Monday, 3 April 2017

गुरू कौन हैं ? गुरुसेवा क्या है ? गुरु की महिमा क्या है ? ........

गुरू कौन हैं ? गुरुसेवा क्या है ? गुरु की महिमा क्या है ? ........
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गुरु महाराज तो कूटस्थ स्वरुप साक्षात् परमब्रह्म हैं| वे कोई हाड़-मांस की देह नहीं हैं| उनकी भौतिक देह तो उनका एक वाहन मात्र है जिस पर पर वे अपनी लोकयात्रा पूरी करते हैं| हम उन्हें अपनी कल्पना में देह की सीमितता में ही बाँधे रखने की भूल करते हैं, पर वे अति विराट और सर्वव्यापक हैं|
तत्व रूप में वे प्रणव रूप है जो अनाहत नाद के रूप में निरंतर सुनाई देता है| साथ ही वे वह सर्वव्यापक ज्योतिर्मय ब्रह्म भी हैं जिनके दर्शन हमें गहरे ध्यान में कूटस्थ में होते हैं| कूटस्थ में ज्योतिर्मय ब्रह्म और प्रणव नाद ये दोनों ही मिलकर गुरु तत्व हैं| वास्तव में इनमें भी कोई भेद नहीं है| दोनों एक ही हैं| साथ साथ वे परम प्रेम भी हैं| गुरु हमें अपनी सर्वव्यापकता में निरंतर समर्पित होने की प्रेरणा देते हैं| वे ही विष्णु हैं, वे ही साक्षात् शिव हैं|
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सहस्त्रार उनके चरण हैं| सहस्त्रार में स्थिति गुरु चरणों में समर्पण है|
फिर उनकी सर्वव्यापकता में समर्पित होना ही ईश्वर की प्राप्ति है|
अहैतुकी परम प्रेम ही उनका मार्ग है|
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गुरु की सेवा का अर्थ है .... भक्ति द्वारा अपने मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का उनके श्री चरणों में पूर्ण समर्पण व आत्मतत्व में स्थिति की निरंतर साधना|
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"गु" का अर्थ है अज्ञान रुपी अन्धकार, और "रू" का अर्थ है मिटाने वाला| गुरु हमारे अज्ञान रुपी अन्धकार को मिटा देते हैं| "गु" का अर्थ है गुणातीत होना, और "रू" का अर्थ है रूपातीत होना| गुरु सभी गुणों (सत, रज व तम) और रूपों से परे है| "गु" माया का भासक है, "रू" परमब्रह्म है जो माया को मिटा देते हैं|
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गुरु महिमा .....
गुरुर्-ब्रह्मा गुरुर्-विष्णुर्-गुरुर्-देवो महेश्वरः |
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
अज्ञान-तिमिरान्धस्य ज्ञाना-ञ्जन-शलाकया |
चक्षुर्-उन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
अखण्ड-मण्डला-कारं व्याप्तं येन चराचरम् |
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
अनेक-जन्म-संप्राप्त-कर्म-बन्ध-विदाहिने |
ज्ञानानल-प्रभावेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
न गुरोर्-अधिकं तत्वं न गुरोर्-अधिकं तपः |
न गुरोर्-अधिकं ज्ञानं तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
मन्-नाथः श्रीजगन्नाथः मद्-गुरुः श्रीजगद्गुरुः |
ममात्मा सर्व-भूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
ध्यान-मूलं गुरोर्-मूर्तिः पूजा-मूलं गुरोः पदम् |
मन्त्र-मूलं गुरोर्-वाक्यं मुक्ति-मूलं गुरोः कृपा ||
अत्रिनेत्रः शिवः साक्षात् द्विबाहुश्च हरिः स्मृतः |
यो अचतुर्-वदनो ब्रह्मा श्रीगुरुः कथितः प्रिये ||
कुलानां कुलकोटीनां तारकस्-तत्र तत्-क्षणात् |
अतस्तं सद्-गुरुं ज्ञात्वा त्रिकालं-अभिवादयेत् ||
यस्य स्मरण-मात्रेण ज्ञानं-उत्पद्यते स्वयम् |
स एव सर्व-संपत्तिस्-तस्मात्-संपूजयेद्-गुरुम् ||
ज्ञानं विना मुक्तिपदं लभ्यते गुरु-भक्तितः |
गुरो: समानतो नान्यत्-साधनं गुरु-मार्गिणाम् ||
ब्रह्मानन्दं परम-सुखदं केवलं ज्ञान-मूर्तिं,
द्वन्द्वातीतं गगन-सदृशं तत्वं-अस्यादि-लक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलं-अचलं सर्वधी-साक्षि-भूतं,
भावातीतं त्रिगुण-रहितं सद्गुरुं तं नमामि ||
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ॐ श्री गुरवे नम:| ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर चै,कृ.१२.वि.सं.२०७२. 04April2016

स्वाध्याय प्रवचनाभ्याम् न प्रमदितव्यम् ......

स्वाध्याय प्रवचनाभ्याम् न प्रमदितव्यम् ......
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श्रुति भगवती (वेदों का) का आदेश है ..... "स्वाध्याय प्रवचनाभ्याम् न प्रमदितव्यम् |" अर्थात् पढने और पढ़ाने में प्रमाद मत करो|
और --"स्वाध्यायान्मा प्रमद:|" अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद मत करो|
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एक वैदिक कथा है कि एक बार तीन ऋषियों के मध्य वाद-विवाद हुआ कि संसार में सबसे बड़ी चीज क्या है|
मुद्गल ऋषि ने कहा कि स्वाध्याय और प्रवचन ही इस संसार में सबसे बड़ी चीज है|
पौरिषिष्टि ऋषि ने कहा कि इस संसार में तपस्या ही सबसे बड़ी चीज है|
राधीतर ऋषि ने कहा कि सत्य ही सबसे बड़ी चीज है|
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अंत में निर्णय वेद पुरुष पर छोड़ दिया गया| वेद पुरुष ने अपना निर्णय मुद्गल ऋषि के पक्ष में दिया| वेद के द्वारा यह निर्णय दिया गया कि पढना-पढ़ाना, सत्य और तपस्या से भी बड़ा है|
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यह कितनी सुन्दर प्रार्थना है जो प्राचीन भारत में अध्यापन से पूर्व
की जाती थी .....
"ओ३म् सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै| तेजस्वि नावधीतमस्तु माँ विद्विषावहै||
ओ३म् शांति शांति शांति||"
अर्थात -- हे परमात्मा ! हम (गुरु-शिष्य) दोनों की रक्षा करो, हम दोनों का पालन करो, हम दोनों साथ साथ में रहकर तेजस्वी दैवी कार्य करें, हम दोनों का किया हुआ अध्ययन तेजस्वी और दैवी हो और हम दोनों परस्पर एक दुसरे से द्वेष न करें|
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भारत की शिक्षा व्यवस्था भारत का प्राण थी जिसे बड़ी कुटिलता और निर्दयता से अंग्रेजों ने नष्ट कर दिया| कभी न कभी तो युग परिवर्तन होगा, भारत पुनश्चः अपने परम वैभव को प्राप्त होगा और विश्व गुरु बनेगा|
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ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

अब कोई प्रार्थना नहीं है, कोई अर्चना नहीं है .....

अब कोई प्रार्थना नहीं है, कोई अर्चना नहीं है .....
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साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण, द्वैत-अद्वैत आदि शब्दों का अब कोई महत्व नहीं रह गया है| जब तक मन में कोई आग्रह था तभी तक इन शब्दों का महत्व था, अब नहीं है|
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शरणागति और समर्पण भी अब बहुत पुराने शब्द हो गए हैं| किस की शरणागति लें और किस को समर्पित हों? परमात्मा तो अभी इसी समय और यहीं पर मेरे साथ हैं, कहीं दूर जा ही नहीं सकते, क्योंकि अपने स्वयं के हृदय में उन्होंने मुझे भी बसा लिया है| अपना बनाकर अभी भी वे गले लगे हुए हैं, और छोड़ ही नहीं रहे हैं|
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प्रेमवश ही कभी कभी वे मुझ से नाराज होने का दिखावा कर इधर उधर छिप जाते हैं, फिर जैसे किसी बालक को मनाते हैं वैसे ही उन्हें भी मनाना पड़ता है| लुका-छिपी के इस खेल में वे कभी कभी मुझे भी बालक बना देते है और स्वयं माँ बनकर अपनी खोज करवाते हैं| मुझे कोई शिकायत नहीं है, मैं आनंदित और प्रसन्न हूँ|
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कोई प्रार्थना नहीं है, कोई अर्चना नहीं है| जो इतना समीप है, जो गले लगा हुआ है, उससे क्या तो प्रार्थना कर सकते हैं और क्या अर्चना?
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ॐ ॐ ॐ ||

'अहिंसा परमो धर्म:' ......

April 2, 2015 ·
'अहिंसा परमो धर्म:' ...............
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इस पर मेरे विचार कुछ भिन्न हैं|
भारत में सामान्यतः अहिंसा का अर्थ जीवों को साक्षात् ना मारने और पीड़ा न देने तक ही सीमित है|
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पर जैसा मुझे समझ में आया है उसके अनुसार ------"मनुष्य का अहंकार और मोह" सबसे बड़ी हिंसा है, उसके पश्चात "किसी निरीह असहाय की जिसे सहायता की नितांत आवश्यकता है सहायता न करना", और फिर "किसी निरपराध को पीड़ित करना" ही हिंसा है|
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“अहिंसा परमो धर्मः” – यह महाभारत का वाक्य है किन्तु इसे महाभारत के सन्देश के रूप में प्रचारित और प्रसारित नहीं किया गया है| महाभारत में अनेक बार अनेक विभिन्न प्रसंगों में इसका उल्लेख हुआ है|
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अहिंसा के साथ साथ सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का भी उतना ही महत्व है, पर मात्र अहिंसा, अहिंसा और अहिंसा पर अत्यधिक जोर देने, यहाँ तक कि आतताइयों, तस्करों और दुष्ट आक्रान्ताओं से भी अहिंसा का व्यवहार करने से दुर्भाग्यवश भारत में एक ऐसी सद्गुण-विकृति आई कि भारत एक निर्वीर्य असंगठित और कमजोर राष्ट्र बन गया और विदेशी आतताइयों द्वारा आकमण के द्वार खुल गए|
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ऐतिहासिक दृष्टी से जिस दिन सम्राट अशोक ने अपनी तलवार नीचे रख दी थी, उसी दिन से भारत का पतन आरम्भ हो गया था| हिन्दू परम्परा में आततायी के लिए जो आपकी स्त्री, संतान, धन और प्राणों का अपहरण करने आता हो, जो आपके राष्ट्र पर आक्रमण कर आपको पराधीन करने और राष्ट्र को दरिद्र बनाने आता हो, उसके विरुद्ध हिंसा को धर्म माना गया था| आततायी के लिए कहीं भी क्षमा का प्रावधान नहीं था|
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पृथ्वीराज चौहान जैसे प्रतापी राजाओं द्वारा दी गयी क्षमा का दंड भारत आज तक भुगत रहा है| इस तरह की क्षमा अहंकार जनित थी और उसका दुष्परिणाम ही हुआ|
इसी तरह की अहंकार जनित अहिंसा के उपासकों के विश्वासघात के कारण ही सिंध के हिन्दू महाराजा दाहरसेन की पराजय हुई और आतताइयों द्वारा भारत के पराभव का क्रम आरम्भ हुआ| इस तरह के विश्वासघात अनेक बार हुए| सिर्फ भारत में ही नहीं अपितु पूरे मध्य एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में तथाकथित अहिंसा के उपासकों ने आतताइयों का वीरता से प्रतिरोध नहीं किया जिसका परिणाम उन्हें मृत्यु या बलात् हिंसक मतांतरण के रूप में मिला|
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गहराइयों से विचार करने पर मैं पाता हूँ कि यदि भारत में आदि शंकराचार्य सनातन हिन्दू धर्म की पुनर्स्थापना नहीं करते, और अनगिनत संख्या में संत महात्मा भारत में जन्म नहीं लेते तो आज भारत भारत नहीं होता| अफगानिस्तान और तुर्किस्तान तक पूरा मध्य एशिया कभी बौद्ध मतावलंबी था, पर वह इस्लामी तलवार की धार का सामना नहीं कर पाया और मुस्लिम क्षेत्र बन गया क्योंकि उन्होंने अहिंसा पर बहुत अधिक जोर दिया था|
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कालान्तर में अहिंसा को परम धर्म मानने वाले लोग सबसे बड़े परिग्रही और भोगी बन गए|
अनैतिकता, भ्रष्टाचार, चोरी, शोषण, घृणा, ईर्ष्या-द्वेष, वैमनस्क्य, वासना, आसक्ति और दुराग्रह आदि जीवन में यदि पलते रहें तो इन सब के साथ साथ अहिंसा संभव नहीं है|
जीवों को न मारना तो अहिंसा है किन्तु उस को सीमित अर्थ में देखने वालों को किसी चींटी के मरने पर तो पछतावा हो सकता है, किन्तु दूसरों को ठगने को या उन पर झूठे केस मुकदमें चलाने या उनका शोषण करने में कोई पछतावा नहीं होता|
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मनुष्य के भीतर दैवीय तथा आसुरी दोनों ही प्रकार की प्रवृत्तियां हैं। इसलिए व्यक्ति का व्यवहार सदैव एक-सा नहीं होता, उसके मन में देवासुर संग्राम चलता ही रहता है। जो प्रवृत्ति उस पर हावी होती है वैसा ही व्यवहार होता है।
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संसार के अन्य किसी भी देश में अहिंसा की परम्परा इतनी निरंतर , व्यापक और गहरी नहीं है जितनी कि भारत में है। भारतीय तत्व-चिंतकों , दार्शनिकों , संतों ने अहिंसा पर व्यापक रूप से विचार किया है। यहां मानव जीवन को समग्रता की दृष्टि से देखा गया तथा अहिंसा को परम कर्त्तव्य माना गया। भारत में अहिंसा चेतना के जागरण तथा अहिंसात्मक संस्कार-निर्माण को पुनीत कर्त्तव्य कहा गया है|
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भारत में सभी देवी-देवताओं के हाथ में शस्त्रास्त्र हैं| जब तक भारत में शक्ति की साधना की जाती थी, भारत की और आँख उठाकर देखने का दु:साहस किसी आतताई का नहीं हुआ|
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महाभारत युद्ध के आरंभ में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध हेतु प्रेरित करने के लिए उपदेश देते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की दृष्टि में अहिंसा का अर्थ है ---- जिस पुरुष के अन्त:करण में "मैं कर्ता हूं" ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थ और कर्म में लिप्त नहीं होती है, वह पुरुष सब लोगों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न ही पाप से बंधता है।
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मानसकार कहते हैं कि आततायियों को दंड देने के लिए जिनके हाथ में धनुष और बाण हैं, ऐसे प्रभु श्री राम की मैं वंदना करता हूं। भगवान यज्ञ की रक्षा करने के लिए ताड़का को मारना भी उचित समझते हैं। भक्तों की रक्षा के लिए मेघनाद के यज्ञ के विध्वंस का आदेश देते हैं। योग की संस्कृति को स्थापित करने के लिए लाखों राक्षसों के संहार को भी उचित मानते हैं। यह है अहिंसा का यथार्थ स्वरूप।
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आज हम इतने संवेदनहीन और स्वार्थी कैसे हो रहे हैं कि तड़फते जीवों को देख कर भी अब हमारी आँखें नम नहीं होतीं| हम बड़ी से बड़ी दुर्घटना देखकर भी तब तक नहीं रोते जब तक कि इससे हमारा कोई सगा पीड़ित ना हुआ हो| इसका कारण हमारा अहंकार, मोह और स्वार्थ है|
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छान्दग्योपनिषद में अहिंसा को पांच नैतिक गुणों में माना गया है। पातंजलि के योग-सूत्र में अहिंसा का उल्लेख पांच यमों में किया गया है। इसी प्रकार महाभारत के शांति पर्व में उल्लेखित है-
अनृशंस्यं क्षमा शान्तिर अहिंसा सत्यमार्जवम।
इस विषय पर अनेक निबंध, लेख और साहित्यिक प्रस्तुतियाँ उपलब्ध हैं| अतः मेरा और लिखना उचित नहीं होगा|

सार :------
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जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है कि मेरी समझ से मनुष्य का "अहंकार" और "मोह" सबसे बड़ी हिंसा है, उसके पश्चात किसी निरीह असहाय और जिसे सहायता की नितांत आवश्यकता हो उसकी सहायता न करना, और किसी निरपराध को पीड़ित करना ही हिंसा है|
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"अहिंसा" परम धर्म है इसमें कोई संदेह नहीं है| यह पूर्ण शाश्वत सत्य है|
आज की परिस्थिति में जब धर्म और राष्ट्र की अस्मिता यानि हिंदुत्व पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं तब धर्म और राष्ट्र की रक्षा करना सबसे बड़ी अहिंसा है|
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इस समय राष्ट्र को एक ब्रह्मतेज और क्षात्रबल की नितांत आवश्यकता है| सबसे बड़ी सेवा जो कोई भी दूसरों की, समाज, राष्ट्र, विश्व और समस्त सृष्टि की कर सकता है, वह है ---- ईश्वर की प्राप्ति यानि आत्मसाक्षात्कार यानि परमात्मा को पूर्ण समर्पण|
तब आपका अस्तित्व ही इस धरा के लिए एक वरदान बन जाता है क्योंकि आपके अस्तित्व मात्र से नि:सृत होने वाले स्पंदन ही समस्त सद्गुणों को बल देते हैं और धर्म की रक्षा करते हैं|
यही है -- 'अहिंसा परमो धर्म:' ||
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय || ॐ ॐ ॐ ||
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अप्रैल ०२, 2015