Thursday, 9 February 2017

मानसिक आरती ..........

मानसिक आरती ..........
------------------
कई बार आप यात्रा में या घर से बाहर हों या किसी अन्य परिस्थितिवश अपने इष्ट देव की आरती उतारने में असमर्थ हों तो मानसिक रूप से निम्न प्रकार से आरती उतारें ......
.
बाह्यान्तर कुम्भक में यानि बलपूर्वक पूरी साँस बाहर निकाल कर, भ्रूमध्य में अपने इष्ट देव का ध्यान करें| जितनी देर साँस बाहर रख सकें उतनी देर तक रखें और हाथ जोडकर इष्टदेव को नमन करें| फिर साँस सामान्य रूप से चलने दें और परिस्थिति जितनी और जैसी अनुमति देती है वैसे ही भ्रूमध्य में पूर्ण श्रद्धा भक्ति से इष्टदेव का नमन और ध्यान करें| यह मानस पूजा है|
.
आत्मस्वरूप परमात्मा को सदा याद रखें|
.
ॐ गुरु! ॐ तत् सत् ! शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर

षटचक्रों में पञ्चदेव ध्यान और उपासना ............

षटचक्रों में पञ्चदेव ध्यान और उपासना ............
---------------------------------------------
(1) मूलाधार चक्र ..............ॐ गणेशाय नमः |
(2) स्वाधिष्ठान चक्र ............ॐ दुर्गाय नम: |
(3) मणिपुर चक्र ............... ॐ सूर्याय नम: |
(4) अनाहत चक्र ............... ॐ नारायणाय नमः |
(5) विशुद्धि चक्र .................ॐ शिवाय नमः |
जब यह अभ्यास सहज हो जाए तब
(6) आज्ञा चक्र में .................ॐ गुरवे नमः |
(7) सहस्त्रार में ...................ॐ परमात्मने नमः |
.
फिर आज्ञा चक्र और सहस्त्रार के मध्य में ओंकार रूप में श्रीगुरु चरणों का यथासंभव ध्यान करें|

गुरुचरणों पर ध्यान .......

गुरुचरणों पर ध्यान .......
---------------------
आज्ञाचक्र ही मेरा ह्रदय है| सहस्त्रार ही मेरे गुरु महाराज के चरण कमल हैं, जिनका ध्यान ही मेरे लिए गुरु चरणों में आश्रय है| सहस्त्रार से ऊपर की अनंतता और विस्तार ही मेरे लिए परमशिव परमब्रह्म सच्चिदानंदं परमात्मा है| वे ही मेरे सद्गुरु हैं जो सब नामरूपों से परे हैं| अनाहत नाद ही कूटस्थ अक्षर गुरु वाक्य है| कूटस्थ ज्योति ही उनका साकार रूप है| यही मेरी उपासना और साधना है| कूटस्थ चैतन्य ही मेरा जीवन है|
हे गुरु महाराज, कभी अपने ध्यान से विमुख मत करो| जीवन में, मृत्यु में, सदा मैं निरंतर आपका ही रहूँ| यह देह रहे या न रहे, पर मैं सदा आपका ही रहूँगा|
ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ ||
.
(कूटस्थ चैतन्य ........... साधक जब शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को बिना तनाव के नासिका मूल के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐकार से लिपटी दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करता है, तब उसके ध्यान में विद्युत् की आभा के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है| उस ब्रह्मज्योति और उसके साथ सुनाई देने वाले प्रणव नाद में लय होना 'कूटस्थ चैतन्य' है| वह ज्योति और नाद ही कूटस्थ ब्रह्म है|)
.

असत्ये तु वाग्दग्धा मंत्र सिद्धि कथं भवेत ? ....

असत्ये तु वाग्दग्धा मंत्र सिद्धि कथं भवेत ? ....
---------------------------------------------
कुछ दिनों पूर्व मैनें एक प्रस्तुति दी थी ... "हमें साधना में सफलता क्यों नहीं मिलती"? यह लेख उसी के आगे की एक कड़ी है|
.
अंग्रेजी राज्य में मध्य भारत के एक प्रसिद्ध अंगरेज़ न्यायाधीश ने जो अंग्रेज़ी सेना के उच्चाधिकारी भी रह चुके थे, अपनी स्मृतियों में लिखा है कि उनके सेवाकाल में उनके समक्ष सैकड़ों ऐसे मुक़दमें आये जहाँ अभियुक्त असत्य बोलकर बच सकते थे, उन्होंने सजा भुगतनी स्वीकार की पर असत्य नहीं बोला| किसी भी परिस्थिति में उन्होंने असत्य बोलना स्वीकार नहीं किया| ऐसे सत्यनिष्ठ होते थे भारत के अधिकाँश लोग|
.
'सत्य' सृष्टि का मूल तत्व है| वेदों में सत्य को ब्रह्म कहा गया है| तैत्तिरीय उपनिषद् में .... 'सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म' .... वाक्य द्वारा ब्रह्म के स्वरुप पर पर चर्चा हुई है| यहाँ सत्य की प्रधानता है| इसी उपनिषद् में आचार्य अपने शिष्यों को उपदेश देता है ..... सत्यं वद | धर्मं चर | स्वाध्यायान्मा प्रमदः | आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजानन्तुं मा व्यवच्छेसीः | सत्यान्न प्रमदितव्यम् | धर्मान्न प्रमदितव्यम् | कुशलान्न प्रमदितव्यम् | भूत्यै न प्रमदितव्यम् | स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् || .... यहाँ सर्वप्रथम उपदेश "सत्यं वद" है|
.
मुन्डकोपनिषद में ..... सत्यमेव जयति नानृत, सत्येन पन्था विततो देवयानः, येनाक्रममन्त्यृषयो ह्याप्तकामा, यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानाम् , ....अर्थात
सत्य (परमात्मा) की सदा जय हो, वही सदा विजयी होता है, असत् (माया) तात्कालिक है उसकी उपस्थिति भ्रम है, वह भासित सत्य है वास्तव में वह असत है अतः वह विजयी नहीं हो सकता. ईश्वरीय मार्ग सदा सत् से परिपूर्ण है. जिस मार्ग से पूर्ण काम ऋषि लोग गमन करते हैं वह सत्यस्वरूप परमात्मा का धाम है|
.
ऋषि पतंजलि के योग सूत्रों के पाँच यमों में सत्य भी है| पञ्च महाव्रतों में भी सत्य एक महाव्रत भी है|
.
"धरम न दूसर सत्य समाना।आगम निगम प्रसिद्ध पुराना" ||
सत्य के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है यह सभी आगम, निगम और पुराणों में प्रसिद्द है|
भगवान श्रीराम भरत जी से कहते है ....
राखेऊ राऊ,सत्य मोहिं त्यागी .... राजा दशरथ जी ने प्रभु श्रीराम को त्याग दिया, पर सत्य को नहीं|
राम चरित मानस में जहाँ भी झूठ यानि असत्य है वहाँ भगवान श्रीसीताराम जी नहीं हैं|
प्रमाण .....
झूठइ लेना झूठइ देना | झूठइ भोजन झूठ चबेना ||
इस चौपाई में "र" और "म" यानी " राम" नहीं हैं तथा "स" और "त" यानी "सीता" भी नहीं है| क्यों ? ..... क्योंकि जिसमें असत्य हो उसमें मेरे प्रभु श्रीसीताराम नहीं रह सकते|
.
असत्ये तु वाग्दग्धा मंत्र सिद्धि कथं भवेत ? ....... असत्य बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है| जैसे जला हुआ पदार्थ यज्ञ के काम का नहीँ होता है, वैसे ही जिसकी वाणी झूठ बोलती है, उससे कोई जप तप नहीं हो सकता| वह चाहे जितने मन्त्रों का जाप करे, कितना भी ध्यान करे, उसे फल कभी नहीं मिलेगा| दूसरों की निन्दा या चुगली करना भी वाणी का दोष है। जो व्यक्ति अपनी वाणी से किसी दूसरे की निन्दा या चुगली करता है वह कोई जप तप नहीं कर सकता|
निर्मल मन जन सो मोहिं पावा | मोहिं कपट छल छिद्र न भावा || ये भगवान श्रीराम के वचन हैं|
जहाँ पर सत्य है वहाँ अभिन्न रूप से श्रीसीताराम जी वास करते हैं| ....
गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न|
बंदऊँ सीताराम पद जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न ||
.
हे मेरे मुर्ख मन, अपने भीतर से असत्य को बाहर निकाल कर अपने हृदय के सिंहासन पर परमात्मा को बैठा, क्योंकि ..... 'नहीं असत्य सम पातक पुंजा'| यानि असत्य के सामान कोई पाप नहीं है|
"आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः" आचारहीन को वेद भी नहीं पवित्र कर सकते|
असत्यवादी कभी आत्मज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता| .
.
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

विदेशी संस्कृति क्यों और कैसे हावी हुई हमारे देश में ............

विदेशी संस्कृति क्यों और कैसे हावी हुई हमारे देश में ............
-----------------------------------------------------------
सन 1858 ई.में Indian Education Act बनाया गया जिसका प्रारूप लोर्ड मैकाले ने तैयार किया था| उससे पहले उसने भारत की शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कराया था| उससे पहले भी कई अंग्रेजों ने भारत की शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपनी रिपोर्ट दी थी| अंग्रेजों का एक अधिकारी था G.W.Litnar और दूसरा था Thomas Munro, दोनों ने अलग अलग इलाकों का अलग-अलग समय सर्वे किया था|
.
यह सन 1823 ई.के आसपास की बात है| Litnar , जिसने उत्तर भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा है कि यहाँ 97% साक्षरता है, और Munro, जिसने दक्षिण भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा कि यहाँ तो 100 % साक्षरता है| उस समय भारत में इतनी साक्षरता थी|
.
मैकाले का स्पष्ट कहना था कि भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी| तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब वे इस देश के विश्वविद्यालयों से निकलेंगे तो हमारे हित में काम करेंगे| मैकाले का कहना था कि जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले उसे पूरी तरह जोत दिया जाता है वैसे ही इस देश को बौद्धिक रूप से जोतना होगा और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी|
.
इसलिए उसने सबसे पहले '' गुरुकुलों को गैरकानूनी '' घोषित किया,
जब गुरुकुल गैरकानूनी हो गए तो उनको मिलने वाली सहायता जो समाज की तरफ से होती थी वह गैरकानूनी हो गयी|
.
फिर ''संस्कृत को गैरकानूनी घोषित'' किया गया|
अँगरेज़ अधिकारियों ने पूरे भारतवर्ष में घूम घूम कर सारे गुरुकुलों को नष्ट कर दिया, उनमे आग लगा दी गयी और उसमे पढ़ाने वाले ब्राह्मण गुरुओं को मारा-पीटा और उनका धन छीन कर जेल में डाला| ब्राह्मणों को इतना दरिद्र बना दिया कि वे अपने बच्चों को पढ़ाने में भी असमर्थ हो गए| उनके ग्रन्थ जला दिए गये| आज जो भी शास्त्र बचे हैं वे वे ही हैं जिनको ब्राह्मणों ने रट रट कर याद रखा था|
.
1850 तक इस देश में 7 लाख 32 हजार गुरुकुल हुआ करते थे और उस समय इस देश में गाँव थे 7 लाख 50 हजार| हर गाँव में औसतन एक गुरुकुल था| ये जो गुरुकुल होते थे वे सब के सब आज की भाषा में Higher Learning Institute हुआ करते थे उन सबमे 18 विषय पढाये जाते थे| ये गुरुकुल समाज के लोग मिल कर चलाते थे न कि राजा, महाराजा| इन गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी|
.
इस तरह से सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और फिर सिर्फ अंग्रेजी शिक्षा को ही कानूनी घोषित किया गया| कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया| उस समय इसे फ्री स्कूल कहा जाता था| इसी कानून के तहत भारत में कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गयी, बम्बई यूनिवर्सिटी बनाई गयी, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई गयी और ये तीनों गुलामी के ज़माने के यूनिवर्सिटियाँ आज भी इस देश में हैं|
.
मैकाले ने अपने पिता को एक पत्र लिखा था जो बहुत प्रसिद्ध पत्र है| उसमें उसने लिखा कि इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे| उन्हें अपने देश, अपनी संस्कृति, और अपनी परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा| उनको अपनी भाषा और अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे| जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी|
.
उस समय लिखी गयी उसकी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है| उस कानून की महिमा देखिये कि हमें अपनी भाषा भी बोलने में शर्म आती है| हम अंग्रेजी में इसलिए बोलते हैं कि इससे दूसरों पर रोब पड़ेगा| हम स्वयं ही इतने हीन हो गए हैं कि हमें अपनी भाषा बोलने में भी शर्म आ रही है, इससे दूसरों पर रोब क्या पड़ेगा? लोगों का तर्क है कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, जो गलत है| दुनिया में 204 देश हैं और अंग्रेजी सिर्फ 11 देशों में बोली, पढ़ी और समझी जाती है, फिर ये कैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा है? शब्दों के मामले में भी अंग्रेजी समृद्ध नहीं दरिद्र भाषा है|
.
इन अंग्रेजों की जो बाइबिल है वह भी अंग्रेजी में नहीं थी और इनके भगवान जीसस क्राइस्ट भी अंग्रेजी नहीं बोलते थे| जीसस क्राइस्ट की भाषा और बाइबिल की भाषा अरमेक थी| अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो हमारी बंगला भाषा से मिलती जुलती थी| समय के कालचक्र में वह भाषा विलुप्त हो गयी है| संयुक्त राष्ट संघ जो अमेरिका में है वहाँ की भाषा अंग्रेजी नहीं है, वहां का सारा काम फ्रेंच में होता है | जो समाज अपनी मातृभाषा से कट जाता है उसका कभी भला नहीं होता और यही मैकाले की रणनीति थी|
.
पर अब एक प्रबल आध्यात्मिक शक्ति भारत का उत्थान कर रही है| भारत फिर से उठ रहा है और परम वैभव के शिखर पर पहुँचेगा|


ओम् तत् सत् | शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं | ॐ ॐ ॐ||
कृपा शंकर

सम्पूर्ण ब्रह्मांड अपना घर है और समस्त सृष्टि अपना परिवार .....

सम्पूर्ण ब्रह्मांड अपना घर है और समस्त सृष्टि अपना परिवार .....
.
जब हम साँस लेते हैं तो सारी सृष्टि साँस लेती है| हमारा अस्तित्व ही समस्त सृष्टि का अस्तित्व है| हमारा केंद्र सर्वत्र है, परिधि कहीं भी नहीं| जिसका भी ऊर्ध्वमुखी भाव है, जिसमे भी परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम है व उसे पाने की अभीप्सा है वही धार्मिक है| सही अर्थों में वही एक सच्चा भारतीय है| ऐसे लोगो का समूह ही अखंड भारत है| ईश्वर ने यही भाव सम्पूर्ण सृष्टि में फैलाने के लिए भारतवर्ष को चुना है| अतः सनातन धर्म ही भारत है और भारत ही सनातन धर्म है| सनातन धर्म का विस्तार ही भारत का विस्तार है, और भारत का विस्तार ही सनातन धर्म का विस्तार है| भारत एक भू-खंड नहीं अपितु साक्षात माता है|
.
भारत माँ अपने द्विगुणित परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर विराजमान हो, यह हमारी आध्यात्मिक साधना है|
.
धर्म एक ऊर्ध्वमुखी भाव है जो हमें परमात्मा से संयुक्त करता है| "यथो अभ्युदय निःश्रेयस् सिद्धि स धर्म"| जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस् की सिद्धि हो वही धर्म है| धर्म की यह परिभाषा कणाद ऋषि ने वैशेषिकसूत्रः में की है जो हिंदू धर्म के षड्दर्शनों में से एक है| जिससे हमारा सम्पूर्ण सर्वोच्च विकास और सब तरह के दुःखों/कष्टों से मुक्ति हो वही धर्म है| यह धर्म की हिंदू परिभाषा है| यही वास्तविकता है|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

माया और भक्ति ....

माया और भक्ति ....
------------------
माया और भक्ति ये भगवान की दो शक्तियाँ हैं जो हम पर निरंतर अपना कार्य कर रही हैं| भक्ति हमें भगवान की ओर आकर्षित करती है, माया हमें भगवान से दूर करती है| यह प्रभु की एक लीला ही है| भक्ति परम प्रेम है, माया आवरण और विक्षेप है|
.
राग-द्वेष, अहंकार, हिंसा, संसार में सुखों की लालसा, वासनाएँ, प्रमाद, आलस्य, दीर्घसूत्रता आदि ये सब माया के ही अस्त्र हैं| आजकल लोगों में इतना अधिक मानसिक तनाव है जिससे तरह तरह की बीमारियाँ जैसे हृदयाघात, मधुमेह और अवसाद आदि हो रहे हैं| कितनी भी दवाइयाँ लो पर मानसिक तनाव के कारण उनका कुछ प्रभाव ही नहीं पड़ता| सब लोग कहते हैं तनाव मुक्त जीवन जीओ पर तनाव है कि दूर होता ही नहीं है| तनाव दूर करने के लिए लोग नशा करते हैं, नींद की गोलियाँ लेते हैं, पर तनाव फिर भी पीछा नहीं छोड़ता|
.
इसका सबसे बड़ा निदान है .... भगवान की भक्ति|
हम अपना हर कार्य भगवान की प्रसन्नता के लिए करें, धीरे धीरे भगवान को ही कर्ता बनाएँ और दुःख-सुख जो भी मिलता है उसे प्रसाद रूप में ग्रहण कर के संतुष्ट रहें| परमात्मा के प्रति जितना अधिक प्रेम हमारे हृदय में होगा, उसी अनुपात में उससे कई गुणा अधिक परमात्मा की कृपा हमारे ऊपर होगी|
सार की बात एक ही है कि सभी भवरोगों का एक ही उपचार है ....भगवान की भक्ति| फिर आगे के सब द्वार अपने आप ही खुलने लगते हैं, सारे दीप अपने आप ही जल उठते हैं|


ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कुण्डलिनी ........

कुण्डलिनी ........
-------------
मेरे ये शब्द प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध हैं अतः किसी को बुरा लगना भी स्वाभाविक है| कुछ बातों को समझाने के लिए प्रतीकों का सहारा लिया जाता है पर वे प्रतीक ही कालान्तर में रहस्यमय हो जाते हैं| फिर कोई कोई उन पर प्रकाश डालता है वह अपने शब्दों में आकर्षण लाने के लिए उसे और भी अधिक रहस्यमय बना देता है| ऐसा ही एक शब्द है ...'कुण्डलिनी'|
.
इस शब्द को इतना अधिक रहस्यमय बना दिया गया है जब कि इसमें कोई रहस्य है ही नहीं| इसे समझना बड़ा सरल है| कोई भी साधक जो नियमित ध्यान साधना करता है वह प्रत्यक्ष अनुभूति से इसे तुरंत समझ जाता है| बिना ध्यान साधना के सिर्फ बौद्धिकता से इस विषय को समझना असंभव है|
.
कुछ लोग अपनी मान्यताओं के विरुद्ध कोई बात सुनते ही भड़क जाते हैं और सीधे अभद्र भाषा का प्रयोग करने लगते हैं| ऐसा नहीं होना चाहिए| यह प्रस्तुति ऐसे लोगों के लिए नहीं है| मैं जो लिख रहा हूँ वह मेरा निजी अनुभव है| कोई क्या सोचता है यह उसकी अपनी समस्या है|
.
सर्वप्रथम तो मैं यहाँ यह कहना चाहता हूँ कि कुण्डलिनी कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं है| यह प्रकृति या मूल प्रकृति भी नहीं है| इसे सिर्फ एक "कुण्डलिनी महाशक्ति" नाम दिया गया है जो मात्र प्रतीकात्मक है| वास्तव में यह सब तरह की शक्तियों से परे बिखरी हुई प्राण ऊर्जा का घनीभूत होकर आरोहण यानि ऊर्ध्वगमन मात्र है| जैसे जैसे इस घनीभूत प्राण ऊर्जा का आरोहण यानि ऊर्ध्वगमन होता है, वैसे वैसे चेतना का और समझ का स्तर बढ़ता जाता है| यह साधक की चेतना को अज्ञान क्षेत्र से ज्ञान क्षेत्र और उससे भी परे परा क्षेत्र में ले जाती है|
.
हम कुण्डलिनी को अपने प्रयास मात्र से जागृत नहीं कर सकते, यह चेतना सिद्ध गुरु और परमात्मा के अनुग्रह से स्वयं जागृत होकर हमें ही जागृत करती है|
कुण्डलिनी से सम्बंधित सारी साधनाएँ शिष्य की पात्रता देखकर कोई श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु परमात्मा की इच्छा से कृपा कर के शिष्य को प्रदान करता है| किसी पुस्तक को पढ़कर या किसी से सुनकर इसकी साधना नहीं की जा सकती|
यह चेतना स्वयमेव प्रभुकृपा से ही जागृत होती है| 'क्रियायोग' व इस तरह की कुछ अन्य साधनाओं से चेतना ऊर्ध्वमुखी होती है|
.
जब गुरु की आज्ञा से कोई साधक भ्रूमध्य पर दृष्टी स्थिर कर आज्ञा चक्र पर ध्यान करता है तब सूक्ष्म देह की बहिर्मुखी शक्तियाँ अंतर्मुखी होकर मेरुदंड के नीचे मूलाधार चक्र में प्रकट होती हैं इसकी अनुभूति प्रत्येक साधक को होती है| उसे लगता है जैसे कोई पीछे से ठोकर मार रहा है| पर इसमें कोई घबराने की बात नहीं है| यह कुण्डलिनी जागरण का एक side effect है| मुख्य लक्ष्य तो भक्ति है| कुण्डलिनी जागरण कोई लक्ष्य नहीं है|
.
प्रभुकृपा से जैसे जैसे यह चेतना सुषुम्ना में ऊर्ध्वमुखी होकर ऊपर के चक्रों को पार करती है साधक की समझ भी विस्तृत होती जाती है| नीचे के तीन चक्रों को पार कर जब यह चेतना ह्रदय के पीछे अनाहत चक्र तक आती है तब विशुद्ध भक्ति जागृत होती है| जिनमें पूर्वजन्मों के अच्छे संस्कारों से विशुद्ध भक्ति है उनकी कुण्डलिनी पहिले से ही जागृत है|
.
मूलाधार से आज्ञाचक्र तक का क्षेत्र अज्ञान क्षेत्र है| आज्ञाचक्र से सहस्त्रार तक ज्ञान क्षेत्र है, और उससे आगे परा क्षेत्र है| इससे अधिक यहाँ इस पोस्ट में लिखना एक भटकाव होगा|
.
सार की बात यह है कि कुण्डलिनी जागरण कोई लक्ष्य नहीं है| हमारा लक्ष्य भक्ति द्वारा प्रभु की शरणागति और समर्पण है| जब यह कुण्डलिनी चेतना आज्ञा चक्र से ऊपर उठती है तब सिद्धियाँ भी प्राप्त होने लगती हैं जो साधक को परमात्मा से विमुख करती हैं| उस ओर ध्यान देना ही नहीं चाहिए| ध्येय ..... भक्ति द्वारा परमात्मा की शरणागति और समर्पण ही हैं अन्य कुछ भी नहीं|
.
ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||