Friday, 12 May 2017

अक्षय तृतीया .....

अक्षय तृतीया .....
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वैसे तो सभी बारह महीनों की शुक्ल पक्षीय तृतीया शुभ होती है, किंतु वैशाख माह की तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई है। भविष्य पुराण के अनुसार इस तिथि की युगादि तिथियों में गणना होती है, सतयुग और त्रेता युग का प्रारंभ इसी तिथि से हुआ है। भगवान विष्णु ने नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम जी का अवतरण भी इसी तिथि को हुआ था। ब्रह्माजी के पुत्र अक्षय कुमार का आविर्भाव भी इसी दिन हुआ था। इस दिन श्री बद्रीनाथ जी की प्रतिमा स्थापित कर पूजा की जाती है और श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन किए जाते हैं। प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बद्रीनारायण के कपाट भी इसी तिथि से ही पुनः खुलते हैं। वृंदावन स्थित श्री बांके बिहारी जी मन्दिर में भी केवल इसी दिन श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं, अन्यथा वे पूरे वर्ष वस्त्रों से ढके रहते हैं। इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था और द्वापर युग का समापन भी इसी दिन हुआ था। ऐसी मान्यता है कि इस दिन से प्रारम्भ किए गए कार्य अथवा इस दिन को किए गए दान का कभी भी क्षय नहीं होता। मदनरत्न के अनुसार:
अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं। तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया॥
उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः। तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव॥

अक्षय तृतीया का सर्वसिद्ध मुहूर्त के रूप में भी विशेष महत्व है। मान्यता है कि इस दिन बिना कोई पंचांग देखे कोई भी शुभ व मांगलिक कार्य जैसे विवाह, गृह-प्रवेश, वस्त्र-आभूषणों की खरीददारी या घर, भूखंड, वाहन आदि की खरीददारी से संबंधित कार्य किए जा सकते हैं। नवीन वस्त्र, आभूषण आदि धारण करने और नई संस्था, समाज आदि की स्थापना या उदघाटन का कार्य श्रेष्ठ माना जाता है।

पुराणों में लिखा है कि इस दिन पितरों को किया गया तर्पण तथा पिन्डदान अथवा किसी और प्रकार का दान, अक्षय फल प्रदान करता है। इस दिन गंगा स्नान करने से तथा भगवत पूजन से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस दिन किया गया जप, तप, हवन, स्वाध्याय और दान भी अक्षय हो जाता है। यह तिथि यदि सोमवार तथा रोहिणी नक्षत्र के दिन आए तो इस दिन किए गए दान, जप-तप का फल बहुत अधिक बढ़ जाता हैं। इसके अतिरिक्त यदि यह तृतीया मध्याह्न से पहले शुरू होकर प्रदोष काल तक रहे तो बहुत ही श्रेष्ठ मानी जाती है। यह भी माना जाता है कि आज के दिन मनुष्य अपने या स्वजनों द्वारा किए गए जाने-अनजाने अपराधों की सच्चे मन से ईश्वर से क्षमा प्रार्थना करे तो भगवान उसके अपराधों को क्षमा कर देते हैं और उसे सदगुण प्रदान करते हैं, अतः आज के दिन अपने दुर्गुणों को भगवान के चरणों में सदा के लिए अर्पित कर उनसे सदगुणों का वरदान माँगने की परंपरा भी है।

हम भारतीयों का ऐसा मानना है कि इस शुभ दिन हम जो भी कार्य करते हैं, उसका फल हमें सदा मिलता रहता है। इसलिए हम लोग इस दिन अपने खजाने को भरते हैं अर्थार्थ ऐसी विधि है कि लोग इस दिन कुछ स्वर्ण कि वस्तु खरीद लेते हैं, क्योंकि उनका ऐसा विश्वास है कि इस दिन खरीदा गया सोना कभी साथ नहीं छोड़ेगा। मुझे इस विचार से कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु बंधुओ ज़रा सोचिये कि इस संसार में ऐसी कौनसी चीज़ है जो हमारा साथ कभी नहीं छोडेगी। यदि वह वस्तु हमसे अलग नहीं होगी तो एक दिन हमें उस वस्तु का त्याग करना होगा, क्योंकि इस संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है। यदि कोई ऐसी चीज़ है जो हमेशा हमारे साथ रहेगी, वह जैसा की माननीय कृपा शंकर जी ने बताया, नारायण का नाम। इसलिए हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम इस दिन अपनी तिजोरी को तो भरें पर अपने प्रभु को भी याद कर लें क्यूंकि वास्तविकता में अक्षय तो वही हैं। केवल प्रभु की कृपा ही है, केवल हमारे गुरुजनों का आशीर्वाद ही है और केवल हमारे माता-पिता का प्यार ही है जो हमारा साथ कभी नहीं छोड़ता। इसलिए 'ॐ नमो भगवते वसुदेवाय' मंत्र का अधिकाधिक जप कीजिये।
बोलो नारायण नारायण हरि हरि..... श्रीमन्नारायण नारायण नारायण.....

बंधुओ, इस अक्षय तृतीया पर लौकिक नहीं अलौकिक को पाने का प्रयत्न करिये। प्रभु का प्रसाद पाइए जो नश्वर नहीं है। हमारा इतिहास हमें दान करना सिखाता है, किसी ज़रूरतमंद को दान दीजिए और उसकी दुआ लीजिए क्यूंकि बुरे वक़्त में पैसा या रिश्ते काम नहीं आते, बुरे वक्त में तो केवल दुआ ही काम आती है...... ॐ नमो भगवते वसुदेवाय ......

यह जैन धर्मावलम्बियों का भी महान धार्मिक पर्व है। इसी दिन जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ भगवान ने एक वर्ष की पूर्ण तपस्या करने के पश्चात इक्षु शोरडी(गन्ने का रस) से पारायण किया था।

(मिथिलेश द्विवेदी)

विकास के परिचायक क्या हैं ? .....

ऊँचे चमचमाते भवन, भव्य साफ-सुथरी सड़कें, और स्वच्छ सुन्दर कपड़े पहिने मनुष्य ही ..... विकास के परिचायक नहीं हो सकते |

वास्तविक विकास के परिचायक हैं ..... उच्च चरित्रवान, स्वाभिमानी, राष्ट्रप्रेमी, परोपकारी, धर्मपरायण और सत्यनिष्ठ नागरिक | जब ये होंगे तब अन्य सब अपने आप ही हो जाएगा |

वर्षों पहिले एक-दो बार हांगकांग गया था जहाँ की भव्य सड़कें, चमचमाती इमारतें और बाहरी वैभव देखकर बड़ा प्रभावित हुआ था| पर वहाँ के लोगों का जीवन और सोच देखकर निराशा ही हुई| यही अनुभूति मुझे अमेरिका के न्यूयॉर्क नगर के डाउन टाउन मैनहट्टन में हुई|

वैदिक काल का भारतवर्ष कितना वैभवशाली रहा होगा, इसकी मैं सिर्फ कल्पना ही कर सकता हूँ| उस कल्पना से ही लगता है कि भारत कितना महान था| उस परम वैभव को हम फिर से निश्चित रूप से प्राप्त करेंगे|

ॐ ॐ ॐ ||

समय बहुत अल्प है ......

समय बहुत अल्प है ......
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जब तक यह ज्ञान होता है कि समय बहुत अल्प है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है| करने के लिए इतने सारे काम और दुनियाँ भर के दायित्व, कर्तव्य, साध्य और साधन ! इस प्रपंच भरी उथल-पुथल में इतने अल्प समय में क्या करें और क्या ना करें ? यह एक यक्ष प्रश्न है|

जिसने यह सृष्टि बनाई है वह अपनी कृति के लिए स्वयं सक्षम और जिम्मेदार है| उसे किसी के परामर्श या सहयोग की आवश्यकता नहीं है| प्रकृति अपने नियमों के आधीन चल रही है| हमारे किन्तु-परन्तु करने से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला|

इतने अल्प समय में सर्वश्रेष्ठ क्या किया जा सकता है?
इसका उत्तर स्वयं ढूँढ रहा हूँ| किसी अन्य के उत्तर से संतुष्टि नहीं मिल रही|
अब तक प्रभु की इतनी कृपा रही है कि हर इच्छा पूर्ण हुई है| जीवन में जिस भी चीज की कामना की वह अनायास स्वतः ही प्राप्त हो गयी| अब कोई इच्छा बची ही नहीं है| फिर भी प्राणों में एक गहन अभीप्सा और तड़प है| आगे का पथ भी दिखाई देने लगा है, जिसके साथ अब और कोई समझौता नहीं हो सकता|

जीवन में इतने सारे साथी मिले जिनसे इतना प्रेम और प्रोत्साहन मिला, उन सब के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ| पर असली कृतज्ञता तो उस के प्रति है जो सब साथियों और सम्बन्धियों के रूप में आया|

करने को बहुत कुछ है पर समय बहुत कम बचा है| इस दीपक का तेल निरंतर कम होता जा रहा है|
समय बहुत अल्प है|

आप सब निजात्मगण को सादर साभार नमन ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
११ मई २०१४

समर्पण !!! .....

समर्पण !!! ....

अब इतनी शारीरिक और मानसिक क्षमता, उत्साह व ऊर्जा नहीं बची है कि मैं भगवान का ध्यान कर सकूँ | भक्तिभाव में भी संदेह होने लगा है कि कहीं यह आत्म-संतुष्टि के लिए हो रही भावुकता मात्र ही तो नहीं है | यह सोच विचार कर सब कुछ अपनी विवशता में भगवान को ही समर्पित कर दिया कि हे प्रभु, आप जानो और आपका काम जाने, मेरे वश की यह बात नहीं है | अगर साधना ही करानी थी तो उसकी सामर्थ्य भी देते ! अब तो कुछ नहीं चाहिए आपसे |

पर घोर आश्चर्य !!!!!!

सहसा मैंने यह पाया है कि मेरा कुछ करने का भाव तो एक भ्रम मात्र था | सब कुछ तो परम ब्रह्म परम शिव ही कर रहे हैं | वे अपना ध्यान स्वयं ही कर रहे हैं | मैं तो मात्र एक उपकरण था जिसका कोई अस्तित्व अब नहीं रहा है | मैनें तो उनके श्रीचरणों में आश्रय माँगा था, पर उन्होंने तो अपने ह्रदय में ही मुझे बसा लिया है |
हे प्रभु, यह सृष्टि आपके मन का एक विचार या स्वप्न मात्र है | आपके इस विचार या स्वप्न में मेरा आपसे अब कोई पृथक अस्तित्व नहीं है | मेरी अपनी पृथकता यानि मेरापन, सारे संचित कर्मफल, सारी कमियाँ, अच्छाइयाँ, बुराईयाँ, अवगुण, गुण, पाप व पुण्य सब आपको ही बापस अर्पित है | मुझ में इतनी क्षमता नहीं है कि अब और कोई साधना कर सकूँ | आप और मैं एक हैं, और सदा एक ही रहेंगे | जो आप हैं वह ही मैं हूँ, और जो मैं हूँ वह ही आप हैं |

ॐ ॐ ॐ ||

हे परम शिव, अपने ध्यान से कभी विमुख मत करो ......

हे परम शिव, अपने ध्यान से कभी विमुख मत करो ......
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ध्यान एक ऐसी स्थिति है जिसकी आनंदमय गहराई में साधक पूर्ण रूप से संतुष्ट रहता है| वहाँ असंतोष का एक कण मात्र भी नहीं रहता| कोई शिकायत नहीं, कोई निंदा व आलोचना नहीं, और कोई राग-द्वेष व अहंकार नहीं| उस स्थिति में निःसंग, असम्बद्ध और अप्रतिबद्ध रहना स्वाभाविक है क्योंकि एकमात्र अस्तित्व परमात्मा का ही रहता है, अन्य कोई नहीं|
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वह आनंदमय स्थिति सदा बनी रहे, अन्य कोई विकल्प नहीं रहे, इससे अच्छा और कुछ नहीं हो सकता| यही सबसे बड़ी सेवा और सबसे बड़ा कर्त्तव्य है|
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हे परम शिव, हे परात्पर गुरु, अब कोई अन्य प्रार्थना या स्तुति नहीं हो सकती| आपसे अतिरिक्त अन्य कोई है ही नहीं तब कैसी स्तुति और कैसी प्रार्थना?
समस्त अस्तित्व ही तुम्ही हो| अपनी पूर्णता सभी के हृदयों में व्यक्त करो|

ॐ ॐ ॐ ||

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियों से ही भारत आज़ाद हुआ था .....

09May2016
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियों से ही भारत आज़ाद हुआ था .....
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आज से ७१ वर्ष पूर्व ९ मई १९४५ को द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति रूसी सेना द्वारा जर्मनी को पूर्ण रूप से पराजित कर बर्लिन पर किये अधिकार के पश्चात हुई थी| इससे पूर्व इटली और जापान भी परास्त कर दिए गए थे|
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मित्र राष्ट्रों की सेनाएँ बर्लिन की ओर बढ़ रही थीं और रूस की सेना दो टुकड़ियों में अलग अलग दिशाओं से युद्ध करती हुई आगे बढ़ रही थीं| रुसी फील्ड मार्शल जुकोव की सैन्य टुकड़ी ने सबसे पहिले पहुँच कर मर्मान्तक और अंतिम निर्णायक प्रहार कर जर्मनी को पूर्णतः पराजित कर युद्ध को समाप्त कर दिया|
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पूरे युद्ध में सभी मोर्चों पर जर्मन सेनाएँ बहुत अधिक वीरता और साहस के साथ लड़ीं, युद्ध में वीरता के अनेक कीर्तिमान उन्होंने स्थापित किये पर उनके भाग्य में पराजय ही लिखी थी|
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इस युद्ध में अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों का युद्ध के चारे (War fodder) के रूप में प्रयोग किया| जैसे आग में ईंधन डालते हैं वैसे ही युद्ध की आग में मरने के लिए भारतीय सैनिकों को झोंक दिया जाता था| अंग्रेजों ने लाखों भारतीय सैनिको को किस किस तरह से मरवाया इसके बारे में अनुसंधान किया जाए और लिखा जाय तो अनेक ग्रन्थ लिखे जायेंगे|
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अंग्रेजों ने भारत छोड़ने से पूर्व अपने द्वारा किये हुए नरसंहारों और अत्याचारों के सारे अभिलेख नष्ट कर दिए थे और विवश होकर भारत छोड़ते समय सता का हस्तान्तरण भी अपने ही मानसपुत्रों को कर गए| अगस्त १९४७ से सन १९५२ तक अप्रत्यक्ष रूप से उन्हीं का राज था|
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अब प्रमाण मिल रहे हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय बर्मा में अंग्रेजों ने लाखों भारतीय सैनिकों को भूखे मरने के लिए छोड़ दिया था| उनका राशन योरोप में भेज दिया गया| लाखों भारतीय सैनिक तो भूख से मरने के लिए ही विवश कर दिए गए थे|
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द्वितीय विश्वयुद्ध से भारत को हुआ लाभ ......
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इस युद्ध ने अंग्रेजों की कमर तोड़ दी थी| अँगरेज़ सेनाएं हताश और बुरी तरह थक चुकी थीं| उनमें इतना सामर्थ्य नहीं बचा था की वे अपने उपनिवेशों को अपने आधीन रख सकें| नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से अँगरेज़ बहुत बुरी तरह डर गये थे| उन्हें डर था कि यदि भारतीयों के ह्रदय सम्राट नेताजी सुभाष बोस भारत में जीवित बापस आ गए तो सता उन्हीं को मिलेगी और अन्ग्रेज भारत का विभाजन भी नहीं कर पायेंगे| साथ साथ उनके मानस में भारतीय क्रांतिकारियों का भी भय था|
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युद्ध से पूर्व और युद्ध के समय वीर सावरकर ने पूरे भारत में घूम घूम कर हज़ारों राष्ट्रवादी युवकों को सेना में भर्ती करवाया| उनका विचार था कि भारतीयों के पास ना तो अस्त्र-शस्त्र हैं और न ही उन्हें उनका प्रयोग करना आता है| उनकी योजना थी कि भारतीय युवक सेना में भर्ती होकर अस्त्र चलाना सीखेंगे और फिर अंग्रेजों के उन अस्त्रों का मुँह अंग्रेजों की ओर ही कर देंगे| उनकी योजना सफल रही|
युद्ध के पश्चात् भारतीय सैनिकों ने अँगरेज़ अफसरों के आदेश मानने बंद कर दिए और उन्हें सलाम करना भी बंद कर दिया| सन १९४६ में नौसेना ने विद्रोह कर दिया| अँगरेज़ अधिकारियों को कोलाबा में बंद कर उनके चारों ओर बारूद लगा दी| पूरे बंबई के नागरिक भारतीय नौसैनिकों के समर्थन में सडकों पर आ गए|
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अँगरेज़ समझ गए कि हिन्दुस्तानी भाड़े की फौज (वे हिन्दुस्तानी सैनिकों को भाड़े के सिपाही यानि mercenary ही मानते थे) तो अब उनका आदेश नहीं मानती और अँगरेज़ सेना में इतना दम नहीं है कि उन पर नियंत्रण कर सके, तब अंग्रेजों ने भारत का जितना विनाश और कर सकते थे उतना अधिकतम विनाश कर के भारत छोड़ने का निर्णय कर लिया और भारत को तथाकथित आज़ादी यानि सत्ता हस्तांतरण अपने मानस पुत्रों को कर के चले गए| कभी भारत का स्वतंत्र सत्य इतिहास फिर लिखा जाएगा तो वास्तविक राष्ट्रनायकों का सम्मान होगा|
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रूस में विजय दिवस समारोह .....
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गत वर्ष भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी रूस में विजय दिवस समारोह में भाग लेने गए थे| साथ में भारतीय सेना की एक टुकड़ी भी इस समारोह में भाग लेने रूस गयी थी| रूस में यह विजय दिवस बहुत धूमधाम से मनाया जाता है| मुझे भी एक बार रूस में विजय दिवस समारोह को देखने का अवसर मिला है|
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श्रद्धांजली ....
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द्वितीय विश्व युद्ध में जापान, इटली और जर्मनी के विरुद्ध सभी मोर्चों पर लड़ते हुए मारे गए और मरवाए गए, तत्कालीन पराधीन भारत के सभी सैनिको को श्रद्धांजली देता हूँ| भगवान उन सबका और उनके परिवारों का कल्याण करे|
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वे तो बेचारे अपनी आजीविका के लिए सैनिक बने थे पर उन्हें क्या पता था कि उनकी मृत्यु विदेशी धरती पर विदेशियों के द्वारा होगी| उनके बलिदान के कारण ही हम आज स्वतंत्र होकर सम्मान से सिर ऊँचा कर के बैठे है| आज़ाद हिन्द फौज के सिपाहियों को तो किसी भी तरह का सम्मान और सेवानिवृति की कोई सुविधाएँ ही नहीं दी गईं थी|
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भारत माता की जय ! वन्दे मातरं ! जय जननी जय भारत ! जय श्री राम !
ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
09May2016

महा ढोंग और पाखंड ....

महा ढोंग और पाखंड ....
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बड़े दुर्भाग्य की बात है कि इस सेकुलरिज्म के कारण आज भारत के युवा हिन्दू अपने धर्म और संस्कृति को भूल चुके हैं|
सरकारी मान्यता प्राप्त विद्यालयों में मुसलमान और ईसाई तो अपने बच्चों को अपने धर्म की शिक्षा दे सकते हैं, इससे सेकुलरिज्म पर कोई खतरा नहीं आता|
पर जब हिन्दू अपने बच्चों को धर्म की शिक्षा देना चाहें तो सेकुलरिज्म खतरे में आ जाता है, और साम्प्रदायिकता का जन्म हो जाता है|
यह एक महा ढोंग और पाखंड है|
यह एक षड्यंत्र है भारत की अस्मिता को समाप्त करने का|
भारत में युवा हिन्दू बालकों को यह भी नहीं पता कि सौलह संस्कार कौन कौन से होते है, पञ्च महायज्ञ क्या हैं, कितने दर्शन शास्त्र हैं, भक्ति क्या है, रामायण, महाभारत और गीता के उपदेश क्या हैं, आदि आदि| बालकों को यदि बाल्यकाल से ही ध्यान आदि सिखाए जाएँ तो चरित्रवान किशोरों का निर्माण होगा| पर इनकी बात करते ही सेकुलरिज्म खतरे में पड़ जाता है|
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ऐसे ही भारत के प्राचीन कुटीर उद्योग और कृषि व्यवस्था नष्ट हो चुकी है|
भारत का मलमल कभी विश्व का सर्वश्रेष्ठ कपड़ा हुआ करता था|
भारत इतना अन्न उत्पन्न करता था कि उससे पूरे विश्व का भरण पोषण हो सकता था| पर आज हम अपने पारंपरिक बीज गंवा चुके हैं और विदेशी कंपनियों के नपुंसक बीजों पर निर्भर हो गए है| गाय के गोबर से बनी खाद भूमि को उपजाऊ रखती थी, पर आज रासायनिक खादों और कीट नाशकों से भूमि पूरी तरह बंजर हो रही है| कैंसर की बीमारी बढ़ रही है|
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भारत को अपनी प्राचीन कृषि और शिक्षा व्यवस्था को पुनर्जीवित करना ही होगा|

आदि शंकराचार्य और भक्तिवाद .......

आदि शंकराचार्य और भक्तिवाद .......
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आदि शंकराचार्य के बारे में सामान्य जन में यही धारणा है कि उन्होंने सिर्फ अद्वैतवाद या अद्वैत वेदांत को प्रतिपादित किया| पर यह सही नहीं है| अद्वैतवादी से अधिक वे एक भक्त थे और उन्होंने भक्ति को अधिक महत्व दिया|
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अद्वैतवाद के प्रतिपादक तो उनके परम गुरु ऋषि गौड़पाद थे जिन्होनें 'माण्डुक्यकारिका' ग्रन्थ की रचना की| आचार्य गौड़पाद ने माण्डुक्योपनिषद पर आधारित अपने ग्रन्थ मांडूक्यकारिका में जिन तत्वों का निरूपण किया उन्हीं का शंकराचार्य ने विस्तृत रूप दिया| अपने परम गुरु को श्रद्धा निवेदन करने हेतु शंकराचार्य ने सबसे पहिले माण्डुक्यकारिका पर भाष्य लिखा| आचार्य गौड़पाद श्रीविद्या के भी उपासक थे|
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शंकराचार्य के गुरु योगीन्द्र गोविन्दपाद थे जिन्होंने पिचासी श्लोकों के ग्रन्थ 'अद्वैतानुभूति' की रचना की| उनकी और भगवान पातंजलि की गुफाएँ पास पास ओंकारेश्वर के निकट नर्मदा तट पर घने वन में हैं| वहां आसपास और भी गुफाएँ हैं जहाँ अनेक सिद्ध संत तपस्यारत हैं| पूरा क्षेत्र तपोभूमि है|
राजाधिराज मान्धाता ने यहीं पर शिवजी के लिए इतनी घनघोर तपस्या की थी कि शिवजी को ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होना पड़ा जो ओंकारेश्वर कहलाता है|
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अपने 'विवेक चूडामणि' ग्रन्थ में शंकराचार्य कहते हैं ----
भक्ति प्रसिद्धा भव मोक्षनाय नात्र ततो साधनमस्ति किंचित् |
-- "साधना का आरम्भ भी भक्ति से होता है और उसका चरम उत्कर्ष भी भक्ति में ही होता है|"
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परम भक्ति और परम ज्ञान दोनों एक ही हैं|
भक्ति की उनकी बहुत सारी रचनाएं हैं जिनका विस्तार भय से यहाँ उल्लेख नहीं कर रहा|
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भगवान शंकराचार्य एक बार शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे कि मार्ग में उन्होंने देखा कि एक वृद्ध विद्वान पंडित जी अपने शिष्यों को पाणिनि के व्याकरण के कठिन सूत्र समझा रहे थे| उन्हें देख शंकराचार्य की भक्ति जाग उठी और उन वैयाकरण जी को भक्ति का उपदेश देने के लिए 'गोबिंद स्तोत्र' की रचना की और सुनाना आरम्भ कर दिया| यह स्तोत्र 'द्वादश मांजरिक' स्तोत्र कहलाता है|
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अन्य भी बहुत सारी इतनी सुन्दर उनकी भक्ति की रचनाएँ हैं जो भाव विभोर कर देती हैं| कम से कम शब्दों का प्रयोग करते हुए मैं इस लेख का समापन करता हूँ|
ॐ तत्सत्||
(कृपा शंकर)
May 8, 2013
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पुनश्चः ......
कुतर्क करने वाले बहुत हैं| मेरा स्पष्ट मानना है कि भक्ति माता है, और ज्ञान व वैराग्य उसके पुत्र हैं| बिना भक्ति के ज्ञान व् वैराग्य नहीं हो सकते| आदि शंकराचार्य एक जन्मजात परम भक्त थे जो उनकी कृतियों से स्पष्ट है| अद्वैत वेदांत तो उन्हें गुरु परम्परा से मिला था| जिन को संदेह है वे उनके परम गुरु आचार्य गौड़पाद की "मांडुक्यकारिका", और उनके गुरु आचार्य गोबिन्दपाद की "अद्वैतानुभूति" का अध्ययन कर सकते हैं| अपने परम गुरु के सम्मान में उन्होंने सबसे पहिले मांडुक्यकारिका पर ही भाष्य लिखा| आचार्य गौडपाद ने जिन तत्वों का निरूपण किया उन्हीं का विस्तार ही अद्वैत वेदांत है|
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मैं कोई विद्वान नहीं हूँ अतः किसी भी तरह के वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहता| मैं एक अकिंचन साधक हूँ और दृष्टिकोण भी एक साधक का ही है| शंकराचार्य ने दत्तात्रेय की परम्परा में चले आ रहे संन्यास को ही एक नया रूप दिया| एक नई व्यवस्था दी| उनकी परम्परा के अनेक संतों से मेरा सत्संग हुआ है जिसे मैं जीवन की एक अति उच्च उपलब्धि मानता हूँ|
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उनके सबसे बड़े आलोचक थे विचारमल्ल व्यासराज जिन्होंने अपने ग्रन्थ "न्यायामृत" में शंकराचार्य जी के विचारों का खंडन किया है| माधवाचार्य के अनुयायियों ने शंकराचार्य के प्रति अभद्र शब्दों का प्रयोग किया है जिनसे मैं कभी सहमत नहीं हो सकता| मेरी दृष्टी में शंकराचार्य एक महानतम प्रतिभा के धनी थे जिन्होंने आज से तेरह सौ वर्ष पूर्व इस पृथ्वी पर विचरण किया|
May 8, 2013
Kripa Shankar
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(परसों मैंने एक लेख लिखा था --- आदि शंकराचार्य और भक्तिवाद ------ | निम्न लेख उसी का विस्तार है)
एक दिन की बात है आचार्य शंकर प्रातःकाल वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर स्नान करने गये|वहां एक युवा महिला अपने पति के अंतिम संस्कार के खर्च के लिए भिक्षा मांग रही थी| अपने पति की मृत देह को घाट पर इस प्रकार लेटा रखा था कि कोई भी स्नान के लिए नीचे नहीं उतर पा रहा था|
विवश शंकराचार्य ने उस महिला से अनुरोध किया कि हे माते, यदि आप कृपा करके इस शव को थोडा सा परे हटा दें तो मैं नीचे उतर कर स्नान कर सकूं| उस शोकाकुल महिला ने कोई उत्तर नहीं दिया| बार बार अनुनय विनय करने पर वह चिल्ला कर बोली कि इस मृतक को ही क्यों नहीं कह देते कि परे हट जाए|
आचार्य शंकर ने कहा कि हे माते, यह मृतक देह स्वतः कैसे हट सकती है? इसमें प्राण थोड़े ही हैं|
इस पर वह युवा स्त्री बोली कि हे संत महाराज, ये आप ही तो हैं जो सर्वत्र यह कहते फिरते हैं कि इस शक्तिहीन जग में केवल मात्र ब्रह्म का ही एकाधिकार चलता है| एक निष्काम, निर्गुण और त्रिगुणातीत ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता नहीं है, सब माया है|
एक सामान्य महिला से इतने गहन तत्व की बात सुनकर आचार्य जडवत हो गए|-क्षण भर पश्चात् देखा कि वह महिला और उसके पति का शव दोनों ही लुप्त हो गए हैं|
स्तब्ध आचार्य शंकर इस लीला का भेद जानने के लिए ध्यानस्थ हो गए| ध्यान में वे तुरंत समझ गए कि इस अलौकिक लीला की नायिका अन्य कोई नहीं स्वयं महामाया अन्नपूर्ण थीं| यह भी उन्हें समझ में आ गया कि इस विश्व का आधार यही आदिशक्ति महामाया अपने चेतन स्वरुप में है|
इस अनुभूति से आचार्य भावविभोर हो गए| उन्होंने वहीं महामाया अन्नपूर्णा स्तोत्र की रचना की| उसके एक पद का अनुवाद निम्न है ---
हे माँ यदि समस्त देवी देवताओं के स्वरूपों का अवलोकन किया जाए तो कुछ न कुछ कमी अवश्य दृष्टिगोचर होगी| यहाँ तक कि स्वयं ब्रह्मा भी प्रलयकाल की भयंकरता से विव्हल हो जाते हैं| किन्तु हे माँ चिन्मयी एक मात्र आप ही नित्य चैतन्य और नित्य पूर्ण हैं|
एक बार आचार्य शंकर एक ब्राह्मण के घर भिक्षा मांगने गए| भिक्षा में देने के लिए ब्राह्मण की पत्नी को घर में कुछ भी नहीं मिला| एक सूखा आंवला घर में मिला वह भी बहुत ढूँढने के पश्चात्| उस ब्राह्मण की दरिद्रता से आचार्य शंकर इतने भाव विव्हल हो गए कि करूणावश उन्होंने कनकधारा स्तोत्र की रचना की और जगन्माता से उस ब्राह्मण की दरिद्रता दूर करने की प्रार्थना की| उस ब्राह्मण का घर सोने के आंवलों से भर गया|
उन्होंने संस्कृत भाषा में इतने सुन्दर भक्ति पदों की रचनाएँ की है जो अति दिव्य और अनुपम हैं| उनमे भक्ति की पराकाष्ठा है| इतना ही नहीं परम ज्ञानी के रूप में उन्होंने ब्रह्म सूत्रों, उपनिषदों और गीता पर भाष्य लिखे हैं जो अनुपम हैं|
मेरी दृष्टी में वे एक महानतम और दिव्यतम प्रतिभा थे जिसने ईसा से पाँच शताब्दी पूर्व इस धरा पर विचरण किया| सनातन धर्म की रक्षा ऐसे ही महापुरुषों से हुई है| धन्य है यह भारतभूमि जिसने ऐसी महान आत्माओं को जन्म दिया| जय जननी ! जय भारत ! ॐ तत्सत्|
१० मई २०१३
(समाप्त)