Sunday, 11 June 2017

रस्सी खींची गयी| पं.रामप्रसाद जी फाँसी पर लटक गये .....

फाँसी पर ले जाते समय बड़े जोर से कहा ........"वन्दे मातरम ! भारतमाता की जय !"
......... और शान्ति से चलते हुए कहा ...........
"मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे, बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे|
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे, तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे||"
फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर आपने कहा .....
"I wish the downfall of British Empire! अर्थात मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ!"
.......... उसके पश्चात यह शेर कहा --
"अब न अह्ले-वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,
एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है |"
........... फिर ईश्वर का ध्यान व प्रार्थना की और यह मन्त्र ---
"ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानी परासुवः यद् भद्रं तन्न आ सुवः"
पढ़कर अपने गले में अपने ही हाथों से फाँसी का फंदा डाल दिया|
.............. रस्सी खींची गयी| पं.रामप्रसाद जी फाँसी पर लटक गये, आज जिनका १२०वाँ जन्मदिवस है|
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"तेरा गौरव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें"
उन्हीं के इन शब्दों में भारत माँ के इन अमर सुपुत्र को श्रद्धांजलि|
जय जननी जय भारत | ॐ ॐ ॐ ||
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हे पराशक्ति ! भारतवर्ष अब भ्रष्ट, कामचोर, राष्ट्र-धर्मद्रोही, झूठे और रिश्वतखोर कर्मचारियों, अधिकारियों व राजनेताओं का देश हो गया है| इन सब का समूल नाश कर ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
११ जून २०१७

इस भूमि पर वीर पुरुष ही राज्य करेंगे ......

इस भूमि पर वीर पुरुष ही राज्य करेंगे ......
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इस धरा पर सदा वीरों ने ही राज्य किया है और वीर ही राज्य करेंगे| हमें राज्य ही करना है तो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक हर दृष्टी से वीर बनना पडेगा| मैं उस महायान मत का अनुयायी नहीं हूँ जिसने आत्मरक्षा के लिए प्रतिकार का ही निषेध कर दिया और अहिंसा की इतनी गलत व्याख्या की कि पूरा भारत ही निर्वीर्य हो गया| महायान मत के नालंदा विश्वविद्यालय में दस हज़ार विद्यार्थी और तीन हज़ार आचार्य थे| उन्होंने बख्तियार खिलजी के तीन सौ घुड़सवारों का प्रतिरोध क्यों नहीं किया? उन्होंने अपने अहिंसा परमो धर्म का पालन करते हुए अपने सिर कटवा लिए पर आतताइयों से युद्ध नहीं किया| वही बख्तियार खिलजी बंगाल को रौंदता हुआ जब आसाम पहुँचा तो सनातन धर्मानुयायी आसामी वीरों ने उसकी सेना को गाजर मूली की तरह काट दिया| पूरा मध्य एशिया महायान बौद्ध मत का अनुयायी हो गया था पर वे अरब से आये मुट्ठी भर आतताइयों की तलवार की धार का सामना न कर सके और मतांतरित हो गए| सिंध के महाराजा दाहर सेन भी ऐसे ही कायरों के कारण पराजित हुए थे|
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शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक तीनों प्रकार की निर्बलता कोई स्थायी स्थिति नहीं है| यह हमारी गलत सोच, अकर्मण्यता और आलस्य के कारण हमारे द्वारा किया हुआ एक पाप है जिसका फल भुगतने के लिए हम पराधीन होते हैं, या नष्ट कर दिए जाते हैं|
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मानसिक निर्बलता के कारण हम प्रतिकूल परिस्थितियों और कठिनाइयों का सामना नहीं कर पाते और निराश व किंकर्तव्यमूढ़ हो जाते हैं| बौद्धिक निर्बलता के कारण हम सही और गलत का निर्णय नहीं कर पाते| दृढ़ मनोबल के अभाव में ही हम आध्यात्मिक क्षेत्र में भी कोई प्रगति नहीं कर पाते| दुर्बल के लिए देवता भी घातक हैं| छोटे मोटे पेड़ पौधे गर्मी में सूख जाते हैं पर बड़े बड़े पेड़ सदा लहलहाते हैं| प्रकृति भी बलवान की ही रक्षा करती है| निर्बल और अशक्त लोगों को हर क़दम पर हानियाँ उठानी पड़ती हैं|
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भारत की ही एक अति प्रसिद्ध आध्यात्मिक/राष्ट्रवादी/धार्मिक/सामाजिक संस्था के मार्गदर्शक महोदय का कुछ वर्ष पूर्व एक भाषण पढ़ा और सुना था जिसमें उन्होंने साधना द्वारा ब्रह्मतेज को प्रकट करने की आवश्यकता पर बल दिया था| मैं उससे इतना प्रभावित हुआ कि उनको सादर घर पर निमंत्रित किया और वे आये भी| उन जैसी ही कुछ और संस्थाएँ भी भारत में जन जागृति का बहुत अच्छा कार्य कर रही हैं|
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हमें हर दृष्टी से बलवान बनना पड़ेगा क्योंकि शक्ति सम्वर्धन ही उन्नति का एकमात्र मार्ग है| (आध्यात्मिक रूप से) बलहीन को परमात्मा की प्राप्ति भी नहीं होती है| हमारे आदर्श भगवान श्रीराम हैं जिन्होनें आतताइयों के संहार के लिए धनुष धारण कर रखा है| हमारे हर देवी-देवता के हाथ में शस्त्रास्त्र हैं| कायरता हमारे धर्म में है ही नहीं|
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किसी भी क्षेत्र में अनायास सफलता नहीं मिलती| उसके लिए तो निरन्तर प्रयत्न करते हुए अपनी शक्तियों को विकसित करना होता है| शक्ति का विकास अनवरत श्रम-साधना के द्वारा ही किया जा सकता है| हमें बौद्धिक सामर्थ्य का भी अति विकास करना होगा, अन्यथा इस पाप का परिणाम हमें पथभ्रष्ट कर विपत्तियों के गर्त में धकेल देगा| निर्बलता रूपी पाप का दंड अति कठोर है| "वीर भोग्या वसुंधरा" यह नीति वाक्य यही कहता है कि वीर ही इस वसुंधरा का भोग करेंगे|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
११ जून २०१७

किसी को प्रभावित करने से क्या मिलेगा ? .....


किसी को प्रभावित करने से क्या मिलेगा ? .....
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किसी को प्रभावित करने का प्रयास एक बहुत बड़ा और छिपा हुआ अहंकार है| यह स्वयं के साथ बेईमानी और धोखा है| यह राग और द्वेष की ही अभिव्यक्ति है| किसी को प्रभावित करने से क्या मिलेगा? कुछ भी नहीं मिलता, मात्र अहंकार की ही तृप्ति होती है|
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महत्वपूर्ण हम नहीं हैं, महत्वपूर्ण तो परमात्मा है जो हमारे ह्रदय में है| यह सृष्टि .... प्रकाश और अन्धकार के रूप में उन्हीं की अभिव्यक्ति है| हमें अपने रूप, गुण, धन, विद्या, बल, पद, यौवन और व्यक्तित्व का बहुत अधिक अभिमान होता है, जिसके बल पर हम दूसरों को हीन और स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहते हैं| अपने शब्दों या अभिनय द्वारा एक झूठे वैराग्य और झूठी भक्ति का प्रदर्शन .... सबसे बड़ा धोखा है जो हम स्वयं को देते हैं| निश्चित रूप से यह अहंकार हमें परमात्मा से दूर करता है|
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यह अहंकार परमात्मा के अनुग्रह से ही दूर हो सकता है, अन्य कोई उपाय नहीं है| इसके लिए हमें भगवान से ही प्रार्थना करनी पड़ेगी जिससे वे करुणावश द्रवित होकर किसी न किसी के माध्यम से हमारा मार्गदर्शन करें| फिर अभ्यास द्वारा हमें अंतर्मुखी भी होना पड़ेगा| तब परमात्मा की ही कृपा से हमें उनकी अनुभूतियाँ भी होंगी और हम अहंकार मुक्त हो सकेंगे|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
१० जून २०१७

जो पाश द्वारा आबद्ध है वह पशु ही है ...

जो पाश द्वारा आबद्ध है वह पशु ही है .....
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जो पाश द्वारा आबद्ध है वह पशु ही है| जीवात्मा अर्थात क्षेत्र को ही पशु कहते हैं जो जन्म से नाना प्रकार के पाशों यानि बंधनों में बंधा रहता है| जब तक जीव सब प्रकार के पाशों यानि बंधनों से मुक्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त नहीं होता, वह पशु ही है|
शैवागम शास्त्रों के अनुसार पदार्थ के तीन भेद होते हैं .....पशु, पाश और पशुपति|
पशुपति सर्व समर्थ, नित्य, निर्गुण, सर्वव्यापी, स्वतंत्र, सर्वज्ञ, ऐश्वर्यस्वरुप, नित्यमुक्त, नित्यनिर्मल, अपार ज्ञान शक्ति के अधिकारी, क्रियाशक्तिसम्पन्न, परम दयावान शिव महेश्वर हैं| शिवस्वरूप परमात्मा ही पशुपति के नाम से जाने जाते हैं| सृष्टि, स्थिति, विनाश, तिरोधान और अनुग्रह इनके पांच कर्म हैं|
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शिष्य की देह में जो आध्यात्मिक चक्र हैं उन पर जन्म-जन्मान्तर के कर्मफल वज्रलेप की तरह चिपके हुए हैं| इस लिए जीव को शिव का बोध नहीं होता| गुरु अपने शिष्य के चित्त में प्रवेश कर के उस के अज्ञानमय आवरण को गला देते हैं| जब शिष्य के अंतर में दिव्य चेतना स्फुरित होती है तब वह साक्षात शिव भाव को प्राप्त होता है| गुरु की चैतन्य शक्ति के बिना यह संभव नहीं है| शिष्य चाहे कितना भी पतित हो, सद्गुरु उसे ढूंढ निकालते हैं| फिर चेला जब तक अपनी सही स्थिति में नहीं आता, गुरु को चैन नहीं मिलता है| इसी को दया कहते हैं| यही गुरु रूप में शिवकृपा है|
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शैवागम दर्शन के मूल वक्ता हैं स्वयं पशुपति भगवान शिव| इसके श्रोता थे ऋषि दुर्वासा| शैवागम दर्शन के आचार्य भी दुर्वाषा ऋषि ही हैं| शैव दर्शन की अनेक परम्पराएँ हैं जिनके प्रायः सभी ग्रन्थ नेपाल के राज दरबार में सुरक्षित थे| अब पता नहीं उनकी क्या स्थिति है| बिना राज्य के सहयोग के प्राचीन ग्रन्थों का संरक्षण अति कठिन है|
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भगवान शिव से प्रार्थना है की वे सब जीवों पर कृपा करें और अपना बोध सब को कराएँ|
शिवमस्तु ! ॐ तत्सत् ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
१० जून २०१३
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आदि शंकराचार्य विरचित शिव स्तव :--
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पशूनां पतिं पापनाशं परेशं
गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्।
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं
महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम्॥
महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं
विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्।
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं
सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्॥
गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं
गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्।
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं
भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्॥
शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले
महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन्।
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः
प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप॥
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं
निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥
न भूमिर्नं चापो न वह्निर्न वायु-
र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा।
न गृष्मो न शीतं न देशो न वेषो
न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे॥
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां
शिवं केवलं भासकं भासकानाम्।
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं
प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्॥
नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते।
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥
प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ
महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र।
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः॥
शंभो महेश करुणामय शूलपाणे
गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्।
काशीपते करुणया जगदेतदेक-
स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि॥
त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ।
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश
लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन्॥

जीवन में परमात्मा ही परमात्मा हो, अन्य कुछ भी नहीं .....

जीवन में परमात्मा ही परमात्मा हो, अन्य कुछ भी नहीं ......
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हमारा जीवन प्रभु की चेतना से भरा हुआ हो, जीवन में परमात्मा ही परमात्मा हो, अन्य कुछ भी नहीं| प्रातःकाल भोर में उठते ही परमात्मा को पूर्ण ह्रदय से पूर्ण प्रेममय होकर नमन करें, और संकल्प करें ....... "आज का दिन मेरे इस जीवन का सर्वश्रेष्ठ दिन होगा| मेरा प्रभु को समर्पण बीते हुए कल से बहुत अधिक अच्छा होगा| आज के दिन प्रभु की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति मुझमें होगी| आज की ध्यान साधना बीते हुए कल से और भी अधिक अच्छी होगी|"
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ाधना की गहनता और दीर्घता से कभी संतुष्ट नहीं होना चाहिए| सदा ब्रह्मानंद में निमग्न रहने वाले योगी रामगोपाल मजूमदार ने बालक मुकुंद लाल घोष (जो बाद में परमहंस योगानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए) से कहा ......."20 वर्ष तक मैं हिमालय की एक निर्जन गुफा में नित्य 18 घंटे ध्यान करता रहा| उसके पश्चात मैं उससे भी अधिक दुर्गम गुफा में चला गया| वहां 25 वर्ष तक नित्य 20 घंटे ध्यान में मग्न रहता| मुझे नींद की आवश्यकता नहीं पडती थी, क्योंकि मैं सदा ईश्वर के सान्निध्य में रहता था| ...... फिर भी ईश्वर की कृपा प्राप्त होने का विश्वास नहीं है|...."
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परमात्मा अनंत रूप है| एक जीवन के कुछ वर्ष उसकी साधना में बीत जाना कोई बड़ी बात नहीं है| हमारा जीवन ही प्रभु की चेतना से भरा हुआ हो| जीवन में परमात्मा ही परमात्मा हो, अन्य कुछ भी नहीं| उस अनंत के स्वामी के दर्शन समाधी में अवश्य होंगे| उसकी कृपा भी अवश्य होगी| उसके आनंद सागर में स्थिति भी अवश्य होगी| उसके साथ स्थायी मिलन भी अवश्य होगा| जितना हम उसके लिए बेचैन हैं, उससे अधिक वह भी हमारे लिए व्याकुल है|
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ॐ तत्सत् | गुरु ॐ, गुरु ॐ, गुरु ॐ || ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
१० जून २०१६

धर्म की रक्षा ......

धर्म की रक्षा ......
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मैंने पूर्व में कई बार अपना यह विचार व्यक्त किया है कि हम स्वधर्म की रक्षा, स्वधर्म का पालन कर के ही कर सकते हैं| अन्य कोई उपाय नहीं है| इसके लिए सर्वप्रथम तो हमें स्वयं को अपने निज जीवन में सदाचार लाने के लिए यथासंभव यम-नियमों का पालन करना होगा| अपने संस्कारों के बारे में सीखना होगा और उन्हें स्वयं के निज जीवन में उतारना होगा|
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हमारे बच्चे धर्म-रक्षक बनें इसके लिए उनके मन में बाल्यकाल से ही अच्छे संस्कार देने होंगे| बच्चों को किशोरावस्था में प्रवेश करते ही बाल रामायण, बाल महाभारत, पंचतंत्र की कहानियाँ और अच्छे से अच्छा बाल-साहित्य उपलब्ध कराना होगा| साथ साथ यह भी सुनिश्चित करना होगा कि बालक में आरम्भ से ही अच्छे संस्कार पड़ें| उन्हें भगवान से प्रेम करना और ध्यान साधना भी सिखानी होगी|
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जो वैदिक सनातन धर्म के अनुयायी हैं वे अपने बच्चों की युवावस्था आरम्भ होने से पूर्व ही उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराएँ ताकि वे गायत्री मन्त्र जाप के अधिकारी बनें| किशोरावस्था से ही गायत्री का विधि-विधान से नियमित जप करने से वे मेधावी होंगे|
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अंत में यह बात मैं बार बार दोहराऊँगा कि धर्म की रक्षा धर्म के पालन से ही हो सकती है, सिर्फ बातों से नहीं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
९ जून २०१७

परमात्मा के ध्यान में जो आनंद मिलता है वही वास्तविक सुख है .....

परमात्मा के ध्यान में जो आनंद मिलता है वही वास्तविक सुख है .....
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सुख और दुःख ये दोनों ही मन की एक अवस्था है| ये अवचेतन मन द्वारा आनंद की खोज का प्रयास है| मेरा अब तक का अनुभव तो यही कहता है कि हम जिस सुख को इन्द्रियों में ढूँढ रहे हैं, अंततः वह दुखदायी है| हमें ध्यान साधना द्वारा स्वयं ही आनंदमय होना होगा| इन्द्रियों द्वारा प्राप्त सुख हमारे आत्मबल को क्षीण करता है| उससे बुद्धि भी क्षीण होती है, और किसी भी परिस्थिति का सामना करने की सामर्थ्य कम हो जाती है| एक आध्यात्मिक साधक के लिए यह उसे परमात्मा से विमुख करने वाला है| परमात्मा के ध्यान में जो आनंद मिलता है वही वास्तविक सुख है|
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सभी साधक अन्तर्मुखी साधना में समय अधिक से अधिक दें| साधना के नाम पर इन्द्रियों के मनोरंजन को विष के सामान त्याग दें, क्योंकि यह माया का एक धोखा है| परमात्मा से हमारा वही सम्बन्ध है जो जल की एक बूँद का महासागर से है| जल की बूँद का महासागर से वियोग ही दुःखदाई है|
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भगवान की पराभक्ति, और वेदांत व योग दर्शन की बड़ी बड़ी बातें सुनने में और चर्चा करने में बहुत मीठी और अमृत के समान लगती हैं| पर व्यवहारिक रूप से साधना पक्ष अति कठिन है| परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग ऐसा है जिसमें साधना तो स्वयं को ही करनी पड़ती है जो एक बार तो अत्यधिक कष्टमय परिश्रम है| गुरु तो मार्गदर्शन करते हैं, पर चलना तो स्वयं को ही पड़ता है| इसमें कोई लघुमार्ग यानि Short cut नहीं है| बाद में तो यह स्वभाव बन जाता है| प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उठना, संध्या, नामजप, अष्टांग योग आदि में बहुत अधिक उत्साह और ऊर्जा चाहिए| कहीं हम साधना के स्थान पर आध्यात्मिक/धार्मिक मनोरंजन में न फँस जाएँ| अतः सतर्क रहें| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
९ जून २०१७

जब तेल ही बेचना है तब फारसी पढने से क्या लाभ ?

जब तेल ही बेचना है तब फारसी पढने से क्या लाभ ?
यह बात बहुत देरी से समझ में आ रही है|
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"पढ़ें फ़ारसी बेचें तेल" एक बहुत पुराना मुहावरा है| देश पर जब मुसलमान शासकों का राज्य था तब उनका सारा सरकारी और अदालती कामकाज फारसी भाषा में ही होता था| उस युग में फारसी भाषा को जानना और उसमें लिखने पढने की योग्यता रखना एक बहुत बड़ी उपलब्धी होती थी| फारसी जानने वाले को तुरंत राजदरबार में या कचहरी में अति सम्मानित काम मिल जाता था| बादशाहों के दरबार में प्रयुक्त होने वाली फारसी बड़ी कठिन होती थी, जिसे सीखने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती थी|
बादशाहों के उस जमाने में तेली और तंबोली (पान बेचने वाला) के काम को सबसे हल्का माना जाता था| अतः यह कहावत पड़ गयी कि "पढ़े फारसी बेचे तेल, देखो यह कुदरत का खेल"| अर्थात जब तेल ही बेचना है तो इतना परिश्रम कर के फारसी पढने का क्या लाभ हुआ?
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आध्यात्मिक अर्थ :---
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किसी को आत्मज्ञान ही प्राप्त करना है गुरु प्रदत्त आध्यात्मिक उपासना के द्वारा, तब उसे अपना सम्पूर्ण समय आध्यात्मिक साधना में ही लगाना चाहिए| उसके लिए गहन शास्त्रों का अध्ययन अनावश्यक है| आत्मज्ञान के पश्चात अन्य सारा ज्ञान तो वैसे ही प्राप्त हो जाता है| अतः एक मुमुक्षु को गुरुप्रदत्त उपासना ही करनी चाहिए| जब तेल ही बेचना है यानि आत्मज्ञान ही प्राप्त करना है तब साधना न कर के फारसी पढ़ना यानि शास्त्रों का गहन अध्ययन अनावश्यक है| इति|
ॐ ॐ ॐ ||

विपरीततम परिस्थितियों में महानतम कार्य संभव है, यदि ह्रदय में परमात्मा हो .....


विपरीततम परिस्थितियों में महानतम कार्य संभव है, यदि ह्रदय में परमात्मा हो .....
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कुछ दिन पूर्व इंदौर की प्रातःस्मरणीया, परमभक्त और इस मृत्युलोक की शिव पुत्री महारानी अहिल्याबाई होलकर के बारे में पढ़ रहा था| इनके गौरव और महानता के बारे में जितना लिखा जाए उतना ही कम है| व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में विकटतम कष्ट और प्रतिकूलताओं के पश्चात् भी इन्होने महानतम कार्य किये| इतने महान कार्य कि जिनकी तुलना नहीं की जा सकती|
इनका विवाह मल्हार राव होलकर के बेटे खाण्डेराव के साथ हुआ था जिनकी शीघ्र ही मृत्यु हो गयी| इनके एकमात्र पुत्र मालेराव भी जीवित नहीं रहे| इनकी एकमात्र कन्या बालविधवा हो गयी और पति की चिता में कूद कर स्वयं के प्राण त्याग दिए|
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अपने श्वसुर मल्हारराव होलकर की मृत्यु के समय ये मात्र ३१ वर्ष की थी और राज्य संभाला|
अपने दुर्जन सम्बन्धियों व कुछ सामंतों के षडयंत्रों और तमाम शोक व कष्टों का दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए इन्होने अपने राज्य का कुशल संचालन किया| अपना राज्य इन्होने भगवान शिव को अर्पित कर दिया और उनकी सेविका और पुत्री के रूप में राज्य का कुशल प्रबंध किया| राजधानी इंदौर उन्हीं की बसाई हुई नगरी है| जीवन के सब शोक व दु:खों को शिव जी के चरणों में अर्पित कर दिया और उनके एक उपकरण के रूप में निमित्त मात्र बन कर जन कल्याण के व्रत का पालन करती रही| उनके सुशासन से इंदौर राज्य ऐश्वर्य और समृद्धि से भरपूर हो गया|
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सोमनाथ मंदिर के भग्नावशेषों के बिलकुल निकट एक और सोमनाथ मंदिर बनवाकर प्राण प्रतिष्ठा करा कर पूजा अर्चना और सुरक्षा आदि की व्यवस्था की| वाराणसी का वर्तमान विश्वनाथ मन्दिर, गयाधाम का विष्णुपाद मंदिर आदि जो विध्वंश हो चुके थे, इन्हीं के प्रयासों से बने| हज़ारों दीन दुखियारे बीमार और साधू लोग इन्हें करुणामयी माता कह कर पुकारते थे| सेंकडों असहाय लोगों और साधू संतों को अन्न वस्त्र का दान इनकी नित्य की दिनचर्या थी| पूरे भारतवर्ष में अनगिनत मंदिर, सडकें, धर्मशालाएं, अन्नक्षेत्र, सदावर्त, तालाब और नदियों के किनारे पक्के घाट इन्होने बनवाए| नर्मदा तट पर पता नहीं कितने तीर्थों को वे जागृत कर गईं| महेश्वर तीर्थ इन्हीं के प्रयासों से धर्म और विद्द्या का केंद्र बना| अमर कंटक में यात्री निवास और जबलपुर में स्फटिक पहाड़ के ऊपर श्वेत शिवलिंग स्थापित कराया| परिक्रमाकारियों के लिए व्यवस्थाएं कीं| ओम्कारेश्वर में ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति की| वहां प्रतिदिन पंद्रह हज़ार आठ सौ मिटटी के शिवलिंग बना कर पूजे जाते थे, फिर उनका विसर्जन कर दिया जाता था|
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यहाँ दो शब्द उनके श्वसुर मल्हार राव के बारे में भी लिखना उचित रहेगा|
छत्रपति शिवाजी के पोते साहू जी ने एक चित्तपावन ब्राह्मण बालाजी बाजीराव (प्रथम) को पेशवा नियुक्त किया| बालाजी बाजीराव वेश बदल कर बिना सुरक्षा व्यवस्था के तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े| मार्ग के एक गाँव में उनको मुगलों के जासूसों ने पहचान लिया और उनकी हत्या के लिए बीस मुग़ल सैनिक पीछे लगा दिए| मल्हार राव ने कुछ भैंसे पाल रखीं थीं और उस गाँव में दूध बेच कर गुजारा करते थे| वे मुग़ल जासूस भी उन्हीं से दूध खरीदते थे| उनकी आपसी बातचीत से मल्हार राव को सब बातें स्पष्ट हो गईं| उनकी देशभक्ति जागृत हो गयी और चुपके से उनहोंने पेशवा को ढूंढकर सारी स्थिति स्पष्ट कर दी| यही नहीं पेशवा को एक संकरी घाटी में से सुरक्षित निकाल कर भेज दिया और उनकी तलवार खुद लेकर उन बीस मुगलों को रोकने खड़े हो गए| उस तंग घाटी से एक समय में सिर्फ एक ही व्यक्ति निकल सकता था| ज्यों ही कोई मुग़ल सैनिक बाहर निकलता, मल्हार राव की तलवार उसे यमलोक पहुंचा देती| उन्होंने पांच मुग़ल सैनिकों को यमलोक पहुंचा दिया| इसे देख बाकी पंद्रह मुग़ल सैनिक गाली देते हुए बापस लौट गए| उन्होंने मल्हार राव के घर को आग लगा दी, उसके बच्चों और पत्नी की हत्या कर दी व भैंसों को हाँक कर ले गए|
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मल्हार राव, पेशवा बाजीराव के दाहिने हाथ बन कर उनके साथ हर युद्ध में रहे| समय के साथ बाजीराव विश्व के सफलतम सेनानायक बने| उन्होंने अनेक युद्ध लड़े और कभी पराजित नहीं हुए| वे महानतम हिन्दू सेनानायकों में से एक थे| उन्होंने कभी पराजय का मुंह नहीं देखा| उनकी असमय मृत्यु नहीं होती तो भारत का इतिहास ही अलग होता| पेशवाओं ने वर्त्तमान इंदौर क्षेत्र का राज्य मल्हार राव होलकर को दे दिया था जहाँ की महारानी परम शिवभक्त उनकी पुत्रवधू अहिल्याबाई बनी|
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हमें गर्व है ऐसी शासिका पर| दुर्भाग्य से भारत में धर्म-निरपेक्षता के नाम पर ऐसे महान व्यक्तियों के इतिहास को नहीं पढाया जाता| भारत के अच्छे दिन भी लौटेंगे| इस लेख को लिखने के पीछे यही स्पष्ट करना था की यदि ह्रदय में भक्ति और श्रद्धा हो तो व्यक्ति कैसी भी मुसीबतों का सामना कर जीवन में सफल हो सकता है| इति| ॐ स्वस्ति| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
June 08, 2013

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा .....

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा .....
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बिना परम प्रेम यानि बिना भक्ति के भगवान नहीं मिल सकते| अन्य सभी साधन भी तभी सफल होते हैं जब ह्रदय में भक्ति होती है| जीवन की हर कमी, विफलता, अभाव, दुःख और पीड़ा एक रिक्त स्थान है जिसकी भरपाई सिर्फ प्रभुप्रेम से ही हो सकती है| अपने समस्त अभाव, दुःख और पीड़ाएँ प्रभु को समर्पित कर दो| अपने प्रारब्ध और संचित कर्म भी उन्हें ही सौंप दो| हमारा स्वभाव प्रेम है जिसकी परिणिति आनंद है| कर्ता वे हैं, हम नहीं| सारे कर्म भी उन्हीं के हैं और कर्मफल भी उन्हीं के| साक्षी ही नहीं अपितु दृष्टी, दृष्टा और दृष्य भी वे ही हैं| इस मायावी दुःस्वप्न से जागो और अपने जीवत्व को परम शिवत्व में समर्पित कर दो| संसार में सुख की खोज ही सब दुःखों का कारण है| मनुष्य संसार में सुख ढूंढ़ता है पर निराशा ही हाथ लगती है| यह निराशा सदा दुःखदायी है|
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परमात्मा से अहैतुकी परम प्रेम, आनंददायी है| उस आनंद की एक झलक पाने के पश्चात ही संसार की असारता का बोध होता है| प्रभुप्रेमी की सबसे बड़ी सम्पत्ति, 'उनके' श्री-चरणों में आश्रय पाना है|
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जो योग-मार्ग के पथिक हैं उनके लिए सहस्त्रार ही गुरुचरण है| आज्ञाचक्र का भेदन और सहस्त्रार में स्थिति बिना गुरुकृपा के नहीं होती| जब चेतना उत्तरा-सुषुम्ना यानि आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य विचरण करने लगे तब समझ लेना चाहिए कि गुरु की कृपा हो रही है|
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जब स्वाभाविक और सहज रूप से सहस्त्रार में व उससे ऊपर की ज्योतिर्मय विराटता में ध्यान होने लगे तब समझ लेना चाहिए कि श्रीगुरुचरणों में अर्थात प्रभुचरणों में आश्रय प्राप्त हो रहा है| तब भूल से भी पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए| एक साधक योगी की चेतना वैसे भी अनाहत चक्र से ऊपर ही रहती है| सहस्त्रार व उससे ऊपर की स्थायी स्थिति "परमहंस" होने का लक्षण है|
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एकमात्र मार्ग है ..... परम प्रेम, परम प्रेम और परम प्रेम| इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है|
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा| बिना प्रेम के राम (परमात्मा) की प्राप्ति नहीं है चाहे कितना भी योग जप तप कर लिया जाये|
रामही केवल प्रेम पिआरा, जान लेहु जो जाननिहारा ||
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गुरु भी कोई हाड -मांस की देह नहीं होती| वह तो एक तत्व चेतना होती है| भगवन शिव ही गुरु रूप में आते हैं| उन्नत अवस्था में गुरु शिष्य में कोई भेद नहीं होता| योगियों के लिए कूटस्थ ही गुरु होता है| समाधी की उन्नत ब्राह्मी अवस्था में कूटस्थ में एक पञ्चकोणीय नक्षत्र के दर्शन होते हैं जो पंचमुखी महादेव हैं| वे ही सद्गुरु हैं| उस नक्षत्र का भेदन कर योगी स्वयं शिवस्वरुप हो जाता है|
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आज के परिप्रेक्ष्य में ब्राह्मण भी वही है जो निरंतर समष्टि के कल्याण की कामना करता है, जिसकी चेतना ऊर्ध्वगामी है, और जिसके ह्रदय में परमात्मा के प्रति कूट कूट कर प्रेम भरा है|
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ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
08June2016

ध्यान करो, मन ध्यान करो, गुरु के वचन का ध्यान करो .......

ध्यान करो, मन ध्यान करो, गुरु के वचन का ध्यान करो .......
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जो हमारे माध्यम से साँस ले रहा है, वह परमात्मा ही है |
जो हमारी आँखों से देख रहा है वह परमात्मा ही है |
जो हमारे ह्रदय में धड़क रहा है वह परमात्मा ही है |
जो हमारे माध्यम से सोच विचार कर रहा है वह परमात्मा ही है |
जो इस देह की सारी क्रियाओं का संचालक है, वह परमात्मा ही है |
जो हमारा प्राण और अस्तित्व है, वह परमात्मा ही है |
जो हमारा प्रेम और आनंद है, वह परमात्मा ही है |
जो कुछ भी हमारा है वह परमात्मा ही है |
हम तो कुछ हैं ही नहीं, सब कुछ तो परमात्मा ही है |
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उस परमात्मा के एक उपकरण मात्र बन जाओ |
उसे स्वयं में प्रवाहित होने दो |
उठते, बैठते, सोते, जागते और सर्वदा उसी के चैतन्य में रहो |
उसे अपना सब कुछ अर्पित कर दो |
कुछ भी बचा कर अपने पास न रखो |
हर साँस पर उसका नाम हो, हर साँस उसी की है, वो ही तो साँस ले रहा है |
वह ही हमारे माध्यम से यह जीवन जी रहा है |
वह ही इस जीवन का एकमात्र कर्ता है |
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सारा प्रेम उसी को दे दो, अपना सारा अस्तित्व उसी को समर्पित कर दो |
उससे पृथकता उसके प्रति परम प्रेम को व्यक्त करने के लिए ही है |
सार की बात यह है कि परमात्मा के एक उपकरण मात्र बन कर परमात्मा को अपना स्वयं का ध्यान करने दो |
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हम कुछ पाने के लिए परमात्मा का ध्यान नहीं कर रहे है, बल्कि उसका दिया सब कुछ उसी को बापस लौटाने के लिए कर रहे हैं, हमें उसी को उपलब्ध होना है क्योंकि हम उसे प्रेम करते हैं |
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उसी के प्रेम में मत्त, स्तब्ध और आत्माराम (आत्मा में रमण करने वाला) हो जाओ |
उस की चेतना में स्वयं को विसर्जित कर दो |
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गुरु रूप में उन्होंने ही ऐसा करने का आदेश दिया है | यह गुरु का आदेश और उपदेश है | कौन क्या कहता है और क्या सोचता है इस का कोई महत्व नहीं है |
हम गुरु और परमात्मा की दृष्टी में क्या हैं, महत्व सिर्फ इसी का है|
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ॐ श्रीगुरवे नमः | ॐ श्रीपरमात्मने नमः | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
07June 2016

भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, चाहे इसे कोई माने या न माने .....

भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, चाहे इसे कोई माने या न माने .....
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भारत की अस्मिता हिंदुत्व है| हिंदुत्व के बिना भारत, भारत नहीं है| भारत की आत्मा आध्यात्म है| दूसरे शब्दों में भारत एक आध्यात्मिक देश है| प्राचीन काल से अब तक इस देश पर कई बार असुरों का अधिकार हुआ है पर देवत्व की शक्तियों ने सदा उन्हें पराभूत कर के पुनश्चः धर्म की स्थापना की है|
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भारत का अस्तित्व सदा बचा रहा है सिर्फ धर्म की पुनर्स्थापना के लिए| सूक्ष्म रूप से भारत ऊर्ध्वमुखी चेतना के लोगों का समूह है जो चाहे कहीं भी रहते हों पर उनकी चेतना ऊर्ध्वमुखी है| चौबीस हज़ार वर्षों के कालखंड में चौबीस सौ वर्ष ही ऐसे आते हैं जब भारत का पतन होता है| भारत फिर खड़ा हो जाता है| वह पतन का समय अब निकल चुका है| आगे प्रगति ही प्रगति है| धर्म की निश्चित रूप से पुनर्स्थापना होगी और आसुरी शक्तियाँ पराभूत होंगी|
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जो अपनी बात मनाने के लिए हिंसा से दूर है वह हिन्दू है| भारत पुनश्चः आध्यात्मिक हिन्दू राष्ट्र होगा| इसके लिए हमें धर्माचरण द्वारा ब्रह्मत्व को जागृत कर दैवीय शक्तियों का आश्रय भी लेना होगा| जो धर्माचरण नहीं करेंगे वे नष्ट हो जायेंगे|
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एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति का उदय हम सब के भीतर हो रहा है जिसके आगे असत्य और अन्धकार नहीं टिक पायेगा|
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ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ ||

वीर शैव मत ...........

वीर शैव मत ...........
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कर्णाटक में वीरशैव सम्प्रदाय के मतानुयायी बहुत अच्छी संख्या में हैं, जिनमें मेरे कुछ मित्र भी हैं| उन्हीं के लिए यह लेख लिख रहा हूँ| इस मत के सिद्धांतों की गहराई में न जाकर जो ऊपरी सतह है उसी की चर्चा कर रहा हूँ|
इस सम्प्रदाय का नाम "वीरशैव", भगवन शिव के गण 'वीरभद्र' के नाम पर पड़ा है जिन्होंने रेणुकाचार्य के रूप में अवतृत होकर वीरपीठ की स्थापना की और इस मत को प्रतिपादित किया|
स्कन्द पुराण के अंतर्गत शंकर संहिता और माहेश्वर खंड के केदारखंड के सप्तम अध्याय में दिए हुए सिद्धांत और साधन मार्ग ही वीर शैव मत द्वारा स्वीकार्य हैं|
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इस मत के अनुयायियों का मानना है कि ------ वीरभद्र, नंदी, भृंगी, वृषभ और कार्तिकेय ---- इन पाँचों ने पाँच आचार्यों के रूप में जन्म लेकर इस मत का प्रचार किया| इस मत के ये ही जगत्गुरू हैं| इन पाँच आचार्यों ने भारत में पाँच मठों की स्थापना की|
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(1) भगवान रेणुकाचार्य ने वीरपीठ की स्थापना कर्णाटक में भद्रा नदी के किनारे मलय पर्वत के निकट रम्भापुरी में की|
(2) भगवान दारुकाचार्य ने सद्धर्मपीठ की स्थापना उज्जैन में महाकाल मन्दिर के निकट की|
(3) भगवान एकोरामाराध्याचार्य ने वैराग्यपीठ की स्थापना हिमालय में केदारनाथ मंदिर के पास की|
(4) भगवान पंडिताराध्य ने सूर्यपीठ की स्थापना श्रीशैलम में मल्लिकार्जुन मंदिर के पास की|
(5) भगवान विश्वाराध्य ने ज्ञानपीठ की स्थापना वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर के पास की| इसे जंगमवाटिका या जंगमवाड़ी भी कहते हैं|
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वीरशैव मत की तीन शाखाएँ हैं ------- (1) लिंगायत, (2) लिंग्वंत, (३) जंगम|
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सन 1160 ई. में वीरशैव सम्प्रदाय के एक ब्राह्मण परिवार में आचार्य बासव का जन्म हुआ| उन्होंने भगवान शिव की गहन साधना की और भगवान शिव का साक्षात्कार किया| उन्होंने इसी सम्प्रदाय में एक और उप संप्रदाय --- जंगम -- की स्थापना की| जंगम उपसंप्रदाय में शिखा, यज्ञोपवीत, शिवलिंग, व रुद्राक्ष धारण और भस्म लेपन को अनिवार्य मानते हैं|
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वीरशैव के अतिरिक्त अन्य भी अनेक महान शैव परम्पराएँ हैं| सब के दर्शन अति गहन हैं| सब में गहन आध्यात्मिकता है अतः उन पर इन मंचों पर चर्चा करना असंभव है| कौन सी परंपरा किस के अनुकूल है इसका निर्णय तो स्वयं सृष्टिकर्ता परमात्मा या उनकी शक्ति माँ भगवती ही कर सकती है| शैवाचार्यों के अनुसार सभी शैवागमों के आचार्य दुर्वासा ऋषि हैं| इति|
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ॐ स्वस्ति ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव शिव शिव शिव शिव !
कृपाशंकर
०६ जून २०१३

बलहीन को परमात्मा नहीं मिलते ......

बलहीन को परमात्मा नहीं मिलते ......
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भारत में आसुरी शक्तियों को पराभूत करने के लिए हमें साधना द्वारा दैवीय शक्तियों को जागृत कर उनकी सहायता लेनी ही होगी| आज हमें एक ब्रह्मशक्ति की आवश्यकता है| जब ब्रह्मत्व जागृत होगा तो क्षातृत्व भी जागृत होगा| अनेक लोगों को इसके लिए साधना करनी होगी, अन्यथा हम लुप्त हो जायेंगे|
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युवा वर्ग को चाहिए कि वे अपनी देह को तो शक्तिशाली बनाए ही, बुद्धिबल और विवेक को भी बढ़ाएँ|
उपनिषद तो स्पष्ट कहते हैं --- "नायमात्मा बलहीनेनलभ्यः|" यानी बलहीन को परमात्मा नहीं मिलते|

उपनिषदों का ही उपदेश है --- "अश्मा भव, पर्शुर्भव, हिरण्यमस्तृताम् भव|"
यानी तूँ पहिले तो चट्टान की तरह बन, चाहे कितने भी प्रवाह और प्रहार हों पर अडिग रह|
फिर तूँ परशु की तरह तीक्ष्ण हो, कोई तुझ पर गिरे वह भी कटे और तूँ जिस पर गिरे वह भी कटे|
पर तेरे में स्वर्ण की पवित्रता भी हो, तेरे में कोई खोट न हो|
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हमारे शास्त्रों में कहीं भी कमजोरी का उपदेश नहीं है|
हमारे तो आदर्श हनुमानजी हैं जिनमें अतुलित बल भी हैं और ज्ञानियों में अग्रगण्य भी हैं|
धनुर्धारी भगवान श्रीराम और सुदर्शनचक्रधारी भगवन श्रीकृष्ण हमारे आराध्य देव हैं|
हम शक्ति के उपासक हैं, हमारे हर देवी/देवता के हाथ में अस्त्र शस्त्र हैं|
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भारत का उत्थान होगा तो एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति से ही होगा जो हमें ही जागृत करनी होगी|
ॐ ॐ ॐ ||

जून ०६, २०१५

माता-पिता प्रत्यक्ष देवता हैं .......

माता-पिता प्रत्यक्ष देवता हैं .......
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एक बार भगवान शिव और माँ पार्वती ने अपने दोनों पुत्रों कार्तिकेय जी और गणेशजी के समक्ष ब्रह्मांड का चक्कर लगाने की प्रतियोगिता रखी कि दोनों में से कौन पहले ब्रह्मांड का चक्कर लगाता है| गणेश जी और कार्तिकेय जी दोनों एक साथ रवाना हुए| कार्तिकेय जी का वाहन था मोर जबकि गणेश जी का मूषक| कार्तिकेय जी क्षण भर में मोर पर बैठकर आँखों से ओझल हो गए जबकि गणेश जी अपनी सवारी पर धीरे-धीरे चलने लगे| थोड़ी देर में गणेशजी बापस लौट आए और माता-पिता से क्षमा माँगी और उनकी तीन बार परिक्रमा कर कहा कि लीजिए मैंने आपका काम कर दिया| दोनों गद्‍गद्‍ हो गए और पुत्र गणेश की बात से सहमत भी हुए| गणेश जी का कहना था ‍कि माता-पिता के चरणों में ही संपूर्ण ब्रह्मांड होता है|
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माता पिता दोनों ही प्रथम परमात्मा हैं| पिता ही शिव हैं और माँ जगन्माता है| माता पिता दोनों मिलकर शिव और शिवानी यानि अर्धनारीश्वर के रूप हैं| किसी भी परिस्थिति में उनका अपमान नहीं होना चाहिए| उनका सम्मान परमात्मा का सम्मान है| यदि उनका आचरण धर्म-विरुद्ध और सन्मार्ग में बाधक है तो भी वे पूजनीय हैं| ऐसी परिस्थिति में हम उनकी बात मानने को बाध्य नहीं हैं पर उन्हें अपमानित करने का अधिकार हमें नहीं है| हम उनका भूल से भी अपमान नहीं करें| उनका पूर्ण सम्मान करना हमारा परम धर्म है|
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श्रुति भी कहती है ..... मातृदेवो भव, पितृदेवो भव| माता पिता के समान गुरु नहीं होते| माता-पिता प्रत्यक्ष देवता हैं| यदि हम उनकी उपेक्षा करके अन्य किसी भी देवी देवता की उपासना करते हैं तो हमारी साधना सफल नहीं हो सकती| कोई भी ऐसा महान व्यक्ति आज तक नहीं हुआ जिसने अपने माता-पिता की सेवा नहीं की हो| श्री और श्रीपति, शिव और शक्ति .... वे ही इस स्थूल जगत में माता-पिता के रूप में प्रकट होते हैं| उनके अपमान से भयंकर पितृदोष लगता है| पितृदोष जिन को होता है, या तो उनका वंश नहीं चलता या उनके वंश में अच्छी आत्माएं जन्म नहीं लेती| पितृदोष से घर में सुख शांति नहीं होती और कलह बनी रहती है| आज के समय अधिकांश परिवार पितृदोष से दु:खी हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||