Friday 4 November 2016

राष्ट्र और धर्म की रक्षा हम स्वयं के सद् आचरण से ही कर सकते हैं .....

राष्ट्र और धर्म की रक्षा हम स्वयं के सद् आचरण से ही कर सकते हैं .....
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>>>हमारा संकल्प और हमारी आस्था महासागर में खड़ी उस चट्टान की तरह हो जो अति प्रचंड लहरों की मार खाकर भी अडिग रहती है|
>>>हमारा अस्तित्व उस परशु कि तरह हो जिस पर कोई प्रहार करे तो वह स्वयं ही तुरंत कट जाए|
>>>हमारा आचरण और चरित्र स्वर्ण की तरह पवित्र हो जिसमें कोई खोट ना हो|
>>>हमारे जीवन का केंद्र बिंदु परमात्मा हो|
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फिर प्रकृति की प्रत्येक शक्ति हमारा सहयोग करने के लिए बाध्य होगी क्योंकि यह सृष्टि परमात्मा के संकल्प से निर्मित हुई है, और सूक्ष्मतम स्तर पर परमात्मा से एकाकार होकर ही हम अपना संकल्प साकार कर सकते हैं|
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सत्य सनातन धर्म और राष्ट्र पर आसन्न संकट को मिटाने के लिए एक ब्रह्मशक्ति का अवतरण नितांत आवश्यक है| जब ब्रह्मशक्ति अवतरित होगी तब क्षातृशक्ति भी अवतरित होगी| इसके लिए लाखों लोगों को समष्टि साधना करनी होगी|
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जागिये .... उठिए .... अपने भीतर सोये हुए निश्चय के बल को जगाइये। सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वोत्तम आत्मबल को अर्जित करिये । आत्मा में अथाह सामर्थ्य है। अपने को दीन-हीन मान बैठे तो विश्व में ऐसी कोई सत्ता नहीं जो आप को ऊपर उठा सके। अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये तो त्रिलोक में ऐसी कोई हस्ती नहीं जो आपको दबा सके।
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आगे का मार्ग आपकी प्रतीक्षा कर रहा है, लेकिन पहला कदम आपको ही लेना है|
शूली ऊपर सेज पीया की , नौपत बाजे हजार !
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

छठ की शुभ कामनाएँ -----

पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और उस क्षेत्र के सभी श्रद्धालुओं को जो छठ पूजा करते हैं, बहुत बहुत शुभ कामनाएँ |
आज से आरम्भ हुआ छठ पूजा का पर्व परसों रविवार तक चलेगा |
पहिले दिन महिलाएँ उपवास करेंगी |
दूसरे दिन महिलाओं का निर्जला व्रत होगा |
तीसरे दिन अस्त होते हुए सूर्य को नदी या तालाब के किनारे अर्घ्य देंगे |
चौथे दिन वहीं नदी या तालाब के किनारे उदय होते हुए सूर्य को अर्घ्य देंगे और फिर प्रसाद का वितरण कर घर बापस आ जायेंगे |
यह पूर्वांचल का सबसे बड़ा पर्व है जो सबसे अधिक कठिन भी है |
छठ माता की जय |

आपके बिना हम नाक कटी हुई सुन्दर नारी की तरह हैं ......

आपके बिना हम नाक कटी हुई सुन्दर नारी की तरह हैं ......
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"बुद्धि बडी चतुराई बडी सुख सुन्दरता तन सों लिपटी है |
मान बडो धन धाम बडो यश कीरति हूँ जग में प्रगटी है ||
झूमत द्वार मतंग अनेक सुरेशहुँ ते कछु नाहिं घटी है |
तुलसी राम सनेह बिना मानो सुन्दर नारि की नाक कटी है ||"
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सब ओर से निराश होकर बड़ी कठिनाई से आप के सम्मुख तो हम आ गये हैं, अब इसे शरणागति मानकर हमारा समर्पण स्वीकार करो| अब कुछ भी साधन होता ही नहीं है| कुछ करने की ऊर्जा भी नहीं रही है| अब तो आप स्वयं हमारे ह्रदय मंदिर में पधार कर यहीं अपना स्थायी डेरा डाल दें| सारी प्रार्थनाएँ हम भूल गए हैं|
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अब कोई साधना नहीं होती| हम तो आपके उपकरण मात्र हैं, जिसे आप ही संभालो| हमारे वश में कुछ नहीं है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

अपने विचारों के प्रति सदा सजग रहें .....

भौतिक जगत में जैसे सभी गिद्ध, चील-कौए, लकड़बग्घे और कुछ राजनेता मृत लाशों को ही ढूँढ़ते रहते हैं, और अवसर मिलते ही उन पर टूट पड़ते है, वैसे ही मनुष्य का मन भी एक गिद्ध है जो विषय-वासनाओं का चिंतन और उनकी पूर्ति के अवसर ढूँढ़ता रहता है और अवसर मिलते ही उन पर टूट पड़ता है |
अपने विचारों के प्रति सदा सजग रहें और निरंतर सत्संग (सत्य यानी परमात्मा का संग) करें | तभी रक्षा होगी |
ॐ ॐ ॐ ||

अपने विचारों के प्रति सदा सजग रहें .....

भौतिक जगत में जैसे सभी गिद्ध, चील-कौए और कुछ राजनेता मृत लाशों को ही ढूँढ़ते रहते हैं, और अवसर मिलते ही उन पर टूट पड़ते है, वैसे ही मनुष्य का मन भी एक गिद्ध है जो विषय-वासनाओं का चिंतन और उनकी पूर्ति के अवसर ढूँढ़ता रहता है और अवसर मिलते ही उन पर टूट पड़ता है |
अपने विचारों के प्रति सदा सजग रहें और निरंतर सत्संग (सत्य यानी परमात्मा का संग) करें | तभी रक्षा होगी |
ॐ ॐ ॐ ||

जीवन से मैं स्वयं को पूर्णतः शत-प्रतिशत संतुष्ट पाता हूँ .....

जीवन से मैं स्वयं को पूर्णतः शत-प्रतिशत संतुष्ट पाता हूँ |
किसी भी तरह का कोई असंतोष नहीं है, कोई पछतावा नहीं है, कोई कामना नहीं है, और किसी से कुछ भी कैसी भी अपेक्षा नहीं है |
इस अल्प जीवन में जो कुछ भी हुआ वह परमात्मा की इच्छा से और परमात्मा के द्वारा ही सम्पादित हुआ है, और आगे भी परमात्मा द्वारा ही होगा |
मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है |
जो भी ईश्वर प्रदत्त अति अल्प संसाधन मेरे पास हैं वे मेरे लिए पर्याप्त हैं |
परमात्मा स्वयं मेरे योग-क्षेम का वहन कर रहे हैं |
अब बचा-खुचा जो भी जीवन है वह परमात्मा के चिंतन और ध्यान में ही व्यतीत करना चाहता हूँ |
जीवन का एकमात्र लक्ष्य परमात्मा ही है | अन्य कुछ भी नहीं है |
ॐ ॐ ॐ ||

अपनी भावभूमि में वैचारिक कचरा न डालें ......

अपनी भावभूमि में वैचारिक कचरा न डालें ......
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जब आप कोई बगीचा लगाते हैं तो उसमें कंकर-पत्थर नहीं डालते | आपकी भावभूमि भी परमात्मा के लिए लगाया गया एक बाग़ है जिसमें किसी भी तरह का वैचारिक कचरा न डालें |
आध्यात्म मार्ग के पथिकों को टीवी पर आने वाले नाटकों, फिल्मों व गानों को नहीं देखना चाहिए क्योंकी इनसे विक्षेप उत्पन्न होता है |
टीवी के अधिकाँश समाचार चैनल तो अनावश्यक रूप से गलती से भी न देखें क्योंकि इनमें से अधिकाँश में तो विष ही भरा होता है |
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सभी को शुभ कामनाएँ और सादर नमन | ॐ ॐ ॐ ||

राग-द्वेष और अहंकार मन के विकार हैं.....

राग-द्वेष और अहंकार मन के विकार हैं.....
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यदि मैं किसी के कुछ कहने से आहत होता हूँ तो दोष मेरा ही है, उस व्यक्ति का नहीं| मेरे अंतर में कोई घाव था जो उस व्यक्ति के द्वारा अनजाने में ही छूआ गया| आवश्यकता उस घाव का उपचार करने की है न कि आहत होकर स्वयं को दुखी करने की| स्वयं को सुधारना ही बुद्धिमता और कल्याणकारी है|
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हमारी निम्न प्रकृति हमें हमारे विकास से निरंतर रोकती है, अन्यथा आत्मा जागृत होते ही परमात्मा को पाने की अभीप्सा से भर जाती है| यह निम्न प्रकृति ही विक्षेप उत्पन्न करती है और यही माया के आवरण का कारण है| इससे मुक्त होना ही मुक्ति है|
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असत्य और अन्धकार की शक्तियों द्वारा हमारी अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं| विगत में इससे भी कई गुणा अधिक प्रहार हुए हैं| कई बार हम असहाय अनुभूत करते हैं| यह आशा ही हमारा सहारा है कि निश्चित रूप से सत्य की विजय होगी व असत्य और अन्धकार की शक्तियाँ पराभूत होंगी|
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परमात्मा में आस्था बनाए रखें, अन्याय का विरोध करते रहें और अपने निज विवेक के प्रकाश में हर कार्य करें| यही सर्वश्रेष्ठ है जो हम कर सकते हैं|
सृष्टि के रहस्यों को समझना मानव बुद्धि द्वारा असम्भव है| धर्म और अधर्म का निर्णय भी ईश्वर की कृपा से ही कर सकते हैं|
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हे सर्वव्यापी परमात्मा परम शिव हमारी रक्षा करो| हम आपकी शरणागत हैं| त्राहिमाम् त्राहिमाम् |
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

भाई दूज के पवित्र शुभ अवसर पर सभी बहिनों का अभिनन्दन .....

भाई दूज के पवित्र शुभ अवसर पर सभी बहिनों का अभिनन्दन !
यम और यमुना दोनों भाई बहिन हैं | दोनों सूर्य से उत्पन्न हैं |
आज के दिन को यमद्वितीया भी कहते हैं | एक लोक मान्यता के अनुसार आज के दिन जो भाई बहिन हाथ पकडकर एक साथ यमुना में स्नान करते हैं उनको फिर यम या यम दूतों का भय नहीं रह जाता |
आज के दिन कहीं भाई अपनी बहिनों के घर जाते हैं, कहीं बहिनें अपने भाई के घर जाती हैं | बहिनें भाई को तिलक करती है व मिठाई खिलाती हैं, और भाई बहिनों को उपहार देते हैं | इस तरह उनमें आपस में प्रेम बना रहता है |

शाम्भवी मुद्रा ....

शाम्भवी मुद्रा ....
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शाम्भवी मुद्रा योगियों के मनोरथ पूर्ण करने वाली मुद्रा है। उन्नत योग साधकों को शाम्भवी मुद्रा स्वतः ही होने लगती है| फिर भी साधकों द्वारा इसका अभ्यास साधना को सुगम बना देता है|
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श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय और महावातार बाबाजी के चित्र शाम्भवी मुद्रा में ही हैं|
सारे उन्नत योगी शाम्भवी मुद्रा में ही ध्यानस्थ रहते हैं|
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सुखासन अथवा पद्मासन में बैठकर मेरुदंड को उन्नत रखते हुए साधक शिवनेत्र होकर अर्धोन्मीलित नेत्रों से भ्रूमध्य पर दृष्टी स्थिर रखता है| धीरे धीरे पूर्ण खेचरी या अर्ध-खेचरी भी स्वतः ही लग जाती है|
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आध्यात्मिक रूप से खेचरी का अर्थ है --- चेतना का सम्पूर्ण आकाश में विचरण, यानि चेतना का इस भौतिक देह में न होकर पूरी अनंतता में होना है | भौतिक रूप से खेचरी का अर्थ है -- जिह्वा को उलट कर भीतर प्रवेश कराकर ऊपर की ओर रखना| गहरी समाधि के लिए यह आवश्यक है| जो पूर्ण खेचरी नहीं कर सकते वे अर्धखेचरी कर सकते हैं जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोडकर तालू से सटाकर रखते हुए|
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अर्धोन्मीलित नेत्रों को भ्रूमध्य में स्थिर रखकर साधक पहिले तो भ्रूमध्य में एक प्रकाश की कल्पना करता है और यह भाव करता है कि वह प्रकाश सम्पूर्ण ब्रह्मांड में फ़ैल गया है| फिर संहार बीज और सृष्टि बीज --- 'हं" 'सः' के साथ गुरु प्रदत्त विधि के साथ अजपा जप करता है और उस सर्वव्यापक ज्योति के साथ स्वयं को एकाकार करता है | समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है| उस ब्रह्मज्योति पर ध्यान करते करते प्रणव की ध्वनि सुनने लगती है तब साधक उसी में लय हो जाता है| सहत्रार की अनुभूति होने लगती है और बड़े दिव्य अनुभव होते हैं| पर साधक उन अनुभवों पर ध्यान न देकर पूर्ण भक्ति के साथ ज्योति ओर नाद रूप में परमात्मा में ही अपने अहं को विलय कर देता है| तब सारी प्राण चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य स्थिर हो जाती है| यही शाम्भवी मुद्रा की पूर्ण सिद्धि है|
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ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा को पाना यानि आत्मसाक्षात्कार हमारा उच्चतम कर्तव्य है .....

परमात्मा को पाना यानि आत्मसाक्षात्कार हमारा उच्चतम कर्तव्य है, अतः बिना किसी कामना के हमें परमात्मा को अपना सर्वश्रेष्ठ पूर्ण प्रेम देना चाहिए| कुछ पाने की किंचित भी कामना मन में न हो| यहाँ तो कुछ पाना ही नहीं है, सिर्फ देना देना यानि समर्पण ही समर्पण है|
कुछ भी पाने की कामना सच्चे प्रेम में नहीं होती| जहाँ कुछ पाने की अपेक्षा है वहाँ तो एक तरह का व्यापार हो गया| परमात्मा को प्राप्त होने के पश्चात तो सब कुछ प्राप्त हो जाता है, पर उसके लिए पहिले अपना सर्वस्व समर्पित करना पड़ता है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

अन्नकूट महा उत्सव यानि गोवर्धन पूजा की हार्दिक शुभ कामनाएँ .....

अन्नकूट महा उत्सव यानि गोवर्धन पूजा की हार्दिक शुभ कामनाएँ |
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अनेक स्थानों पर इस दिन प्रात:काल में गाय के गोबर से गोवर्धन बना कर पुष्पों, लताओं आदि से सजाया जाता है| | सायंकाल में गोवर्धन की पूजा की जाती है|
गोवर्धन में अपामार्ग अनिवार्य रूप से रखा जाता है|
पूजा के बाद गोवर्धनजी के सात परिक्रमाएं उनकी जय बोलते हुए लगाई जाती हैं| गोवर्धन जी गोबर से लेटे हुए पुरुष के रूप में बनाए जाते हैं| इनकी नाभि के स्थान पर एक कटोरी या मिट्टी का दीपक रख दिया जाता है। फिर इसमें दूध, दही, गंगाजल, शहद, बताशे आदि पूजा करते समय डाल दिए जाते हैं और बाद में इसे प्रसाद के रूप में बांट देते हैं|
इस दिन प्रात:तेल मलकर स्नान करना चाहिए|
इस दिन पूजा का समय कहीं प्रात:काल है तो कहीं दोपहर और कहीं पर सन्ध्या काल में|
गिरिराज गोवर्धन महाराज की जय ||
श्री गोवर्धन महाराज ,, महाराज ।
तेरे माथे मुकुट विराज रहयौ।।

तोपे पान चढ़ै तो पे फूल चढ़ै ...और चढ़ै दूध की धारहो धार ।।
तेरे माथे मुकुट विराज रहयौ ..
तेरे कानन कुण्डल सोय रहयो ...तेरे गल बैजन्ती माल हो माल ।।
तेरेमाथे मुकुट विराज रहयौ ...
तेरे काँधे पै कारी कामरिया...तेरी ठोड़ी पे हीरा लाल हो लाल ।।
तेरे माथे मुकुट विराज रहयौ ...
तेरे निकट मानसी गँगा है ...जा मेँ न्हाय रहे नर नार हो नार ।।
तेरे माथे मुकुट विराज रहयौ...
तेरी सात कोस की परिक्रमा मेँ ...है चकलेश्वर विश्राम हो विश्राम ।।
तेरे माथे मुकुटविराज रहयौ ...श्री गोवर्धन महाराज महाराज ।
तेरे माथे मुकुट विराज रहयौ

हमारी प्रगती में सबसे बड़ी बाधा यदि कोई है तो वह हम स्वयं ही हैं .....

हमारी प्रगती में सबसे बड़ी बाधा यदि कोई है तो वह हम स्वयं ही हैं | हम स्वयं यानी इस देह की चेतना | इस देह की चेतना से ऊपर उठे बिना हम कभी मुक्त नहीं हो सकते |
हम स्वयं के प्रति ईमानदार नहीं हैं इसीलिये हम भगवान से दूर हैं, अन्य कोई कारण नहीं है|