट होती है जो भ्रूमध्य में प्रतिबिंबित होते हुए सारी सृष्टि में विस्तृत हो जाती है| यहीं पर नादब्रह्म की प्रणव ध्वनि सुनाई देती है| इस ज्योति और ध्वनि को ही कूटस्थ ब्रह्म कहते हैं| इसी की चेतना को कूटस्थ चैतन्य कहते हैं| इस में स्थिति ही ब्राह्मी स्थिति है| दृष्टि भ्रूमध्य में हो, और चेतना आज्ञाचक्र में हो|
इस के ठीक ऊपर के बिंदु पर शिखा रखते हैं| प्राचीन भारत में शिखा रखने वाले सभी लोग मेधावी होते थे| यह शिखा का महत्त्व है|
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गुरु की आज्ञा से और उनके द्वारा बताई गयी विधि से यहीं पर ध्यान करते करते सुषुम्ना चैतन्य हो जाती है और कुण्डलिनी जागृत होती है| सारी विधि का ज्ञान ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य ही प्रत्यक्ष रूप से करा सकते हैं|
पर सभी को निष्काम भाव से यह अभ्यास करना चाहिए| अपना मंत्रजप और ध्यान पूरी भक्तिभाव से इसी विधि से करना चाहिए|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
०५ फरवरी २०१८

सब कुछ परमात्मा को ही समर्पित है, कुछ भी नहीं चाहिए ......

सारा ज्ञान-अज्ञान, बुद्धिमता-मूर्खता और भला-बुरा सब कुछ सृष्टिकर्ता परम प्रिय परमात्मा को ही बापस समर्पित है| इनमें से कुछ भी नहीं चाहिए ......
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कई ज्ञान की बाते हैं जो मेरी अति अल्प और सीमित बुद्धि द्वारा समझने की क्षमता से परे एक भयंकर अरण्य (जंगल) की तरह हैं| मुझे उनमें भटकाव ही भटकाव लगता है| जो चीज समझ में नहीं आती उन्हें समझने की चेष्टा करने की बजाय उन्हें वहीं छोड़कर आगे बढ़ जाना ही अधिक उचित समझता हूँ| भगवान जो चीज समझा दे वह ही ठीक है, और जो नहीं समझाये वह भी ठीक है| If I do not understand, I stand under.
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जो भी है, भगवान ने जितनी भी समझ दी है, और जितनी भी नासमझी यानि बेवकूफी दी है, उन सब से मैं संतुष्ट हूँ कि भगवान ने इस योग्य समझा, यह उनकी परम कृपा है| सारा ज्ञान-अज्ञान, बुद्धिमता-मूर्खता और भला-बुरा सब कुछ सृष्टिकर्ता परम प्रिय परमात्मा को ही बापस समर्पित है| जैसा भी भगवान ने बनाया है, और जो कुछ भी हुआ है, उससे मुझे कोई शिकायत नहीं है| मैं जीवन में पूरी तरह संतुष्ट, प्रसन्न और सुखी हूँ| मुझे उन परमात्मा के अतिरिक्त इस जीवन में और कुछ भी नहीं चाहिए| क्या पता कि वे मिल भी गए हों, जो हर समय इस हृदय में चैतन्य हैं|
कोई कामना नहीं है, जीवन सफल हुआ|
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ॐ तत्सत् !ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०४ फरवरी २०१८

हमारे राष्ट्रीय चरित्र में ह्रास के लिए हमारी शिक्षा व्यवस्था दोषी है .....

हमारे राष्ट्रीय चरित्र में ह्रास के लिए हमारी शिक्षा व्यवस्था दोषी है .....
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मुझे अर्थशास्त्र का या Finance का कोई ज्ञान नहीं है, अतः आर्थिक मामलों को नहीं समझता| आर्थिक मामलों और बजट पर कभी कोई टिप्पणी भी नहीं करता| एक मुकदमें की बीस लाख रुपया फीस लेने वाले वकील वर्तमान वित्तमंत्री श्री अरुण जेटली निश्चित रूप से मुझसे अधिक बुद्धिमान हैं| वे एक अर्थशास्त्री भी हैं| और भी एक से बढकर एक बड़े बड़े धुरंधर अर्थशास्त्री दिल्ली में बैठे हैं| उनके सामने मेरी कोई औकात नहीं है| अतः जिस विषय का ज्ञान नहीं है, उस पर नहीं बोलना ही अच्छा है|
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पर एक बात मुझे अखरती है कि हम कच्चा माल निर्यात कर के उसी से उत्पादित माल का आयात क्यों करते हैं? हम अपने ही देश में अपनी आवश्यकता का सामान क्यों नहीं बना सकते? हम अपने इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग और मशीनों के कल पुर्जों आदि के लिए चीन पर क्यों निर्भर हैं? रक्षा क्षेत्र में भी हम अभी तक आत्मनिर्भर क्यों नहीं हैं? हम अपने हथियार स्वयं क्यों नहीं बना सकते? हम शक्तिशाली नहीं हैं इसीलिए दूसरे देश हमें दबाते आये हैं| हम कब शक्तिशाली बनेंगे? विगत सरकारों की नीतियों के कारण उद्योगपतियों ने स्वयं उत्पादन न कर, चीन से आयात कर के विक्रय करना अधिक लाभप्रद समझा| इसीलिए चीनी सामान इतना सस्ता और अच्छा आता है| हम स्वयं सस्ता और अच्छा माल क्यों नहीं बना सकते? पहली बार कोई राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री आया है जो देश को स्वावलंबी बनाने का प्रयास कर रहा है, पर समस्याएँ बहुत अधिक व बहुत गहरी हैं|
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हमारी सबसे बड़ी समस्या हमारे राष्ट्रीय चरित्र में है जिसके लिए हमारी शिक्षा व्यवस्था दोषी है| शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य होने चाहियें जो वर्तमान में नहीं हो रहे हैं| वामपंथियों और धर्मनिरपेक्षतावादियों का प्रभाव न्यूनतम या शून्य किया जाना चाहिए| शैक्षणिक संस्थानों से मैकॉले के मानसपुत्रों को बाहर करना चाहिए| देश का असली विकास देश के नागरिकों का चरित्रवान और निष्ठावान होना है| शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो जिस से देश का नागरिक ईमानदार बने, चरित्रवान और देशभक्त बने| पढाई का स्तर विश्व स्तरीय हो| हमें ऐसी शिक्षा मिलनी चाहिए जो हमें स्वाभिमानी, चरित्रवान और ऊर्ध्वमुखी बनाए, क्योंकि आत्मा का विकास ही वास्तविक विकास है|
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हमारी इस शिक्षा व्यवस्था के दोष के कारण ही कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया .... सभी भ्रष्ट हैं| भारत में भ्रष्ट नौकरशाही द्वारा हर कार्य करवाने की बजाय उस क्षेत्र के विशेषज्ञों को रखा जाय| हर क्षेत्र में उस क्षेत्र के विशेषज्ञ ही हों| मंत्रीगण भी अपने क्षेत्रों के विशेषज्ञ हों| संविधान में संशोधन कर के ऐसी व्यवस्था की जाए|
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मेरे मन में एक पीड़ा थी जो इन शब्दों में व्यक्त हो गयी है| लिखने के बाद वह पीड़ा थोड़ी कम हुई है| सभी पाठकों को साभार धन्यवाद व नमन !
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०४ फरवरी २०१८

Sunday 4 February 2018

आचारहीन को वेद भी नहीं पवित्र कर सकते .....

"आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः" अर्थात् आचारहीन को वेद भी नहीं पवित्र कर सकते| श्रुति भगवती कहती है कि दुश्चरित्र कभी भी आत्मज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकता। सदाचार होने पर ही धर्म उत्पन्न होता है| किसी भी आध्यात्मिक साधना में सिद्धि उसी को मिलती है जिसका आचार विचार सही होता है| इसलिए ऋषि पातंजलि ने यम नियमों की आवश्यकता पर बल दिया है| योग मार्ग में जो उच्चतर साधनाएँ हैं उन्हें गुरुमुखी यानि गुरुगम्य रखा गया है| वे प्रत्यक्ष गुरु द्वारा शिष्य की पात्रता देखकर ही दी जाती है| उनके बारे में सार्वजनिक चर्चा का भी निषेध है| सूक्ष्म प्राणायाम की क्रियाओं व ध्यान साधना के साधना काल में यदि साधक का आचरण सही नहीं होता तो उसे या तो मस्तिष्क की गंभीर विकृति हो जाती है या वह असुर बन जाता है| जिनके आचार विचार सही थे वे देवता बने, जिनके गलत थे वे असुर बने|
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हमें मंत्रसिद्धि असत्यवादन के कारण नहीं होती| असत्य बोलने के कारण हमारी वाणी दग्ध हो जाती है| जैसे जला हुआ पदार्थ यज्ञ के काम का नहीँ होता है, वैसे ही जिसकी वाणी झूठ बोलती है, उससे कोई जप तप नहीं हो सकता| वह चाहे जितने मन्त्रों का जाप करे, कितना भी ध्यान करे, उसे फल कभी नहीं मिलेगा| दूसरों की निन्दा या चुगली करना भी वाणी का दोष है। जो व्यक्ति अपनी वाणी से किसी दूसरे की निन्दा या चुगली करता है वह कोई जप तप नहीं कर सकता| इसलिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की आवश्यकता है|
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शिष्यत्व की भी पात्रता होती है जिसके होने पर भगवन स्वयं गुरु रूप में साधक का मार्गदर्शन करते हैं| सभी को शुभ मंगल कामनाएँ| आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन! वे सब का कल्याण करें|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०४ फरवरी २०१८

सृष्टि का सब से बड़ा वरदान .....

सृष्टि का सब से बड़ा वरदान .....
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रात्रि में गहरा ध्यान कर के निश्चिन्त और निर्भय होकर अपने हृदय के पूर्ण प्रेम के साथ इस भाव के साथ सोना चाहिए जैसे हम एक छोटे बालक की तरह अपनी माता की गोद में सो रहे हैं| अपने सिर के नीचे तकिया नहीं, माँ भगवती का बायाँ हाथ है, और दायें हाथ से वे वे थपथपाकर हमें सुला रही हैं| अपनी सारी चिंताएँ, सारे भय और जीवन का सारा भार उन्हें सौंप दो|
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प्रातःकाल उठते ही हम पाएँगे कि माँ भगवती जो सारी सृष्टि का संचालन कर रही हैं, वे स्वयं ही हम से प्यार कर रही हैं| उन्हें प्रणाम करो और सीधे बैठकर कुछ समय के लिए ध्यानस्थ हो जाओ|
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जगन्माता के चेहरे की जो मोहक मधुर मुस्कान है, उस से अधिक सुन्दर इस सृष्टि में अन्य कुछ भी नहीं है| यदि माँ सारे वरदान भी देना चाहे तब भी हम माँ की उस मोहक मुस्कान के समक्ष उन से कुछ भी नहीं माँग पाएँगे| माँ की वह मधुर मुस्कान इस सृष्टि का सब से बड़ा वरदान है जो किसी को मिल सकता है| एक बार भगवती की उस मुस्कान को देख लोगे तो जीवन तृप्त और निहाल हो जाएगा, सारी कामनाएँ नष्ट हो जायेंगी, और सारा जीवन ही परमात्मा को समर्पित हो जाएगा| जगन्माता से हमें अन्य कुछ भी नहीं चाहिए, हम निरंतर उनके हृदय में रहें, और उनका सौम्यतम रूप सदा हमारे समक्ष रहे|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०३ फरवरी २०१८

Friday 2 February 2018

आपके सिवाय मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए .....

हे प्रभु, आपके सिवाय मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए|
भगवान ने इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य लाने, मन में अहंकार न रखने, और जन्म, मृत्यु, ज़रा, व्याधि, आदि में दोष देखने का आदेश दिया है|
भगवान कहते हैं .....
"इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च | जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्" || १३:९ ||
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अब यह कैसे किया जाए इसका चिंतन हर मनुष्य को स्वयं करना चाहिए| एक छोटा सा उपाय अपनी अल्प व सीमित बुद्धि से लिख रहा हूँ .....
१).दोनों समय संध्या वंदन और कम से कम ३ माला गायत्री की अवश्य करें |
२).साधना से पहले अपने इष्ट से आकुल भाव से साधना की सम्पन्नता के लिए प्रार्थना करें |
३).अधिक से अधिक नामजप (अजपा) व ध्यान करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०२ फरवरी २०१८

मनुष्य की सोच ही उसके पतन व उत्थान का कारण है .....

मनुष्य की सोच ही उसके पतन व उत्थान का कारण है .....
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मनुष्य के सोच-विचार और उसकी संगती ही उसके पतन व उत्थान का कारण है, अन्य कोई कारण नहीं हैं| बचपन से अब तक यही सुनते आये हैं कि कामिनी-कांचन की कामना ही मनुष्य की आध्यात्मिक प्रगति में बाधक हैं, पर यह आंशिक सत्य है, पूर्ण सत्य नहीं| जैसे एक पुरुष एक स्त्री के प्रति आकर्षित होता है वैसे ही एक स्त्री भी किसी पुरुष के प्रति होती है, तो क्या स्त्री की प्रगति में पुरुष बाधक हो गया?
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कांचन के बिना यह लोकयात्रा नहीं चलती| मनुष्य को भूख भी लगती है, सर्दी-गर्मी भी लगती है, बीमारी में दवा भी आवश्यक है, और रहने को निवास की भी आवश्यकता होती है| हर क़दम पर पैसा चाहिए| जैसे आध्यात्मिक दरिद्रता एक अभिशाप है वैसे ही भौतिक दरिद्रता भी एक महा अभिशाप है| वनों में साधू-संत भी हिंसक प्राणियों के शिकार हो जाते हैं, उन्हें भी भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और बीमारियाँ लगती है, उनकी भी कई भौतिक आवश्यकताएँ होती हैं, जिनके लिए वे संसार पर निर्भर होते हैं| पर जो वास्तव में भगवान से जुड़ा है, उसकी तो हर आवश्यकता की पूर्ति स्वयं भगवान ही करते हैं|
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एक आदमी एक महात्मा के पास गया और बोला कि मुझे संन्यास चाहिए, मैं यह संसार छोड़ना छाह्ता हूँ| महात्मा ने इसका कारण पूछा तो उस आदमी ने कहा कि मेरा धन मेरे सम्बन्धियों ने छीन लिया, स्त्री-पुत्रों ने लात मारकर मुझे घर से बाहर निकाल दिया, और सब मित्रों ने भी मेरा त्याग कर दिया, अब मैं उन सब का त्याग करना चाहता हूँ| महात्मा ने कहा कि तुम उनका क्या त्याग करोगे, उन्होंने ही तुम्हे त्याग दिया है|
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भौतिक समृद्धि ...... आध्यात्मिक समृद्धि का आधार है| एक व्यक्ति जो दिन-रात रोटी के बारे में ही सोचता है , वह परमात्मा का चिंतन नहीं कर सकता| पहले भारत में बहुत समृद्धि थी| एक छोटा-मोटा गाँव भी हज़ारों साधुओं को भोजन करा सकता था और उन्हें आश्रय भी दे सकता था| पर अब वह परिस्थिति नहीं है|
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सबसे महत्वपूर्ण तो व्यक्ति के विचार और भाव हैं, उन्हें शुद्ध रखना भी एक साधना है| मनुष्य के भाव और उसके सोच-विचार ही उसके पतन का कारण है, कोई अन्य कारण नहीं| अपने विचारों के प्रति सजग रहें| कोई बुरा विचार आता है तो तुरंत उसे अपनी चेतना से बाहर करें| सदा सकारात्मक चिंतन करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ फरवरी २०१८

देश की वर्तमान आर्थिक व्यवस्था के बारे में मेरी सोच .....

देश की वर्तमान आर्थिक व्यवस्था के बारे में एक सामान्य से सामान्य राष्ट्रवादी नागरिक की सोच .....
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(१) भारत के वर्तमान शासन की घोषित आर्थिक नीतियाँ पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद सिद्धान्त के अनुकूल ही होनी चाहिए| कई क्षेत्रों में हम चीन पर पूर्णतः निर्भर हैं| विगत सरकारों की नीतियों के कारण उद्योगपतियों ने स्वयं उत्पादन न कर, चीन से आयात कर के विक्रय करना अधिक लाभप्रद समझा| इसीलिए चीनी सामान इतना सस्ता और अच्छा आता है| चीनी सामान का बहिष्कार असंभव है| इलेक्ट्रॉनिक्स व मशीनों के पुर्जों के लिए हम चीन पर पूरी तरह निर्भर हैं| बिना चीनी कल पूर्जों के हमारा काम चल ही नहीं सकता| हमें अपनी आवश्यकता का सामान स्वयं उत्पादित करना चाहिए, ताकि चीन से आयात न करना पड़े|
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(२) शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य होने चाहियें जो वर्तमान में नहीं हो रहे हैं| वामपंथियों का प्रभाव न्यूनतम या शून्य किया जाना चाहिए| शैक्षणिक संस्थानों से मैकॉले के मानसपुत्रों को बाहर करना चाहिए| देश का असली विकास देश के नागरिकों का चरित्रवान और निष्ठावान होना है| शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो जिस से देश का नागरिक ईमानदार बने, चरित्रवान और देशभक्त बने| पढाई का स्तर विश्व स्तरीय हो|
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(३) भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन पर पूरा अंकुश होना चाहिए| बाजार में अच्छे से अच्छा सामान उपलब्ध होना चाहिए| देशी उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिए| कश्मीरियों को दी जा रही वर्तमान आर्थिक छूट बंद की जानी चाहिए|
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(४) भारत में नौकरशाही द्वारा हर कार्य करवाने की बजाय उस क्षेत्र के विशेषज्ञों को रखा जाय| हर क्षेत्र में उस क्षेत्र के विशेषज्ञ ही हों| मंत्रीगण भी अपने क्षेत्रों के विशेषज्ञ हों| संविधान में संशोधन कर के ऐसी व्यवस्था की जाए| मेरे विचार से देश के वित्तमंत्री डॉ.सुब्रह्मण्यम स्वामी और रक्षामंत्री जनरल वी के सिंह को बनाना चाहिए था| पर यह तो प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है कि वे किसे क्या बनाएँ और किसे क्या नहीं| वे भी उसी को बनायेंगे जो उनके अनुकूल हो|
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वन्दे मातरम् ! भारतमाता की जय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ फरवरी २०१८

मेरा यह शरीर महाराज .....

जैसे जैसे इस शरीर महाराज की आयु बढ़ती जाती है, हम अपने अनेक लौकिक प्रिय जनों का वैकुण्ठ गमन देखने को बाध्य होते रहते हैं| फिर बोध होता है कि सभी दीपकों का तेल तो शनैः शनैः समाप्त हो रहा है, पता नहीं वे कब बुझ जाएँ| अतः जो भी समय अवशिष्ट है उसका अधिकतम सदुपयोग कर लिया जाए| मुझे स्वयं के इस दीपक का भी पता नहीं है कि कितना तेल इसमें बाकी है और भरोसा नहीं है कि यह कब बुझ जाए| पर आश्वस्त हूँ कि मेरा शाश्वत मित्र निरंतर मेरे साथ है और वह मेरा साथ कभी नहीं छोड़ेगा| ॐ स्वस्ति ! ॐ ॐ ॐ !!
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अब मुझे लगता है कि मुझे स्वयं को यह "शरीर महाराज" कह कर ही संबोधित करना चाहिए| सभी का परिचय इस "शरीर महाराज" से ही है, इस आत्मा से नहीं| मैं स्वयं ही स्वयं को नहीं जानता, फिर अन्य तो क्या जानेंगे? जब इस शरीर महाराज का जन्म हुआ था तब इसके माता-पिता ने इसका नाम कृपा शंकर रख दिया था| पर यह मैं नहीं हूँ, और इस शरीर महाराज का साथ भी शाश्वत नहीं है| शाश्वत तो वह परम शिव है जिसका कभी जन्म ही नहीं हुआ| आध्यात्मिक दृष्टी से तो उस परम शिव के अतिरिक्त अन्य कोई है भी नहीं| उसी की चेतना में मैं भी कह सकता हूँ ....
"एकोSहं द्वितीयोनाSस्ति" | शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
०१ फरवरी २०१८ 
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पुनश्चः :---
मेरी यह देह ही अयोध्या नगरी है| यही मेरा देवालय है| यहीं पर मेरे भगवान निवास करते हैं| ओंकार और सोSहं मन्त्रों के जाप से यह पवित्र है| जैसे भी मेरे भगवान चाहें वे इसका प्रयोग करें, मेरी कोई इच्छा नहीं है| कोई इच्छा कभी उत्पन्न भी न हो| वे ही इन पैरों से चल रहे हैं, वे ही इन हाथों से कार्य कर रहे हैं, इस हृदय में वे ही धड़क रहे हैं, इन फेफड़ों से वे ही सांस ले रहे हैं, और इस मष्तिष्क में भी वे ही क्रियाशील है| वास्तव में यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी मेरी देह ही है|
ॐ ॐ ॐ !!
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अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या, तस्यां हिरण्यय: कोश: स्वर्गो ज्योतिषावृत:|| (अथर्ववेद १०.०२.३१)

संत रविदास जयंती .....

आज रविदास जयंती पर सभी का अभिनन्दन और अनंत कोटि शुभ कामनाएँ .....
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संत रविदास को संत रैदास भी कहा जाता है| वे स्वामी रामानंद के प्रमुख बारह शिष्यों में से एक थे| स्वामी रामानंद ने एक ऐसे समय में जन्म लिया था जब सनातन धर्म और भारतवर्ष विदेशी आक्रान्ताओं से पददलित था और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा था| स्वामी रामानंद ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए उत्तरी भारत में भक्तियुग का आरम्भ कर रामभक्ति का द्वार सबके लिए सुलभ कर दिया| उन्होंने अनंतानंद, भावानंद, पीपा, सेन, धन्ना, नाभा दास, नरहर्यानंद, सुखानंद, कबीर, रैदास, सुरसरी, और पदमावती जैसे बारह लोगों को अपना प्रमुख शिष्य बनाया, जिन्हे द्वादश महाभागवत के नाम से जाना जाता है| इनमें कबीर दास और रैदास आगे चलकर बहुत प्रसिद्ध हुए जिन्होनें निर्गुण राम की उपासना की| स्वामी रामानंद का कहना था कि "जात-पात पूछे न कोई, हरि को भजे सो हरि का होई"|
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स्वामी रामानंद के शिष्य संत कवि रविदास (रैदास) का जन्म वाराणसी के पास एक गाँव में माघ पूर्णिमा के दिन रविवार को हुआ था| रविवार को जन्म लेने के कारण इनके माता-पिता ने इनका नाम रविदास रखा| चर्मकार का काम उनका पैतृक व्यवसाय था जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया| अपने कार्य को ये बहुत लगन से किया करते थे| इनका व्यवहार बहुत ही मधुर था| उनकी भक्ति इतनी प्रखर थी कि मेवाड़ की महारानी भक्तिमती महान संत मीराबाई ने भी उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरु माना|
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संत रविदास को जीवन में अनेक बड़े से बड़े प्रलोभन और भय दिए गए पर वे अपनी निष्ठा पर सदा अडिग रहे| इनके ज्ञान और तेजस्विता से तत्कालीन समाज बहुत अधिक लाभान्वित हुआ| गुरु ग्रन्थ साहिब में भी उन की अनेक वाणियाँ संकलित हैं|
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उनका एक भजन यहाँ उदधृत कर रहा हूँ .....
"प्रभुजी तुम चंदन हम पानी |
जाकी अंग अंग वास समानी ||
प्रभुजी तुम घन वन हम मोरा |
जैसे चितवत चन्द्र चकोरा ||
प्रभुजी तुम दीपक हम बाती |
जाकी जोति बरै दिन राती ||
प्रभुजी तुम मोती हम धागा |
जैसे सोनहि मिलत सुहागा ||
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा |
ऐसी भक्ति करै रैदासा" ||
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ऐसे महान संत को कोटि कोटि नमन !
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ जनवरी २०१८

"प्रत्यभिज्ञा" ......

"प्रत्यभिज्ञा" ...... कश्मीर के अद्वैत शैव दर्शन में प्रयुक्त यह शब्द बहुत प्यारा है| इसका अर्थ है किसी ज्ञात विषय को दुबारा ठीक से समझना| कश्मीर का अद्वैत शैव दर्शन वहाँ की एक महानतम परम्परा रही है| वही वास्तविक कश्मीरियत है जो दुर्भाग्य से लुप्त हो गयी है| कश्मीरी शैव दर्शन अब पुस्तकों में ही सीमित होकर रह गया है| उसके जानकार कुछ गिने चुने लोग ही हैं, जिनके बाद यह ज्ञान सिर्फ ग्रंथों में ही मिलेगा| आज कश्मीर को एक "प्रत्यभिज्ञा" की आवश्यकता है| कश्मीर के अद्वैत शैव दर्शन के तीन मुख्य भाग हैं ...... (१) प्रत्यभिज्ञा दर्शन. (२) स्पंदशास्त्र. और (३) त्रिक प्रत्यभिज्ञा |
उपरोक्त पंक्तियों को लिखने की आवश्यकता इसलिए पड़ गयी क्योंकि आज एक विजातीय विचारधारा को कश्मीरियत बताया जा रहा है| कश्मीर की राजधानी श्रीनगर को सम्राट अशोक ने बसाया था| चीनी यात्री ह्वैन्सांग ने उसके आसपास २५०० से अधिक प्राचीन मठों के अवशेष देखे थे| पूरा कश्मीर ही कभी वेदविद्या का केंद्र था|
इस धरा पर अनेक बार असुरों का अधिकार हुआ है,पर अंततः विजय देवत्व की ही हुई है| भारत निश्चित रूप से परम वैभव को प्राप्त करेगा, और भारत का ही भाग कश्मीर भी अपने गौरवशाली अतीत को पुनश्चः देखेगा| होगा वही जो परमात्मा का संकल्प होगा|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ जनवरी २०१८

जब से मेरे हृदय में मेरे परम प्रिय आये हैं .....

जब से मेरे हृदय में मेरे परम प्रिय परब्रह्म परमशिव आये हैं, मेरा हृदय उन्हीं का हो गया है| अब तो वे स्वयं ही मेरे हृदय बन गए हैं| मैं स्वयं को सभी दर्शन शास्त्रों, मत-मतान्तरों, सम्प्रदायों, विवादों, धारणाओं, तर्क-वितर्को, कामनाओं, व अपेक्षाओं से इसी क्षण मुक्त कर रहा हूँ| मैं वैसे भी कुछ भी नहीं हूँ, मेरा कोई अस्तित्व नहीं है| जो भी हैं वे मेरे परमप्रिय मेरे प्रभु ही हैं, सिर्फ उन्हीं का अस्तित्व है|
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भारत के भविष्य के प्रति मैं पूर्णतः आशावान व आश्वस्त हूँ| सब अपना अपना कार्य निष्ठापूर्वक यानि ईमानदारी से करेंगे तो सब सही होगा, जो भी होगा वह अच्छा ही होगा| वर्तमान सही है तो भविष्य भी सही ही होगा|
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हारिये न हिम्मत, बिसारिये न हरि नाम| सब को शुभ कामनाएँ और नमन!
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
३१ जनवरी २०१८ 

गाँधी जी की पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि .....

युगपुरुष राजनेता मोहनदास करमचंद गाँधी जी की पुण्यतिथि पर मैं उनको पूर्ण सम्मान के साथ श्रद्धांजलि देता हूँ| इस तरह के युग पुरुष पृथ्वी पर बहुत कम जन्म लेते हैं| साथ साथ पुणे के उन छः हज़ार के लगभग निर्दोष ब्राह्मणों को भी मैं श्रद्धांजलि देता हूँ जिनकी ह्त्या गाँधी जी की ह्त्या की प्रतिक्रया स्वरुप अगले तीन दिनों में कोंग्रेसियों द्वारा कर दी गयी थी| पुणे की गलियों में चारपाई डालकर सो रहे निर्दोष ब्राह्मणों पर किरोसिन तेल डालकर उन्हें जीवित जला दिया गया| पुणे में ब्रहामणों को घरों से निकाल निकाल कर सड़कों पर घसीट घसीट कर उनकी सामूहिक हत्याएँ की गयी| लगभग छः हज़ार निर्दोष ब्राह्मणों की ह्त्या की गयी| उस घटना की कोई जाँच नहीं हुई और घटना को दबा दिया गया| उन ब्राह्मणों का दोष इतना ही था नाथूराम गोड़से एक ब्राह्मण थे वह भी पुणे के|
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उस जमाने के लोग कहते थे कि गाँधी जी कांग्रेस को भंग करना चाहते थे जिसके लिए जवाहरलाल नेहरु सहमत नहीं थे| गाँधी जी की आर्थिक नीतियाँ भी नेहरू की नीतियों के विरुद्ध थीं| गाँधी की सुरक्षा व्यवस्था क्यों हटा ली गयी थी? क्या इसीलिए कि वे उस समय किसी के लिए किसी काम के नहीं रह गए थे? नाथूराम गोडसे को पिस्तौल और गोलियाँ किसने दीं? किसने उसे ह्त्या करने के लिए उकसाया? गांधीजी की ह्त्या के बाद उनके शरीर का पोस्ट मार्टम क्यों नहीं करवाया गया? ऐसे कई अनुत्तरित प्रश्न हैं|
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क्या किसी ने एक तीर से कई शिकार तो नहीं किये ....गांधी जी को भी मार्ग से हटवा दिया, और आरएसएस पर भी प्रतिबन्ध लगवा दिया, पुणे के राजनीति में सक्रीय ब्राह्मणों को भी मरवा दिया, और हिन्दुओं को भी बदनाम करवा दिया? क्या इसके पीछे कोई बहुत बड़ा षडयंत्र तो नहीं था?
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गाँधी की नीतियों व विचारों से महर्षि श्रीअरविन्द बिलकुल भी सहमत नहीं थे| उन्होंने गाँधी के बारे में लिखा था कि गाँधी की नीतियाँ एक बहुत बड़े भ्रम और विनाश को जन्म देंगी, जो सत्य सिद्ध हुआ| महर्षि श्रीअरविद के वे लेख नेट पर उपलब्ध हैं| कृपया उन्हें पढ़ें|
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गाँधी द्वारा आरम्भ खिलाफत आन्दोलन जो तुर्की के खलीफा को बापस गद्दीनशीन करने के लिए था, का क्या औचित्य था? क्या यह तुष्टिकरण की पराकाष्ठा नहीं थी? क्या इससे पकिस्तान की नींव नहीं पड़ी? राजनितिक व सामाजिक रूप से गांधीजी का पुनर्मूल्यांकन क्या आवश्यक नहीं है? गांधीजी भारत के तो नहीं पर पाकिस्तान के राष्ट्रपिता अवश्य थे| पाकिस्तान की नींव ही उनके खिलाफत आन्दोलन से पड़ी|
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गांधीजी द्वारा किया गया सबसे महान कार्य था ..... नेतृत्वहीन भारत का नेतृत्व करना और बिहार में चंपारण का सत्याग्रह| गांधीजी एक राजनेता थे, कोई महात्मा नहीं| उनमें अत्यधिक कामुकता जैसी सभी मानवी दुर्बलताएँ थीं| वे आदर्श नहीं हो सकते| उनको राष्ट्रपिता कहना गलत है, क्या गाँधीजी से पूर्व भारत एक राष्ट्र नहीं था? आजकल पढ़ाया जाता है कि अंग्रेजों से पूर्व भारत नहीं था, छोटे छोटे राज्य थे| यह गलत है| सम्राट अशोक व समुद्रगुप्त जैसे राजाओं के राज्य में भारत की सीमाएँ अंग्रेजों द्वारा शासित भारत से भी अधिक विशाल थीं|
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श्रद्धांजली | वन्दे मातरं | भारत माता की जय |
कृपा शंकर
३० जनवरी २०१७

हम जो सुखी और दुःखी होते हैं, यह हमारी ही सृष्टि है .....

हम जो सुखी और दुःखी होते हैं, यह हमारी ही सृष्टि है .....
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता, परो ददातीति कुबुद्धिरेषा |
अहं करोमीति वृथाभिमानः, स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ||
(आध्यात्म रामायण / २/६/६)
आध्यात्म रामायण में लक्ष्मण जी ने निषादराज गुह को उपरोक्त उपदेश दिया है| सुख-दुःखको देनेवाला दूसरा कोई नहीं है| दूसरा सुख-दुःख देता है ..... यह समझना कुबुद्धि है| मैं करता हूँ ..... यह वृथा अभिमान है| सब लोग अपने अपने कर्मोंकी डोरीसे बँधे हुए हैं|
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में कहा है ....
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता | निज कृत करम भोग सबु भ्राता ||
(२/९२/२)
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हम दूसरों पर दोषारोपण करते हैं यह हमारी अज्ञानता है| दुखों से हम न तो कहीं भाग कर अपनी रक्षा कर सकते हैं, और न ही आत्महत्या कर के, क्योंकि आत्महत्या करने वालों का पुनर्जन्म उन्हीं परिस्थितियों में होता है जिन परिस्थितियों में उन्होंने आत्महत्या की है| उनका सामना कर के ही हम उन परिस्थितियों को दूर कर सकते हैं|
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मेरा मानना है कि स्वयं की मुक्ति का प्रयास वेदविरुद्ध है| इस पर कोई मुझसे विवाद न करे| विवाद करने का समय मेरे पास नहीं है| हम क्या समष्टि से पृथक हैं? हम समष्टि के साथ एक हैं, हम शाश्वत आत्मा हैं और नित्यमुक्त हैं| बंधन एक भ्रम है| सब कुछ तो परमात्मा है, फिर मुक्ति किस से? मुक्ति सिर्फ अज्ञान से ही हो सकती है| भागवत में भी यह बात बड़े विस्तार से कई बार बताई गयी है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० जनवरी २०१८

शैतान क्या है ?

शैतान क्या है ?
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शैतान (Satan या Devil) की परिकल्पना इब्राहिमी (Abrahamic) मजहबों (यहूदी, इस्लाम और ईसाईयत) की है| भारत में उत्पन्न किसी भी मत में शैतान की परिकल्पना नहीं है| शैतान .... इब्राहिमी मज़हबों में सबसे दुष्ट हस्ती का नाम है, जो दुनियाँ की सारी बुराई का प्रतीक है| इन मज़हबों में ईश्वर को सारी अच्छाई प्रदान की जाती है और बुराई शैतान को|
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हिन्दू परम्परा में शैतान जैसी चीज़ का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि हिन्दू मान्यता कहती है कि मनुष्य अज्ञान वश पाप करता है जो दुःखों की सृष्टि करते हैं| इब्राहिमी मतों के अनुसार शैतान पहले ईश्वर का एक फ़रिश्ता था, जिसने ईश्वर से ग़द्दारी की और इसके बदले ईश्वर ने उसे स्वर्ग से निकाल दिया| शैतान पृथ्वी पर मानवों को पाप के लिये उकसाता है|
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ईसाई मत में शैतान बुराई की व्यक्तिगत सत्ता का नाम है, जिसको पतित देवदूत. ईश्वर विरोधी दुष्ट, प्राचीन सर्प आदि कहा गया है| जहाँ ईसा मसीह अथवा उनके शिष्य जाते थे वहाँ वह अधिक सक्रिय हो जाता था क्योंकि ईसा मसीह उसको एक दिन पराजित करेंगे और उसका प्रभुत्व मिटा देंगे| अंततोगत्वा वह सदा के लिए नर्क में डाल दिया जाएगा|
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जिन हिन्दू संतों और विद्वानों ने ईसा मसीह और उनकी शिक्षाओं पर लेख लिखे हैं, उन्होंने मनुष्य की "काम वासना" को ही शैतान बताया है|
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सार की बात यह है कि अपना भटका हुआ, अतृप्त अशांत मन ही शैतान है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० जनवरी २०१८

मैं हम सब के भविष्य के प्रति पूर्णतः आशावान हूँ .....

मैं हम सब के भविष्य के प्रति पूर्णतः आशावान हूँ| धीरे धीरे मनुष्य की ऊर्ध्वमुखी चेतना भी बढ़ रही है और विवेक भी जागृत हो रहा है ... कुछ में अधिक व कुछ में कम| मनुष्य का भौतिक ज्ञान तो निरंतर बढ़ ही रहा है, आध्यात्मिक चेतना भी बढ़ेगी ही| जो भविष्यवक्ता विनाश की भविष्यवाणियाँ कर रहे हैं, मैं उनमें विश्वास नहीं रखता, वे असत्य बोल कर हमें डरा रहे हैं| सन १९७० के दशक से अब तक की गईं सभी भविष्यवाणियाँ मैंने पढ़ी थीं, वे सब झूठी सिद्ध हुई हैं| अधिकांश भविष्यवाणियाँ ईसाई जगत से आई थीं| इस समय जो असत्य और अन्धकार की पैशाचिक शक्तियाँ हैं, वे निश्चित रूप से क्षीण होंगी| यह सृष्टि परमात्मा के संकल्प से चल रही है, असुरों के संकल्प से नहीं| 
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निरंतर विकसित हो रही आधुनिक उपग्रह संचार प्रणाली और सूचना प्रोद्योगिकी ने मनुष्य की सोच में बहुत बड़ा परिवर्तन किया है और निरंतर कर रही है| इसके दोनों ही परिणाम हमें मिल रहे हैं, सकारात्मक भी और नकारात्मक भी| मनुष्य का विवेक भी परमात्मा की कृपा से निरंतर धीरे धीरे बढ़ रहा है, जो इस संसार की रक्षा करेगा| मनुष्य के भौतिक ज्ञान में भी बहुत अधिक वृद्धि हुई है और हर नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से अधिक बुद्धिमान है| यह एक अच्छा संकेत है|
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स्वयं में देवत्व जागृत करें और स्वयं के संकल्प को परमात्मा के संकल्प से जोड़ें| आने वाला भविष्य अच्छा ही अच्छा होगा| स्वयं में आस्था रखें, भगवान हमारे साथ हैं|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर 
२९ जनवरी २०१८

कुछ भी मुझ से परे नहीं है, मेरे मन से ही मेरी यह सृष्टि है .....

जैसे जैसे मैं अपने आध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ रहा हूँ, निज चेतना से द्वैत की भावना शनैः शनैः समाप्त हो रही है| जड़ और चेतन में अब कोई भेद नहीं दिखाई देता| अब तो कुछ भी जड़ नहीं है, सारी सृष्टि ही परमात्मा से चेतन है| कण कण में परमात्मा की अभिव्यक्ति है| इस भौतिक संसार की रचना जिस ऊर्जा से हुई है, उस ऊर्जा का हर कण, हर खंड और हर प्रवाह परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है| 
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वर्त्तमान में संसार के जितने भी मत-मतान्तर व मज़हब हैं, उन सब से परे श्रुति भगवती का कथन है ..... "सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत | अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत ||छान्दोग्योपनिषद्.३.१४.१||
अर्थात यह ब्रह्म ही सबकुछ है| यह समस्त संसार उत्पत्तिकाल में इसी से उत्पन्न हुआ है, स्थिति काल में इसी से प्राण रूप अर्थात जीवित है और अनंतकाल में इसी में लीन हो जायेगा| ऐसा ही जान कर उपासक शांतचित्त और रागद्वेष रहित होकर परब्रह्म की सदा उपासना करे| जो मृत्यु के पूर्व जैसी उपासना करता है, वह जन्मांतर में वैसा ही हो जाता है|
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कुछ भी मुझ से परे नहीं है| मेरे मन से ही मेरी यह सृष्टि है| मेरा मन ही मेरे बंधन का कारण है और यही मेरे मोक्ष का कारण होगा| उस चैतन्य की सत्ता के साथ मैं एक हूँ, उस से परे सिर्फ माया है| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ जनवरी २०१८

उस चैतन्य की सत्ता के साथ मैं एक हूँ, उस से परे सिर्फ माया है .....

जैसे जैसे मैं अपने आध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ रहा हूँ, निज चेतना से द्वैत की भावना शनैः शनैः समाप्त हो रही है| जड़ और चेतन में अब कोई भेद नहीं दिखाई देता| अब तो कुछ भी जड़ नहीं है, सारी सृष्टि ही परमात्मा से चेतन है| कण कण में परमात्मा की अभिव्यक्ति है| इस भौतिक संसार की रचना जिस ऊर्जा से हुई है, उस ऊर्जा का हर कण, हर खंड और हर प्रवाह परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है| 
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वर्त्तमान में संसार के जितने भी मत-मतान्तर व मज़हब हैं, उन सब से परे श्रुति भगवती का कथन है ..... "सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत | अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत ||छान्दोग्योपनिषद्.३.१४.१||
अर्थात यह ब्रह्म ही सबकुछ है| यह समस्त संसार उत्पत्तिकाल में इसी से उत्पन्न हुआ है, स्थिति काल में इसी से प्राण रूप अर्थात जीवित है और अनंतकाल में इसी में लीन हो जायेगा| ऐसा ही जान कर उपासक शांतचित्त और रागद्वेष रहित होकर परब्रह्म की सदा उपासना करे| जो मृत्यु के पूर्व जैसी उपासना करता है, वह जन्मांतर में वैसा ही हो जाता है|
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कुछ भी मुझ से परे नहीं है| मेरे मन से ही मेरी यह सृष्टि है| मेरा मन ही मेरे बंधन का कारण है और यही मेरे मोक्ष का कारण होगा| उस चैतन्य की सत्ता के साथ मैं एक हूँ, उस से परे सिर्फ माया है| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!


कृपा शंकर
२९ जनवरी २०१८

बिना कोई युद्ध किये, अपनी हार न मानें ....... चित्त सदा शांत हो, पर निरंतर क्रियाशील हो ... निष्क्रियता मृत्यु है .....

बिना कोई युद्ध किये, अपनी हार न मानें ....... चित्त सदा शांत हो, पर निरंतर क्रियाशील हो ... निष्क्रियता मृत्यु है .....
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व्यष्टि द्वारा जो समष्टि को दिया जाता है वही दान है और वही क्रिया है| इस बात को समझाना थोड़ा कठिन है पर जो लोग भगवान का ध्यान करते हैं वे इसे अपने अनुभव से समझ सकते हैं|
करुणा और प्रेममयी माँ भगवती का विग्रह देखिये, वे असुरों का संहार कर रही हैं, उनका चेहरा शांत है, किसी भी तरह का क्रोध उनके मुखमंडल पर नहीं है, पर वे निरंतर क्रियाशील हैं|
भगवान नटराज एक पैर पर खड़े होकर नृत्य कर रहे हैं, पर उनका मुखमंडल पूरी तरह शांत है, वे निरंतर क्रियाशील हैं|
हमारी कमी यह है कि हम गीता का अध्ययन और मनन नहीं करते| गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी इस सत्य को बहुत अच्छी तरह समझाया है| भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म के उस स्वरूप का निरूपण किया गया है जो बंधन का कारण नहीं होता| भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार योग का अर्थ है "समत्व" की प्राप्ति .... समत्वं योग उच्यते| जो कर्म निष्काम भाव से ईश्वर के लिए जाते हैं वे बंधन नहीं उत्पन्न करते|
शांत चित्त से की हुई क्रिया से कोई थकान नहीं होती| सृष्टिकर्ता की चेतना के साथ सामंजस्य स्थापित कर के ही हम सुख शांति और सुरक्षा प्राप्त कर कोई सकारात्मक कार्य कर सकते हैं| निराश न हों| यह बहाना नहीं चलेगा कि कलियुग आ गया है और आसुरी शक्तियाँ बढ़ रही हैं| आसुरी शक्तियाँ बढ़ रही हैं तो हमें भी देवत्व की शक्तियों को बढ़ाना होगा| बिना कोई युद्ध किये, अपनी हार न मानें|
आप सब को सादर नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ जनवरी २०१८

जीवन में स्वयं का उत्साह वर्धन कैसे किया जाए ? ....

जीवन में स्वयं का उत्साह वर्धन कैसे किया जाए ? जब लक्ष्य सामने हो, मार्ग में कोई बाधा न हो, फिर भी उत्साह मंद पड़ जाए तब क्या करना चाहिए? यह मेरी ही नहीं, अनेक साधकों की समस्या है|

पिछले कुछ समय से उत्साह की कमी अनुभूत कर रहा हूँ| बहुत सोच-विचार कर कुछ निर्णय लिए हैं, जिन का कोई समझौता किये बिना बड़ी कठोरता से पालन करना ही पड़ेगा|

(१) जीवन का जो लक्ष्य है उसे निरंतर सामने रखते हुए, समय समय पर नित्य स्वयं को याद दिलाते हुए, भगवान से सहायता प्राप्त करना, जिसकी कोई कमी नहीं है|

(२) उन सब स्त्रोतों को बंद करना जो नकारात्मकता मन में ला सकते हैं| भगवान की परम कृपा से पूरा मार्गदर्शन प्राप्त हो रहा है कि क्या करना चाहिए|

(३) अन्य कामों में कम से कम समय देकर, अधिकाँश समय भगवान के ध्यान में ही व्यतीत करना|
भगवान की तो पूरी ही कृपा है| जो भी कमियाँ हैं वे स्वयं की ही सृष्टि है जिनका विसर्जन भी स्वयं को ही करना होगा| पूरा मार्गदर्शन प्राप्त हो रहा है|

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विचारों में स्पष्टता और हृदय में भगवान की निरंतर उपस्थिति ..... भगवान की परम कृपा का ही फल है| जब ह्रदय में भगवान स्वयं ही प्रत्यक्ष रूप से आकर बिराजमान हैं तो अन्य कोई अपेक्षा या कामना नहीं रहनी चाहिए| सारे कष्टों का कारण ये अपेक्षाएँ और कामनाएँ ही हैं, जिनका पूर्ण विसर्जन भगवान में ही हो जाना चाहिए| जब मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि समक्ष है तब अन्य किसी भी ओर ध्यान जाना ही नहीं चाहिए|


ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२८ जनवरी २०१८

भक्ति एक अवस्था है.....

भक्ति एक अवस्था है जिसे उपलब्धि भी कह सकते हैं, पर यह कोई क्रिया तो बिलकुल नहीं है| भगवान के प्रति परम प्रेम ही भक्ति है| जिसको भगवान से परम प्रेम है, वह ही भक्त है| भगवान् में हेतुरहित, निष्काम एक निष्ठायुक्त, अनवरत प्रेम ही भक्ति है। यही हमारा परम धर्म है| भगवान की भक्ति अनेकानेक जन्मों के अत्यधिक शुभ कर्मों की परिणिति है जो प्रभु कृपा से ही प्राप्त होती है| स्वाध्याय, सत्संग, साधना, सेवा और प्रभु चरणों में समर्पण का फल है --- भक्ति| यह एक अवस्था है जो प्रभु कृपा से ही प्राप्त होती है|
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अवचेतन मन को संस्कारित किये बिना हम भगवान की भक्ति, धारणा, ध्यान, समर्पण आदि कुछ भी नहीं कर सकते|
बार बार हम परमात्मा से अहैतुकी प्रेम का चिंतन करेंगे तो अवचेतन मन में गहराई से बैठकर यह हमारा स्वभाव बन जाएगा| परमात्मा से प्रेम तभी हो सकता है जब यह हमारा स्वभाव बन जाए|
निरंतर सत्संग और प्रार्थना ... ये दोनों ही बल देती हैं|

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सभी प्रभु प्रेमियों को मेरा प्रणाम और चरण वन्दन|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ जनवरी २०१८

क्या हम बीते हुए कल से आज अधिक आनन्दमय और प्रसन्न हैं ? ....

क्या हम बीते हुए कल से आज अधिक आनन्दमय और प्रसन्न हैं ? यदि उत्तर हाँ में है तो हम उन्नति कर रहे हैं, अन्यथा अवनति कर रहे हैं| आध्यात्मिक प्रगति का यही एकमात्र मापदंड है| हमें मिला हुआ एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाए| हमारा हर क्षण अति अति गहन, विराट और रहस्यों का रहस्य है| इसी क्षण हम देशकाल से परे अनन्त असीम परमात्मा के साथ एक हैं| परमात्मा की पूर्णता और उनका प्रेम ही हमारा स्वभाव है| हम यह देह नहीं, शाश्वत आत्मा हैं|
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जन्म-जन्मान्तरों में जो कष्ट मैनें भोगे हैं वे संसार में अन्य किसी भी प्राणी को नहीं मिलें| संसार में सभी सुखी रहें, सब निरोग रहें|संसार की सारी पीड़ाएँ और सारे ताप-दाह .... इस देह और मन को हैं, मुझे नहीं| मैं यह मन और देह नहीं हूँ|मेरी निंदा करने वाले सज्जन लोग मेरे कर्मों का भार अपने ऊपर ले कर मेरा उपकार कर रहे हैं| मैं उन सब को साभार धन्यवाद देता हूँ क्योंकि वे मेरे पापों को मुझ से छुटा कर स्वयं ग्रहण कर रहे हैं|
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आध्यात्म में ध्यान साधना द्वारा प्रत्यक्ष अनुभूति और निरंतर प्रगति आवश्यक है| इधर-उधर से कुछ पढने या बुद्धि-विलास से सिर्फ अहंकार बढ़ता है, कोई ज्ञान नहीं प्राप्त होता| सही ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभूतियों द्वारा ईश्वर की कृपा से ही मिलता है| जो निष्ठावान साधक हैं वे नित्य नियमित रूप से ईश्वर के अनंत प्रेम रूप पर ध्यान करें| 
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मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये मात्र एक उपकरण की तरह हमारे पास हैं, हम ये नहीं हैं| इनसे ऊपर उठना हमारी प्राथमिक आवश्यकता है| मन को समझा-बुझा कर या भुला कर भगवान में लगाना पड़ता है| अपने आप मन कभी भगवान में नहीं लगता| इसके लिए सत्संग आवश्यक है| भगवान का ध्यान सबसे अच्छा सत्संग है| 
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
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कृपा शंकर
२७ जनवरी २०१८ 
ॐ ॐ ॐ !!

मेरे विचार जो मेरे जीवन के निष्कर्ष हैं .....

मेरे विचार जो मेरे जीवन के निष्कर्ष हैं .....
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(१) सृष्टिकर्ता को जानने की मनुष्य की जिज्ञासा शाश्वत है, वह सभी युगों में थी, अभी भी है और भविष्य में भी सदा रहेगी| जन्म-जन्मान्तरों में भटकता हुआ प्राणी अंततः यह सोचने को बाध्य हो जाता है कि मैं क्यों भटक रहा हूँ, मैं कौन हूँ, और मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? तब मनुष्य के जीवन की दिशा बदलने लगती है|
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(२) मनुष्य की चेतना कभी तो बहुत अधिक उन्नत हो जाती है, और कभी बहुत अधिक अधम हो जाती है, इसके पीछे कोई अतिमानसी अज्ञात ज्योतिषीय कारण है जिसके आधार पर युगों की रचना हुई है| जैसे हमारा पृथ्वी ग्रह अपने उपग्रह चन्द्रमा के साथ सूर्य की परिक्रमा करता है, वैसे ही अपना यह सूर्य भी निश्चित रूप से पृथ्वी आदि अपने सभी ग्रहों के साथ सृष्टि में किसी ना किसी बिंदु से सम्बंधित परिक्रमा अवश्य करता है| जब अपना सूर्य उस बिंदु के निकटतम होता है वह सत्ययुग का चरम होता है, और उस बिन्दु से दूरी कलियुग का चरम होता है| यह क्रम सुव्यवस्थित रूप से चलता रहता है| सृष्टि में कुछ भी अव्यवस्थित नहीं है, सब कुछ व्यवस्थित है, पर हमारी चेतना में हमें उसका ज्ञान नहीं है| काश! हमें वह ज्ञान होता!
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(३) जिस कालखंड में मनुष्य की जैसी समझने की बौद्धिक क्षमता होती है और जैसी चेतना होती है उसी के अनुसार प्रकृति जिसे हम जगन्माता भी कह सकते हैं, वैसा ही ज्ञान और वैसे ही ग्रंथ हमें उपलब्ध करवा देती है| जब मनुष्य की चेतना उच्चतम स्तर पर थी तब वेद थे, जिनमे समस्त ज्ञान था| वे प्राचीन भारत में कभी लिखे नहीं गए थे| हर पीढ़ी में एक वर्ग उन्हें कंठस्थ रखकर अगली पीढ़ी को प्रदान कर देता था| जब मनुष्य की स्मृति मंद हुई तब ही वे लिखे गए|
फिर उनके ज्ञान को समझाने के लिए पुराणों की रचना हुई| उनका उद्देश्य वेदों के ज्ञान को ही बताना था| पुराणों के शब्दों का अर्थ लौकिक नहीं, आध्यात्मिक है| उनका आध्यात्मिक अर्थ बताने वाले आचार्य मिलने अब दुर्लभ हैं, अतः वे ठीक से समझ में नहीं आते|
फिर मनुष्य की चेतना और भी नीचे गिरी तो आगम ग्रंथों की रचना हुई, जिन्होंने हमारी आस्था को बचाए रखा|
जब हमारे धर्म और संस्कृति पर आतताइयों के मर्मान्तक प्रहार हुए तब एक भक्तिकाल आया और अनगिनत भक्तों ने जन्म लिया| उन्होंने भक्ति द्वारा हमारी आस्थाओं की और धर्म की रक्षा की|
अब मुझे लगता है कि जितना पतन हो सकता था उतना हो चुका है, और अब आगे उत्थान ही उत्थान है| इसका प्रमाण है कि पिछले कुछ वर्षों से पूरे विश्व में 'गीता' क्रमशः बहुत अधिक लोकप्रिय हो रही है| उपनिषदों के ज्ञान को जानने की जिज्ञासा भी पूरे विश्व में बढ़ रही है| परमात्मा को जानने की जिज्ञासा, योग साधना, ध्यान और भक्ति का प्रचार प्रसार भी निरंतर हो रहा है|
रूस जैसे पूर्व साम्यवादी देशों में जहाँ साम्यवाद जब अपने चरम पर था तब भगवान में आस्था रखना भी अपनी मृत्यु को निमंत्रित करना था| पर अब वहाँ की स्थिति उस से विपरीत है| अब से पचास वर्ष पूर्व जब साम्यवाद अपने चरम शिखर पर था, उस समय में मैं रूस में लगभग दो वर्ष रहकर एक प्रशिक्षण ले रहा था| चीन, उत्तरी कोरिया, युक्रेन, लाटविया, रोमानिया आदि पूर्व साम्यवादी देशों का भ्रमण भी मैं कर चुका हूँ| विश्व के अनेक देशों की मैं यात्राएँ कर चुका हूँ, और पूरी पृथ्वी की परिक्रमा भी एक बार की है| अतः पूरे अधिकार से यह बात कह रहा हूँ कि अब आने वाला समय बहुत अच्छा होगा, सनातन धर्म की सारे विश्व में पुनर्स्थापना होगी, और असत्य व अन्धकार की शक्तियाँ क्षीण होंगी|
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(४) यह सृष्टि, ज्ञान रूपी प्रकाश और अज्ञान रूपी अन्धकार के संयोग से बनी है अतः कुछ न कुछ अज्ञान रूपी अन्धकार तो सदा ही रहेगा| हमारा कार्य उस प्रकाश में वृद्धि करना है|
हमारे जीवन का प्रथम, अंतिम और एकमात्र उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति है| जब तक हम ईश्वर को यानि परमात्मा को प्राप्त नहीं करते तब तक इस दुःख रूपी महासागर के जीवन में यों ही भटकते रहेंगे|
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ये मेरे अनुभवजनित दृढ़ निजी विचार हैं, अतः जिनके विचार मुझ से नहीं मिलते उन्हें आहत और उत्तेजित होने की आवश्यकता नहीं है| मैं मेरे विचारों पर दृढ़ हूँ| भगवान सदा मेरे साथ हैं|
सभी को मेरी शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ जनवरी २०१८