Sunday 11 June 2017

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा .....

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा .....
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बिना परम प्रेम यानि बिना भक्ति के भगवान नहीं मिल सकते| अन्य सभी साधन भी तभी सफल होते हैं जब ह्रदय में भक्ति होती है| जीवन की हर कमी, विफलता, अभाव, दुःख और पीड़ा एक रिक्त स्थान है जिसकी भरपाई सिर्फ प्रभुप्रेम से ही हो सकती है| अपने समस्त अभाव, दुःख और पीड़ाएँ प्रभु को समर्पित कर दो| अपने प्रारब्ध और संचित कर्म भी उन्हें ही सौंप दो| हमारा स्वभाव प्रेम है जिसकी परिणिति आनंद है| कर्ता वे हैं, हम नहीं| सारे कर्म भी उन्हीं के हैं और कर्मफल भी उन्हीं के| साक्षी ही नहीं अपितु दृष्टी, दृष्टा और दृष्य भी वे ही हैं| इस मायावी दुःस्वप्न से जागो और अपने जीवत्व को परम शिवत्व में समर्पित कर दो| संसार में सुख की खोज ही सब दुःखों का कारण है| मनुष्य संसार में सुख ढूंढ़ता है पर निराशा ही हाथ लगती है| यह निराशा सदा दुःखदायी है|
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परमात्मा से अहैतुकी परम प्रेम, आनंददायी है| उस आनंद की एक झलक पाने के पश्चात ही संसार की असारता का बोध होता है| प्रभुप्रेमी की सबसे बड़ी सम्पत्ति, 'उनके' श्री-चरणों में आश्रय पाना है|
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जो योग-मार्ग के पथिक हैं उनके लिए सहस्त्रार ही गुरुचरण है| आज्ञाचक्र का भेदन और सहस्त्रार में स्थिति बिना गुरुकृपा के नहीं होती| जब चेतना उत्तरा-सुषुम्ना यानि आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य विचरण करने लगे तब समझ लेना चाहिए कि गुरु की कृपा हो रही है|
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जब स्वाभाविक और सहज रूप से सहस्त्रार में व उससे ऊपर की ज्योतिर्मय विराटता में ध्यान होने लगे तब समझ लेना चाहिए कि श्रीगुरुचरणों में अर्थात प्रभुचरणों में आश्रय प्राप्त हो रहा है| तब भूल से भी पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए| एक साधक योगी की चेतना वैसे भी अनाहत चक्र से ऊपर ही रहती है| सहस्त्रार व उससे ऊपर की स्थायी स्थिति "परमहंस" होने का लक्षण है|
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एकमात्र मार्ग है ..... परम प्रेम, परम प्रेम और परम प्रेम| इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है|
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा| बिना प्रेम के राम (परमात्मा) की प्राप्ति नहीं है चाहे कितना भी योग जप तप कर लिया जाये|
रामही केवल प्रेम पिआरा, जान लेहु जो जाननिहारा ||
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गुरु भी कोई हाड -मांस की देह नहीं होती| वह तो एक तत्व चेतना होती है| भगवन शिव ही गुरु रूप में आते हैं| उन्नत अवस्था में गुरु शिष्य में कोई भेद नहीं होता| योगियों के लिए कूटस्थ ही गुरु होता है| समाधी की उन्नत ब्राह्मी अवस्था में कूटस्थ में एक पञ्चकोणीय नक्षत्र के दर्शन होते हैं जो पंचमुखी महादेव हैं| वे ही सद्गुरु हैं| उस नक्षत्र का भेदन कर योगी स्वयं शिवस्वरुप हो जाता है|
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आज के परिप्रेक्ष्य में ब्राह्मण भी वही है जो निरंतर समष्टि के कल्याण की कामना करता है, जिसकी चेतना ऊर्ध्वगामी है, और जिसके ह्रदय में परमात्मा के प्रति कूट कूट कर प्रेम भरा है|
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ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
08June2016

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