Wednesday, 4 December 2024

परमात्मा से कुछ मांगने या लेने की नहीं, परमात्मा को ही अपना सर्वस्व देने की भावना रखो ---

 परमात्मा से कुछ मांगने या लेने की नहीं, परमात्मा को ही अपना सर्वस्व देने की भावना रखो

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मांगने का काम मंगते-भिखारियों का होता है। हम कोई मंगते-भिखारी नहीं, परमात्मा के अमृतपुत्र हैं। कहने को तो भगवान हमारे प्रेम के भूखे हैं, लेकिन भगवान को सबसे अधिक प्रिय है हमारा अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार)। जहां तक मेरा अनुभव है, भगवान एक छोटे बच्चे की तरह और बहुत अधिक हठी और जिद्दी हैं। उन्हें देखकर हृदय का सारा प्यार उमड़ आता है। क्या करें? हमारा स्वभाव ही ऐसा है। अन्य कुछ प्रेम करने योग्य है ही नहीं। उन्हें देखकर हम स्वयं प्रेममय हो जाते हैं, फिर वे ही वे रहते हैं, हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता।
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भगवान की बस एक ही कमी है कि वे हमारा शत-प्रतिशत (१००%) प्रेम ही स्वीकार करते हैं; हमारा ९९.९९% प्रेम भी उन्हें स्वीकार नहीं है। शत-प्रतिशत से कम उन्हें कुछ चाहिए भी नहीं। जैसे एक छोटे बच्चे को प्रेम करते हैं, वैसे ही उन्हें भी प्रेम करना पड़ता है। तभी वे मानते हैं, और प्रसन्न होते हैं; अन्यथा नहीं।
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इसके लिए सबसे पहिले तो सारे संकल्प-विकल्पों का त्याग करें। यह बात कर्मकांड के नियमों के विरुद्ध है, लेकिन भगवान की भक्ति में सब संकल्पों का त्याग करना ही पड़ता है। दूसरी बात -- सब इंद्रीय सुखों से भी ऊपर उठना पड़ता है। क्योंकि अंधकार और प्रकाश एक साथ नहीं रह सकते। अब सबसे अधिक कठिन बात है -- सुख-दुःख तथा मान-अपमान में भी निर्विकार रहना होगा। यह सबसे अधिक कठिन काम है। कूटस्थ-चैतन्य में रहने का अभ्यास करते करते ही हम स्वयं वीतराग व स्थितप्रज्ञ हो सकते हैं। तभी हमें ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त होती है, और हम ब्रह्ममय हो सकते हैं। यह ब्रह्ममय होना ही भगवत्-प्राप्ति है; और यही ईश्वर का साक्षात्कार (Self-Realization) है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने समत्व पर बहुत अधिक ज़ोर दिया है। यह एक अनुभव का विषय है जो अपने आप ही होता है, अतः इस पर चर्चा नहीं करेंगे। यह एक प्रसाद है, जो भगवान से ही प्राप्त होता है। अब सबसे बड़ी साधना की बात करते हैं।
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सब लोग मेरे पर आरोप लगाते हैं कि मैं फेंकता बहुत हूँ और बड़ी-बड़ी बातें करता हूँ। यह सत्य है, लेकिन मैं कर्ता नहीं हूँ। एकमात्र कर्ता भगवान स्वयं हैं, मैं तो एक निमित्त मात्र हूँ। फेंकने का और बड़ी-बड़ी बातें करने का अधिकार केवल परमात्मा को है, हमारा काम उनको सुनना और उनका अनुसरण करना मात्र है।
भगवान हमें आशा और परिग्रह से मुक्त होकर निरन्तर मन को आत्मा में स्थिर करने की बात कहते हैं --
"योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥६:१०॥"
"प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥६:१४॥"
"युञ्जन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥६:१५॥"
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६:२२॥"
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥६:२५॥"
"यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
"युञ्जन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥६:२८॥"
"सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६:२९॥"
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
"सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥६:३१॥"
अर्थात् --
शरीर और मन को संयमित किया हुआ योगी एकान्त स्थान पर अकेला रहता हुआ आशा और परिग्रह से मुक्त होकर निरन्तर मन को आत्मा में स्थिर करे॥
(साधक को) प्रशान्त अन्त:करण, निर्भय और ब्रह्मचर्य ब्रत में स्थित होकर, मन को संयमित करके चित्त को मुझमें लगाकर मुझे ही परम लक्ष्य समझकर बैठना चाहिए॥
योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है॥
इस प्रकार सदा मन को स्थिर करने का प्रयास करता हुआ संयमित मन का योगी मुझ में स्थित परम निर्वाण (मोक्ष) स्वरूप शांति को प्राप्त होता है॥
जिस लाभ की प्राप्ति होने पर उस से अधिक कोई दूसरा लाभ उसके मानने में भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दु:ख से भी विचलित नहीं होता है॥
शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥
यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे॥
इस प्रकार मन को सदा आत्मा में स्थिर करने का योग करने वाला पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मसंस्पर्श का परम सुख प्राप्त करता है॥
जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझ से वियुक्त नहीं होता॥
जो पुरुष एकत्वभाव में स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में स्थित मुझे भजता है, वह योगी सब प्रकार से वर्तता हुआ (रहता हुआ) मुझमें स्थित रहता है॥
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आगे जाकर भगवान और भी कहते है ---
"य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिम् मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥१८:६८॥"
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिंमे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥१८"६९॥"
"अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥१८:७०॥"
"श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥१८:७१॥"
अर्थात् --
जो पुरुष मुझसे परम प्रेम (परा भक्ति) करके इस परम गुह्य ज्ञान का उपदेश मेरे भक्तों को देता है, वह नि:सन्देह मुझे ही प्राप्त होता है॥
न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर दूसरा कोई होगा॥
जो पुरुष, हम दोनों के इस धर्ममय संवाद का पठन करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा - ऐसा मेरा मत है॥
श्रद्धावान् और दोषदृष्टि से रहित जो मनुष्य इस गीता-ग्रन्थ को सुन भी लेगा, वह भी सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर पुण्यकारियों के शुभ लोकों को प्राप्त हो जायेगा॥
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१८वें अध्याय के उपरोक्त चार श्लोकों में जो बात कही गई है वही मुझे बार यहाँ ले आती है। हे प्रभु, मैं तुम्हारा हूँ। मेरा सर्वस्व स्वीकार करो। मैं नहीं, मेरा नहीं, सब कुछ तुम हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० नवंबर २०२४

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