Wednesday, 4 December 2024

समर्पण ---

 समर्पण ---

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भगवान का आकर्षण बड़ा प्रबल है, जो किसी के रोके रुक नहीं सकता। मेरे जीवन के साधना पक्ष में कुछ भी छिपा हुआ नहीं है। पूर्व जन्म की एक स्मृति है। पूर्व जन्म के उतरार्ध अंतिम काल में एक विदेशी धरती पर एक हिन्दू सन्यासी का परमप्रेममय प्रवचन सुना और प्रभावित होकर उनसे दीक्षा ली। फिर अपने अवशिष्ट कर्मफलों को भोगने के लिए यह जन्म मिला। इस जन्म में लगभग ३२ वर्ष की आयु में बड़े ही चमत्कारिक और अलौकिक ढंग से वह स्मृति जागृत हुई और मैंने उनका अनुसरण आरंभ कर दिया। अनेक बार जीवन में कई चमत्कार और अलौकिक घटनाएँ हुईं, जो व्यक्तिगत हैं।
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भगवान जितना और जैसे भी इस जीवन को चला रहे हैं, उससे मुझे कोई शिकायत नहीं है। उनका जीवन है, वे इसे कैसे भी जीयें। अभीप्सा और तड़प है उन्हें पाने की, जिसे हर कोई नहीं समझ सकता। उनकी ओर से एक सकारात्मक आश्वासन है, वही मेरे जीवन का सबसे बड़ा और एकमात्र धन है। वे पूर्व जन्म के गुरु ही इस जन्म में भी मेरे मार्गदर्शक गुरु हैं। उनको कभी देखा नहीं लेकिन वे हर समय मेरे साथ हैं। जैसे भी वे चाहेंगे, उसी तरह यह वाहन चलता रहेगा।
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क्रियायोग, और कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान ही मेरी उपासना है। जो पुरुषोत्तम हैं, वे ही परमशिव हैं, वे ही श्रीहरिः हैं, और वे ही परमब्रह्म परमात्मा हैं। भगवान कहीं दूर नहीं है। जहां भी मैं हूँ, वहीं भगवान हैं, और दूसरे शब्दों में जहां भी भगवान हैं, वहीं मैं हूँ। अब तो सब कुछ भगवान को समर्पित कर दिया है। जैसा वे चाहें वैसा ही करें। मेरी कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं है। जैसी उनकी इच्छा है वैसी ही मेरी इच्छा है। अब मैं और मेरा कुछ नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ दिसंबर २०२२

अपने सपनों का भारत बनायेंगे ---

अपने सपनों का भारत बनायेंगे ---

किसी से कोई आशा या अपेक्षा नहीं है, ये सदा दुःखदायी होती है। किसी भी राजनीतिक दल, या सामाजिक संगठन से कोई उम्मीद नहीं है कि वे सनातन धर्म के उत्थान और रक्षा के लिए कुछ करेंगे।
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बड़ी बड़ी ज्ञान की बातों में अब कोई रस नहीं आता। इन तिलों में तेल नहीं है। प्रत्यक्ष साक्षात्कार से कम कुछ भी अभीप्सित नहीं है। उन के बिना अब और नहीं रह सकते।
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भगवान से ही सहायता लेंगे। उनकी कृपा और अनुग्रह से ही सनातन धर्म की पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण होगा। भारत माँ अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर बिराजमान होंगी। असत्य का अंधकार भी उन्हीं के अनुग्रह से पराभूत होगा। तब तक हम सब सनातन धर्मावलम्बी हिन्दू, भगवान की उपासना और प्रार्थना करेंगे।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
५ दिसंबर २०२२

भगवान की भक्ति निःशुल्क (Free) नहीं है, उसकी कीमत चुकानी पड़ती है ---

 भगवान की भक्ति निःशुल्क (Free) नहीं है, उसकी कीमत चुकानी पड़ती है ---

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(यह लेख मेरे इस जीवन भर की कमाई का सार है). इस सृष्टि में कुछ भी निःशुल्क (free) नहीं है। हर चीज का शुल्क देना पड़ता है। भगवान की भक्ति के लिए हमें अपना परमप्रेम (भक्ति), व अपना अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) भगवान को समर्पित करना पड़ता है; तभी हम भक्ति कर सकते हैं।
गीता में भगवान कहते हैं --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥१८:६६॥"
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भगवान तो मुझे कभी के मिल गए हैं, लेकिन उनकी उपस्थिती का आनंद नहीं ले पाया, इसका एकमात्र कारण शास्त्रों व गुरु के आदेश की उपेक्षा है। पिछले अनेक जन्मों से गुरु महाराज ने हर जन्म में आदेश दिया है कि मेरी साधना -- तेल-धारा के समान अनवरत अखंड हो। तेल को एक पात्र से जब दूसरे पात्र में डालते हैं तब उसकी धार अखंड रहती है, बीच बीच में टूटती नहीं है। वैसी ही हमारी उपासना होनी चाहिए। मेरे साथ यही कमी रही, अन्य कोई कमी नहीं है। इस कमी को इसी जन्म में दूर करूंगा। यह पाठ मुझे हर जन्म में पढ़ाया गया है, इसका पालन नहीं किया इसलिए बार बार जन्म लेना पड़ रहा है। यह दुष्चक्र अब टूटना ही चाहिए।
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मेरे इस शरीर रूपी वाहन का आज्ञाचक्र ही मेरा आध्यात्मिक-हृदय है। आज्ञाचक्र के एकदम सामने भ्रूमध्य होता है, जहाँ गुरु की आज्ञा से ध्यान करते हैं। वहाँ ध्यान करते करते गुरुकृपा से एक न एक दिन एक दिव्य ज्योति के दर्शन होने लगते हैं और अनाहत नाद की ध्वनि सुनाई देने लगती है। वह दिव्य ज्योति और नाद ही कूटस्थ है, और उसमें निरंतर स्थिति कूटस्थ-चैतन्य है।
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भक्ति के बिना कोई उपासना हो ही नहीं सकती। भक्ति से ही ज्ञान और वैराग्य का प्राकट्य होता है। हमारी चेतना में भगवान की निरंतर उपस्थिती बनी रहे, और हमारा अन्तःकरण भगवान को समर्पित हो, यही उपासना का उद्देश्य है। भगवान हमारे से हमारा प्रेम ही माँगते हैं। प्रेम के अतिरिक्त हमारे पास है ही क्या? सब कुछ तो उन्हीं का दिया हुआ है।
भगवान कहते हैं ---
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२:४॥"
भावार्थ :-- जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं, इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥
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आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में 'उपासना' को 'तैलधारा' के समान बताया है। उपासना का शाब्दिक अर्थ है -- समीप बैठना। हमें अपनी चेतना में सदा भगवान के समक्ष ही बैठना चाहिए।
शंकर भाष्य के अनुसार -- "उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बनाकर, उसके समीप पहुँचकर, तैलधारा के सदृश समान वृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थिर रहने को उपासना कहते हैं।"
यहाँ उन्होंने "तैलधारा" शब्द का प्रयोग किया है जो अति महत्वपूर्ण है|
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तैलधारा के सदृश समानवृत्तियों का प्रवाह क्या हो सकता है? पहले इस पर विचार करना होगा। योगियों के अनुसार ध्यान साधना में जब प्रणव यानि अनाहत नाद की ध्वनी सुनाई देती है तब वह तैलधारा के सदृश अखंड होती है। प्रयोग के लिए एक बर्तन में तेल लेकर उसे दुसरे बर्तन में डालिए। जिस तरह बिना खंडित हुए उसकी धार गिरती है, वैसे ही अनाहत नाद यानि प्रणव की ध्वनी सुनाई देती है। प्रणव को परमात्मा का वाचक यानि प्रतीक कहा गया है। यह प्रणव ही कूटस्थ अक्षर ब्रह्म है।
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चित्तवृत्ति क्या है? मेरे समझ से हमारी इंद्रिय सुखों की वासनायें यानि हमारी भोग-विलास की सूक्ष्म आकांक्षाएँ ही हमारे चित्त की वृत्तियाँ हैं। समानवृत्ति का अर्थ जो मुझे समझ में आता है, वह -- श्वास-प्रश्वास और वासनाओं की चेतना से ऊपर उठना है। चित्त स्वयं को श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है। अतः समानवृत्ति शब्द का यही अर्थ हो सकता है।
मेरी सीमित अल्प बुद्धि के अनुसार "उपासना" का अर्थ -- हर प्रकार की चेतना से ऊपर उठकर ओंकार यानि अनाहत नाद की ध्वनी को सुनते हुए उसी में लय हो जाना है। मेरी दृष्टी में यह ओंकार ही गुरु रूप ब्रह्म है।
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उपासना का उद्देश्य उपास्य के साथ एकाकार होना है। व्यवहारिक रूप से किस व्यक्ति में कौन सा गुण प्रधान है, उस से वैसी ही उपासना होगी। मनुष्य जैसा चिंतन करता है वैसी ही उपासना करता है।
तमोगुण की प्रधानता अधिक होने पर मनुष्य परस्त्री/परपुरुष व पराये धन की उपासना करता है जो उसके और भी अधिक पतन का कारण बनती है। चिंतन चाहे परमात्मा का हो या परस्त्री/पुरुष या पराये धन का, होता तो उपासना ही है।
रजोगुण प्रधान व्यक्ति सांसारिक उपलब्धियों की उपासना करता है।
सतोगुण प्रधान व्यक्ति परमात्मा के विभिन्न रूपों की उपासना करता है।
अंततः हमें इन तीनों गुणों से भी ऊपर उठना पड़ता है। भगवान हमें निःस्त्रेगुण्य, नित्यसत्वस्थ, निर्योगक्षेम और आत्मवान होने का आदेश देते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
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भक्तिसूत्रों के अनुसार उपासक को सर्वदा सत्संग करना चाहिए और किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग करना चाहिए क्योंकि संगति का असर पड़े बिना रहता नहीं है।
मनुष्य जैसे व्यक्ति का चिंतन करता है वैसा ही बन जाता है। महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य तथा अमोध है (महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च), लेकिन किसी भी परिस्थिति में हमें कुसंग का त्याग करना चाहिए (दुस्सङ्गः सर्वथैव त्याज्यः)। कुसंग -- काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवा सर्वनाश का कारण है (कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशकारणत्वात्)।
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जो पतनोन्मुख है, और जो गलत लोगों का संग करता है, उसका साथ छोड़ देना चाहिए, चाहे वह स्वयं का गुरु ही क्यों ना हो। कुसंग सर्वदा त्याज्य है।
योगसूत्रों में एक सूत्र आता है -- "वीतराग विषयं वा चित्तः", इस पर गंभीरता से विचार करें। किसी वीतराग व्यक्ति का निरंतर चिंतन हमारे चित्त को भी वीतराग (राग-द्वेष-अहंकार से परे) बना देता है।
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नर्क की अग्नि से भी भयावह वासना की अग्नि है। इस से बच कर ही रहना चाहिए। इसकी कल्पना भी नर्क की अग्नि में गिरा देती है। अज्ञानग्रंथि (आज्ञाचक्र) का भेदन कर अपने परम शिवत्व को व्यक्त करना ही उपासना का लक्ष्य है। जब ह्रदय में परमप्रेम उदित होता है तब भगवान किसी गुरु के माध्यम से मार्गदर्शन देते हैं। हमें भगवान को ही इस देहरूपी नौका का कर्णधार बनाना चाहिए। गीता और सारे उपनिषद ओंकार की महिमा से भरे पड़े हैं। अतः कूटस्थ अक्षरब्रह्म का ध्यान में तैलधारा के सदृश निरंतर श्रवण, और कूटस्थ ब्रह्मज्योति का निरंतर दर्शन ही उपासना है। यह कूटस्थ ही गुरुरूप ब्रह्म है, और यह कूटस्थ ही हम स्वयं हैं।
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भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति, इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड और इस समस्त सृष्टि के रूप में मैं स्वयं को नमन करता हूँ। मैं मेरे अविछिन्न रूप में मेरे प्रभु के साथ एक हूँ।
ॐ गुरुभ्यो नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ दिसंबर २०२३

परमात्मा से कुछ मांगने या लेने की नहीं, परमात्मा को ही अपना सर्वस्व देने की भावना रखो ---

 परमात्मा से कुछ मांगने या लेने की नहीं, परमात्मा को ही अपना सर्वस्व देने की भावना रखो

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मांगने का काम मंगते-भिखारियों का होता है। हम कोई मंगते-भिखारी नहीं, परमात्मा के अमृतपुत्र हैं। कहने को तो भगवान हमारे प्रेम के भूखे हैं, लेकिन भगवान को सबसे अधिक प्रिय है हमारा अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार)। जहां तक मेरा अनुभव है, भगवान एक छोटे बच्चे की तरह और बहुत अधिक हठी और जिद्दी हैं। उन्हें देखकर हृदय का सारा प्यार उमड़ आता है। क्या करें? हमारा स्वभाव ही ऐसा है। अन्य कुछ प्रेम करने योग्य है ही नहीं। उन्हें देखकर हम स्वयं प्रेममय हो जाते हैं, फिर वे ही वे रहते हैं, हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता।
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भगवान की बस एक ही कमी है कि वे हमारा शत-प्रतिशत (१००%) प्रेम ही स्वीकार करते हैं; हमारा ९९.९९% प्रेम भी उन्हें स्वीकार नहीं है। शत-प्रतिशत से कम उन्हें कुछ चाहिए भी नहीं। जैसे एक छोटे बच्चे को प्रेम करते हैं, वैसे ही उन्हें भी प्रेम करना पड़ता है। तभी वे मानते हैं, और प्रसन्न होते हैं; अन्यथा नहीं।
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इसके लिए सबसे पहिले तो सारे संकल्प-विकल्पों का त्याग करें। यह बात कर्मकांड के नियमों के विरुद्ध है, लेकिन भगवान की भक्ति में सब संकल्पों का त्याग करना ही पड़ता है। दूसरी बात -- सब इंद्रीय सुखों से भी ऊपर उठना पड़ता है। क्योंकि अंधकार और प्रकाश एक साथ नहीं रह सकते। अब सबसे अधिक कठिन बात है -- सुख-दुःख तथा मान-अपमान में भी निर्विकार रहना होगा। यह सबसे अधिक कठिन काम है। कूटस्थ-चैतन्य में रहने का अभ्यास करते करते ही हम स्वयं वीतराग व स्थितप्रज्ञ हो सकते हैं। तभी हमें ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त होती है, और हम ब्रह्ममय हो सकते हैं। यह ब्रह्ममय होना ही भगवत्-प्राप्ति है; और यही ईश्वर का साक्षात्कार (Self-Realization) है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने समत्व पर बहुत अधिक ज़ोर दिया है। यह एक अनुभव का विषय है जो अपने आप ही होता है, अतः इस पर चर्चा नहीं करेंगे। यह एक प्रसाद है, जो भगवान से ही प्राप्त होता है। अब सबसे बड़ी साधना की बात करते हैं।
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सब लोग मेरे पर आरोप लगाते हैं कि मैं फेंकता बहुत हूँ और बड़ी-बड़ी बातें करता हूँ। यह सत्य है, लेकिन मैं कर्ता नहीं हूँ। एकमात्र कर्ता भगवान स्वयं हैं, मैं तो एक निमित्त मात्र हूँ। फेंकने का और बड़ी-बड़ी बातें करने का अधिकार केवल परमात्मा को है, हमारा काम उनको सुनना और उनका अनुसरण करना मात्र है।
भगवान हमें आशा और परिग्रह से मुक्त होकर निरन्तर मन को आत्मा में स्थिर करने की बात कहते हैं --
"योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥६:१०॥"
"प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥६:१४॥"
"युञ्जन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥६:१५॥"
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६:२२॥"
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥६:२५॥"
"यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
"युञ्जन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥६:२८॥"
"सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६:२९॥"
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
"सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥६:३१॥"
अर्थात् --
शरीर और मन को संयमित किया हुआ योगी एकान्त स्थान पर अकेला रहता हुआ आशा और परिग्रह से मुक्त होकर निरन्तर मन को आत्मा में स्थिर करे॥
(साधक को) प्रशान्त अन्त:करण, निर्भय और ब्रह्मचर्य ब्रत में स्थित होकर, मन को संयमित करके चित्त को मुझमें लगाकर मुझे ही परम लक्ष्य समझकर बैठना चाहिए॥
योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है॥
इस प्रकार सदा मन को स्थिर करने का प्रयास करता हुआ संयमित मन का योगी मुझ में स्थित परम निर्वाण (मोक्ष) स्वरूप शांति को प्राप्त होता है॥
जिस लाभ की प्राप्ति होने पर उस से अधिक कोई दूसरा लाभ उसके मानने में भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दु:ख से भी विचलित नहीं होता है॥
शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥
यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे॥
इस प्रकार मन को सदा आत्मा में स्थिर करने का योग करने वाला पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मसंस्पर्श का परम सुख प्राप्त करता है॥
जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझ से वियुक्त नहीं होता॥
जो पुरुष एकत्वभाव में स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में स्थित मुझे भजता है, वह योगी सब प्रकार से वर्तता हुआ (रहता हुआ) मुझमें स्थित रहता है॥
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आगे जाकर भगवान और भी कहते है ---
"य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिम् मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥१८:६८॥"
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिंमे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥१८"६९॥"
"अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥१८:७०॥"
"श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥१८:७१॥"
अर्थात् --
जो पुरुष मुझसे परम प्रेम (परा भक्ति) करके इस परम गुह्य ज्ञान का उपदेश मेरे भक्तों को देता है, वह नि:सन्देह मुझे ही प्राप्त होता है॥
न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर दूसरा कोई होगा॥
जो पुरुष, हम दोनों के इस धर्ममय संवाद का पठन करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा - ऐसा मेरा मत है॥
श्रद्धावान् और दोषदृष्टि से रहित जो मनुष्य इस गीता-ग्रन्थ को सुन भी लेगा, वह भी सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर पुण्यकारियों के शुभ लोकों को प्राप्त हो जायेगा॥
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१८वें अध्याय के उपरोक्त चार श्लोकों में जो बात कही गई है वही मुझे बार यहाँ ले आती है। हे प्रभु, मैं तुम्हारा हूँ। मेरा सर्वस्व स्वीकार करो। मैं नहीं, मेरा नहीं, सब कुछ तुम हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० नवंबर २०२४

जिनकी रुचि ब्रह्मविद्या, वेदान्त और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की है ---

 जिनकी रुचि ब्रह्मविद्या, वेदान्त और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की है वे उपनिषदों व भगवद्गीता का स्वाध्याय, और ध्यान-साधना का आरंभ किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय विद्वान आचार्य के मार्गदर्शन में आरंभ कर दें। फेसबुक पर किसी को ब्रह्मज्ञान नहीं मिल सकता।

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ध्यान-साधना और ब्रह्मविद्या एक-दूसरे के पूरक हैं। उपनिषदों के स्वाध्याय का आरंभ ईशावास्योपनिषद से होता है। यह आचार्य के विवेक पर निर्भर है कि आगे का क्रम क्या हो। साथ-साथ ध्यान भी सीखना और करना होगा। ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध आचार्य गुरु की अनुकंपा का होना अनिवार्य है।
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केवल पुस्तकों के स्वाध्याय से कुछ नहीं होगा​। मैंने रमण महर्षि, स्वामी विवेकानंद और स्वामी रामतीर्थ के सम्पूर्ण साहित्य का बहुत ध्यान से स्वाध्याय किया है। वेदान्त पर जितना भी साहित्य बाजार में आसानी से मिल सकता था, वह सब खरीद कर अध्ययन किया है। इससे पूर्व रामचरितमानस और सम्पूर्ण महाभारत का अध्ययन किया था। गीता को समझने के लिए तीन तीन प्रसिद्ध भाष्य साथ में रखकर पढ़ता था --- शंकर भाष्य, स्वामी चिन्मयानंद का भाष्य, और श्री भूपेन्द्रनाथ सान्याल का लिखा भाष्य। (ये तीनों ही अद्भुत हैं)
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लेकिन तत्व की बात तभी समझ में आई जब मैंने श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय की परंपरा में दीक्षा लेकर क्रियायोग व अन्य संबन्धित ध्यान साधनाओं का अभ्यास करना आरंभ किया। अब भी ध्यान साधना करता हूँ, क्योंकि भगवान की भक्ति, गीता का स्वाध्याय, शिवपूजा, और परमशिव का ध्यान मेरा स्वभाव और जीवन है। अब और कुछ भी पढ़ने की इच्छा नहीं है। बाकी बचा जीवन ध्यान साधना में ही बीत जायेगा।
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आप सब योगानंदमय परमशिवस्वरूप सर्वव्यापी महान आत्माओं को नमन॥
आत्मस्वरूप जो आप हैं वह ही मैं हूँ। आप को किया हुआ नमन मुझे स्वयं को भी नमन है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ दिसंबर २०२४

अपनी चेतना के उच्चतम बिन्दु पर रहें ---

अपनी चेतना के उच्चतम बिन्दु पर रहें। वहीं से नीचे उतर कर इस भौतिक देह के माध्यम से साधना करें, और पुनश्च: उच्चतम पर लौट जायें। उच्चतम पर ही परमशिव पुरुषोत्तम की अनुभूति होती है।

यह मनुष्य देह भगवान द्वारा दिया हुआ एक साधन है जिसे स्वस्थ रखें, क्योंकि इसी के माध्यम से हम आत्म-साक्षात्कार कर सकते हैं। शब्दजाल में न फँसें। अपनी अनुभूति स्वयं करें। कोई अन्य नहीं है। 
मैं समस्त दैवीय शक्तियों, सप्त चिरंजीवियों, सिद्ध योगियों और तपस्वी महात्माओं का आवाहन और प्रार्थना करता हूँ कि उनके आध्यात्म-बल से भारत में एक ब्रह्मशक्ति का तुरंत प्राकट्य हो। भारत के सभी आंतरिक और बाह्य शत्रुओं का नाश हो। समय आ गया है -- "इस राष्ट्र भारत में धर्म की पुनःस्थापना और वैश्वीकरण हो।"

समय बहुत कम है। सर्वदा कूटस्थ चैतन्य/ब्राह्मीस्थिति में रहें। हर साँस के साथ अजपाजप, व कूटस्थ में प्रणव का निरंतर मानसिक जप हो। कृपा शंकर ४ दिसंबर २०२४