Sunday, 22 December 2024

नित्य की तरह आज का दिन भी बड़ा शुभ है ---

 नित्य की तरह आज का दिन भी बड़ा शुभ है। नींद से उठते ही भगवान ने मुझे पकड़ लिया। उनसे अधिक शुभ-चिंतक मेरा कोई अन्य नहीं है। वे स्वयं ही सो कर उठते हैं।

हे प्रभु, मैं हर समय आपके आलोक से ज्योतिर्मय हूँ। किसी भी तरह के असत्य का अंधकार मेरे आसपास भी नहीं आ सकता। मैं आपकी पूर्णता हूँ। ॐ ॐ ॐ !!
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योगेश्वर वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण के आशीर्वादों की निरंतर वर्षा हो रही है। उनकी ज्ञानगंगा हर समय प्रवाहित है. भ्रूमध्य या सहस्त्रार में उनका ध्यान करो, और स्वयं भी वहीं स्थित हो जाओ। यह जीवन कृतार्थ और कृतकृत्य हो जाएगा। ॐ ॐ ॐ
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"वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् | देवकीपरमानन्दं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् ||"
"वंशी विभूषित करा नवनीर दाभात्, पीताम्बरा दरुण बिंब फला धरोष्ठात् |
पूर्णेन्दु सुन्दर मुखादर बिंदु नेत्रात्, कृष्णात परम किमपि तत्व अहं न जानि ||"
"ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने, प्रणत क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:||"
"ॐ नमो ब्रह्मण्य देवाय गो ब्राह्मण हिताय च, जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः||"
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्||"
"कस्तुरी तिलकम् ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम् ,
नासाग्रे वरमौक्तिकम् करतले, वेणु करे कंकणम् |
सर्वांगे हरिचन्दनम् सुललितम्, कंठे च मुक्तावलि |
गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी ||"
"ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||"

आप महासागर हो तो मैं एक सलिल-बिन्दु हूँ ---

 आप महासागर हो तो मैं एक सलिल-बिन्दु हूँ ---

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मुझे महासागर की अनंत सर्वस्वता से अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिये। मैं नित्यमुक्त, निर्द्वंद्व, नित्यसत्वस्थ, निर्योगक्षेम, आत्मवान, व निस्त्रैगुण्य हूँ। मैं जीवन और मृत्यु में आपके साथ एक हूँ --
"एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्नि: सलिले संनिविष्ट:।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेSयनाय॥" (श्वेताश्वतरोपनिषद )
अर्थात् -- इस ब्रह्मांड के मध्य में जो एक "हंसः" यानि एक प्रकाशस्वरूप परमात्मा परिपूर्ण है; जो जल में स्थितअग्नि: है। उसे जानकर ही (मनुष्य) मृत्यु रूपी संसार से सर्वथा पार हो जाता है। दिव्य परमधाम की प्राप्ति के लिए कोई अन्य मार्ग नही है॥
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रामचरितमानस में यही बात और भी स्पष्ट शब्दों में है ---
"सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥१॥"
अर्थात् -- 'सोऽहमस्मि' (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है। (इस प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है,॥
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(यह "हंसवतीऋक" यानि "हंसःयोग" यानि "अजपा-जप" की साधना है, जिसका निर्देश कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद में, व रामचरितमानस में दिया हुआ है)
गुरुकृपा से इस सत्य को को समझते हुए भी, यदि कोई परमात्मा को समर्पित न हो सके तो वह अभागा है। हमारे प्राण, ऊर्जा, स्पंदन, आवृति और गति तो स्वयं परमात्मा है। अन्य भी जो कुछ है, वह सब परमात्मा है। ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
२३ दिसंबर २०२४

क्रिसमस पर आँख खोल देने वाला यह लेख अवश्य पढ़ें .....

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ओशो ने ईसा मसीह और ईसाईयत के ऊपर बहुत सारे व्याख्यान दिए थे जिन्हें उनके शिष्यों ने श्रुंखलाबद्ध तरीके से पुस्तकों के रूप में प्रकाशित करवाया था| उनका लगभग बत्तीस वर्ष पुराना एक प्रवचन यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ जिसके बाद ईसाईयत तिलमिला उठी थी और अमेरिका की रोनाल्ड रीगन सरकार ने उन्हें अमेरिका में हाथ-पैरों में बेडि़यां डालकर बंदी बना कर बहुत अधिक प्रताड़ित किया और धीमा जहर दे कर धीमी मौत से मरने के लिए छोड़ दिया| उनसे बहुत अधिक जुर्माना लेकर भारत बापस आने दिया गया| अमेरिका में बसे रजनीशपुरम को नष्ट कर दिया गया और अमेरिका ने सभी देशों को यह निर्देश भी दे दिया कि न तो कोई देश ओशो को आश्रय देगा और न ही उनके विमान को अपने यहाँ उतरने की अनुमति देगा|
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ओशो का प्रवचन ..... (यह लगभग तीस वर्ष पूर्व उनकी "मेरा स्वर्णिम भारत" नामक पुस्तक में छपा था)
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"जब भी कोई सत्य के लिए प्यासा होता है, अनायास ही वह भारत आने के लिए उत्सुक हो उठता है। अचानक पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है। और यह केवल आज की ही बात नहीं है। यह उतनी ही प्राचीन बात है, जितने पुराने प्रमाण और उल्लेख मौजूद हैं। आज से 2500 वर्ष पूर्व, सत्य की खोज में पाइथागोरस भारत आया था। ईसा मसीह भी भारत आए थे.
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ईसा मसीह के 13 से 30 वर्ष की उम्र के बीच का बाइबिल में कोई उल्लेख नहीं है। और यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्योंकि 33 वर्ष की उम्र में तो उन्हें सूली ही चढ़ा दिया गया था। तेरह से 30 तक 17 सालों का हिसाब बाइबिल से गायब है! इतने समय वे कहां रहे? आखिर बाइबिल में उन सालों को क्यों नहीं रिकार्ड किया गया? उन्हें जानबूझ कर छोड़ा गया है क्योंकि ईसायत मौलिक धर्म नहीं है, ईसा मसीह जो भी कह रहे हैं वे उसे भारत से लाए हैं. यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक यहूदी की तरह जन्मे, यहूदी की ही तरह जिए और यहूदी की ही तरह मरे। स्मरण रहे कि वे ईसाई नहीं थे, उन्होंने तो-ईसा और ईसाई, ये शब्द सुने भी नहीं थे। फिर क्यों यहूदी उनके इतने खिलाफ थे? यह सोचने जैसी बात है, आखिर क्यों ? न तो ईसाईयों के पास इस प्रश्न का ठीक-ठाक उत्तर है और न ही यहूदियों के पास। इस व्यक्ति ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। ईसा उतने ही निर्दोष थे जितनी कि कल्पना की जा सकती है |
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पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्म था। पढ़े-लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों ने स्पष्ट देख लिया था कि वे पूरब से विचार ले रहे हैं, जो कि गैर यहूदी हैं। वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ले रहे हैं। और यदि इस दृष्टिकोण से देखो तो तुम्हें समझ आएगा कि क्यों वे बार-बार कहते हैं .... ''अतीत के पैगंबरों ने तुमसे कहा था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे तो आँख के बदले में आँख लेने और ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार रहना। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर चाँटा मारता है तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।'' यह पूर्णत: गैर यहूदी बात है। उन्होंने ये बातें गौतम बुद्ध और महावीर की देशनाओं से सीखी थीं | ईसा जब भारत आए थे तब बौद्ध धर्म बहुत जीवंत था, यद्यपि बुद्ध की मृत्यु हो चुकी थी। गौतम बुद्ध के पाँचसौ साल बाद जीसस यहाँ आए थे। पर बुद्ध ने इतना विराट आंदोलन, इतना बड़ा तूफान खड़ा किया था कि तब तक पूरा मुल्क उसमें डूबा हुआ था। बुद्ध की करुणा, क्षमा और प्रेम के उपदेशों को भारत पिए हुआ था |
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जीसस कहते हैं कि ''अतीत के पैगंबरों द्वारा यह कहा गया था।'' कौन हैं ये पुराने "पैगंबर?'' वे सभी प्राचीन यहूदी पैगंबर हैं: इजेकिएल, इलिजाह, मोसेस, ... जो कहते थे कि "ईश्वर बहुत ही हिंसक है और वह कभी क्षमा नहीं करता है |'' यहां तक कि प्राचीन यहूदी पैगंबरों ने ईश्वर के मुँह से ये शब्द भी कहलवा दिए हैं कि ''मैं कोई सज्जन पुरुष नहीं हूं, तुम्हारा चाचा नहीं हूं। मैं बहुत क्रोधी और ईर्ष्यालु हूं, और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं है, वे सब मेरे शत्रु हैं।'' पुराने टेस्टामेंट में ईश्वर के ये वचन हैं, और ईसा मसीह कहते हैं, ''मैं तुमसे कहता हूं कि परमात्मा प्रेम है।'' यह ख्याल उन्हें कहां से आया कि परमात्मा प्रेम है? गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के सिवाए दुनिया में कहीं भी परमात्मा को प्रेम कहने का कोई और उल्लेख नहीं है। उन 17 वर्षों में जीसस इजिप्त, भारत, लद्दाख और तिब्बत की यात्रा करते रहे। यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परंपरा में बिल्कुल अपरिचित और अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे। न केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूदी धारणाओं के एकदम से विपरीत थीं। तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि अंतत: उनकी मृत्यु भी भारत में हुई! और ईसाई रिकार्ड्स इस तथ्य को नजरअंदाज करते रहे हैं। यदि उनकी बात सच है कि जीसस पुनर्जीवित हुए थे तो फिर पुनर्जीवित होने के बाद उनका क्या हुआ? आजकल वे कहाँ हैं ? क्योंकि उनकी मृत्यु का तो कोई उल्लेख है ही नहीं !
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सच्चाई यह है कि वे कभी पुनर्जीवित नहीं हुए। वास्तव में वे सूली पर कभी मरे ही नहीं थे। क्योंकि यहूदियों की सूली आदमी को मारने की सर्वाधिक बेहूदी तरकीब है। उसमें आदमी को मरने में करीब-करीब 48 घंटे लग जाते हैं। चूंकि हाथों में और पैरों में कीलें ठोंक दी जाती हैं तो बूंद-बूंद करके उनसे खून टपकता रहता है। यदि आदमी स्वस्थ है तो 60 घंटे से भी ज्यादा लोग जीवित रहे, ऐसे उल्लेख हैं। औसत 48 घंटे तो लग ही जाते हैं। और जीसस को तो सिर्फ छह घंटे बाद ही सूली से उतार दिया गया था। यहूदी सूली पर कोई भी छह घंटे में कभी नहीं मरा है, कोई मर ही नहीं सकता है| यह एक मिलीभगत थी जीसस के शिष्यों की पोंटियस पॉयलट के साथ। पोंटियस यहूदी नहीं था, वो रोमन वायसराय था। जूडिया उन दिनों रोमन साम्राज्य के अधीन था। निर्दोष जीसस की हत्या में रोमन वायसराय पोंटियस को कोई रुचि नहीं थी। पोंटियस के दस्तखत के बगैर यह हत्या नहीं हो सकती थी।पोंटियस को अपराध भाव अनुभव हो रहा था कि वह इस भद्दे और क्रूर नाटक में भाग ले रहा है। चूंकि पूरी यहूदी भीड़ पीछे पड़ी थी कि जीसस को सूली लगनी चाहिए। जीसस वहाँ एक मुद्दा बन चुका था। पोंटियस पॉयलट दुविधा में था। यदि वह जीसस को छोड़ देता है तो वह पूरी जूडिया को, जो कि यहूदी है, अपना दुश्मन बना लेता है। यह कूटनीतिक नहीं होगा। और यदि वह जीसस को सूली दे देता है तो उसे सारे देश का समर्थन तो मिल जाएगा, मगर उसके स्वयं के अंत:करण में एक घाव छूट जाएगा कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण एक निरपराध व्यक्ति की हत्या की गई, जिसने कुछ भी गलत नहीं किया था|
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तो पोंटियस ने जीसस के शिष्यों के साथ मिलकर यह व्यवस्था की कि शुक्रवार को जितनी संभव हो सके उतनी देर से सूली दी जाए। चूंकि सूर्यास्त होते ही शुक्रवार की शाम को यहूदी सब प्रकार का कामधाम बंद कर देते हैं, फिर शनिवार को कुछ भी काम नहीं होता, वह उनका पवित्र दिन है। यद्यपि सूली दी जानी थी शुक्रवार की सुबह, पर उसे स्थगित किया जाता रहा। ब्यूरोक्रेसी तो किसी भी कार्य में देर लगा सकती है। अत: जीसस को दोपहर के बाद सूली पर चढ़ाया गया और सूर्यास्त के पहले ही उन्हें जीवित उतार लिया गया। यद्यपि वे बेहोश थे, क्योंकि शरीर से रक्तस्राव हुआ था और कमजोरी आ गई थी। पवित्र दिन यानि शनिवार के बाद रविवार को यहूदी उन्हें पुन: सूली पर चढ़ाने वाले थे। जीसस की देह को जिस गुफा में रखा गया था, वहाँ का चौकीदार रोमन था न कि यहूदी। इसलिए यह संभव हो सका कि जीसस के शिष्यगण उन्हें बाहर आसानी से निकाल लाए और फिर जूडिया से बाहर ले गए।
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जीसस ने भारत में आना क्यों पसंद किया? क्योंकि युवावास्था में भी वे वर्षों तक भारत में रह चुके थे। उन्होंने अध्यात्म और ब्रह्म का परम स्वाद इतनी निकटता से चखा था कि वहीं दोबारा लौटना चाहा। तो जैसे ही वह स्वस्थ हुए, भारत आए और फिर 112 साल की उम्र तक जिए| कश्मीर में अभी भी उनकी कब्र है। उस पर जो लिखा है, वह हिब्रू भाषा में है। स्मरण रहे, भारत में कोई यहूदी नहीं रहते हैं। उस शिलालेख पर खुदा है ... ''जोशुआ'' ... यह हिब्रू भाषा में ईसामसीह का नाम है। 'जीसस' ... 'जोशुआ' का ग्रीक रुपांतरण है। 'जोशुआ' यहां आए' .... समय, तारीख वगैरह सब दी है। 'एक महान सदगुरू, जो स्वयं को भेड़ों का गड़रिया पुकारते थे, अपने शिष्यों के साथ शांतिपूर्वक 112 साल की दीर्घायु तक यहाँ रहे।' इसी वजह से वह स्थान 'भेड़ों के चरवाहे का गांव'' कहलाने लगा। तुम वहाँ जा सकते हो, वह शहर अभी भी है .... 'पहलगाम', उसका काश्मीरी में वही अर्थ है .... 'गड़रिए का गाँव'| जीसस यहाँ रहना चाहते थे ताकि और अधिक आत्मिक विकास कर सकें। एक छोटे से शिष्य समूह के साथ वे रहना चाहते थे ताकि वे सभी शांति में, मौन में डूबकर आध्यात्मिक प्रगति कर सकें। और उन्होंने मरना भी यहीं चाहा, क्योंकि यदि तुम जीने की कला जानते हो तो यहाँ (भारत में) जीवन एक सौंदर्य है, और यदि तुम मरने की कला जानते हो तो यहाँ (भारत में) मरना भी अत्यंत अर्थपूर्ण है। केवल भारत में ही मृत्यु की कला खोजी गई है, ठीक वैसे ही जैसे जीने की कला खोजी गई है। वस्तुत: तो वे एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं।
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यहूदियों के पैगंबर मूसा ने भी भारत में ही देह त्यागी थी ! आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि मूसा (मोजिज) ने भी भारत में ही आकर देह त्यागी थी ! उनकी और जीसस की समाधियाँ एक ही स्थान में बनी हैं। शायद जीसस ने ही महान सदगुरू मूसा के बगल वाला स्थान स्वयं के लिए चुना होगा। पर मूसा ने क्यों कश्मीर में आकर मृत्यु में प्रवेश किया? मूसा ईश्वर के देश 'इजराइल' की खोज में यहूदियों को इजिप्त के बाहर ले गए थे। उन्हें 40 वर्ष लगे, जब इजराइल पहुँच कर उन्होंने घोषणा की कि ''यही वह जमीन है, परमात्मा की जमीन, जिसका वादा किया गया था। और मैं अब वृद्ध हो गया हूं और अवकाश लेना चाहता हूं। हे नई पीढ़ी वालों, अब तुम सम्हालो !'' मूसा ने जब इजिप्त से यात्रा प्रारंभ की थी तब की पीढ़ी लगभग समाप्त हो चुकी थी। बूढ़े मरते गए, जवान बूढ़े हो गए और नए बच्चे पैदा होते रहे। जिस मूल समूह ने मूसा के साथ यात्रा की शुरुआत की थी, वह बचा ही नहीं था। मूसा करीब-करीब एक अजनबी की भांति अनुभव कर रहे थेा उन्होंने युवा लोगों को शासन और व्यवस्था का कार्यभार सौंपा और इजराइल से विदा हो लिए। यह अजीब बात है कि यहूदी धर्मशास्त्रों में भी, उनकी मृत्यु के संबंध में , उनका क्या हुआ इस बारे में कोई उल्लेख नहीं है। हमारे यहां (कश्मीर में ) उनकी कब्र है। उस समाधि पर भी जो शिलालेख है, वह हिब्रू भाषा में ही है। और पिछले चार हजार सालों से एक यहूदी परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन दोनों समाधियों की देखभाल कर रहा है।
मूसा भारत क्यों आना चाहते थे ? केवल मृत्यु के लिए ? हां, कई रहस्यों में से एक रहस्य यह भी है कि यदि तुम्हारी मृत्यु एक बुद्धक्षेत्र में हो सके, जहां केवल मानवीय ही नहीं, वरन भगवत्ता की ऊर्जा तरंगें हों, तो तुम्हारी मृत्यु भी एक उत्सव और निर्वाण बन जाती है | सदियों से सारी दुनिया के साधक इस धरती पर आते रहे हैं। यह देश दरिद्र है, उसके पास भेंट देने को कुछ भी नहीं, पर जो संवेदनशील हैं, उनके लिए इससे अधिक समृद्ध कौम इस पृथ्वी पर कहीं नहीं हैं। लेकिन वह समृद्धि आंतरिक है|
=ओशो =
२२ दिसंबर २०१५

उपासना :

पूर्ण प्रेमपूर्वक आराम से शान्त होकर किसी एकान्त व शान्त स्थान पर सीधे बैठकर भ्रूमध्य में परमात्मा की एक बार तो साकार कल्पना करें, फिर उसे समस्त सृष्टि में फैला दें. सारी सृष्टि उन्हीं में समाहित है और वे सर्वत्र हैं. उनके साथ एक हों, वे हमारे से पृथक नहीं हैं. स्वयं की पृथकता को उनमें समाहित यानि समर्पित कर दें. प्रयासपूर्वक निज चेतना को आज्ञाचक्र से ऊपर ही रखें. आध्यात्मिक दृष्टी से आज्ञाचक्र ही हमारा हृदय है, न कि भौतिक हृदय. आने जाने वाली हर साँस के प्रति सजग रहें. स्वयं परमात्मा ही साक्षात् प्रत्यक्ष रूप से हमारी इस देह से साँस ले रहे हैं. हमारी हर साँस सारे ब्रह्मांड की, सभी प्राणियों की, परमात्मा द्वारा ली जा रही साँस है. हम "यह देह नहीं, परमात्मा की सर्वव्यापकता हैं", यह भाव बनाए रखें. आने जाने वाली हर साँस के साथ यदि "हँ" और "सः" का मानसिक जप करें तो यह "अजपा-जप" है, और पृष्ठभूमि में सुन रही शान्त ध्वनि को सुनते हुए प्रणव का मानसिक जप करते रहें तो यह "ओंकार साधना" है. साधक, साधना और साध्य स्वयं परमात्मा हैं. वैसे ही उपासक, उपासना और उपास्य स्वयं परब्रह्म परमात्मा परमशिव हैं. किसी भी तरह का श्रेय न लें. कर्ता स्वयं भगवान परमशिव हैं. लौकिक और आध्यात्मिक दृष्टी से उपास्य के सारे गुण उपासक में आने स्वाभाविक हैं. परमात्मा ही एकमात्र कर्ता है, एकमात्र अस्तित्व भी उन्हीं का है.

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२३ - १२ - २०१७

प्रश्न (१). क्रिसमस २५ दिसंबर को ही क्यों मनाते हैं? प्रश्न (२). २५ दिसंबर को 'बड़ा दिन' क्यों बोलते हैं? प्रश्न (३). छुट्टी रविबार के दिन ही क्यों होती है?

उपरोक्त तीनों प्रश्नों के उत्तर एक ही हैं| रोमन सम्राट कोन्स्टेंटाइन द ग्रेट (२७ फरवरी २७२ - २२ मई ३३७) ने ही यह तय किया था कि जीसस क्राइस्ट का जन्म २५ दिसंबर को ही मनाया जाये| उसी के समय से २५ दिसंबर को बड़ा दिन मनाते हैं, और उसी के आदेश से रविबार की छुट्टी आरंभ हुई|
(भारत में अंग्रेज़ी राज्य से पहिले महीने में सिर्फ एक दिन अमावस्या की छुट्टी होती थी| अंग्रेजों ने इसे बदल कर सप्ताह में एक दिन, यानि महीने में चार छुट्टियाँ आरंभ कर दीं|)
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कोन्स्टेंटिनोपल (कुस्तुंतुनिया) (वर्तमान इस्तांबूल) नगर उसी ने बसाया था जहाँ का सैंट सोफिया (हागिया सोफिया) केथेड्रल, पूरे विश्व के ईसाइयों की वेटिकन के बाद दूसरी सबसे बड़ी गद्दी थी|
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अपने व्यक्तिगत जीवन में और अपने विचारों से वह सूर्य का उपासक था, ईसाई नहीं| ईसाई मत का उपयोग उसने एक सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था (Socio-political system) के रूप में अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए किया| उस के समय से ही ईसाई मत सबसे अधिक फैलने लगा|
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दो हज़ार वर्ष पूर्व उन दिनों पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में शीतकालीन अयनांत (Winter Solstice) २४ दिसंबर को होता था| आजकल २१ दिसंबर को होता है| इस दिन सूर्य सीधा पृथ्वी की मकर रेखा पर होता है, और उत्तरी गोलार्ध में सबसे अधिक छोटा दिन होता है| आजकल २२ दिसंबर से दिन बड़े होने शुरू हो जाते हैं, उन दिनों २५ दिसंबर से होते थे| अतः उस समय के रोमन सम्राट कोन्स्टेंटाइन द ग्रेट ने यह आदेश दिया कि २५ दिसंबर को ही जीसस क्राइस्ट का जन्म दिन और बड़ा दिन मनाया जाये| चूंकि वह सूर्य का उपासक था, अतः उसने रविबार को ही छुट्टी मनाने की परंपरा शुरू कर दी|
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सन २००३ में Dan Brown की लिखी एक पुस्तक "The Da Vinci Code" बाज़ार में आई थी जिसने विश्व के करोड़ों ईसाईयों की आस्था को हिला दिया था| भारत में यह पुस्तक प्रतिबंधित थी, फिर भी चोरी-चोरी किसी फर्जी प्रकाशक द्वारा छप कर बड़े नगरों के फुटपाथों पर खूब बिकी| उस के अनुसार रोमन सम्राट कोन्स्टेंटाइन द ग्रेट जब मर रहा था और असहाय था तब पादरियों ने बलात् उसका बपतीस्मा कर के उसे ईसाई बना दिया था, अन्यथा वह बुत-परस्त Pagan था|
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सभी आस्थावानों को शुभ कामनायें !!
23 दिसंबर 2020

एक काल्पनिक चरित्र ---

जीसस क्राइस्ट (ईसा मसीह) मेरी दृष्टि में एक काल्पनिक चरित्र हैं। उनका न तो कभी जन्म हुआ और न कभी कोई मृत्यु हुई। वे हुये ही नहीं, उनके बारे में प्रचलित सारे किस्से-कहानियाँ झूठे हैं। चर्च/ईसाईयत -- पश्चिमी साम्राज्यवाद की अग्रिम सेना थी। इसका उपयोग पश्चिम ने अपने साम्राज्य के विस्तार और प्रभूत्व के लिए किया। पहले चर्च के पादरी पहुँच कर भोले-भाले लोगों को विश्वास में लेते हैं, फिर उनका बलात् मतांतरण, और न मानने वालों का सामूहिक नर-संहार करते हैं। इस तरह वे अपना साम्राज्य स्थापित करते हैं।
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एक समय था जब मैं जीसस क्राइस्ट का प्रशंसक और प्रेमी था। उनकी प्रशंसा में मैंने अनेक लेख भी लिखे हैं। देश-विदेश के अनेक चर्चों में भी अनेक बार गया हूँ, उनकी प्रार्थना सभाएँ और प्रवचन भी सुने हैं। कनाडा में अनेक पादरी मेरे मित्र थे। इटालियन और अमेरिकन ईसाई मित्रों के साथ क्रिसमस पर केरोल (ईसाई भजन) भी गाये हैं। लेकिन जैसे जैसे परिपक्वता और समझ बढ़ती गई, पाया कि जोशुआ (जीसस) का सारा किस्सा गढ़ा हुआ है। यूरोप और अमेरिका के प्रबुद्ध ईसाई ईसाईत छोड़ रहे हैं। पादरी लोग कह रहे हैं कि ऐतिहासिक जीसस नहीं भी हुआ हो तो क्या, वे हमारे हृदय में तो हैं।
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पश्चिम में जो हिन्दू संत गए, उनका उद्देश्य ईसाईयों के मध्य सनातन हिन्दू धर्म का प्रचार-प्रसार करना था। अतः उन्हें अपनी विवशता में जीसस को ईशपुत्र कहना ही पड़ा। वास्तव में ख्रीस्त पन्थ एक भीषण फरेब है। कई निष्ठावान हिन्दू भी भावनात्मक स्तर पर जीसस के भक्त बने हुये हैं, अतः अपनों की मर्यादा का ध्यान रखना पड़ता है।
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मैंने old व चारों new testaments का अध्ययन किया है। उनके अधिकांश प्रवचन -- प्रलाप मात्र दिखते हैं। गिरी-प्रवचन (Sermon on the mount) हिंदुओं की नकल है। कुटिल पादरी, भारत सहित अन्य गैर यूरोपीय देशों में चर्च का धंधा चला रहे हैं। बडी विकट स्थिति है।
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मुझे ईश्वर से एक प्रेरणा/आदेश मिला हुआ है कि अब से जीवन का हरेक कार्य ईश्वर-प्रदत्त विवेक के प्रकाश में ही करना है। जीवन में जो भी पीड़ाएँ सहीं, कष्ट पाये, उनका कारण -- लोभ और अहंकारवश किये हुए विचार, सोच और आचरण था। विचारों पर नियंत्रण पाने में बहुत अधिक सफल रहा हूँ। अतः अब कोई लोभ या अहंकार नहीं कर सकता। जो सत्य है उसे ही सत्य कहूँगा। सत्य ही ईश्वर है। भगवान सत्यनारायण हैं।
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यीशु के जन्म का कोई प्रमाण कभी भी नहीं मिला। अब पश्चिमी जगत के कुछ इतिहासकार भी यह दावा कर रहे हैं कि जीसस क्राइस्ट नाम का कोई व्यक्ति कभी हुआ ही नहीं था। उनके अनुसार सैंट पॉल द्वारा रचित वे एक काल्पनिक चरित्र हैं। २५ दिसंबर का दिन रोमन सम्राट कोंस्टेंटाइन द ग्रेट ने ही क्रिसमस का दिन तय किया था, क्योंकि वह सूर्य उपासक था, और उस जमाने में २५ दिसंबर को बड़ा दिन होता था; आजकल २२ दिसंबर को होता है। रविवार की छुट्टियाँ भी उसी ने तय की थीं। अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए उसने ईसाईयत का भी खूब विस्तार किया।
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कई तरह की बातें लिखी गई हैं, जिनसे मुझे अब कोई मतलब नहीं है। मेरे आदर्श भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण हैं। मैं मूर्तिपूजा को भी मानता हूँ और वेदान्त-दर्शन को भी। सारा मार्गदर्शन मुझे श्रीमद्भगवत गीता और उपनिषदों से मिलता है। मुझ निमित्तमात्र को अपना उपकरण बनाकर भगवान ही सब कुछ कर रहे हैं। समस्त सृष्टिरूप में मैं उनको नमन करता हूँ (वे स्वयं ही सबके माध्यम से स्वयं को ही नमन कर रहे हैं)।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२३ दिसंबर २०२२
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पुनश्च: --- भारत का सबसे अधिक अहित जीसस के मतावलंबियों ने किया है। भारत में उनके अनुयायियों ने करोड़ों हिंदुओं की हत्या की। भारत की शिक्षा-व्यवस्था और कृषि-व्यवस्था का उन्होनें समूल नाश कर दिया। मेक्समूलर जैसे वेतनभोगी पादरियों द्वारा उन्होंने हिन्दू धर्म-ग्रंथों को प्रक्षिप्त करवाया। गोवा में हजारों हिन्दू ब्राह्मणों की हत्याएँ कीं और हजारों हिन्दू महिलाओं और बच्चों को उन्होंने जीवित जला दिया। गोवा में एक हाथकतरा-खंब है। गोवा के पुर्तगाली ईसाई शासक हिंदुओं को पकड़ कर लाते, और खंबा पकड़ने को कहते। फिर उसे जीसस क्राइस्ट में विश्वास करने और ईसाई बनने को कहते। यदि वह ईसाई नहीं बनता तो उसके हाथ काट देते। वह खंबा अभी भी है।
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उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, और ऑस्ट्रेलिया महाद्वीपों के करोड़ों मूल निवासियों की हत्याएँ कर वहाँ उन्होंने यूरोपीय मूल के लोगों को बसा दिया। मानव जाति के इतिहास में उन्होंने सर्वाधिक नृशंस और भयावह अत्याचार किए हैं।
यूरोप में भी उन्होंने कम अत्याचार नहीं किए। करोड़ों महिलाओं को डायन घोषित कर उनकी हत्या बड़ी क्रूरता से की, जिन्हें देखकर लगता है कि यह एक अधर्म है।
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अपने स्वयं के धर्म का ही पालन और उसमें निधन ही भगवान का आदेश है। भगवान कहते हैं --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् -- सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥"

बारह ज्योतिर्लिंगों की पैदल यात्रा ---

हमारे यहाँ के एक शिवभक्त नवयुवक श्री सुभाष नायक ने कुछ माह पूर्व अकेले ही पैदल तीर्थयात्रा कर के सभी १२ ज्योतिर्लिंगों के दर्शन और आराधना का संकल्प कर प्रस्थान किया था। कल सायंकाल वह युवक अपने संकल्प को साकार कर लगभग साढ़े नौ हजार किलोमीटर की पैदल तीर्थयात्रा कर के सकुशल बापस लौट आया। उसका भव्य स्वागत हुआ। स्वागतकर्ताओं में मुझे भी सम्मिलित होने का सौभाग्य मिला। उसके संदेश और चित्र नित्य मिल जाते थे। मार्ग में श्रद्धालु हिंदुओं का पूर्ण सहयोग उसे मिला। नित्य उसके भोजन और विश्राम की व्यवस्था अपने आप ही हो जाती थी। जैसा कि उसने बताया जब वह वनों और सुनसान स्थानों से अग्रसर होता तब उसकी रक्षा और साथ देने के लिए कुछ नंदी (बैल) अपने आप ही पता नहीं कहीं से आ जाते और उसका साथ देते।
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झुंझुनूं (राजस्थान) से केदारनाथ, केदारनाथ से वाराणसी, वाराणसी से झारखंड में वैद्यनाथ, वहाँ से सीधे रामेश्वरम, रामेश्वरम से फिर बाकी बचे नौओं ज्योतिर्लिंगों की पैदल तीर्थयात्रा करते हुए अंतिम ज्योतिर्लिंग सोमनाथ में उसने अपने संकल्प को पूर्ण किया। वहाँ उसके परिवारजन और मित्रगण भी पहुँच गए। सोमनाथ से अहमदाबाद होते हुए गृहनगर झुंझुनूं तक उसने बस में यात्रा की।
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इस शिवभक्त नवयुवक का अभिनंदन, बधाई और मंगलमय शुभ कामनायें।
कृपा शंकर
२२ दिसंबर २०२२

वर्तमान में चल रहा सर्दियों का मौसम, आध्यात्मिक साधना के लिए बहुत अनुकूल है ---

वर्तमान में चल रहा सर्दियों का मौसम, आध्यात्मिक साधना के लिए बहुत अनुकूल है। न तो पंखे या कूलर की आवाज़, और न कोई शोरगुल है। प्रकृति भी बड़ी शांत है। ऐसे में अपने भौतिक और मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखें, और भगवान ने जो २४ घंटों का समय दिया है, उसका १० प्रतिशत भाग तो बापस भगवान को बापस दें। सारा मार्गदर्शन - गीता आदि ग्रन्थों में है, जिनका स्वाध्याय करें। भगवान से प्रेम होगा तो वे स्वयं सारा मार्गदर्शन और सहायता करेंगे। इस मार्ग में कोई short cut नहीं है। सारी प्रगति और सफलता -- भगवान के अनुग्रह पर निर्भर है। . दो-तीन बातों का ध्यान रखें| एक तो आपकी कमर नहीं झुके और सदा सीधी रहे| इसके लिए नियमित व्यायाम करने होंगे| साँस दोनों नासिकाओं से ही चलती रहे, इसका ध्यान रखें| हठयोग सिखाने वाले कई क्रियाओं को सिखाते हैं, जिनसे दोनों नाक खुली रहती हैं| आवश्यक हो तो मेडिकल सहायता लें| सात्विक भोजन लें, हर परिस्थिति में कुसंग का त्याग करें, और सद्साहित्य का स्वाध्याय और अच्छे सात्विक लोगों का ही संग करें| अपने आसपास के वातावरण को सात्विक बनाए रखें|

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मेरे नवरत्न तो भगवान स्वयं हैं। मैं न तो कोई अंगूठी पहनता हूँ, न कोई नवरत्न का कड़ा, या न कोई कंठीमाला। मेरे एकमात्र रत्न भगवान स्वयं हैं, जो निरंतर मेरे हृदय में रहते हैं। एक क्षण के लिए भी वे इधर-उधर नहीं होते। वे ही मेरी शोभा हैं। मेरा हृदय कूटस्थ सूर्यमंडल है, न कि यह भौतिक हृदय। कूटस्थ चैतन्य ही मेरा जीवन है। उस से च्युत होना ही मृत्यु है। भगवान की विस्मृति नर्क है, और उन की स्मृति ही स्वर्ग है। साधना का और साधक होने का भ्रम मिथ्या है।
आप सब को शुभ कामनाएँ और नमन !! कृपा शंकर
२२ दिसंबर २०२०

आज २२ दिसंबर का बड़ा दिन, एक उत्सव मनाने का पर्व है ---

 आज २२ दिसंबर का बड़ा दिन, एक उत्सव मनाने का पर्व है ---

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पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध यानि भूमध्य रेखा के उत्तर में, बीता हुआ कल यानि २१ दिसंबर इस वर्ष का सबसे छोटा दिन और सबसे बड़ी रात थी। आज से धीरे धीरे दिन बड़े होने आरंभ हो जाएँगे जो २१ जून २०२२ तक होंगे। इसलिए आज बड़ा दिन है। आज सूर्य मकर रेखा पर लम्बवत चमक रहा है, और अब उत्तरगामी हो जाएगा।
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दो हज़ार वर्ष पहिले २४ दिसंबर की रात सबसे बड़ी होती थी, इसलिए उस रात को रोमन सम्राट कोंस्टेन्टाइन द ग्रेट के आदेश से ईसाई भजन (Carol) गाकर क्रिसमस मनाई जाने लगी। २५ दिसंबर से दिन बड़े होने आरंभ होते थे इसलिए सूर्योपासक रोमन सम्राट कोंस्टेन्टाइन द ग्रेट के आदेश से इसे ईसा मसीह का जन्मदिन घोषित किया गया।
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उसी सूर्योपासक सम्राट के आदेश से रविबार के दिन को छुट्टी का दिन मनाया जाता है। इस सम्राट ने जो स्वयं ईसाई नहीं, बल्कि एक सूर्योपासक था, ने बाइबल का न्यू टेस्टामेंट संपादित करवाया, और ईसाई मत का उपयोग अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए किया। कोन्स्टेंटिनोपल (वर्तमान इस्तांबूल) उसी का बसाया नगर है।
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अब पश्चिमी जगत में ईसा मसीह के अस्तित्व को अनेक लोग काल्पनिक मानने लगे हैं। उनका मत है कि यह पादरी सेंट पॉल और रोमन सम्राट कोंस्टेन्टाइन द ग्रेट के दिमाग की उपज है। वास्तविकता क्या है, मुझे पता नहीं। यदि ईसा मसीह का अस्तित्व सचमुच था तो वे भगवान श्रीकृष्ण के ही भक्त थे, और मैं उनको नमन करता हूँ। उनकी मूल शिक्षाएं लुप्त हो गई हैं और वर्तमान चर्चवाद (ईसाईयत) का उनसे कोई संबंध नहीं है।
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भारत का सबसे अधिक अहित उनके मतावलंबियों ने किया है। भारत में उनके अनुयायियों ने करोड़ों हिंदुओं की हत्या की। भारत की शिक्षा-व्यवस्था और कृषि-व्यवस्था का उन्होनें समूल नाश कर दिया। मेक्समूलर जैसे वेतनभोगी पादरियों द्वारा उन्होंने हिन्दू धर्म-ग्रंथों को प्रक्षिप्त करवाया। गोवा में हजारों हिन्दू ब्राह्मणों की हत्याएँ कीं और हजारों हिन्दू महिलाओं और बच्चों को उन्होंने जीवित जला दिया।
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उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, और ऑस्ट्रेलिया महाद्वीपों के करोड़ों मूल निवासियों की हत्याएँ कर वहाँ उन्होंने यूरोपीय मूल के लोगों को बसा दिया। मानव जाति के इतिहास में उन्होंने सर्वाधिक नृशंस और भयावह अत्याचार किए हैं।
यूरोप में भी उन्होंने कम अत्याचार नहीं किए। करोड़ों महिलाओं को डायन घोषित कर उनकी हत्या बड़ी क्रूरता से की, जिन्हें देखकर लगता है कि यह एक अधर्म है। अपने स्वयं के धर्म का ही पालन और उसमें निधन ही भगवान का आदेश है। भगवान कहते हैं --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् -- सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ दिसंबर २०२१

गीता जयंती पर सारी सृष्टि को मंगलमय शुभ कामनाएं ----

 गीता जयंती पर सारी सृष्टि को मंगलमय शुभ कामनाएं ---

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गीता में भगवान ने सिर्फ तीन विषयों -- कर्म, भक्ति और ज्ञान -- पर ही उपदेश देते हुए सम्पूर्ण सत्य-सनातन-धर्म को इन में समाहित कर लिया है। धर्म के किसी भी पक्ष को उन्होंने नहीं छोड़ा है। हम कर्मफलों पर आश्रित न रहकर अपने कर्तव्य-कर्म करते रहें, यह उनकी शिक्षाओं का सार है। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि कौन योगी है और कौन सन्यासी है।
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भगवान कहते हैं कि हमें अपने सारे संकल्प भगवान को समर्पित कर देने चाहियें। एकमात्र कर्ता वे स्वयं हैं, हम पूर्ण रूप से उनको समर्पित हों। कर्ता भाव से हम मुक्त हों। इन्द्रियों के भोगों तथा कर्मों व संकल्पों को त्यागते ही हम योगारूढ़ हो जाते हैं। हम स्वयं ही अपने मित्र हैं, और स्वयं ही अपने शत्रु हैं। जिसने अपने आप पर विजय प्राप्त कर ली है, उसे परमात्मा नित्य-प्राप्त हैं। हम ज्ञान-विज्ञान से तृप्त, जितेंद्रिय और विकार रहित (कूटस्थ) हों। हमारा मन निरंतर भगवान में लगा रहे। भूख और नींद पर हमारा नियंत्रण हो। हम निःस्पृह होकर अपने स्वरूप में स्थित रहें व तत्व से कभी विचलित न हों।
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अपने मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करें। यह बड़ी से बड़ी साधना है। यह अस्थिर और चञ्चल मन जहाँ जहाँ विचरण करता है, वहाँ वहाँ से हटाकर इसको एक परमात्मा में ही लगायें। विक्षेप का कारण रजोगुण है। हम सर्वत्र यानि सभी प्राणियों में अपने स्वरूप को देखें, और सभी प्राणियों को अपने स्वरूप में देखें।
भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- जो सबमें मुझे देखता है, और सब को मुझ में देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता, और वह भी मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
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जब हम भगवान को सर्वत्र, और सभी में भगवान को देखते हैं, तो भगवान कभी अदृश्य यानि परोक्ष नहीं होते। यहाँ दृष्टा कौन हैं? दृष्टा, दृश्य और दृष्टि -- सभी भगवान स्वयं हैं। हम कूटस्थ-चैतन्य यानि ब्राह्मी-स्थिति में निरंतर रहें। यह श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से भगवान का संदेश है।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर बावलिया (मुद्गल)
झुंझुनूं (राजस्थान)
२२ दिसंबर २०२३