गुरू कौन हैं ? गुरुसेवा क्या है ? गुरु की महिमा क्या है ? ........
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गुरु महाराज तो कूटस्थ स्वरुप साक्षात् परमब्रह्म हैं| वे कोई हाड़-मांस की देह नहीं हैं| उनकी भौतिक देह तो उनका एक वाहन मात्र है जिस पर पर वे अपनी लोकयात्रा पूरी करते हैं| हम उन्हें अपनी कल्पना में देह की सीमितता में ही बाँधे रखने की भूल करते हैं, पर वे अति विराट और सर्वव्यापक हैं|
तत्व रूप में वे प्रणव रूप है जो अनाहत नाद के रूप में निरंतर सुनाई देता है| साथ ही वे वह सर्वव्यापक ज्योतिर्मय ब्रह्म भी हैं जिनके दर्शन हमें गहरे ध्यान में कूटस्थ में होते हैं| कूटस्थ में ज्योतिर्मय ब्रह्म और प्रणव नाद ये दोनों ही मिलकर गुरु तत्व हैं| वास्तव में इनमें भी कोई भेद नहीं है| दोनों एक ही हैं| साथ साथ वे परम प्रेम भी हैं| गुरु हमें अपनी सर्वव्यापकता में निरंतर समर्पित होने की प्रेरणा देते हैं| वे ही विष्णु हैं, वे ही साक्षात् शिव हैं|
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सहस्त्रार उनके चरण हैं| सहस्त्रार में स्थिति गुरु चरणों में समर्पण है|
फिर उनकी सर्वव्यापकता में समर्पित होना ही ईश्वर की प्राप्ति है|
अहैतुकी परम प्रेम ही उनका मार्ग है|
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गुरु की सेवा का अर्थ है .... भक्ति द्वारा अपने मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का उनके श्री चरणों में पूर्ण समर्पण व आत्मतत्व में स्थिति की निरंतर साधना|
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"गु" का अर्थ है अज्ञान रुपी अन्धकार, और "रू" का अर्थ है मिटाने वाला| गुरु हमारे अज्ञान रुपी अन्धकार को मिटा देते हैं| "गु" का अर्थ है गुणातीत होना, और "रू" का अर्थ है रूपातीत होना| गुरु सभी गुणों (सत, रज व तम) और रूपों से परे है| "गु" माया का भासक है, "रू" परमब्रह्म है जो माया को मिटा देते हैं|
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गुरु महिमा .....
गुरुर्-ब्रह्मा गुरुर्-विष्णुर्-गुरुर्-देवो महेश्वरः |
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
अज्ञान-तिमिरान्धस्य ज्ञाना-ञ्जन-शलाकया |
चक्षुर्-उन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
अखण्ड-मण्डला-कारं व्याप्तं येन चराचरम् |
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
अनेक-जन्म-संप्राप्त-कर्म-बन्ध-विदाहिने |
ज्ञानानल-प्रभावेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
न गुरोर्-अधिकं तत्वं न गुरोर्-अधिकं तपः |
न गुरोर्-अधिकं ज्ञानं तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
मन्-नाथः श्रीजगन्नाथः मद्-गुरुः श्रीजगद्गुरुः |
ममात्मा सर्व-भूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
ध्यान-मूलं गुरोर्-मूर्तिः पूजा-मूलं गुरोः पदम् |
मन्त्र-मूलं गुरोर्-वाक्यं मुक्ति-मूलं गुरोः कृपा ||
अत्रिनेत्रः शिवः साक्षात् द्विबाहुश्च हरिः स्मृतः |
यो अचतुर्-वदनो ब्रह्मा श्रीगुरुः कथितः प्रिये ||
कुलानां कुलकोटीनां तारकस्-तत्र तत्-क्षणात् |
अतस्तं सद्-गुरुं ज्ञात्वा त्रिकालं-अभिवादयेत् ||
यस्य स्मरण-मात्रेण ज्ञानं-उत्पद्यते स्वयम् |
स एव सर्व-संपत्तिस्-तस्मात्-संपूजयेद्-गुरुम् ||
ज्ञानं विना मुक्तिपदं लभ्यते गुरु-भक्तितः |
गुरो: समानतो नान्यत्-साधनं गुरु-मार्गिणाम् ||
ब्रह्मानन्दं परम-सुखदं केवलं ज्ञान-मूर्तिं,
द्वन्द्वातीतं गगन-सदृशं तत्वं-अस्यादि-लक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलं-अचलं सर्वधी-साक्षि-भूतं,
भावातीतं त्रिगुण-रहितं सद्गुरुं तं नमामि ||
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ॐ श्री गुरवे नम:| ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर चै,कृ.१२.वि.सं.२०७२. 04April2016
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गुरु महाराज तो कूटस्थ स्वरुप साक्षात् परमब्रह्म हैं| वे कोई हाड़-मांस की देह नहीं हैं| उनकी भौतिक देह तो उनका एक वाहन मात्र है जिस पर पर वे अपनी लोकयात्रा पूरी करते हैं| हम उन्हें अपनी कल्पना में देह की सीमितता में ही बाँधे रखने की भूल करते हैं, पर वे अति विराट और सर्वव्यापक हैं|
तत्व रूप में वे प्रणव रूप है जो अनाहत नाद के रूप में निरंतर सुनाई देता है| साथ ही वे वह सर्वव्यापक ज्योतिर्मय ब्रह्म भी हैं जिनके दर्शन हमें गहरे ध्यान में कूटस्थ में होते हैं| कूटस्थ में ज्योतिर्मय ब्रह्म और प्रणव नाद ये दोनों ही मिलकर गुरु तत्व हैं| वास्तव में इनमें भी कोई भेद नहीं है| दोनों एक ही हैं| साथ साथ वे परम प्रेम भी हैं| गुरु हमें अपनी सर्वव्यापकता में निरंतर समर्पित होने की प्रेरणा देते हैं| वे ही विष्णु हैं, वे ही साक्षात् शिव हैं|
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सहस्त्रार उनके चरण हैं| सहस्त्रार में स्थिति गुरु चरणों में समर्पण है|
फिर उनकी सर्वव्यापकता में समर्पित होना ही ईश्वर की प्राप्ति है|
अहैतुकी परम प्रेम ही उनका मार्ग है|
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गुरु की सेवा का अर्थ है .... भक्ति द्वारा अपने मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का उनके श्री चरणों में पूर्ण समर्पण व आत्मतत्व में स्थिति की निरंतर साधना|
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"गु" का अर्थ है अज्ञान रुपी अन्धकार, और "रू" का अर्थ है मिटाने वाला| गुरु हमारे अज्ञान रुपी अन्धकार को मिटा देते हैं| "गु" का अर्थ है गुणातीत होना, और "रू" का अर्थ है रूपातीत होना| गुरु सभी गुणों (सत, रज व तम) और रूपों से परे है| "गु" माया का भासक है, "रू" परमब्रह्म है जो माया को मिटा देते हैं|
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गुरु महिमा .....
गुरुर्-ब्रह्मा गुरुर्-विष्णुर्-गुरुर्-देवो महेश्वरः |
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
अज्ञान-तिमिरान्धस्य ज्ञाना-ञ्जन-शलाकया |
चक्षुर्-उन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
अखण्ड-मण्डला-कारं व्याप्तं येन चराचरम् |
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
अनेक-जन्म-संप्राप्त-कर्म-बन्ध-विदाहिने |
ज्ञानानल-प्रभावेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
न गुरोर्-अधिकं तत्वं न गुरोर्-अधिकं तपः |
न गुरोर्-अधिकं ज्ञानं तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
मन्-नाथः श्रीजगन्नाथः मद्-गुरुः श्रीजगद्गुरुः |
ममात्मा सर्व-भूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
ध्यान-मूलं गुरोर्-मूर्तिः पूजा-मूलं गुरोः पदम् |
मन्त्र-मूलं गुरोर्-वाक्यं मुक्ति-मूलं गुरोः कृपा ||
अत्रिनेत्रः शिवः साक्षात् द्विबाहुश्च हरिः स्मृतः |
यो अचतुर्-वदनो ब्रह्मा श्रीगुरुः कथितः प्रिये ||
कुलानां कुलकोटीनां तारकस्-तत्र तत्-क्षणात् |
अतस्तं सद्-गुरुं ज्ञात्वा त्रिकालं-अभिवादयेत् ||
यस्य स्मरण-मात्रेण ज्ञानं-उत्पद्यते स्वयम् |
स एव सर्व-संपत्तिस्-तस्मात्-संपूजयेद्-गुरुम् ||
ज्ञानं विना मुक्तिपदं लभ्यते गुरु-भक्तितः |
गुरो: समानतो नान्यत्-साधनं गुरु-मार्गिणाम् ||
ब्रह्मानन्दं परम-सुखदं केवलं ज्ञान-मूर्तिं,
द्वन्द्वातीतं गगन-सदृशं तत्वं-अस्यादि-लक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलं-अचलं सर्वधी-साक्षि-भूतं,
भावातीतं त्रिगुण-रहितं सद्गुरुं तं नमामि ||
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ॐ श्री गुरवे नम:| ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर चै,कृ.१२.वि.सं.२०७२. 04April2016