Tuesday 22 May 2018

प्राचीन भारत में "आततायी" का वध धर्म सम्मत था .....

प्राचीन भारत में "आततायी" का वध धर्म सम्मत था .....
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वसिष्ठस्मृति में आततायी के लक्षण इस प्रकार बतलाये गये हैं जिनका वध करने में कोई दोष प्राचीन भारत में नहीं था .....
अग्‍निदो गरदश्‍चैव शस्‍त्रपाणिर्धनापहः| क्षेत्रदारापहर्ता च षडेते ह्याततायिनः ||
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्| नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्‍चन||
(वसिष्ठस्मृति ३/१९-२०)

अर्थात् (१) "आग लगाने वाला", (२) "विष देने वाला", (३) "हाथ में शस्त्र लेकर मारने को उद्यत", (४) "धन हरण करने वाला", (५) "जमीन छीनने वाला" और (६) "स्त्री का हरण करने वाला", ..... ये छहों आततायी हैं| प्राचीन भारत में आतताइयों के वध में कोई दोष नहीं था, इनका वध शास्त्र-सम्मत था|
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अग्‍निदत्त विषदत्त नर, क्षेत्र दार धन हार |
बहुरि बकारत शस्‍त्र गहि, अवध वध्य षटकार ||
(पांडव यशेंदु चंद्रिका -- १०/१७)
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महाभारत में भी इसका अनुमोदन किया गया है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मई २०१८

हमारे द्वारा खाये-पीये अन्न-जल की परिणिति .....

हमारे द्वारा खाये-पीये अन्न-जल की परिणिति .....
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श्रुति भगवती कहती है की जैसा अन्न हम खाते हैं वैसा ही हमारा मन हो जाता है, और वैसा ही हमारा वाक् और तेज हो जाता है|
"अन्नमयं हि सोम्य मन आपोमयः प्राणस्तेजोमयी वागिति||" (छान्दोग्य उपनिषद्. ६.५.४)
अन्न का अर्थ है जो भी हम खाते पीते हैं|
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(१) इस से पूर्व श्रुति भगवती ने कहा है कि खाया हुआ अन्न पचाए जाने पर तीन भागों में विभक्त हो जाता है| सब से स्थूल अंश मल बन जाता है, मध्यम अंश शरीर को पुष्ट करता है, और अन्न का अणुत्तम अंश अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) बन जाता है|
"अन्नमशितं त्रेधा विधियते । तस्य यः स्थविष्टो धातुस्तत्पुरीषं भवति , यो मध्यमस्तन्मांसं , यो अणिष्ठः तन्मनः ॥" (छान्दोग्य उपनिषद् ६.५.१)
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(२) श्रुति भगवती कहती है कि जो जल हम पीते हैं उसका स्थूलतम भाग मूत्र बन जाता है, मध्यम भाग रक्त बन जाता है, और सूक्ष्मतम भाग प्राण रूप में परिणित हो जाता है|
"आपः पीतास्त्रेधा विधीयन्ते | तासां यः स्थविष्ठो धातुस्तन्मूत्रं भवति यो मध्यस्तल्लोहितं योऽणिष्ठः स प्राणाः ||"
(छान्दोग्य श्रुति ६.५.२)
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अतः आध्यात्म मार्ग के पथिक को अपने खान-पान के बारे में बहुत अधिक सतर्क रहना चाहिए| भोजन (खाना-पीना) एक यज्ञ है जिसमें साक्षात परब्रह्म परमात्मा को ही भोजन अर्पित किया जाता है जिस से पूरी समष्टि का भरण पोषण होता है| जो हम खाते-पीते हैं वह वास्तव में हम नहीं खाते-पीते हैं, स्वयं भगवान ही उसे वैश्वानर जठराग्नि के रूप में ग्रहण करते हैं| अतः परमात्मा को निवेदित कर के ही भोजन करना चाहिए| बिना परमात्मा को निवेदित किये हुए किया हुआ भोजन पाप का भक्षण है| भोजन भी वही करना चाहिए जो भगवान को प्रिय है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मई २०१८

मन भगवान में मग्न हो जाये .....

मन भगवान में मग्न हो जाये .....
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सारा ब्रह्मांड, सारी सृष्टि, सारी अनंतता मेरी देह है, जिस के माध्यम से स्वयं परमात्मा साँसें ले रहे हैं| मैं नहीं हूँ, मेरा कोई अस्तित्व नहीं है, सब कुछ परमात्मा ही है| मैं तो निमित्त मात्र हूँ, यह निमित्त भी परमात्मा ही हैं| मेरी पृथकता का बोध एक भ्रम है|
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सर्वव्यापी अनंत विराट पुरुष इन साँसों के माध्यम से स्वयं को ही याद करते हैं| साँसें चल रही हैं, यह भगवान का अनुग्रह है| "सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो" ... ये भगवान श्रीराम के वचन हैं|
रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में भगवान श्रीराम अपनी प्रजा को जो उपदेश देते हैं, उनमें से कुछ चौपाइयाँ संकलित हैं .....
"नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो | सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ||
करनधार सदगुर दृढ़ नावा | दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ||"
भावार्थ:- यह मनुष्य का शरीर भवसागर (से तारने) के लिए बेड़ा (जहाज) है| मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है| सदगुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं| इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं ||
"जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ |
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ||"
भावार्थ:- जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है ||
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सोsहं -हँसः का अजपा-जप निरंतर चलता रहे और कूटस्थ अक्षर प्रणव की जो ध्वनि सुन रही है, वह निरंतर सजगता से सुनती रहे| उसी में मन मग्न हो जाए|
अनंत में उन विराट पुरुष की अनुकम्पा ही प्राणों का सञ्चलन कर रही है, और साथ साथ सुषुम्ना में प्राण ऊर्जा को ऊपर-नीचे परिक्रमा करा कर सुषुम्ना के चक्रों को जागृत कर रही है|
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अब कुछ करने को है ही नहीं, सारी क्रियाएँ तो स्वयं भगवान परमशिव कर रहे हैं| हे प्रभु आपको नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ मई २०१८

आज २१ मई को आतंकवाद विरोध दिवस पर ......

आज २१ मई को आतंकवाद विरोध दिवस पर ......
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सामूहिक आतंकवाद के तीन कारण हैं .....
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पहला कारण है अपने विचारों को दैवीय मानकर दूसरों पर थोपने की भावना| जो आतंकवादी होते हैं उनके दिमाग में यह भावना भर दी जाती है कि जो तुम्हारे मत को नहीं मानते उनकी ह्त्या करना तुम्हारे लिए एक ईश्वरीय आदेश है जिसकी पालना से तुम्हें स्वर्ग के सारे भोग मिलेंगे तो तुम अपने परिवार वालों को भी दे सकोगे| इस तरह आतंकवाद को महिमान्वित किया जाता है| उनको यह भी सिखाया जाता है कि यदि तुम अन्य मत वालों को आतंकित नहीं करोगे तो ईश्वर तुम्हें दंड देगा|
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आतंकवाद का दूसरा कारण है युद्ध में विजय पाने के लिए स्वयं के लोगों में अत्यधिक उच्च भावना और दूसरों के प्रति घृणा की भावना भर देना|
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आतंकवाद का तीसरा कारण है ..... मनुष्य का लोभ और अहंकार| दूसरों को लूटने के लिए ये लोग आतंकित करते हैं|
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मेरे विचार से आतंकवाद के ये तीन कारण ही हो सकते हैं| सभी को धन्यवाद |

२१ मई २०१८

परमात्मा ही समस्या हैं और वे ही समाधान हैं .....

परमात्मा ही समस्या हैं और वे ही समाधान हैं .....
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परमात्मा ही समस्याओं के रूप में आते हैं, और वे ही समाधान हैं| किसी भी व्यक्ति के सामने उतनी ही समस्याएँ आती हैं जिनका भार वह वहन कर सके, उससे अधिक नहीं| हमारी सबसे बड़ी समस्या है .... परमात्मा से पृथकता का बोध| सारी आध्यात्मिक साधनाएँ इस पृथकता के बोध को समाप्त कराने के लिए ही हैं| सारे बंधन हमारे मन के कारण ही हैं, और उनसे मुक्ति का साधन भी हमारा मन ही है|
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विकट से विकट संकट का समाधान है ..... "सदा साक्षी भाव" और उससे भी परे की स्थिति| साक्षी भी परमात्मा हैं और कर्ता व भोक्ता भी वे ही हैं| अपना जीवन उन्हें सौंप दो, उन्हें जीवन का केंद्र बिंदु ही नहीं समस्त जीवन का आश्रय बनाओ| सब समस्याएँ तिरोहित होने लगेंगी| हमारा कोई अस्तित्व नहीं है, अस्तित्व है तो सिर्फ परमात्मा का ही है| स्वयं को परमात्मा से पृथक समझना एक धोखा है| इस पृथकता के बोध को समाप्त करो|
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सारी समस्याओं का निदान है .... परमात्मा को पूर्ण समर्पण| सारी समस्याएँ भी वो ही है और समाधान भी वो ही होगा| उसी पर ध्यान करते रहो, उसी को कर्ता और भोक्ता बनाओ| गहराई में उतरो, आगे के मार्ग को पार करना उसी का काम है| कोई अपेक्षा मत रखो, कोई कामना मत करो| गीता का नियमित अध्ययन अवश्य करो| भगवान निश्चित रूप से इस अज्ञान रूपी भवसागर से पार करा देंगे|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ मई २०१३

कामनाओं से मुक्ति पाने के लिए .....

कामनाओं से मुक्ति पाने के लिए हमें अपनी चेतना को सदा "भ्रूमध्य" से ऊपर रखने और परमात्मा के ध्यान का नित्य नियमित अभ्यास करना होगा .....
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गुरु की आज्ञा से हम भ्रूमध्य में ध्यान करते है, इसलिए हमारी चेतना का केंद्र सर्वदा भ्रूमध्य में ही रहे| सारी सांसारिक व्यस्तताओं के मध्य, ध्यान साधना के समय, और सर्वदा जब भी याद आये हम अपनी चेतना को भ्रूमध्य में ले आयें| यहीं पर केन्द्रित होकर सारे कार्य करें| जब भी भूल जायें, तब याद आते ही फिर भ्रूमध्य में आ जाएँ| इसके आगे की अवस्थाओं का भी धीरे धीरे वर्णन करेंगे|
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खोपड़ी के पीछे का भाग मेरुशीर्ष (Medulla Oblongata) हमारी देह का सर्वाधिक संवेदनशील स्थान है| यहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ मष्तिष्क से मिलती हैं| इस भाग की कोई शल्यक्रिया नहीं हो सकती| हमारी सूक्ष्म देह में आज्ञाचक्र यहीं पर स्थित है| यह स्थान भ्रूमध्य के एकदम विपरीत दिशा में है| योगियों के लिए यह उनका आध्यात्मिक हृदय है| यहीं पर जीवात्मा का निवास है| इसके थोड़ा सा ऊपर ही शिखा बिंदु है जहाँ शिखा रखते हैं|
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गुरु की आज्ञा से शिवनेत्र होकर यानि बिना किसी तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी मुद्रा में या जीभ को बिना किसी तनाव के ऊपर पीछे की ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखते हुए, प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करें|
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गुरु की कृपा से कुछ महिनों या वर्षों की साधना के पश्चात् विद् युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है| यह ब्रह्मज्योति और प्रणव की ध्वनि दोनों ही आज्ञाचक्र में प्रकट होती हैं, पर इस ज्योति के दर्शन भ्रूमध्य में प्रतिबिंबित होते हैं, इसलिए गुरु महाराज सदा भ्रूमध्य में ध्यान करने की आज्ञा देते हैं| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के पश्चात् उसी की चेतना में सदा रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से एक है| (इसकी साधना श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध महात्मा के सान्निध्य में उनकी आज्ञा प्राप्त कर के ही करें, यह अनुशासनात्मक नियम और आदेश है).
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कूटस्थ में परमात्मा सदा हमारे साथ हैं| हम सदा कूटस्थ चैतन्य में रहें| कूटस्थ में समर्पित होने पर ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है जिसमें हमारी चेतना परम प्रेममय हो समष्टि के साथ एकाकार हो जाती है| हम फिर परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं| परमात्मा सब गुरुओं के गुरु हैं| उनसे प्रेम करो, सारे रहस्य अनावृत हो जाएँगे| हम भिक्षुक नहीं हैं, परमात्मा के अमृत पुत्र हैं| एक भिखारी को भिखारी का ही भाग मिलता है, पुत्र को पुत्र का| पुत्र के सब दोषों को पिता क्षमा तो कर ही देते हैं, साथ साथ अच्छे गुण कैसे आएँ इसकी व्यवस्था भी कर ही देते हैं|
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भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं ....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं" ||८:१०||
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|
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आगे भगवान कहते हैं .....
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च | मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||१८:१२||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् | यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||१८:१३||
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|
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पढने में तो यह सौदा बहुत सस्ता और सरल लगता है कि जीवन भर तो मौज मस्ती करेंगे, फिर मरते समय भ्रूमध्य में ध्यान कर के ॐ का जाप कर लेंगे तो भगवान बच कर कहाँ जायेंगे? उनका तो मिलना निश्चित है ही| पर यह सौदा इतना सरल नहीं है| देखने में जितना सरल लगता है उससे हज़ारों गुणा कठिन है| इसके लिए अनेक जन्म जन्मान्तरों तक अभ्यास करना पड़ता है, तब जाकर यह सौदा सफल होता है|
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यहाँ पर महत्वपूर्ण बात है निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना| यह एक दिन का काम नहीं है| इसके लिए हमें आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा| उपरोक्त तथ्य के समर्थन में किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, भगवान का वचन तो है ही, और सारे उपनिषद्, शैवागम और तंत्रागम इसी के समर्थन में भरे पड़े हैं|
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ध्यान का अभ्यास करते करते चेतना सहस्त्रार पर चली जाए तो चिंता न करें| सहस्त्रार तो गुरु महाराज के चरण कमल हैं| कूटस्थ केंद्र भी वहीं चला जाता है| वहाँ स्थिति मिल गयी तो गुरु चरणों में आश्रय मिल गाया| चेतना ब्रह्मरंध्र से परे अनंत में भी रहने लगे तब तो और भी प्रसन्नता की बात है| वह विराटता ही तो विराट पुरुष है| वहाँ दिखाई देने वाली ज्योति भी अवर्णनीय और दिव्यतम है| परमात्मा के प्रेम में मग्न रहें| वहाँ तो परमात्मा ही परमात्मा होंगे, न कि आप|
ॐ तत्सत्| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२० मई २०१८
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पुनश्चः :--- यह तो एक परिचयात्मक लेख है, रूचि जागृत करने के लिए| पूरी विधि और साधना, श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध सदगुरु महात्मा के चरण कमलों में बैठकर सीखें और अभ्यास करें| परमात्मा की परम कृपा सभी पर निश्चित रूप से होगी|

वैवाहिक जीवन के ४५ वर्ष आज पूरे हो गये हैं .....

वैवाहिक जीवन के ४५ वर्ष आज पूरे हो गये हैं .....
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कभी शांति, कभी गोलीबारी, कभी युद्धविराम और फिर शांति .... सांसारिक जीवन के बहुत सारे उतार-चढ़ाव और परस्पर विरोधी व अनुकूल विचारधाराओं के संघर्ष, तालमेल एवं समझौतों को ही वैवाहिक जीवन कह सकते हैं| यह कितना सफल और कितना विफल रहा, यह तो सृष्टिकर्ता परमात्मा ही जानते हैं|
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एक आदर्श आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार जैसे पृथ्वी चन्द्रमा को साथ लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है वैसे ही एक गृहस्थ अपनी चेतना में अपने परिवार को अपने साथ लेकर परमात्मा की उपासना करता है| और भी गहराई में जातें हैं तब पाते हैं कि वास्तव में सारी सृष्टि ही अपना परिवार है और सारा ब्रह्मांड ही अपना घर| हम यह सम्पूर्ण समष्टि हैं, भौतिक देह नहीं| एक मेरे सिवाय अन्य कोई नहीं है, मेरा न जन्म है और न मृत्यु, मैं शाश्वत हूँ|
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पाश्चात्य दृष्टिकोण से यह एक आश्चर्य और उपलब्धि है कि कोई विवाह इतने लम्बे समय तक निभ जाए| भारतीय दृष्टिकोण से तो अब से बहुत पहिले ही वानप्रस्थ आश्रम का आरम्भ हो जाना चाहिए था जो नहीं हो पाया| वर्णाश्रम धर्म तो वर्तमान में एक आदर्श और अतीत का विषय ही होकर रह गया है| कई बाते हैं जो हृदय की हृदय में ही रह जाती हैं, कभी उन्हें अभिव्यक्ति नहीं मिलती| यह सृष्टि और उसका संचालन जगन्माता का कार्य है| जैसी उनकी इच्छा हो वह पूर्ण हो|
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हे प्रभु, हे जगन्माता, हमारा समर्पण पूर्ण हो, किसी प्रकार की कोई कामना, मोह और अहंकार का अवशेष ना रहे| हमारा अच्छा-बुरा जो भी है वह संपूर्ण आपको समर्पित है| हमारा समर्पण स्वीकार करो| || ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव यद् भद्रं तन्न आ सुव ||
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सभी को साभार धन्यवाद और नमन ! आप सब की कीर्ति और यश अमर रहे | भगवान परमशिव का आशीर्वाद आप सब पर बना रहे | ॐ ॐ ॐ ||

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१९ मई २०१८