Saturday, 13 November 2021

धनतेरस/धन्वन्तरि-जयंती की मंगलमय शुभ कामनाएँ ---

 धनतेरस/धन्वन्तरि-जयंती की मंगलमय शुभ कामनाएँ ---

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आज कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन भगवान धन्वन्तरि का जन्म हुआ था इसलिए इस तिथि को धनतेरस या धनत्रयोदशी के नाम से जाना जाता है। धन्वन्तरि देवताओं के चिकित्सक हैं और चिकित्सा के देवता माने जाते हैं इसलिए चिकित्सकों के लिए धनतेरस का दिन बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। इसका लौकिक धन-संपत्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है।
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धनतेरस के संदर्भ में एक लोक कथा प्रचलित है कि एक बार यमराज से एक यमदूत ने पूछा कि अकाल-मृत्यु से बचने का कोई उपाय है क्या? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यम देवता ने कहा कि जो प्राणी धनतेरस की शाम यम के नाम पर दक्षिण दिशा में दीया जलाकर रखता है उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती है। इस मान्यता के अनुसार धनतेरस की शाम लोग आँगण मे यम देवता के नाम पर दीप जलाकर रखते हैं।
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धन्वन्तरी जब प्रकट हुए थे, तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरि चूंकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है। कहीं कहीं लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन (वस्तु) खरीदने से उसमें तेरह गुणा वृद्धि होती है, लेकिन मैं इस बात को नहीं मानता। सबसे बड़ा धन अच्छा स्वास्थ्य है। धनतेरस के दिन दीप जला कर भगवान से अच्छे स्वास्थ्य की प्रार्थना करें। बेकार में प्रचलित रीति-रिवाजों के अनुसार सोना-चांदी आदि खरीदने के लिए न दौड़ें, और अपने बड़े परिश्रम से कमाए धन को नष्ट न करें। अपने स्वास्थ्य की रक्षा करें। धन्यवाद ! पुनश्च धन तेरस की शुभ कामनाएँ और नमन !!
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ नवम्बर २०२१
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पुनश्च: --- हर साल, राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस को आयुष मंत्रालय द्वारा धन्वंतरि जयंती यानी धनतेरस के दिन मनाया जाता है। जब इंसान को दवाओं की समझ नहीं थी तब रोगों का उपचार आयुर्वेद के माध्यम से ही किया जाता था और इसका कोई दुष्प्रभाव भी नहीं होता है इसलिए इसकी महता है।

हम परमात्मा की दृष्टि में क्या हैं? सिर्फ इसी का महत्व है ---

हम परमात्मा की दृष्टि में क्या हैं? सिर्फ इसी का महत्व है। अपने विचारों और भावों के प्रति सजग और सचेत रहो, क्योंकि अवचेतन मन में छिपी वासनायें -- गिद्ध, चील-कौओं और लकड़बघ्घों की तरह मृत लाशों को ढूँढ़ती रहती हैं, और अवसर मिलते ही उन पर टूट पड़ती हैं। इस लौकिक संसार में मनुष्य के वेश में बहुत सारे परभक्षी ठग घुमते हैं, जिन से विष की तरह दूर रहो।

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भगवान की परम कृपा ही हमारी रक्षा कर सकती है, अन्य कुछ भी नहीं।
दुनियाँ उलट-पुलट हो सकती है, परिस्थितियाँ विपरीत हो सकती हैं, सत्य घने कोहरे में छिप सकता है, कुछ भी अनुकूलता नहीं है, लेकिन उसके पीछे भी एक शक्ति है जो सदा हमारी रक्षा करती है। इसलिए सदा परमात्मा का चिंतन करो।
ॐ ॐ ॐ !!
३ नवंबर २०२१

रूप-चतुर्दशी/ नर्क-चतुर्दशी/ छोटी दीपावली का मंगलमय अभिनंदन ---

 आज का दिन ज्ञान के प्रकाश से जगमगाने का दिन है.

रूप-चतुर्दशी/ नर्क-चतुर्दशी/ छोटी दीपावली का मंगलमय अभिनंदन ---
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आज छोटी दीपावली है जिसे "रूप-चतुर्दशी" और "नर्क-चतुर्दशी" भी कहते हैं।
आज रूप निखारने का दिन है। आज के दिन सूर्योदय से पूर्व शरीर पर तेल व उबटन लगा कर एक बाल्टी में जल भरकर उसमें अपामार्ग के पौधे का टुकड़ा डाल कर उस जल से स्नान करने का महत्त्व है। अपामार्ग का पौधा न मिले तो एक बहुत ही कड़वा फल पास में रखते हैं जो सारी नकारात्मक ऊर्जा को अपने भीतर ले लेता है। सूर्योदय से पूर्व स्नान करते समय स्नानागार में एक दीपक भी जलाने की प्रथा रही है। कहीं-कहीं उबटन के स्थान पर तिल के तेल की मालिश और पानी में चिरचिरी के पत्ते डालकर भी नहाते हैं।
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स्नान के उपरांत भगवान श्रीकृष्ण की उपासना की जाती है। ऐसा करने से पापों का नाश होता है और रूप व सौंदर्य की प्राप्ति होती है। इसलिए इसे रूप-चतुर्दशी कहते हैं। महिलाएँ इस दिन सौलह शृंगार करती हैं।
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आज के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ मिलकर नरकासुर नामक राक्षस का बध किया था। युद्ध करते करते भगवान श्रीकृष्ण कुछ समय के लिए मूर्छित हो गए थे, तब सत्यभामा ने उस राक्षस से भयानक युद्ध आरंभ किया और अपने दिव्यास्त्रों से उसका बध कर डाला। नरकासुर ने सौलह हजार एकसौ स्त्रियों को बंदी बना रखा था, वे स्वतंत्र हुईं और उन्हें सम्मान प्राप्त हुआ। अतः इस दिन को नर्क-चतुर्दशी भी कहते हैं।
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आज के दिन को छोटी दीपावली भी कहते हैं। इस दिन के बारे में एक कथा पुण्यात्मा राजा रंतिदेव के बारे भी है। बंगाल में यह दिन काली-चतुर्दशी के नाम से जाना जाता है। एक कथा के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण करके देवताओं को राजा बलि के आतंक से मुक्ति दिलाई थी।
भारत में कहीं कहीं आज के दिन हनुमान जी की भी विशेष आराधना होती है।
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आज के दिन तेल उबटन लगाकर सूर्योदय से पूर्व स्नान करने से देह रूपवान हो जायेगी। रूप चौदस का दिन बहुत ही शुभ दिन है अतः प्रसन्न रहकर भक्तिभाव से अपने इष्ट की उपासना करें।
रूप चतुर्दशी/ नर्क चतुर्दशी/ छोटी दीपावली की मंगलमय शुभ कामनाएँ। भगवान श्रीकृष्ण सभी का कल्याण करें।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ नवंबर २०२१

इस संसार में सबसे अधिक दया का पात्र कौन है? ---

 (प्रश्न) :-- इस संसार में सबसे अधिक दया का पात्र कौन है?

(उत्तर) :-- इस संसार में दया का सबसे अधिक पात्र ब्राह्मण है।
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ब्राह्मण - कोई जाति नहीं, हिन्दू वर्ण-व्यवस्था का एक वर्ण है। ब्राह्मण का स्वधर्म ही है - भगवत्-प्राप्ति। अनेक जन्मों के पुण्यों के फलवरूप, किसी का भारतभूमि में, हिन्दू धर्म में, और ब्राह्मण कुल में जन्म होता है। ब्राह्मण कुल में जन्म होता ही है -- ब्रह्म, यानि परमात्मा को जानने के लिए। यस्क मुनि की निरुक्त के अनुसार - "ब्रह्म जानाति ब्राह्मण:" अर्थात् ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म (अंतिम सत्य, ईश्वर या परम ज्ञान) को जानता है। ब्राह्मण का अर्थ है "ईश्वर का ज्ञाता"।
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जिसने ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी भगवान की भक्ति नहीं की, उसकी सदगति नहीं होती। उसे अनेक कष्टप्रद योनियों में भटकने के बाद, अनेक कष्टमय जन्मों के उपरांत ही फिर से ब्राह्मण वर्ण मिलता है। इसीलिए ब्राह्मण दया का पात्र है। मेरे जैसे अनेक ब्राह्मण भटके हुए हैं जो अब होश में आ रहे हैं। अतः उन सब को जिनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ है, निरंतर नाम-स्मरण, और संध्या-साधना (गायत्री-जप, प्राणायाम और ध्यान) करनी ही चाहिए।
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अपना स्वधर्म (भगवत्-प्राप्ति) न छोड़ें। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते है --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् -- सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥
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श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने ब्राह्मण का धर्म बताया है --
"शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥१८:४२॥"
अर्थात् -- शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिक्य - ये ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं॥
अनेक आचार्यों ने उपरोक्त श्लोक की बहुत ही विषद व्याख्या की है। विभिन्न आचार्यों के भाष्यों का स्वाध्याय करें।
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हमारे कूटस्थ में एक परम ब्रह्म-ज्योति निरंतर प्रज्ज्वलित है, और ओंकार का नाद निरंतर निःसृत हो रहा है। उसमें स्वयं का विलय करते हुए, कूटस्थ-चैतन्य यानि श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान द्वारा बताई हुई ब्राह्मी स्थिति में रहने की साधना करें। यह ब्राह्मण-धर्म है।
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उपरोक्त बातें लिखने की प्रेरणा भगवान से मिल रही थी, इसलिए उन्होने लिखवा दीं; अन्यथा मुझ अकिंचन में कोई सामर्थ्य नहीं है।
"ॐ नमो ब्रह्मण्य देवाय गोब्राह्मण हिताय च।
जगत् हिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः॥"
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३ नवंबर २०२१
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पुनश्च :--- ब्रह्मचर्य ही हमें ब्राह्मण बनाता है। बिना ब्रह्मचर्य के ब्राह्मणत्व संभव नहीं है। सद्आचरण और सद् विचार भी ब्रह्मचर्य के अंतर्गत आते हैं। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए हम नियमित गायत्रीजप, प्राणायाम और ध्यान साधना करते हुए अपने धर्म पर अडिग रहें। धर्म का पालन ही धर्मरक्षा है, और धर्म ही हमारी रक्षा कर सकता है। ॐ ॐ ॐ !!

दीपावली की मंगलमय शुभ कामनायें, बधाई और अभिनंदन ---

 दीपावली की मंगलमय शुभ कामनायें,

बधाई
और
अभिनंदन
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आज कार्तिक अमावस्या पर दीपावली की रात्रि -- सिद्धि-प्रदात्री "कालरात्रि" है, जिस में सत्यनिष्ठा से की गई आध्यात्मिक साधना निश्चित रूप से सिद्धि प्रदान करती है। सभी को अपनी-अपनी गुरु-परम्परानुसार जप-तप व साधना यथासंभव अधिकाधिक करनी चाहिए।
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आज दो शिव-संकल्प स्वतः ही सामने आ रहे हैं ---
(१) इस जीवन में अब तक जो समय अज्ञान में व्यतीत हो गया सो तो हो गया, लेकिन अवशिष्ट जीवन में परमात्मा के प्रकाश को फैलाते हुए, दृढ़ निश्चय कर, अंधकार से ऊपर ही रहेंगे।
(२) इस शरीर की स्थिति कैसी भी हो, लेकिन इसी जन्म में हमें भगवत्-प्राप्ति करनी है। अब और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकते। जहाँ पर भी भगवान ने हमें रखा है, वहाँ उनको अभी और इसी समय हमारे में व्यक्त होना ही होगा। जब इस देह का अंत होगा तब स्वयं भगवान नारायण ही हमारी गति होंगे।
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अभी और कुछ भी नहीं कहना है। सभी को दीपावली की शुभ कामनाएँ और नमन ! आप सब का जीवन मंगलमय हो। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
०४ नवंबर २०२१

भारत की पकिस्तान व चीन से निकट भविष्य में युद्ध की पूरी संभावना है ---

 भारत की पकिस्तान व चीन से निकट भविष्य में युद्ध की पूरी संभावना है ---

(संशोधित व पुनर्प्रेषित लेख)
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अपनी जिहादी विचारधारा के कारण पकिस्तान भारत को कभी भी सुख शान्ति से नहीं रहने देगा, क्योंकि पाकिस्तान का अघोषित लक्ष्य ही भारत को नष्ट कर के पाकिस्तान में मिलाना है। भविष्य में या तो भारत ही रहेगा या पाकिस्तान, दोनों कभी भी साथ साथ शान्ति से नहीं रह सकेंगे।
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चीन ने तिब्बत पर अधिकार उसके जल-संसाधनों के कारण किया है, जिन्हें वह चीन की ओर मोड़ना चाहेगा। यह भारत कभी भी सहन नहीं कर पायेगा और उसे चीन से एक निर्णायक युद्ध लड़ना ही होगा, अन्यथा पूरा उत्तरी भारत एक मरुभूमि में परिवर्तित हो जाएगा। हिमालय से भारत में आने वाली नदियाँ भारत की जीवनरेखा हैं। चीन अति गुप्त रूप से हिमालय के जल संसाधनों को चीन की ओर मोड़ने का अनवरत प्रयास कर रहा है। यह बात भारत का तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व अपनी अदूरदर्शिता के कारण कभी भी नहीं समझ पाया था।
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चीन ने तिब्बत पर अधिकार किया इसका असली कारण वहाँ की अथाह जल राशि, और भूगर्भीय संपदा है, जिसका अभी तक दोहन नहीं हुआ है| तिब्बत में कई ग्लेशियर हैं और कई विशाल झीलें हैं| भारत की तीन विशाल नदियाँ ..... ब्रह्मपुत्र, सतलज, और सिन्धु ..... तिब्बत से आती हैं| गंगा में आकर मिलने वाली कई छोटी नदियाँ भी तिब्बत से आती हैं| चीन इस विशाल जल संपदा पर अपना अधिकार रखना चाहता है इसलिए उसने तिब्बत पर अधिकार कर लिया| हो सकता है भविष्य में वह इस जल धारा का प्रवाह चीन की ओर मोड़ दे| इस से भारत में तो हाहाकार मच जाएगा पर चीन का एक बहुत बड़ा क्षेत्र हरा भरा हो जाएगा|
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चीन का सीमा विवाद उन्हीं पड़ोसियों से रहा है जहाँ सीमा पर कोई नदी है, अन्यथा नहीं| रूस से उसका सीमा विवाद उसूरी और आमूर नदियों के जल पर था| ये नदियाँ अपना मार्ग बदलती रहती हैं, कभी चीन में कभी रूस में| उन पर नियंत्रण को लेकर दोनों देशों की सेनाओं में एक बार झड़प भी हुई थी| अब तो दोनों में समझौता हो गया है और कोई विवाद नहीं है|
वियतनाम में चीन से युआन नदी आती है जिस पर हुए विवाद के कारण चीन और वियतनाम में सैनिक युद्ध भी हुआ था| उसके बाद समझौता हो गया|
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चीन को पता था कि भारत से एक न एक दिन उसका युद्ध अवश्य होगा अतः उसने भारत को घेरना शुरू कर दिया| बंगाल की खाड़ी में कोको द्वीप इसी लिए उसने म्यांमार से लीज पर लिया| अब जिबूती (अदन की खाड़ी से लाल सागर में प्रवेश करते ही दक्षिण दिशा में), ग्वादर (पाकिस्तान), और हम्बनटोटा (श्रीलंका) में उसने अपने सैन्य अड्डे बना लिए हैं, जिनका उपयोग भारत के विरुद्ध ही हो सकता है|
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भारत को तिब्बत पर अपना अधिकार नहीं छोड़ना चाहिए था| अंग्रेजों का वहाँ अप्रत्यक्ष अधिकार था| आजादी के बाद भारत ने भारत-तिब्बत सीमा पर कभी भौगोलिक सर्वे का काम भी नहीं किया जो बहुत पहिले कर लेना चाहिए था| सन १९६२ में बिना तैयारी के चीन से युद्ध भी नहीं करना चाहिए था| जब युद्ध ही किया तो वायु सेना का प्रयोग क्यों नहीं किया? चीन की तो कोई वायुसेना तिब्बत में थी ही नहीं| १९६२ के युद्ध के बारे बहुत सारी सच्ची बातें जनता से छिपाकर अति गोपनीय रखी गयी हैं ताकि लोग भड़क न जाएँ|
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भारत-चीन में सदा तनाव बना रहे इस लिए अमेरिका की CIA ने भारत में दलाई लामा को घुसा दिया| वर्त्तमान में तनाव तो दलाई लामा को लेकर ही है| दलाई लामा चीन की दुखती रग है| दलाई लामा आदतन बछड़े का मांस खाते हैं| सारे तिब्बती गाय का और सूअर का मांस खाते हैं| सनातन हिन्दू धर्म से उनका कोई लेना देना नहीं है|
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भारत-चीन के बीच असली लड़ाई तो पानी की लड़ाई है| पीने के पानी की दुनिया में दिन प्रतिदिन कमी होती जा रही है| भारत और चीन में युद्ध होगा तो वह पानी के लिए ही होगा|
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वर्त्तमान में दक्षिणी चीन सागर में चीन का अन्य देशों से विवाद भूगर्भीय तेल संपदा के कारण है जो वहाँ प्रचुर मात्रा में है| अन्य कोई कारण नहीं है| चीन का सीमा विवाद मुख्यतः तीन देशों से रहा है ..... भारत, विएतनाम और रूस | विएतनाम और रूस को चीन कभी दबा नहीं सका, क्योंकि इन्होनें चीनी अतिक्रमण का उत्तर अपनी पूरी सैनिक शक्ति से दिया, और चीन को समझौता करने को बाध्य कर दिया | भारत का राजनीतिक नेतृत्व बहुत अधिक कमजोर और दब्बू था इस लिए चीन अभी भी भारत पर हावी है |
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ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०५ नवम्बर २०२१

किसी की शवयात्रा में -- "राम नाम सत्य है" का उद्घोष क्यों करते हैं? --- .

 किसी की शवयात्रा में -- "राम नाम सत्य है" का उद्घोष क्यों करते हैं? ---

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मृत्यु एक अटल सत्य है। जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु भी होगी ही। जब किसी की शव यात्रा जा रही होती है तब मृतक के परिजन "राम नाम सत्य है" कहते हुए ही जाते हैं। इसके पीछे एक कारण है। भौतिक शरीर की मृत्यु के उपरांत जीवात्मा की उसके पुण्यों/पापों के अनुसार गति होती है। अधिकाँश मनुष्यों के अच्छे पुण्य नहीं होते, अतः वे अपनी मृत देह के आसपास भटकते रहते हैं, और अपनी वासना की पूर्ति हेतु औरों की देह में प्रवेश करने का प्रयास करते हैं। राम का नाम लेने से उपस्थित लोगों के ऊपर एक रक्षा-कवच का निर्माण होता है जो उनकी रक्षा करता है।
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राम नाम निर्विवाद रूप से परम सत्य है। चाहे निर्गुण हो या सगुण, "राम" शब्द एक महामंत्र है। राम नाम के निरंतर जाप से सद्गति प्राप्त होती है। "र" अग्नि का बीज मन्त्र है (दाहक), "आ" सूर्य का बीज मन्त्र है (प्रकाशक), और "म" चन्द्रमा का बीज मन्त्र है (शीतलता)। "र" शोक-मोह-कर्मबन्धन का दाहक, "आ" ज्ञान का प्रकाशक और "म" मन को शान्त, शीतल करने वाला। यह अक्षर ब्रह्म है। ‘रा’ शब्द परिपूर्णता का बोधक है और ‘म’ शब्द परमेश्वर का वाचक है।
ॐ तत्सत् !!
६ नवंबर २०२१

जब भी युवावस्था में भगवान की थोड़ी सी भी झलक मिले, उसी समय विरक्त हो जाना चाहिए ---

 यह सृष्टि भगवान की है, जिसे उनकी प्रकृति अपने नियमानुसार चला रही है। उन नियमों को न समझना हमारी अज्ञानता है। सनातन धर्म के अनुसार हमारे जीवन का सर्वप्रथम लक्ष्य भगवत्-प्राप्ति है। जब तक भगवत्-प्राप्ति नहीं होती तब तक अपने कर्मफलों को भोगने के लिए बार-बार जन्म लेते रहेंगे।

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भगवत्-प्राप्ति कैसे हो? इसके लिए भगवान से परमप्रेम (भक्ति) जागृत करना होगा, व सत्संग और स्वाध्याय करना होगा। भगवान ही एकमात्र सत्य हैं, जब सत्यनिष्ठा जागृत होती है तब भगवान किसी सद्गुरु के रूप में आकर हमारा मार्गदर्शन करते हैं।
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जब लक्ष्य परमात्मा को ही बना लिया है तब इधर-उधर न भटकें, और पूरी लगन से उन्हीं में विलीन होने की साधना करें। प्रयास करें की ध्यान इधर-उधर कहीं अन्यत्र न जाये। यह संसार तो प्रकृति के नियमों के अनुसार चलता रहेगा, जिसे हम नहीं बदल सकते। हम सिर्फ सेवा कर सकते हैं। सबसे बड़ी सेवा जो हम समष्टि के लिए कर सकते हैं, वह है "आत्म-साक्षात्कार"। "आत्म-साक्षात्कार" से कम कुछ भी हमें स्वीकार्य नहीं है। हमारा लक्ष्य भगवत्-प्राप्ति है, जिसे हम कभी भी न भूलें।
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जब भी युवावस्था में भगवान की थोड़ी सी भी झलक मिले, उसी समय विरक्त हो जाना चाहिए। कोई दो लाख में से एक व्यक्ति के हृदय में ही भगवान को पाने की ललक होती है, बाकियों के लिए तो भगवान एक साधन, और यह संसार साध्य है।युवावस्था में साधना कर के ही भगवान को प्राप्त किया जा सकता है, बुढ़ापे में नहीं। भगवान से विमुखता ही हमारे सब दुखों का कारण है। भगवान का भजन, स्मरण और गहन ध्यान नहीं करने पर बड़ी भयंकर असहनीय पीड़ा होती है।
"कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई॥
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और क्या लिखें ? सब कुछ तो शास्त्रों में लिखा है। महान आत्माओं, और भगवान के साथ सत्संग करें। जो भी होगा वह सही होगा। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
७ नवंबर २०२१

मैं कौन हूँ? ---

 मैं कौन हूँ?

मैं भगवान का परमप्रेम, संपूर्णता और आनंद हूँ। मैं सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एक हूँ। यह पूरा ब्रह्मांड, सारी आकाश गंगाएँ -- उनके सारे नक्षत्र और उनके सारे ग्रह, उपग्रह -- मेरी ही देह के भाग हैं। यह ध्रुव तारा-मण्डल भी मेरी ही देह का भाग है, जिसके प्रकाश को पृथ्वी तक पहुँचने में ४३४ वर्ष लगे हैं। यह दहराकाश, महाकाश, और अनंताकाश भी मैं हूँ। इस अनंतता के पीछे के हिरण्यमय लोक भी मैं हूँ। मैं सम्पूर्ण अस्तित्व हूँ, यह भौतिक देह और यह व्यक्ति नहीं। ये नाम-रूप सब प्रतीकात्मक हैं, जो भगवान की ओर ही संकेत करते हैं। मैं हरिःहर का तेज और उनके साथ एक हूँ। कहीं कोई भेद नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ नवंबर २०२१

सनातन-धर्म व स्वयं की रक्षा के लिए हम क्या कर सकते हैं? ---

 (प्रश्न). सनातन-धर्म व स्वयं की रक्षा के लिए हम क्या कर सकते हैं? ---

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(उत्तर). धर्म को समझें, व उसका पालन करें। धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है। फिर धर्म ही हमारी रक्षा करेगा। सनातन धर्म की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता है धर्म को समझने व उसका पालन करने की। धर्म का पालन हम करेंगे तभी धर्म की रक्षा होगी, अन्यथा यह सृष्टि नष्ट हो जाएगी। धर्म ने ही सृष्टि को धारण कर रखा है।
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स्वयं को निमित्त मात्र बनाकर अपना हर कार्य सत्यनिष्ठा (ईमानदारी) से करें। जीवन में हर कार्य परमात्मा की प्रसन्नता के लिए करें, और परमात्मा को ही स्वयं के माध्यम से कार्य करने दें। निरंतर परमात्मा का स्मरण रहे। इस से जीवन में अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि होगी। यही धर्म की रक्षा है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ नवंबर २०२१

दूसरों की कमियों का चिंतन न करके, अपने स्वयं के गुण देखें, और उनका प्रकाश चारों ओर फैलाएँ ---

 दूसरों की कमियों का चिंतन न करके, अपने स्वयं के गुण देखें, और उनका प्रकाश चारों ओर फैलाएँ ---

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दूसरों की कमियों का ही चिंतन करेंगे तो वे कमियाँ हम में आ जाएँगी, और हो सकता है हमारे अगले कई जन्म पशुयोनि में ही हों। यह बात मैं सनातन हिन्दू धर्मावलम्बियों के संदर्भ में लिख रहा हूँ। आजकल यह एक फैशन सा ही हो गया है कि हम हिन्दू लोग दूसरों के अवगुण तो देखते हैं, पर स्वयं के गुणों को नहीं देखते। सनातन हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा गुण है कि यह हमें भगवत्-सत्ता से, यानि भगवत्-प्राप्ति का मार्ग दिखाकर भगवान से जोड़ सकता है। भगवान से अहेतुकी परमप्रेम यानि "भक्ति", "शरणागति", और "समर्पण" -- सबसे बड़े गुण हैं, जो हमें हिन्दू बनाते हैं। हिन्दुत्व है -- निज जीवन में भगवान की पूर्ण अभिव्यक्ति।
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हिन्दुत्व का कोई सुगम लघुमार्ग (Short Cut) नहीं है। बिना तपस्या और ब्रह्मचर्य के हम धर्म के मर्म को नहीं समझ सकते। यदि हम जीवन में भगवान को पाना चाहते हैं तो "ब्रह्मचर्य" का पालन तो करना ही पड़ेगा। कुसंग से दूर रहें, क्योंकि अंधकार और प्रकाश साथ-साथ नहीं रह सकते। दुष्टों के साथ रहने से तो अच्छा है कि हम अकेले ही रहें। एकान्त में भगवत् चिंतन, मनन, और ध्यान आदि का समय मिल सकेगा। तभी कालांतर में ब्रह्मचर्य और तपस्या की क्षमता विकसित हो सकेगी। बिना ब्रह्मचर्य के ब्रह्म (परमात्मा) को प्राप्त नहीं कर सकते। यदि जीवन में भगवत्-प्राप्ति करनी है तो ब्रह्मचर्य का पालन तो करना ही होगा, और अपने आचरण व विचारों पर पूरा ध्यान रखते हुए उन्हें भगवान की ओर मोड़ना भी होगा।
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संसार में रहते हुए भी संसार के साथ न रहें। हर समय भगवान का स्मरण करते हुए अपने धर्म का पालन करें। भगवान ने जहाँ भी और जो भी कार्य हमें दिया दिया है वह भगवान के लिए ही पूरी सत्यनिष्ठा (ईमानदारी) से सम्पन्न करें। मानसिक रूप से सदा एकांत में ही रहें, क्योंकि एकान्त में ही आत्म−साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति और ब्रह्मज्ञान सम्भव है।
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हम सब को इसी जीवन में भगवत्-प्राप्ति हो, इसी मंगलमय शुभ कामना के साथ भगवान को नमन --
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥११:३९॥"
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ नवंबर २०११

मज़हबी कट्टरता का अंत महिला शिक्षा के द्वारा ही होगा ---

वर्तमान समय में अति त्वरित गति से जो परिवर्तन हो रहे हैं, उनके मुख्यतः दो कारण हैं -- व्यवसायीकरण और स्त्रीशिक्षा। इनके अंतिम परिणाम सुखद ही होंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। व्यवसायीकरण और स्त्रीशिक्षा के कारण पूरे विश्व में जीवन के प्रति दृष्टिकोण में आमूलचूल परिवर्तन हुए हैं। जिन देशों ने व्यवसायीकरण और स्त्रीशिक्षा को रोका, उनकी हालत बहुत अधिक खराब है।
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पूरे विश्व के हो रहे व्यवसायीकरण के कारण ही अब विश्व के सभी देशों की विदेश-नीति व्यावसायिक और आर्थिक हितों पर ही आधारित हो गई है। इब्राहिमी मज़हबों (Abrahamic Religions) में वैमनस्य कम हुआ है। मिश्र, सऊदी-अरब और संयुक्त-अरब-अमीरात जैसे कट्टर मुस्लिम देश अब यहूदी इज़राइल के मित्र बन गए हैं। यहूदी और मुसलमान जो पहले एक-दूसरे के परम शत्रु थे, अब समीप आ रहे हैं। अरब देश पहले आँख मीचकर पाकिस्तान का समर्थन करते थे, अब भारत का समर्थन करते हैं, पाकिस्तानियों को अपने आसपास भी नहीं बैठने देते, क्योंकि पाकिस्तान कंगाल हो गया है। आर्थिक कारणों से ईरान अब पाकिस्तान से दूरी बना रहा है। मध्य एशिया के सभी मुस्लिम देश, भारत से समीपता चाहते हैं। व्यावसायिक कारणों से ही चीन जैसी आर्थिक महाशक्ति का विरोध करने का साहस किसी भी मुस्लिम देश में नहीं है, जब कि चीन में इस्लाम पर बड़ी कठोरता से पूर्ण प्रतिबंध है। विश्व का व्यवसायीकरण अभी तो आरंभ ही हुआ है। बड़ी तेजी से पूर्ण व्यवसायीकरण हो जायेगा। जन-सामान्य में भी प्रेम-भाव कम हुआ है, अब आपसी प्रेमभाव और संबंध -- पूरी तरह आर्थिक यानि व्यवसायिक हो गए हैं। बिना मतलब के कोई किसी से बात भी नहीं करना चाहता। भगवान की भक्ति भी अधिकांश लोग लौकिक लाभ की अभिलाषा से ही करते हैं।
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यूरोप में पहले महिला शिक्षा बिलकुल भी नहीं थी। हजारों महिलाओं को 'डायन' घोषित कर के चर्च द्वारा मरवा दिया जाता था। यूरोप के इतिहास में करोड़ों महिलाओं को 'डायन' घोषित कर के मार दिया गया था। चर्च के पादरियों की बुरी निगाह किसी महिला पर पड़ती, यदि वह महिला सहयोग नहीं करती तो उसे डायन घोषित कर यातना देकर मार दिया जाता। चर्च द्वारा यातना देने के Inquisition जैसे तरीके बड़े भयंकर थे। महिला शिक्षा के कारण पूरे पश्चिमी जगत में ईसाईयत का प्रभाव नगण्य हो गया है।
महिला शिक्षा के निरंतर बढ़ते प्रभाव से जिहादी मानसिकता भी कम होती जा रही है। तीन तलाक और हलाला जैसी कुप्रथाएँ महिला शिक्षा के कारण ही कम हुई हैं। मज़हबी कट्टरता का अंत महिला शिक्षा के द्वारा ही होगा।
८ नवंबर २०२१

आध्यात्मिक दृष्टि से "स्वार्थ" और "परमार्थ" शब्दों में कोई अंतर नहीं है, साकार और निराकार में भी कुछ भेद नहीं है ---

 आध्यात्मिक दृष्टि से "स्वार्थ" और "परमार्थ" शब्दों में कोई अंतर नहीं है। ऐसे ही "साकार" और "निराकार" में भी कुछ भेद नहीं है।

'स्व' क्या है? और 'परम' क्या है? ये दोनों शब्द पारब्रह्म परमात्मा का संकेत करते हैं। हम यह देह नहीं, शाश्वत आत्मा, आत्म-तत्व -- स्वयं परमात्मा हैं। पूर्ण प्रेम से उन्हीं का ध्यान और उपासना करें। वास्तव में भगवान स्वयं ही अपना ध्यान करते हैं। हमारा कर्ताभाव मिथ्या है।
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ध्यान-साधना करते-करते एक समय ऐसा भी आता है जब चेतना इस भौतिक देह के ब्रह्मरंध्र से बाहर अनंतता में चली जाती है, और अनंतता के साथ एकाकार होकर अनंतता से भी परे ध्यानस्थ हो जाती है। तब पता चलता है कि हम यह शरीर नहीं, शाश्वत आत्मा हैं। परमात्मा की अनंतता से भी परे एक दिव्य ज्योति के दर्शन जब होने लगें तब उस ज्योति पर ही ध्यान, और उसी को समर्पित होने की साधना करें। वह कूटस्थ परम ज्योति ही उपास्य है। वह कूटस्थ ज्योति फिर एक पंचमुखी नक्षत्र का आकार ले ले लेती है। मैं उन्हें ही पंचमुखी महादेव और परमशिव कहता हूँ। वे ही नारायण हैं, वे ही वासुदेव हैं। वे ही मेरे आराध्य देव हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
८ नवंबर २०२१

पूर्णता शिव में है, जीव में नहीं ---

 पूर्णता शिव में है, जीव में नहीं ---

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सत्य एक अनुभूति है जिसका बोध परमात्मा की कृपा से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं। सिर्फ परमात्मा ही सत्य है, अन्य कुछ भी नहीं। अब सफलताओं और विफलताओं का मेरे लिए कोई महत्व नहीं रहा है। अब तक के सभी जन्मों में मेरी विफलतायें व सफलताएँ -- एक अवसर के रूप में आई थीं कुछ सिखाने के लिए। इस संसार में मेरे बारे में कोई क्या सोचता है, और कौन क्या कहता है, इसकी परवाह न करते हुए मैं निरंतर अपने पथ पर अग्रसर रहूँ, चलता रहूँ, चलता रहूँ, चलता रहूँ, और कहीं पर भी न रुकूँ। रुकना ही मृत्यु है जिसे मैंने पता नहीं कितने जन्मों में कितनी ही बार अनुभूत किया है। यह देह रूपी वाहन जब पुराना और जर्जर हो जाएगा, तब दूसरा मिल जाएगा। लेकिन यह यात्रा तब तक नहीं रुक सकती जब तक कि मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर लूँ।
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मेरे आदर्श - अंशुमाली, मार्तंड, भगवान भुवनभास्कर आदित्य हैं। जब वे अपनी दिव्य आभा और प्रकाश के साथ अपने पथ पर अग्रसर होते हैं, तब मार्ग में उन्हें कहीं तिमिर का किंचित कणमात्र भी नहीं मिलता। उन्हें क्या इस बात की चिंता होती है कि मार्ग में क्या घटित हो रहा है? उनकी तरह मैं भी सदा प्रकाशमान और गतिशील रहूँ। ज्योतिषांज्योति कूटस्थ की आभा निरंतर प्रज्ज्वलित रहे।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० नवंबर २०२१

यतः कृष्णस्ततो धर्मो, यतो धर्मस्ततो जयः ---

 यतः कृष्णस्ततो धर्मो, यतो धर्मस्ततो जयः ---

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जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं धर्म है; जहाँ धर्म है, वहीं विजय है। हे सर्वव्यापी श्रीकृष्ण ! चैतन्य में तुम्हारी निरंतर उपस्थिति ही मेरा धर्म है, और तुम्हारी विस्मृति मेरा अधर्म। तुम ही मेरे आत्म-सूर्य और इस जीवन के ध्रुव हो। तुम ही तुम हो, मैं नहीं। तुम ही मेरा अस्तित्व हो। अब और विलम्ब क्यों? इस पीड़ा को तुरंत शांत करो। बहुत देर हो चुकी है।
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"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवानीतिर्मतिर्मम॥१८:७८॥"
(जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं, और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है, वहीं पर श्री विजय विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है).
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"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
(हे पार्थ! यह आध्यात्मिक जीवन (ब्रह्म की प्राप्ति) का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य कभी मोहित नही होता है, यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस पथ पर स्थित हो जाता है तब भी वह भगवद्प्राप्ति करता है).
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जब तक सांसें चल रही हैं तब तक उम्मीद बाकी है। अब तो तुम्हारी एक प्रेममय कृपादृष्टि के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए। और विलम्ब मत करो।
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० नवम्बर २०२१ . . पुनश्च: ----
यतः कृष्णस्ततो धर्मो, यतो धर्मस्ततो जयः
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कूटस्थ-चैतन्य में भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण की निरंतर उपस्थिती मेरा धर्म है।
जहाँ भगवान श्रीकृष्ण हैं, वहीं धर्म है। जहाँ धर्म है वहीं विजय है।
हे सर्वव्यापी श्रीकृष्ण, कूटस्थ-चैतन्य में तुम्हारी निरंतर उपस्थिति मेरा धर्म है, और तुम्हारी विस्मृति मेरा अधर्म। तुम ही मेरे आत्म-सूर्य, और इस जीवन के ध्रुव हो। तुम ही तुम हो, मैं नहीं। तुम ही मेरा अस्तित्व हो।
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भगवान जब मुझसे अपने "परमशिव" रूप का ध्यान करवाते हैं, तब मुझे अद्वैतानुभूति तुरंत हो जाती है। मुझे अनुभूति होती है कि शांभवी मुद्रा में भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण स्वयं ही अपने परमशिव रूप का ध्यान कर रहे हैं। कोई भी या कुछ भी उन से अन्य नहीं है।
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ॥७:१९॥"
अर्थात् - बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
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ध्यान में कई बार अपने आप द्वादशाक्षरी भागवत मंत्र का जप होने लगता है। कई बार गोपाल-सहस्त्रनाम में दिये हुए उनके मंत्र या बीजमंत्र का जप अपने आप होने लगता है। गोपाल सहस्त्रनाम वाले मंत्र बहुत प्रभावशाली हैं। कई बार विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ होने लगता है।
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द्वैत या अद्वैत -- दोनों ही मेरे लिए आनंददायक हैं। लेकिन अद्वैतवेदान्त मेरे स्वभाव के अधिक अनुकूल है।
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥" (गीता)
(हे पार्थ! यह आध्यात्मिक जीवन (ब्रह्म की प्राप्ति) का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य कभी मोहित नही होता है, यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस पथ पर स्थित हो जाता है तब भी वह भगवद्प्राप्ति करता है).
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जब तक सांसें चल रही हैं तब तक उम्मीद बाकी है। अंतिम सांस तक भगवान का कार्य निमित्त मात्र होकर करेंगे। उनकी प्रेममयी कृपादृष्टि के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ नवंबर २०२२

निरंतर उनका चिंतन सुखदायी है ---

 भगवान की जो और जैसी भी छवि मेरे समक्ष है, मैं उनके प्रति पूर्णतः समर्पित हूँ। जब से भगवान से प्रेम हुआ है, और उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगी है, तब से सारे सिद्धान्तों और सारे दर्शन-शास्त्रों का मेरे लिए कोई महत्व अब नहीं रहा है। भगवान हैं, उनकी अनुभूति अवर्णनीय है। निरंतर उनका चिंतन सुखदायी है।

अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत आदि सिद्धान्त, और सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा व वेदान्त आदि दर्शन, -- सब अपने अपने स्थान पर सही हैं और भगवान की ओर संकेत करते हैं, लेकिन भगवान इन सब से ऊपर हैं। भगवान पर कोई बंधन नहीं है। गुरु रूप में मार्गदर्शन भी स्वयं भगवान ने ही किया है। अब तो वे भी मेरे साथ एक हैं। बचपन में सुने हुए एक फिल्मी गाने की एक पंक्ति याद आ रही है --
"वो पास रहें या दूर रहें, नज़रों में समाये रहते हैं।"
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एक बहुत प्यारा भजन भी है जिसे एक भक्त संत के मुंह से कई बार सुना है --
"मैं नहीं, मेरा नहीं, यह तन किसी का है दिया
जो भी अपने पास है, वह धन किसी का है दिया
जो मिला है वह हमेशा, पास रह सकता नहीं
कब बिछुड़ जाये यह कोई, राज कह सकता नहीं
जिन्दगानी का खिला, मधुवन किसी का है दिया
मैं नहीं, मेरा नहीं, यह तन किसी का है दिया
जग की सेवा खोज अपनी, प्रीति उनसे कीजिये
जिन्दगी का राज है, यह जानकर जी लीजिये
साधना की राह पर, यह साधन किसी का है दिया
मैं नहीं, मेरा नहीं यह तन किसी का है दिया
देने वाले ने दिया, वह भी दिया किस शान से
"मेरा है" यह लेने वाला, कह उठा अभिमान से
"मैं", ‘मेरा’ यह कहने वाला, मन किसी का है दिया
मैं नहीं, मेरा नहीं, यह तन किसी का है दिया
जो भी अपने पास है, वह सब किसी का है दिया
मैं नहीं, मेरा नहीं, यह तन किसी का है दिया
जो भी अपने पास है, वह धन किसी का है दिया
मैं नहीं, मेरा नहीं, यह तन किसी का है दिया"
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भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को मेरा नमन॥
ॐ तत्सत् !!
१० नवंबर २०२१

जीवन का एक भी पल भगवान की स्मृति के बिना व्यतीत न हो ---

जीवन का एक भी पल भगवान की स्मृति के बिना व्यतीत न हो। भगवान की कृपा से हरेक बाधा के मध्य कोई न कोई मार्ग निकल ही आता है। चारों ओर चाहे अंधकार ही अंधकार और मुसीबतों के पहाड़ हों, भगवान की कृपा उन अंधकारमय विकराल पर्वतों को चीर कर हमारा मार्ग प्रशस्त कर देती है। भगवान का शाश्वत् वचन है --

"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहाङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥"१८:५८॥"
अर्थात् - "मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥"
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पता नहीं कितने जन्मों के पश्चात इस जन्म की एकमात्र उपलब्धि यही है कि भगवान ने इस हृदय को अपना स्थायी निवास बना लिया है। इस हृदय का केंद्र तो सारी सृष्टि में व उस से परे भी सर्वत्र है, पर परिधि कहीं भी नहीं। इस हृदय में स्थित सर्वव्यापी ज्योतिर्मय भगवान स्वयं ही अपना ध्यान और उपासना करते हैं। भगवान इस हृदय में स्थायी रूप से बस गए हैं, और मुझे भी अपने हृदय में स्थान दे दिया है। इसके अतिरिक्त मुझे अन्य कुछ कभी चाहिए भी नहीं था, और कभी चाहूँगा भी नहीं।
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हे प्रभु, अपनी परम मंगलमय आरोग्यकारी उपस्थिती को सभी के अन्तःकरण में व्यक्त करो। भारत के भीतर और बाहर के सभी शत्रुओं का नाश हो। भारत अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ, एक सत्यनिष्ठ, अखंड, सनातन धर्मावलम्बी, आध्यात्मिक राष्ट्र बने। इस राष्ट्र में छायी हुई असत्य और अंधकार की आसुरी शक्तियों का समूल नाश हो। इस देश के सभी नागरिक सत्यनिष्ठ, राष्ट्रभक्त और उच्च चरित्रवान बनें। ॐ शांति शांति शांति॥ ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ नवंबर २०२१

हे परमशिव, तुम अब और छिप नहीं सकते ---

 हे परमशिव, तुम अब और छिप नहीं सकते। तुम्हें यहीं, और इसी समय मुझे अपने साथ एक करना ही होगा। तुम्हारे से कुछ भी माँगना भी एक दुराग्रह है, लेकिन जायें तो जायें कहाँ? तुम्हारे सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं।

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यह अनंताकाश जिसमें सारी सृष्टि समाहित है, तुम्हारा ही संकल्प और तुम्हारी ही अभिव्यक्ति है। तुम स्वयं ही सर्वस्व हो। तुम्हारे सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं। मैं तुम्हारी ही अनंतता और तुम्हारा ही परमप्रेम हूँ। तुम्हारी पूर्णता मुझ में पूर्णतः व्यक्त हो। मेरा समर्पण स्वीकार करो। अन्य कुछ होने या पाने की किसी कामना का जन्म ही न हो। तुम ही कर्ता और भोक्ता हो। तुम स्वयं ही स्वयं से प्रसन्न रहो।
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तुम्हारे से विरह का भी एक आनंद था। तुम्हारी कृपा से तुम्हारे प्रति अभीप्सा (कभी न बुझने वाली प्यास), तड़प और प्रेम की निरंतरता बनी हुई थी, लेकिन अब उस से भी हृदय तृप्त हो गया है। तुमने मुझे अपनी माया के आवरण और विक्षेप से सदा बचाकर रखा, अपना विस्मरण एक क्षण के लिए भी नहीं होने दिया, और अपनी चेतना में रखा, इसके लिए आभारी हूँ। अब तो तुम्हारे से एकत्व की तड़प है। इस अभीप्सा को तृप्त करो। ॐ ॐ ॐ !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
११ नवंबर २०२१
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पुनश्च:---
"परमशिव ही सर्वस्व हैं।" हम सब परमशिव में ही रमण करें। इनका ही ध्यान करें, और अंत में इन्हीं में लय हो जायें।
हे प्रियतम परमशिव, मुझे आपसे प्यार हो गया है। आप सदा मुझे प्यारे लगें और मुझे अपने साथ एक करें। यह मेरे हृदय की तड़प और प्यास है। आप ने मेरे चारों ओर एक ऐसा घेरा डाल दिया है मैं उससे बाहर नहीं निकल सकता। मेरी चेतना में तो सर्वत्र मुझे शिव ही शिव दिखाई दे रहे हैं। मेरा अन्तःकरण आपको समर्पित है। सूक्ष्म जगत की अनंतता से भी परे आप अपने परम-ज्योतिर्मय लोक में बिराजमान हैं। जहाँ आप हैं, वहीं मैं हूँ। मैं जितना इस देह में हूँ, उतना ही आपके साथ अनंतता और सर्वव्यापकता में हूँ। ॐ ॐ ॐ !!
२६ नवंबर २०२१

हमें भगवान की प्रत्यक्ष उपस्थिती चाहिये ---

हमें भगवान की प्रत्यक्ष उपस्थिती चाहिये, न कि मीठी मीठी बातें या किसी भी तरह का कोई उपदेश। सत्संग भी प्रत्यक्ष भगवान का ही चाहिये, न कि उनके बारे में बात करने वालों का। हमारे हृदय की भक्ति, अभीप्सा, तड़प, और समर्पण सिर्फ भगवान के लिए है, न कि किसी अन्य के लिए।

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भगवान की भक्ति हमारा स्वधर्म है। कहते हैं -- "यतो धर्मस्ततो जयः", लेकिन जब धर्म ही नहीं रहेगा, तो जय किस की होगी? हमारा जीवन -- धर्म और अधर्म के बीच का एक युद्ध है जो सनातन काल से ही चल रहा है। भारत की सबसे बड़ी समस्या और असली युद्ध अधर्म से है, जिसे हम छल, कपट, ठगी, भ्रष्टाचार, घूसखोरी और बेईमानी कहते हैं। अन्य सब समस्यायें गौण हैं। हमारी सबसे बड़ी कमी राष्ट्रीय चरित्र का अभाव है।
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भगवान से प्रार्थना भी हम लोग अपने झूठ, कपट और बेईमानी में सिद्धि यानि अधर्म/असत्य की सफलता के लिए ही करते हैं। लोग बातें बड़ी बड़ी धर्म की करते हैं पर उन सब के जीवन में अधर्माचरण एक व्यावहारिकता और शिष्टाचार हो गया है। यह महाविनाश को आमंत्रण है। भगवान हमारी रक्षा करें।
ॐ तत्सत् !!
१२ नवंबर २०२१