गीता जयंती पर सारी सृष्टि को मंगलमय शुभ कामनाएं ---
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गीता में भगवान ने सिर्फ तीन विषयों -- कर्म, भक्ति और ज्ञान -- पर ही उपदेश देते हुए सम्पूर्ण सत्य-सनातन-धर्म को इन में समाहित कर लिया है। धर्म के किसी भी पक्ष को उन्होंने नहीं छोड़ा है। हम कर्मफलों पर आश्रित न रहकर अपने कर्तव्य-कर्म करते रहें, यह उनकी शिक्षाओं का सार है। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि कौन योगी है और कौन सन्यासी है।
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भगवान कहते हैं कि हमें अपने सारे संकल्प भगवान को समर्पित कर देने चाहियें। एकमात्र कर्ता वे स्वयं हैं, हम पूर्ण रूप से उनको समर्पित हों। कर्ता भाव से हम मुक्त हों। इन्द्रियों के भोगों तथा कर्मों व संकल्पों को त्यागते ही हम योगारूढ़ हो जाते हैं। हम स्वयं ही अपने मित्र हैं, और स्वयं ही अपने शत्रु हैं। जिसने अपने आप पर विजय प्राप्त कर ली है, उसे परमात्मा नित्य-प्राप्त हैं। हम ज्ञान-विज्ञान से तृप्त, जितेंद्रिय और विकार रहित (कूटस्थ) हों। हमारा मन निरंतर भगवान में लगा रहे। भूख और नींद पर हमारा नियंत्रण हो। हम निःस्पृह होकर अपने स्वरूप में स्थित रहें व तत्व से कभी विचलित न हों।
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अपने मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करें। यह बड़ी से बड़ी साधना है। यह अस्थिर और चञ्चल मन जहाँ जहाँ विचरण करता है, वहाँ वहाँ से हटाकर इसको एक परमात्मा में ही लगायें। विक्षेप का कारण रजोगुण है। हम सर्वत्र यानि सभी प्राणियों में अपने स्वरूप को देखें, और सभी प्राणियों को अपने स्वरूप में देखें।
भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- जो सबमें मुझे देखता है, और सब को मुझ में देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता, और वह भी मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
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जब हम भगवान को सर्वत्र, और सभी में भगवान को देखते हैं, तो भगवान कभी अदृश्य यानि परोक्ष नहीं होते। यहाँ दृष्टा कौन हैं? दृष्टा, दृश्य और दृष्टि -- सभी भगवान स्वयं हैं। हम कूटस्थ-चैतन्य यानि ब्राह्मी-स्थिति में निरंतर रहें। यह श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से भगवान का संदेश है।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर बावलिया (मुद्गल)
झुंझुनूं (राजस्थान)
२२ दिसंबर २०२३
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