Sunday 11 June 2017

जो पाश द्वारा आबद्ध है वह पशु ही है ...

जो पाश द्वारा आबद्ध है वह पशु ही है .....
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जो पाश द्वारा आबद्ध है वह पशु ही है| जीवात्मा अर्थात क्षेत्र को ही पशु कहते हैं जो जन्म से नाना प्रकार के पाशों यानि बंधनों में बंधा रहता है| जब तक जीव सब प्रकार के पाशों यानि बंधनों से मुक्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त नहीं होता, वह पशु ही है|
शैवागम शास्त्रों के अनुसार पदार्थ के तीन भेद होते हैं .....पशु, पाश और पशुपति|
पशुपति सर्व समर्थ, नित्य, निर्गुण, सर्वव्यापी, स्वतंत्र, सर्वज्ञ, ऐश्वर्यस्वरुप, नित्यमुक्त, नित्यनिर्मल, अपार ज्ञान शक्ति के अधिकारी, क्रियाशक्तिसम्पन्न, परम दयावान शिव महेश्वर हैं| शिवस्वरूप परमात्मा ही पशुपति के नाम से जाने जाते हैं| सृष्टि, स्थिति, विनाश, तिरोधान और अनुग्रह इनके पांच कर्म हैं|
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शिष्य की देह में जो आध्यात्मिक चक्र हैं उन पर जन्म-जन्मान्तर के कर्मफल वज्रलेप की तरह चिपके हुए हैं| इस लिए जीव को शिव का बोध नहीं होता| गुरु अपने शिष्य के चित्त में प्रवेश कर के उस के अज्ञानमय आवरण को गला देते हैं| जब शिष्य के अंतर में दिव्य चेतना स्फुरित होती है तब वह साक्षात शिव भाव को प्राप्त होता है| गुरु की चैतन्य शक्ति के बिना यह संभव नहीं है| शिष्य चाहे कितना भी पतित हो, सद्गुरु उसे ढूंढ निकालते हैं| फिर चेला जब तक अपनी सही स्थिति में नहीं आता, गुरु को चैन नहीं मिलता है| इसी को दया कहते हैं| यही गुरु रूप में शिवकृपा है|
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शैवागम दर्शन के मूल वक्ता हैं स्वयं पशुपति भगवान शिव| इसके श्रोता थे ऋषि दुर्वासा| शैवागम दर्शन के आचार्य भी दुर्वाषा ऋषि ही हैं| शैव दर्शन की अनेक परम्पराएँ हैं जिनके प्रायः सभी ग्रन्थ नेपाल के राज दरबार में सुरक्षित थे| अब पता नहीं उनकी क्या स्थिति है| बिना राज्य के सहयोग के प्राचीन ग्रन्थों का संरक्षण अति कठिन है|
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भगवान शिव से प्रार्थना है की वे सब जीवों पर कृपा करें और अपना बोध सब को कराएँ|
शिवमस्तु ! ॐ तत्सत् ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
१० जून २०१३
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आदि शंकराचार्य विरचित शिव स्तव :--
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पशूनां पतिं पापनाशं परेशं
गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्।
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं
महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम्॥
महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं
विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्।
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं
सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्॥
गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं
गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्।
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं
भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्॥
शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले
महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन्।
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः
प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप॥
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं
निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥
न भूमिर्नं चापो न वह्निर्न वायु-
र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा।
न गृष्मो न शीतं न देशो न वेषो
न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे॥
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां
शिवं केवलं भासकं भासकानाम्।
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं
प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्॥
नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते।
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥
प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ
महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र।
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः॥
शंभो महेश करुणामय शूलपाणे
गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्।
काशीपते करुणया जगदेतदेक-
स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि॥
त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ।
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश
लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन्॥

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