सत्य का प्रमाण - स्वयं की अनुभूतियाँ हैं ---
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"दूध में घी है", यह पढ़ने या सुनने से घी नहीं प्राप्त होता। उसे प्राप्त करने की विधि किसी जानकार से जाननी होगी, और उस विधि का प्रयोग कर के दूध से घी निकालना होगा। दूसरे के द्वारा भोजन ग्रहण करने से स्वयं की क्षुधा शांत नहीं होती। स्वयं की क्षुधा शांत करने के लिए भोजन स्वयं को ही करना होगा। वैसे ही आध्यात्मिक/धार्मिक पुस्तकें/लेख पढने से, या प्रवचन सुनने से प्रेरणा तो मिल सकती है, लेकिन आध्यात्मिक विकास नहीं हो सकता, और ईश्वर की प्राप्ति भी नहीं हो सकती। सत्य का बोध तो स्वयं को ही करना होगा, दूसरा कोई यह नहीं करा सकता।
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सत्य का प्रमाण स्वयं की अनुभूति है। उन सब विचारधाराओं से दूर रहो जो दूसरों से नफ़रत करना सिखाती हैं, जो अपने से भिन्न विचार वालों की ह्त्या करना सिखाती हैं, जो आत्म-हीनता का बोध कराती हैं, जो यह सिखाती हैं कि तुम जन्म से ही पापी हो, या फिर असहमति होने पर हमें भयभीत करती हैं। परमात्मा प्रेम का विषय है, भय का नहीं। जो सीख हमें परमात्मा से भयभीत होना सिखाती है, वह धार्मिक नहीं हो सकती। यदि परमात्मा में श्रद्धा और विश्वास है तो भयभीत होने का कोई कारण नहीं है। भयभीत होने की शिक्षा हमारे किसी भी शास्त्र में नहीं है, यह एक विजातीय प्रभाव है। डरना ही है तो अपने बुरे कर्मफलों से डरो, अन्य किसी भी वस्तु से नहीं। भगवान ने हमारी ही रक्षा के लिए अस्त्र-शस्त्र धारण कर रखे हैं। उन अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए भगवान को हृदय में रखकर असत्य व अन्धकार की शक्तियों का निरंतर प्रतिकार करो, और अपने पथ पर अडिग रहो। भगवान कहते हैं --
"क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥२:३॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् - हे पार्थ क्लीव (कायर) मत बनो, यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है। हे परंतप हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ॥
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
इसलिए तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो, और युद्ध करो। मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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माया के वशीभूत होकर हम निरंतर भ्रमित हो रहे हैं। सच्चिदानंद के प्रति पूर्ण परम प्रेम जागृत कर उनको पूर्ण समर्पित होने का निरंतर प्रयास ही साधना है, और पूर्ण समर्पण ही लक्ष्य है। नित्य नियमित ध्यान साधना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, अन्यथा परमात्मा को पाने की इच्छा ही समाप्त हो जाती है। मन पर निरंतर मैल चढ़ता रहता है जिस की नित्य नियमित सफाई आवश्यक है। साधना में कर्ताभाव न हो, कर्ता तो भगवान स्वयं हैं। भगवान हमारे दोषों पर नहीं, बल्कि प्रेम पर ध्यान देते हैं। उन की कृपा हम पर निरंतर बरस रही है।
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उपास्य के गुण उपासक में अवश्य आते हैं, यही सच्चिदानंद परमात्मा के ध्यान का लाभ है। उनके ध्यान से हमें भय, चिंता और क्रोध से भी मुक्ति मिलती है। आप सब को नमन!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ नवंबर २०२१