असत्ये तु वाग्दग्धा मंत्र सिद्धि कथं भवेत ? ....
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कुछ दिनों पूर्व मैनें एक प्रस्तुति दी थी ... "हमें साधना में सफलता क्यों नहीं मिलती"? यह लेख उसी के आगे की एक कड़ी है|
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अंग्रेजी राज्य में मध्य भारत के एक प्रसिद्ध अंगरेज़ न्यायाधीश ने जो
अंग्रेज़ी सेना के उच्चाधिकारी भी रह चुके थे, अपनी स्मृतियों में लिखा है
कि उनके सेवाकाल में उनके समक्ष सैकड़ों ऐसे मुक़दमें आये जहाँ अभियुक्त
असत्य बोलकर बच सकते थे, उन्होंने सजा भुगतनी स्वीकार की पर असत्य नहीं
बोला| किसी भी परिस्थिति में उन्होंने असत्य बोलना स्वीकार नहीं किया| ऐसे
सत्यनिष्ठ होते थे भारत के अधिकाँश लोग|
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'सत्य' सृष्टि का मूल
तत्व है| वेदों में सत्य को ब्रह्म कहा गया है| तैत्तिरीय उपनिषद् में ....
'सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म' .... वाक्य द्वारा ब्रह्म के स्वरुप पर पर
चर्चा हुई है| यहाँ सत्य की प्रधानता है| इसी उपनिषद् में आचार्य अपने
शिष्यों को उपदेश देता है ..... सत्यं वद | धर्मं चर | स्वाध्यायान्मा
प्रमदः | आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजानन्तुं मा व्यवच्छेसीः | सत्यान्न
प्रमदितव्यम् | धर्मान्न प्रमदितव्यम् | कुशलान्न प्रमदितव्यम् | भूत्यै न
प्रमदितव्यम् | स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् || .... यहाँ
सर्वप्रथम उपदेश "सत्यं वद" है|
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मुन्डकोपनिषद में ..... सत्यमेव
जयति नानृत, सत्येन पन्था विततो देवयानः, येनाक्रममन्त्यृषयो ह्याप्तकामा,
यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानाम् , ....अर्थात
सत्य (परमात्मा) की सदा
जय हो, वही सदा विजयी होता है, असत् (माया) तात्कालिक है उसकी उपस्थिति
भ्रम है, वह भासित सत्य है वास्तव में वह असत है अतः वह विजयी नहीं हो
सकता. ईश्वरीय मार्ग सदा सत् से परिपूर्ण है. जिस मार्ग से पूर्ण काम ऋषि
लोग गमन करते हैं वह सत्यस्वरूप परमात्मा का धाम है|
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ऋषि पतंजलि के योग सूत्रों के पाँच यमों में सत्य भी है| पञ्च महाव्रतों में भी सत्य एक महाव्रत भी है|
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"धरम न दूसर सत्य समाना।आगम निगम प्रसिद्ध पुराना" ||
सत्य के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है यह सभी आगम, निगम और पुराणों में प्रसिद्द है|
भगवान श्रीराम भरत जी से कहते है ....
राखेऊ राऊ,सत्य मोहिं त्यागी .... राजा दशरथ जी ने प्रभु श्रीराम को त्याग दिया, पर सत्य को नहीं|
राम चरित मानस में जहाँ भी झूठ यानि असत्य है वहाँ भगवान श्रीसीताराम जी नहीं हैं|
प्रमाण .....
झूठइ लेना झूठइ देना | झूठइ भोजन झूठ चबेना ||
इस चौपाई में "र" और "म" यानी " राम" नहीं हैं तथा "स" और "त" यानी "सीता"
भी नहीं है| क्यों ? ..... क्योंकि जिसमें असत्य हो उसमें मेरे प्रभु
श्रीसीताराम नहीं रह सकते|
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असत्ये तु वाग्दग्धा मंत्र सिद्धि कथं
भवेत ? ....... असत्य बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है| जैसे जला हुआ पदार्थ
यज्ञ के काम का नहीँ होता है, वैसे ही जिसकी वाणी झूठ बोलती है, उससे कोई
जप तप नहीं हो सकता| वह चाहे जितने मन्त्रों का जाप करे, कितना भी ध्यान
करे, उसे फल कभी नहीं मिलेगा| दूसरों की निन्दा या चुगली करना भी वाणी का
दोष है। जो व्यक्ति अपनी वाणी से किसी दूसरे की निन्दा या चुगली करता है वह
कोई जप तप नहीं कर सकता|
निर्मल मन जन सो मोहिं पावा | मोहिं कपट छल छिद्र न भावा || ये भगवान श्रीराम के वचन हैं|
जहाँ पर सत्य है वहाँ अभिन्न रूप से श्रीसीताराम जी वास करते हैं| ....
गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न|
बंदऊँ सीताराम पद जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न ||
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हे मेरे मुर्ख मन, अपने भीतर से असत्य को बाहर निकाल कर अपने हृदय के
सिंहासन पर परमात्मा को बैठा, क्योंकि ..... 'नहीं असत्य सम पातक पुंजा'|
यानि असत्य के सामान कोई पाप नहीं है|
"आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः" आचारहीन को वेद भी नहीं पवित्र कर सकते|
असत्यवादी कभी आत्मज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता| .
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||