आध्यात्मिक दृष्टि से "स्वार्थ" और "परमार्थ" शब्दों में कोई अंतर नहीं है। ऐसे ही "साकार" और "निराकार" में भी कुछ भेद नहीं है।
'स्व' क्या है? और 'परम' क्या है? ये दोनों शब्द पारब्रह्म परमात्मा का संकेत करते हैं। हम यह देह नहीं, शाश्वत आत्मा, आत्म-तत्व -- स्वयं परमात्मा हैं। पूर्ण प्रेम से उन्हीं का ध्यान और उपासना करें। वास्तव में भगवान स्वयं ही अपना ध्यान करते हैं। हमारा कर्ताभाव मिथ्या है।
.
ध्यान-साधना करते-करते एक समय ऐसा भी आता है जब चेतना इस भौतिक देह के ब्रह्मरंध्र से बाहर अनंतता में चली जाती है, और अनंतता के साथ एकाकार होकर अनंतता से भी परे ध्यानस्थ हो जाती है। तब पता चलता है कि हम यह शरीर नहीं, शाश्वत आत्मा हैं। परमात्मा की अनंतता से भी परे एक दिव्य ज्योति के दर्शन जब होने लगें तब उस ज्योति पर ही ध्यान, और उसी को समर्पित होने की साधना करें। वह कूटस्थ परम ज्योति ही उपास्य है। वह कूटस्थ ज्योति फिर एक पंचमुखी नक्षत्र का आकार ले ले लेती है। मैं उन्हें ही पंचमुखी महादेव और परमशिव कहता हूँ। वे ही नारायण हैं, वे ही वासुदेव हैं। वे ही मेरे आराध्य देव हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
८ नवंबर २०२१
No comments:
Post a Comment