आप महासागर हो तो मैं एक सलिल-बिन्दु हूँ ---
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मुझे महासागर की अनंत सर्वस्वता से अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिये। मैं नित्यमुक्त, निर्द्वंद्व, नित्यसत्वस्थ, निर्योगक्षेम, आत्मवान, व निस्त्रैगुण्य हूँ। मैं जीवन और मृत्यु में आपके साथ एक हूँ --
"एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्नि: सलिले संनिविष्ट:।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेSयनाय॥" (श्वेताश्वतरोपनिषद )
अर्थात् -- इस ब्रह्मांड के मध्य में जो एक "हंसः" यानि एक प्रकाशस्वरूप परमात्मा परिपूर्ण है; जो जल में स्थितअग्नि: है। उसे जानकर ही (मनुष्य) मृत्यु रूपी संसार से सर्वथा पार हो जाता है। दिव्य परमधाम की प्राप्ति के लिए कोई अन्य मार्ग नही है॥
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रामचरितमानस में यही बात और भी स्पष्ट शब्दों में है ---
"सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥१॥"
अर्थात् -- 'सोऽहमस्मि' (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है। (इस प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है,॥
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(यह "हंसवतीऋक" यानि "हंसःयोग" यानि "अजपा-जप" की साधना है, जिसका निर्देश कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद में, व रामचरितमानस में दिया हुआ है)
गुरुकृपा से इस सत्य को को समझते हुए भी, यदि कोई परमात्मा को समर्पित न हो सके तो वह अभागा है। हमारे प्राण, ऊर्जा, स्पंदन, आवृति और गति तो स्वयं परमात्मा है। अन्य भी जो कुछ है, वह सब परमात्मा है। ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
२३ दिसंबर २०२४
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