भगवान की भक्ति निःशुल्क (Free) नहीं है, उसकी कीमत चुकानी पड़ती है ---
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(यह लेख मेरे इस जीवन भर की कमाई का सार है). इस सृष्टि में कुछ भी निःशुल्क (free) नहीं है। हर चीज का शुल्क देना पड़ता है। भगवान की भक्ति के लिए हमें अपना परमप्रेम (भक्ति), व अपना अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) भगवान को समर्पित करना पड़ता है; तभी हम भक्ति कर सकते हैं।
गीता में भगवान कहते हैं --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥१८:६६॥"
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भगवान तो मुझे कभी के मिल गए हैं, लेकिन उनकी उपस्थिती का आनंद नहीं ले पाया, इसका एकमात्र कारण शास्त्रों व गुरु के आदेश की उपेक्षा है। पिछले अनेक जन्मों से गुरु महाराज ने हर जन्म में आदेश दिया है कि मेरी साधना -- तेल-धारा के समान अनवरत अखंड हो। तेल को एक पात्र से जब दूसरे पात्र में डालते हैं तब उसकी धार अखंड रहती है, बीच बीच में टूटती नहीं है। वैसी ही हमारी उपासना होनी चाहिए। मेरे साथ यही कमी रही, अन्य कोई कमी नहीं है। इस कमी को इसी जन्म में दूर करूंगा। यह पाठ मुझे हर जन्म में पढ़ाया गया है, इसका पालन नहीं किया इसलिए बार बार जन्म लेना पड़ रहा है। यह दुष्चक्र अब टूटना ही चाहिए।
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मेरे इस शरीर रूपी वाहन का आज्ञाचक्र ही मेरा आध्यात्मिक-हृदय है। आज्ञाचक्र के एकदम सामने भ्रूमध्य होता है, जहाँ गुरु की आज्ञा से ध्यान करते हैं। वहाँ ध्यान करते करते गुरुकृपा से एक न एक दिन एक दिव्य ज्योति के दर्शन होने लगते हैं और अनाहत नाद की ध्वनि सुनाई देने लगती है। वह दिव्य ज्योति और नाद ही कूटस्थ है, और उसमें निरंतर स्थिति कूटस्थ-चैतन्य है।
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भक्ति के बिना कोई उपासना हो ही नहीं सकती। भक्ति से ही ज्ञान और वैराग्य का प्राकट्य होता है। हमारी चेतना में भगवान की निरंतर उपस्थिती बनी रहे, और हमारा अन्तःकरण भगवान को समर्पित हो, यही उपासना का उद्देश्य है। भगवान हमारे से हमारा प्रेम ही माँगते हैं। प्रेम के अतिरिक्त हमारे पास है ही क्या? सब कुछ तो उन्हीं का दिया हुआ है।
भगवान कहते हैं ---
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२:४॥"
भावार्थ :-- जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं, इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥
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आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में 'उपासना' को 'तैलधारा' के समान बताया है। उपासना का शाब्दिक अर्थ है -- समीप बैठना। हमें अपनी चेतना में सदा भगवान के समक्ष ही बैठना चाहिए।
शंकर भाष्य के अनुसार -- "उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बनाकर, उसके समीप पहुँचकर, तैलधारा के सदृश समान वृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थिर रहने को उपासना कहते हैं।"
यहाँ उन्होंने "तैलधारा" शब्द का प्रयोग किया है जो अति महत्वपूर्ण है|
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तैलधारा के सदृश समानवृत्तियों का प्रवाह क्या हो सकता है? पहले इस पर विचार करना होगा। योगियों के अनुसार ध्यान साधना में जब प्रणव यानि अनाहत नाद की ध्वनी सुनाई देती है तब वह तैलधारा के सदृश अखंड होती है। प्रयोग के लिए एक बर्तन में तेल लेकर उसे दुसरे बर्तन में डालिए। जिस तरह बिना खंडित हुए उसकी धार गिरती है, वैसे ही अनाहत नाद यानि प्रणव की ध्वनी सुनाई देती है। प्रणव को परमात्मा का वाचक यानि प्रतीक कहा गया है। यह प्रणव ही कूटस्थ अक्षर ब्रह्म है।
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चित्तवृत्ति क्या है? मेरे समझ से हमारी इंद्रिय सुखों की वासनायें यानि हमारी भोग-विलास की सूक्ष्म आकांक्षाएँ ही हमारे चित्त की वृत्तियाँ हैं। समानवृत्ति का अर्थ जो मुझे समझ में आता है, वह -- श्वास-प्रश्वास और वासनाओं की चेतना से ऊपर उठना है। चित्त स्वयं को श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है। अतः समानवृत्ति शब्द का यही अर्थ हो सकता है।
मेरी सीमित अल्प बुद्धि के अनुसार "उपासना" का अर्थ -- हर प्रकार की चेतना से ऊपर उठकर ओंकार यानि अनाहत नाद की ध्वनी को सुनते हुए उसी में लय हो जाना है। मेरी दृष्टी में यह ओंकार ही गुरु रूप ब्रह्म है।
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उपासना का उद्देश्य उपास्य के साथ एकाकार होना है। व्यवहारिक रूप से किस व्यक्ति में कौन सा गुण प्रधान है, उस से वैसी ही उपासना होगी। मनुष्य जैसा चिंतन करता है वैसी ही उपासना करता है।
तमोगुण की प्रधानता अधिक होने पर मनुष्य परस्त्री/परपुरुष व पराये धन की उपासना करता है जो उसके और भी अधिक पतन का कारण बनती है। चिंतन चाहे परमात्मा का हो या परस्त्री/पुरुष या पराये धन का, होता तो उपासना ही है।
रजोगुण प्रधान व्यक्ति सांसारिक उपलब्धियों की उपासना करता है।
सतोगुण प्रधान व्यक्ति परमात्मा के विभिन्न रूपों की उपासना करता है।
अंततः हमें इन तीनों गुणों से भी ऊपर उठना पड़ता है। भगवान हमें निःस्त्रेगुण्य, नित्यसत्वस्थ, निर्योगक्षेम और आत्मवान होने का आदेश देते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
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भक्तिसूत्रों के अनुसार उपासक को सर्वदा सत्संग करना चाहिए और किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग करना चाहिए क्योंकि संगति का असर पड़े बिना रहता नहीं है।
मनुष्य जैसे व्यक्ति का चिंतन करता है वैसा ही बन जाता है। महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य तथा अमोध है (महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च), लेकिन किसी भी परिस्थिति में हमें कुसंग का त्याग करना चाहिए (दुस्सङ्गः सर्वथैव त्याज्यः)। कुसंग -- काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवा सर्वनाश का कारण है (कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशकारणत्वात्)।
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जो पतनोन्मुख है, और जो गलत लोगों का संग करता है, उसका साथ छोड़ देना चाहिए, चाहे वह स्वयं का गुरु ही क्यों ना हो। कुसंग सर्वदा त्याज्य है।
योगसूत्रों में एक सूत्र आता है -- "वीतराग विषयं वा चित्तः", इस पर गंभीरता से विचार करें। किसी वीतराग व्यक्ति का निरंतर चिंतन हमारे चित्त को भी वीतराग (राग-द्वेष-अहंकार से परे) बना देता है।
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नर्क की अग्नि से भी भयावह वासना की अग्नि है। इस से बच कर ही रहना चाहिए। इसकी कल्पना भी नर्क की अग्नि में गिरा देती है। अज्ञानग्रंथि (आज्ञाचक्र) का भेदन कर अपने परम शिवत्व को व्यक्त करना ही उपासना का लक्ष्य है। जब ह्रदय में परमप्रेम उदित होता है तब भगवान किसी गुरु के माध्यम से मार्गदर्शन देते हैं। हमें भगवान को ही इस देहरूपी नौका का कर्णधार बनाना चाहिए। गीता और सारे उपनिषद ओंकार की महिमा से भरे पड़े हैं। अतः कूटस्थ अक्षरब्रह्म का ध्यान में तैलधारा के सदृश निरंतर श्रवण, और कूटस्थ ब्रह्मज्योति का निरंतर दर्शन ही उपासना है। यह कूटस्थ ही गुरुरूप ब्रह्म है, और यह कूटस्थ ही हम स्वयं हैं।
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भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति, इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड और इस समस्त सृष्टि के रूप में मैं स्वयं को नमन करता हूँ। मैं मेरे अविछिन्न रूप में मेरे प्रभु के साथ एक हूँ।
ॐ गुरुभ्यो नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ दिसंबर २०२३
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