Friday 2 February 2018

मेरा यह शरीर महाराज .....

जैसे जैसे इस शरीर महाराज की आयु बढ़ती जाती है, हम अपने अनेक लौकिक प्रिय जनों का वैकुण्ठ गमन देखने को बाध्य होते रहते हैं| फिर बोध होता है कि सभी दीपकों का तेल तो शनैः शनैः समाप्त हो रहा है, पता नहीं वे कब बुझ जाएँ| अतः जो भी समय अवशिष्ट है उसका अधिकतम सदुपयोग कर लिया जाए| मुझे स्वयं के इस दीपक का भी पता नहीं है कि कितना तेल इसमें बाकी है और भरोसा नहीं है कि यह कब बुझ जाए| पर आश्वस्त हूँ कि मेरा शाश्वत मित्र निरंतर मेरे साथ है और वह मेरा साथ कभी नहीं छोड़ेगा| ॐ स्वस्ति ! ॐ ॐ ॐ !!
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अब मुझे लगता है कि मुझे स्वयं को यह "शरीर महाराज" कह कर ही संबोधित करना चाहिए| सभी का परिचय इस "शरीर महाराज" से ही है, इस आत्मा से नहीं| मैं स्वयं ही स्वयं को नहीं जानता, फिर अन्य तो क्या जानेंगे? जब इस शरीर महाराज का जन्म हुआ था तब इसके माता-पिता ने इसका नाम कृपा शंकर रख दिया था| पर यह मैं नहीं हूँ, और इस शरीर महाराज का साथ भी शाश्वत नहीं है| शाश्वत तो वह परम शिव है जिसका कभी जन्म ही नहीं हुआ| आध्यात्मिक दृष्टी से तो उस परम शिव के अतिरिक्त अन्य कोई है भी नहीं| उसी की चेतना में मैं भी कह सकता हूँ ....
"एकोSहं द्वितीयोनाSस्ति" | शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
०१ फरवरी २०१८ 
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पुनश्चः :---
मेरी यह देह ही अयोध्या नगरी है| यही मेरा देवालय है| यहीं पर मेरे भगवान निवास करते हैं| ओंकार और सोSहं मन्त्रों के जाप से यह पवित्र है| जैसे भी मेरे भगवान चाहें वे इसका प्रयोग करें, मेरी कोई इच्छा नहीं है| कोई इच्छा कभी उत्पन्न भी न हो| वे ही इन पैरों से चल रहे हैं, वे ही इन हाथों से कार्य कर रहे हैं, इस हृदय में वे ही धड़क रहे हैं, इन फेफड़ों से वे ही सांस ले रहे हैं, और इस मष्तिष्क में भी वे ही क्रियाशील है| वास्तव में यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी मेरी देह ही है|
ॐ ॐ ॐ !!
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अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या, तस्यां हिरण्यय: कोश: स्वर्गो ज्योतिषावृत:|| (अथर्ववेद १०.०२.३१)

1 comment:

  1. मेरी यह देह ही अयोध्या नगरी है| यही मेरा देवालय है| यहीं पर मेरे भगवान निवास करते हैं| ओंकार और सोSहं मन्त्रों के जाप से यह पवित्र है| जैसे भी मेरे भगवान चाहें वे इसका प्रयोग करें, मेरी कोई इच्छा नहीं है| कोई इच्छा कभी उत्पन्न भी न हो| वे ही इन पैरों से चल रहे हैं, वे ही इन हाथों से कार्य कर रहे हैं, इस हृदय में वे ही धड़क रहे हैं, इन फेफड़ों से वे ही सांस ले रहे हैं, और इस मष्तिष्क में भी वे ही क्रियाशील है| वास्तव में यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी मेरी देह ही है|
    ॐ ॐ ॐ !!
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    अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या, तस्यां हिरण्यय: कोश: स्वर्गो ज्योतिषावृत:|| (अथर्ववेद १०.०२.३१)

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