कामनाओं
से मुक्ति पाने के लिए हमें अपनी चेतना को सदा "भ्रूमध्य" से ऊपर रखने और
परमात्मा के ध्यान का नित्य नियमित अभ्यास करना होगा .....
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गुरु
की आज्ञा से हम भ्रूमध्य में ध्यान करते है, इसलिए हमारी चेतना का केंद्र
सर्वदा भ्रूमध्य में ही रहे| सारी सांसारिक व्यस्तताओं के मध्य, ध्यान
साधना के समय, और सर्वदा जब भी याद आये हम अपनी चेतना को भ्रूमध्य में ले
आयें| यहीं पर केन्द्रित होकर सारे कार्य करें| जब भी भूल जायें, तब याद
आते ही फिर भ्रूमध्य में आ जाएँ| इसके आगे की अवस्थाओं का भी धीरे धीरे
वर्णन करेंगे|
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खोपड़ी के पीछे का भाग मेरुशीर्ष (Medulla
Oblongata) हमारी देह का सर्वाधिक संवेदनशील स्थान है| यहाँ मेरुदंड की सभी
नाड़ियाँ मष्तिष्क से मिलती हैं| इस भाग की कोई शल्यक्रिया नहीं हो सकती|
हमारी सूक्ष्म देह में आज्ञाचक्र यहीं पर स्थित है| यह स्थान भ्रूमध्य के
एकदम विपरीत दिशा में है| योगियों के लिए यह उनका आध्यात्मिक हृदय है| यहीं
पर जीवात्मा का निवास है| इसके थोड़ा सा ऊपर ही शिखा बिंदु है जहाँ शिखा
रखते हैं|
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गुरु की आज्ञा से शिवनेत्र होकर यानि बिना किसी तनाव
के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में
दृष्टी स्थिर कर, खेचरी मुद्रा में या जीभ को बिना किसी तनाव के ऊपर पीछे
की ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखते हुए, प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने
अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा
का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करें|
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गुरु की कृपा से कुछ महिनों
या वर्षों की साधना के पश्चात् विद् युत् की चमक के समान देदीप्यमान
ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है| यह ब्रह्मज्योति और प्रणव की ध्वनि
दोनों ही आज्ञाचक्र में प्रकट होती हैं, पर इस ज्योति के दर्शन भ्रूमध्य
में प्रतिबिंबित होते हैं, इसलिए गुरु महाराज सदा भ्रूमध्य में ध्यान करने
की आज्ञा देते हैं| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के पश्चात्
उसी की चेतना में सदा रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश
नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस
ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही
कूटस्थ चैतन्य है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से एक है|
(इसकी साधना श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध महात्मा के सान्निध्य में उनकी
आज्ञा प्राप्त कर के ही करें, यह अनुशासनात्मक नियम और आदेश है).
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कूटस्थ में परमात्मा सदा हमारे साथ हैं| हम सदा कूटस्थ चैतन्य में रहें|
कूटस्थ में समर्पित होने पर ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है जिसमें हमारी
चेतना परम प्रेममय हो समष्टि के साथ एकाकार हो जाती है| हम फिर परमात्मा के
साथ एक हो जाते हैं| परमात्मा सब गुरुओं के गुरु हैं| उनसे प्रेम करो,
सारे रहस्य अनावृत हो जाएँगे| हम भिक्षुक नहीं हैं, परमात्मा के अमृत पुत्र
हैं| एक भिखारी को भिखारी का ही भाग मिलता है, पुत्र को पुत्र का| पुत्र
के सब दोषों को पिता क्षमा तो कर ही देते हैं, साथ साथ अच्छे गुण कैसे आएँ
इसकी व्यवस्था भी कर ही देते हैं|
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भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं ....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं" ||८:१०||
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को
अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य
रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|
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आगे भगवान कहते हैं .....
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च | मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||१८:१२||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् | यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||१८:१३||
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के
फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग
धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता
हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर
जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|
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पढने में तो यह
सौदा बहुत सस्ता और सरल लगता है कि जीवन भर तो मौज मस्ती करेंगे, फिर मरते
समय भ्रूमध्य में ध्यान कर के ॐ का जाप कर लेंगे तो भगवान बच कर कहाँ
जायेंगे? उनका तो मिलना निश्चित है ही| पर यह सौदा इतना सरल नहीं है| देखने
में जितना सरल लगता है उससे हज़ारों गुणा कठिन है| इसके लिए अनेक जन्म
जन्मान्तरों तक अभ्यास करना पड़ता है, तब जाकर यह सौदा सफल होता है|
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यहाँ पर महत्वपूर्ण बात है निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य
में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना| यह एक दिन का काम
नहीं है| इसके लिए हमें आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा| उपरोक्त तथ्य
के समर्थन में किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, भगवान का वचन तो है
ही, और सारे उपनिषद्, शैवागम और तंत्रागम इसी के समर्थन में भरे पड़े हैं|
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ध्यान का अभ्यास करते करते चेतना सहस्त्रार पर चली जाए तो चिंता न करें|
सहस्त्रार तो गुरु महाराज के चरण कमल हैं| कूटस्थ केंद्र भी वहीं चला जाता
है| वहाँ स्थिति मिल गयी तो गुरु चरणों में आश्रय मिल गाया| चेतना
ब्रह्मरंध्र से परे अनंत में भी रहने लगे तब तो और भी प्रसन्नता की बात है|
वह विराटता ही तो विराट पुरुष है| वहाँ दिखाई देने वाली ज्योति भी
अवर्णनीय और दिव्यतम है| परमात्मा के प्रेम में मग्न रहें| वहाँ तो
परमात्मा ही परमात्मा होंगे, न कि आप|
ॐ तत्सत्| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२० मई २०१८
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पुनश्चः :--- यह तो एक परिचयात्मक लेख है, रूचि जागृत करने के लिए| पूरी
विधि और साधना, श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध सदगुरु महात्मा के चरण कमलों
में बैठकर सीखें और अभ्यास करें| परमात्मा की परम कृपा सभी पर निश्चित रूप
से होगी|