Monday, 3 April 2017

अब कोई प्रार्थना नहीं है, कोई अर्चना नहीं है .....

अब कोई प्रार्थना नहीं है, कोई अर्चना नहीं है .....
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साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण, द्वैत-अद्वैत आदि शब्दों का अब कोई महत्व नहीं रह गया है| जब तक मन में कोई आग्रह था तभी तक इन शब्दों का महत्व था, अब नहीं है|
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शरणागति और समर्पण भी अब बहुत पुराने शब्द हो गए हैं| किस की शरणागति लें और किस को समर्पित हों? परमात्मा तो अभी इसी समय और यहीं पर मेरे साथ हैं, कहीं दूर जा ही नहीं सकते, क्योंकि अपने स्वयं के हृदय में उन्होंने मुझे भी बसा लिया है| अपना बनाकर अभी भी वे गले लगे हुए हैं, और छोड़ ही नहीं रहे हैं|
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प्रेमवश ही कभी कभी वे मुझ से नाराज होने का दिखावा कर इधर उधर छिप जाते हैं, फिर जैसे किसी बालक को मनाते हैं वैसे ही उन्हें भी मनाना पड़ता है| लुका-छिपी के इस खेल में वे कभी कभी मुझे भी बालक बना देते है और स्वयं माँ बनकर अपनी खोज करवाते हैं| मुझे कोई शिकायत नहीं है, मैं आनंदित और प्रसन्न हूँ|
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कोई प्रार्थना नहीं है, कोई अर्चना नहीं है| जो इतना समीप है, जो गले लगा हुआ है, उससे क्या तो प्रार्थना कर सकते हैं और क्या अर्चना?
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ॐ ॐ ॐ ||

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