Tuesday, 16 November 2021

हे गुरु-रूप ब्रह्म, उतारो पार भाव-सागर के, अपनी परम कृपा करो ---

 हे गुरु-रूप ब्रह्म, उतारो पार भाव-सागर के, अपनी परम कृपा करो ...

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कभी कभी श्रीगुरु-चरणों के आश्रय से भटक जाता हूँ जिस की परिणिति बड़ी पीड़ादायक और कष्टमय होती हैं|
गुरु महाराज का आदेश तो मानना ही पड़ेगा| उनका आदेश है कि अपनी चेतना को सदा "आध्यात्मिक-नेत्र" यानि कूटस्थ में रखो| वे कहते हैं कि तुम्हारी एकमात्र समस्या ... "भगवान की प्राप्ति" है, अन्य सारी समस्याएँ भगवान की हैं, तुम्हारी नहीं|
इसके लिए उनका स्पष्ट मार्ग-निर्देश है| कोई संशय नहीं है| उन की दी हुई कुछ स्वभाविक साधनायें हैं, जिन का मैं साक्षी और निमित्त मात्र हूँ| सारी साधनायें तो करुणावश जगन्माता स्वयं ही करती हैं|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ नवंबर २०२०
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गुरु रूप ब्रह्म, आपने मुझे भव-सागर के पार उतार दिया है। मैं आपके साथ एक हूँ। मुझ में और आप में अब कोई भेद नहीं रहा है।
गुरु तत्व की इतनी गहरी अनुभूतियाँ हैं कि गुरु को मैं स्वयं से और परमात्मा से अलग नहीं पाता। इसलिए उनके ऊपर इस बार कुछ भी नहीं लिख पाया। वे मेरे साथ एक हैं। उनमें और मुझ में कोई अंतर अब नहीं रहा है। ॐ गुरु !! जय गुरु !! ॐ ॐ ॐ !!

मन की चंचलता कैसे दूर हो ? ...

 मन की चंचलता कैसे दूर हो ? ...

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गीता में भगवान कहते हैं ...
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं| अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते||६:३५||"
भगवान् कहते हैं -- हे महबाहो ! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परन्तु, हे कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है||
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उपरोक्त श्लोक में भगवान ने यह तो कह दिया कि अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ही मन को वश में किया जा सकता है, लेकिन यहाँ पर यह नहीं बताया कि अभ्यास किस का करें, और वैराग्य कैसे हो?
भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर के अनुसार अभ्यास से अर्थात् किसी चित्तभूमि में एक समान वृत्ति की बारंबार आवृत्ति करने से और दृष्ट तथा अदृष्ट प्रिय भोगों में बारंबार दोषदर्शन के अभ्यास द्वारा उत्पन्न हुए अनिच्छारूप वैराग्य से चित्त के विक्षेपरूप प्रचार ( चञ्चलता ) को रोका जा सकता है| अर्थात् इस प्रकार उस मन का निग्रह निरोध किया जा सकता है|
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यहाँ दो बातें मुझे समझ मे आई हैं| पहली बात तो यह है कि माया का विक्षेप ही मन की चंचलता है| माया के दो अस्त्र हैं जिनसे वह हमें भ्रमित करती है ... पहिला अस्त्र तो है ..."आवरण", और दूसरा है ... "विक्षेप"| यह विक्षेप ही मन की चंचलता है|
दूसरी बात यह है कि "एक समान वृत्तिकी बारंबार आवृत्ति" का अर्थ हंसःयोग या क्रियायोग की साधना ही हो सकती है|
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योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय के अनुसार मन की चंचलता का कारण प्राण-तत्व की चंचलता है| प्राणतत्व को स्थिर कर के ही मन की चंचलता को समाप्त किया जा सकता है| इस के लिए वे क्रियायोग की साधना को ही सर्वश्रेष्ठ बताते हैं| हंसःयोग भी क्रियायोग साधना का ही एक अंग है|
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ये साधनायें तो सद्गुरु के मार्गदर्शन और उन के सान्निध्य में ही करने की हैं| लेकिन एक बात याद रहे कि बिना भक्ति और सत्यनिष्ठा के कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती|
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आप सब महान आत्माओं को सप्रेम नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ नवंबर २०२०

सत्य का प्रमाण - स्वयं की अनुभूतियाँ हैं ---

सत्य का प्रमाण - स्वयं की अनुभूतियाँ हैं ---
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"दूध में घी है", यह पढ़ने या सुनने से घी नहीं प्राप्त होता। उसे प्राप्त करने की विधि किसी जानकार से जाननी होगी, और उस विधि का प्रयोग कर के दूध से घी निकालना होगा। दूसरे के द्वारा भोजन ग्रहण करने से स्वयं की क्षुधा शांत नहीं होती। स्वयं की क्षुधा शांत करने के लिए भोजन स्वयं को ही करना होगा। वैसे ही आध्यात्मिक/धार्मिक पुस्तकें/लेख पढने से, या प्रवचन सुनने से प्रेरणा तो मिल सकती है, लेकिन आध्यात्मिक विकास नहीं हो सकता, और ईश्वर की प्राप्ति भी नहीं हो सकती। सत्य का बोध तो स्वयं को ही करना होगा, दूसरा कोई यह नहीं करा सकता।
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सत्य का प्रमाण स्वयं की अनुभूति है। उन सब विचारधाराओं से दूर रहो जो दूसरों से नफ़रत करना सिखाती हैं, जो अपने से भिन्न विचार वालों की ह्त्या करना सिखाती हैं, जो आत्म-हीनता का बोध कराती हैं, जो यह सिखाती हैं कि तुम जन्म से ही पापी हो, या फिर असहमति होने पर हमें भयभीत करती हैं। परमात्मा प्रेम का विषय है, भय का नहीं। जो सीख हमें परमात्मा से भयभीत होना सिखाती है, वह धार्मिक नहीं हो सकती। यदि परमात्मा में श्रद्धा और विश्वास है तो भयभीत होने का कोई कारण नहीं है। भयभीत होने की शिक्षा हमारे किसी भी शास्त्र में नहीं है, यह एक विजातीय प्रभाव है। डरना ही है तो अपने बुरे कर्मफलों से डरो, अन्य किसी भी वस्तु से नहीं। भगवान ने हमारी ही रक्षा के लिए अस्त्र-शस्त्र धारण कर रखे हैं। उन अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए भगवान को हृदय में रखकर असत्य व अन्धकार की शक्तियों का निरंतर प्रतिकार करो, और अपने पथ पर अडिग रहो। भगवान कहते हैं --
"क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥२:३॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् - हे पार्थ क्लीव (कायर) मत बनो, यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है। हे परंतप हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ॥
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
इसलिए तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो, और युद्ध करो। मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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माया के वशीभूत होकर हम निरंतर भ्रमित हो रहे हैं। सच्चिदानंद के प्रति पूर्ण परम प्रेम जागृत कर उनको पूर्ण समर्पित होने का निरंतर प्रयास ही साधना है, और पूर्ण समर्पण ही लक्ष्य है। नित्य नियमित ध्यान साधना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, अन्यथा परमात्मा को पाने की इच्छा ही समाप्त हो जाती है। मन पर निरंतर मैल चढ़ता रहता है जिस की नित्य नियमित सफाई आवश्यक है। साधना में कर्ताभाव न हो, कर्ता तो भगवान स्वयं हैं। भगवान हमारे दोषों पर नहीं, बल्कि प्रेम पर ध्यान देते हैं। उन की कृपा हम पर निरंतर बरस रही है।
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उपास्य के गुण उपासक में अवश्य आते हैं, यही सच्चिदानंद परमात्मा के ध्यान का लाभ है। उनके ध्यान से हमें भय, चिंता और क्रोध से भी मुक्ति मिलती है। आप सब को नमन!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ नवंबर २०२१