पूर्ण प्रेमपूर्वक आराम से शान्त होकर किसी एकान्त व शान्त स्थान पर सीधे बैठकर भ्रूमध्य में परमात्मा की एक बार तो साकार कल्पना करें, फिर उसे समस्त सृष्टि में फैला दें. सारी सृष्टि उन्हीं में समाहित है और वे सर्वत्र हैं. उनके साथ एक हों, वे हमारे से पृथक नहीं हैं. स्वयं की पृथकता को उनमें समाहित यानि समर्पित कर दें. प्रयासपूर्वक निज चेतना को आज्ञाचक्र से ऊपर ही रखें. आध्यात्मिक दृष्टी से आज्ञाचक्र ही हमारा हृदय है, न कि भौतिक हृदय. आने जाने वाली हर साँस के प्रति सजग रहें. स्वयं परमात्मा ही साक्षात् प्रत्यक्ष रूप से हमारी इस देह से साँस ले रहे हैं. हमारी हर साँस सारे ब्रह्मांड की, सभी प्राणियों की, परमात्मा द्वारा ली जा रही साँस है. हम "यह देह नहीं, परमात्मा की सर्वव्यापकता हैं", यह भाव बनाए रखें. आने जाने वाली हर साँस के साथ यदि "हँ" और "सः" का मानसिक जप करें तो यह "अजपा-जप" है, और पृष्ठभूमि में सुन रही शान्त ध्वनि को सुनते हुए प्रणव का मानसिक जप करते रहें तो यह "ओंकार साधना" है. साधक, साधना और साध्य स्वयं परमात्मा हैं. वैसे ही उपासक, उपासना और उपास्य स्वयं परब्रह्म परमात्मा परमशिव हैं. किसी भी तरह का श्रेय न लें. कर्ता स्वयं भगवान परमशिव हैं. लौकिक और आध्यात्मिक दृष्टी से उपास्य के सारे गुण उपासक में आने स्वाभाविक हैं. परमात्मा ही एकमात्र कर्ता है, एकमात्र अस्तित्व भी उन्हीं का है.
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