Monday, 3 April 2017

'अहिंसा परमो धर्म:' ......

April 2, 2015 ·
'अहिंसा परमो धर्म:' ...............
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इस पर मेरे विचार कुछ भिन्न हैं|
भारत में सामान्यतः अहिंसा का अर्थ जीवों को साक्षात् ना मारने और पीड़ा न देने तक ही सीमित है|
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पर जैसा मुझे समझ में आया है उसके अनुसार ------"मनुष्य का अहंकार और मोह" सबसे बड़ी हिंसा है, उसके पश्चात "किसी निरीह असहाय की जिसे सहायता की नितांत आवश्यकता है सहायता न करना", और फिर "किसी निरपराध को पीड़ित करना" ही हिंसा है|
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“अहिंसा परमो धर्मः” – यह महाभारत का वाक्य है किन्तु इसे महाभारत के सन्देश के रूप में प्रचारित और प्रसारित नहीं किया गया है| महाभारत में अनेक बार अनेक विभिन्न प्रसंगों में इसका उल्लेख हुआ है|
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अहिंसा के साथ साथ सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का भी उतना ही महत्व है, पर मात्र अहिंसा, अहिंसा और अहिंसा पर अत्यधिक जोर देने, यहाँ तक कि आतताइयों, तस्करों और दुष्ट आक्रान्ताओं से भी अहिंसा का व्यवहार करने से दुर्भाग्यवश भारत में एक ऐसी सद्गुण-विकृति आई कि भारत एक निर्वीर्य असंगठित और कमजोर राष्ट्र बन गया और विदेशी आतताइयों द्वारा आकमण के द्वार खुल गए|
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ऐतिहासिक दृष्टी से जिस दिन सम्राट अशोक ने अपनी तलवार नीचे रख दी थी, उसी दिन से भारत का पतन आरम्भ हो गया था| हिन्दू परम्परा में आततायी के लिए जो आपकी स्त्री, संतान, धन और प्राणों का अपहरण करने आता हो, जो आपके राष्ट्र पर आक्रमण कर आपको पराधीन करने और राष्ट्र को दरिद्र बनाने आता हो, उसके विरुद्ध हिंसा को धर्म माना गया था| आततायी के लिए कहीं भी क्षमा का प्रावधान नहीं था|
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पृथ्वीराज चौहान जैसे प्रतापी राजाओं द्वारा दी गयी क्षमा का दंड भारत आज तक भुगत रहा है| इस तरह की क्षमा अहंकार जनित थी और उसका दुष्परिणाम ही हुआ|
इसी तरह की अहंकार जनित अहिंसा के उपासकों के विश्वासघात के कारण ही सिंध के हिन्दू महाराजा दाहरसेन की पराजय हुई और आतताइयों द्वारा भारत के पराभव का क्रम आरम्भ हुआ| इस तरह के विश्वासघात अनेक बार हुए| सिर्फ भारत में ही नहीं अपितु पूरे मध्य एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में तथाकथित अहिंसा के उपासकों ने आतताइयों का वीरता से प्रतिरोध नहीं किया जिसका परिणाम उन्हें मृत्यु या बलात् हिंसक मतांतरण के रूप में मिला|
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गहराइयों से विचार करने पर मैं पाता हूँ कि यदि भारत में आदि शंकराचार्य सनातन हिन्दू धर्म की पुनर्स्थापना नहीं करते, और अनगिनत संख्या में संत महात्मा भारत में जन्म नहीं लेते तो आज भारत भारत नहीं होता| अफगानिस्तान और तुर्किस्तान तक पूरा मध्य एशिया कभी बौद्ध मतावलंबी था, पर वह इस्लामी तलवार की धार का सामना नहीं कर पाया और मुस्लिम क्षेत्र बन गया क्योंकि उन्होंने अहिंसा पर बहुत अधिक जोर दिया था|
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कालान्तर में अहिंसा को परम धर्म मानने वाले लोग सबसे बड़े परिग्रही और भोगी बन गए|
अनैतिकता, भ्रष्टाचार, चोरी, शोषण, घृणा, ईर्ष्या-द्वेष, वैमनस्क्य, वासना, आसक्ति और दुराग्रह आदि जीवन में यदि पलते रहें तो इन सब के साथ साथ अहिंसा संभव नहीं है|
जीवों को न मारना तो अहिंसा है किन्तु उस को सीमित अर्थ में देखने वालों को किसी चींटी के मरने पर तो पछतावा हो सकता है, किन्तु दूसरों को ठगने को या उन पर झूठे केस मुकदमें चलाने या उनका शोषण करने में कोई पछतावा नहीं होता|
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मनुष्य के भीतर दैवीय तथा आसुरी दोनों ही प्रकार की प्रवृत्तियां हैं। इसलिए व्यक्ति का व्यवहार सदैव एक-सा नहीं होता, उसके मन में देवासुर संग्राम चलता ही रहता है। जो प्रवृत्ति उस पर हावी होती है वैसा ही व्यवहार होता है।
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संसार के अन्य किसी भी देश में अहिंसा की परम्परा इतनी निरंतर , व्यापक और गहरी नहीं है जितनी कि भारत में है। भारतीय तत्व-चिंतकों , दार्शनिकों , संतों ने अहिंसा पर व्यापक रूप से विचार किया है। यहां मानव जीवन को समग्रता की दृष्टि से देखा गया तथा अहिंसा को परम कर्त्तव्य माना गया। भारत में अहिंसा चेतना के जागरण तथा अहिंसात्मक संस्कार-निर्माण को पुनीत कर्त्तव्य कहा गया है|
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भारत में सभी देवी-देवताओं के हाथ में शस्त्रास्त्र हैं| जब तक भारत में शक्ति की साधना की जाती थी, भारत की और आँख उठाकर देखने का दु:साहस किसी आतताई का नहीं हुआ|
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महाभारत युद्ध के आरंभ में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध हेतु प्रेरित करने के लिए उपदेश देते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की दृष्टि में अहिंसा का अर्थ है ---- जिस पुरुष के अन्त:करण में "मैं कर्ता हूं" ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थ और कर्म में लिप्त नहीं होती है, वह पुरुष सब लोगों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न ही पाप से बंधता है।
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मानसकार कहते हैं कि आततायियों को दंड देने के लिए जिनके हाथ में धनुष और बाण हैं, ऐसे प्रभु श्री राम की मैं वंदना करता हूं। भगवान यज्ञ की रक्षा करने के लिए ताड़का को मारना भी उचित समझते हैं। भक्तों की रक्षा के लिए मेघनाद के यज्ञ के विध्वंस का आदेश देते हैं। योग की संस्कृति को स्थापित करने के लिए लाखों राक्षसों के संहार को भी उचित मानते हैं। यह है अहिंसा का यथार्थ स्वरूप।
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आज हम इतने संवेदनहीन और स्वार्थी कैसे हो रहे हैं कि तड़फते जीवों को देख कर भी अब हमारी आँखें नम नहीं होतीं| हम बड़ी से बड़ी दुर्घटना देखकर भी तब तक नहीं रोते जब तक कि इससे हमारा कोई सगा पीड़ित ना हुआ हो| इसका कारण हमारा अहंकार, मोह और स्वार्थ है|
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छान्दग्योपनिषद में अहिंसा को पांच नैतिक गुणों में माना गया है। पातंजलि के योग-सूत्र में अहिंसा का उल्लेख पांच यमों में किया गया है। इसी प्रकार महाभारत के शांति पर्व में उल्लेखित है-
अनृशंस्यं क्षमा शान्तिर अहिंसा सत्यमार्जवम।
इस विषय पर अनेक निबंध, लेख और साहित्यिक प्रस्तुतियाँ उपलब्ध हैं| अतः मेरा और लिखना उचित नहीं होगा|

सार :------
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जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है कि मेरी समझ से मनुष्य का "अहंकार" और "मोह" सबसे बड़ी हिंसा है, उसके पश्चात किसी निरीह असहाय और जिसे सहायता की नितांत आवश्यकता हो उसकी सहायता न करना, और किसी निरपराध को पीड़ित करना ही हिंसा है|
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"अहिंसा" परम धर्म है इसमें कोई संदेह नहीं है| यह पूर्ण शाश्वत सत्य है|
आज की परिस्थिति में जब धर्म और राष्ट्र की अस्मिता यानि हिंदुत्व पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं तब धर्म और राष्ट्र की रक्षा करना सबसे बड़ी अहिंसा है|
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इस समय राष्ट्र को एक ब्रह्मतेज और क्षात्रबल की नितांत आवश्यकता है| सबसे बड़ी सेवा जो कोई भी दूसरों की, समाज, राष्ट्र, विश्व और समस्त सृष्टि की कर सकता है, वह है ---- ईश्वर की प्राप्ति यानि आत्मसाक्षात्कार यानि परमात्मा को पूर्ण समर्पण|
तब आपका अस्तित्व ही इस धरा के लिए एक वरदान बन जाता है क्योंकि आपके अस्तित्व मात्र से नि:सृत होने वाले स्पंदन ही समस्त सद्गुणों को बल देते हैं और धर्म की रक्षा करते हैं|
यही है -- 'अहिंसा परमो धर्म:' ||
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय || ॐ ॐ ॐ ||
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अप्रैल ०२, 2015

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