Friday, 16 December 2016

ध्यान साधना के बारे में कुछ सुझाव .....

जो लोग ध्यान साधना करते हैं उनको मैं मेरे लंबे अनुभव से एक सुझाव देना चाहता हूँ| आप चाहे किसी भी गुरु परम्परा का अनुसरण करते हों पर नीचे लिखी कुछ बातें आपकी साधना में बहुत सहायक होंगी|
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ध्यान से पूर्व सूर्य-नमस्कार, अनुलोम-विलोम प्राणायाम और पश्चिमोत्तानासन का अभ्यास बहुत सहायक होता है| प्रार्थना करके पूर्व या उत्तर की ओर मुँह कर के ऊनी कम्बल पर पद्मासन या सिद्धासन में बैठें और आतंरिक प्राणायाम, अजपा-जप और ओंकार पर ध्यान करें|
थोड़े थोड़े अभ्यास से आपका ध्यान बहुत गहरा होने लगेगा| खेचरी मुद्रा भी किसी योग्य योगाचार्य से सीखें और अभ्यास करें| ध्यान में पूर्णता खेचरी मुद्रा की सिद्धि के उपरांत ही आएगी|
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एक ही आसन पर बैठे बैठे यदि थक जाएँ तो फिर दो-तीन बार पश्चिमोत्तानासन आदि कुछ योगासनों का फिर से अभ्यास करें और गहरी साँसें लें| थकान दूर हो जायेगी| यदि आपकी कमर और गर्दन में तकलीफ है तो डॉक्टर को पूछे बिना कोई भी योगासन ना करें|
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ध्यान के बाद योनी-मुद्रा आदि का अभ्यास करें जिसे किसी योगाचार्य से सीख सकते हैं| जब भी पर्याप्त समय मिले, लंबे समय तक ओंकार पर ध्यान करें और गुरुप्रदत्त मंत्र का यथासंभव अधिकाधिक जाप करें| ध्यान का समापन सर्वस्व के प्रति प्रार्थना कर के ही करें|
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रात्रि को सोने से पूर्व खूब खूब गहरा ध्यान कर के निश्चिन्त होकर जगन्माता की गोद में सो जाएँ| प्रातःकाल परमात्मा का चिंतन करते हुए ही उठें| दिन का प्रारम्भ परमात्मा के ध्यान से ही करें|
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पूरे दिन परमात्मा का अनुस्मरण करते रहें| कुसंग का सर्वदा त्याग, सत्संग और प्रेरणास्पद सद्साहित्य का स्वाध्याय करते रहें|
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अपने विचारों का ध्यान रखें| हम जो कुछ भी हैं वह अपने अतीत के विचारों से हैं| हम भविष्य में वही होंगे जैसे वर्त्तमान में हमारे विचार हैं|
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सभी को शुभ कामनाएँ | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

भक्ति का दिखावा, भक्ति का अहंकार , और साधना का समर्पण ......

भक्ति का दिखावा, भक्ति का अहंकार , और साधना का समर्पण ......
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किसी भी साधक के लिए सबसे बड़ी बाधा है .... भक्ति का दिखावा और भक्ति का अहंकार|
कई लोग सिर्फ दिखावे के लिए या अपने आप को प्रतिष्ठित कराने के लिए ही भक्ति का दिखावा करते हैं| वे लोग अन्य किसी को नहीं बल्कि अपने आप को ही ठग रहे हैं| जहाँ तक हो सके अपनी साधना को गोपनीय रखें|
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भक्त या साधक होने का अहंकार सबसे बड़ा अहंकार है| इसके दुष्परिणाम भी सबसे अधिक हैं|
इससे बचने का एक ही उपाय है ..... अपनी भक्ति और साधना का फल तुरंत भगवान को अर्पित कर दो, अपने पास बचाकार कुछ भी ना रखो, सब कुछ भगवान को अर्पित कर दो| अपने आप को भी परमात्मा को अर्पित कर दो| कर्ता भाव से मुक्त हो जाओ| हम भगवान के एक उपकरण या खिलौने के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं हैं|
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आप कोई साधना नहीं करते हैं, आपके गुरु महाराज या स्वयं भगवान ही आपके माध्यम से साधना कर रहे हैं ..... यह भाव रखने पर कहीं कोई त्रुटी भी होगी तो उसका शोधन गुरु महाराज या भगवान स्वयं कर देंगे| कर्ता भगवान को बनाइये, स्वयं को नहीं|
प्रभु के प्रेम के अतिरिक्त अन्य कोई भी कामना न रखें| उनके प्रेम पर तो आपका जन्मसिद्ध अधिकार है| अन्य कुछ भी आपका नहीं है|
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ॐ गुरु ॐ | गुरु ॐ | गुरु ॐ ||

विचारपूर्वक दृढ़ निश्चय से किया हुआ हर संकल्प पूर्ण होता है ........

विचारपूर्वक दृढ़ निश्चय से किया हुआ हर संकल्प पूर्ण होता है ........
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एक व्यक्ति का विचारपूर्वक किया हुआ दृढ़ संकल्प भी विश्व के घटना क्रम और विचारों को बदल सकता है| अनेक व्यक्तियों का शिव संकल्प राष्ट्र की नियति बदल सकता है|
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अपने संकल्प को ईश्वर के संकल्प से जोड़कर हम सनातन हिन्दू धर्म की पुनर्स्थापना कर भारतवर्ष को परम वैभव के साथ अध्यात्मिक अखंड हिन्दू राष्ट्र भी बना सकते हैं और रामराज्य की स्थापना भी कर सकते हैं|
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भारत की आत्मा आध्यात्मिक है| भारत का पुनरोत्थान एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति से होगा| इसके लिए हम सब सब की सहभागिता अपेक्षित है| अब समय आ गया है|
यह कार्य आरम्भ हो चुका है| आप सब इस संकल्प से जुड़िये और परम वैभव युक्त आध्यात्मिक अखंड भारत का ध्यान अपनी चेतना में सदैव कीजिये|
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भारत पुनश्च अखंड होगा और धर्म की पुनर्स्थापना होगी| अज्ञान और असत्य का अन्धकार दूर होगा और भारत माँ अपने परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर विराजमान होगी|
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सत्य सनातन धर्म की जय हो| जयतु वैदिकीसंस्कृतिः जयतु भारतम् |
---जय श्रीराम---
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धी क्या हो सकती है ? .....


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कल पूरी रात खाँसी से त्रस्त था, रात को सो नहीं पाया, पूरी रात बहुत खाँसी आई| भोर में बहुत थोड़ी सी देर नींद आई| जब नींद खुली तब एक बड़ी दिव्य अनुभूति हुई| मन में यही प्रश्न उठा कि मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि क्या हो सकती है? अचानक दोनों नासिकाएँ खुल गईं, दोनों नासिकाओं से सांस चलने लगी, सुषुम्ना चैतन्य हो गयी, मैं कमर सीधी कर के बैठ गया और एक दिव्य अलौकिक चेतना में चला गया| पूरा ह्रदय प्रेम से भर उठा| प्रेम भी ऐसा जो अवर्णनीय है| पूरा अस्तित्व प्रेममय हो गया| प्रेमाश्रुओं से नयन भर गए| ऐसा लगा जैसे एक छोटा सा बालक जगन्माता की गोद में बैठा हो और माँ उसे खूब प्रेम कर रही हो| तब इस प्रश्न का उत्तर मिल गया कि जीवन की उच्चतम उपलब्धी क्या हो सकती है| जब प्रत्यक्ष परमात्मा का प्यार चाहे वह अति अल्प मात्रा में ही मिल जाए, तो उससे बड़ी अन्य क्या कोई उपलब्धी हो सकती है? हे जगन्माता, चाहे तुमने अपने प्यार का एक कण ही दिया हो, पर वह मेरे लिए अनमोल है| माँ, मुझे अपनी चेतना में रखो| तुम्हारा प्यार ही मेरे लिए सर्वोच्च उपलब्धी है| तुम्हारे प्रेम की चेतना में निरंतर सचेतन स्थित रहूँ| और कुछ भी नहीं चाहिए| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

एकोsहं द्वितीयो नास्ति ......

एकोsहं द्वितीयो नास्ति ......
मेरे एक अति प्रिय मित्र मेरा सदा उपहास करते हैं कि मैं कभी गहन अद्वैत वेदांत की बात करता हूँ , और कभी शुद्ध द्वैत की | पर मुझे इसमें कोई आश्चर्य नहीं है |
मेरे लिए किसी भी तरह से द्वैत-अद्वैत, साकार निराकार, मत-मतान्तर और सम्प्रदाय आदि से कोई अंतर नहीं पड़ता| 
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उपासना, उपास्य और उपासक ......... 
दृष्टी, दृश्य और दृष्टा ........
साधक, साध्य और साधना ........
मेरे लिए ये सब मेरे प्रियतम की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ है|
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मेरी यह भौतिक, प्राणिक, मानसिक, और आध्यात्मिक देह भी उसी प्रियतम का रूप हैं| जो वे हैं वे ही मैं हूँ, और जो मैं हूँ वे ही वे हैं|
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यह भेद एक मायावी आवरण मात्र है| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||