हमारे द्वारा खाये-पीये अन्न-जल की परिणिति .....
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श्रुति भगवती कहती है की जैसा अन्न हम खाते हैं वैसा ही हमारा मन हो जाता है, और वैसा ही हमारा वाक् और तेज हो जाता है|
"अन्नमयं हि सोम्य मन आपोमयः प्राणस्तेजोमयी वागिति||" (छान्दोग्य उपनिषद्. ६.५.४)
अन्न का अर्थ है जो भी हम खाते पीते हैं|
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(१) इस से पूर्व श्रुति भगवती ने कहा है कि खाया हुआ अन्न पचाए जाने पर तीन भागों में विभक्त हो जाता है| सब से स्थूल अंश मल बन जाता है, मध्यम अंश शरीर को पुष्ट करता है, और अन्न का अणुत्तम अंश अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) बन जाता है|
"अन्नमशितं त्रेधा विधियते । तस्य यः स्थविष्टो धातुस्तत्पुरीषं भवति , यो मध्यमस्तन्मांसं , यो अणिष्ठः तन्मनः ॥" (छान्दोग्य उपनिषद् ६.५.१)
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(२) श्रुति भगवती कहती है कि जो जल हम पीते हैं उसका स्थूलतम भाग मूत्र बन जाता है, मध्यम भाग रक्त बन जाता है, और सूक्ष्मतम भाग प्राण रूप में परिणित हो जाता है|
"आपः पीतास्त्रेधा विधीयन्ते | तासां यः स्थविष्ठो धातुस्तन्मूत्रं भवति यो मध्यस्तल्लोहितं योऽणिष्ठः स प्राणाः ||"
(छान्दोग्य श्रुति ६.५.२)
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अतः आध्यात्म मार्ग के पथिक को अपने खान-पान के बारे में बहुत अधिक सतर्क रहना चाहिए| भोजन (खाना-पीना) एक यज्ञ है जिसमें साक्षात परब्रह्म परमात्मा को ही भोजन अर्पित किया जाता है जिस से पूरी समष्टि का भरण पोषण होता है| जो हम खाते-पीते हैं वह वास्तव में हम नहीं खाते-पीते हैं, स्वयं भगवान ही उसे वैश्वानर जठराग्नि के रूप में ग्रहण करते हैं| अतः परमात्मा को निवेदित कर के ही भोजन करना चाहिए| बिना परमात्मा को निवेदित किये हुए किया हुआ भोजन पाप का भक्षण है| भोजन भी वही करना चाहिए जो भगवान को प्रिय है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मई २०१८
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श्रुति भगवती कहती है की जैसा अन्न हम खाते हैं वैसा ही हमारा मन हो जाता है, और वैसा ही हमारा वाक् और तेज हो जाता है|
"अन्नमयं हि सोम्य मन आपोमयः प्राणस्तेजोमयी वागिति||" (छान्दोग्य उपनिषद्. ६.५.४)
अन्न का अर्थ है जो भी हम खाते पीते हैं|
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(१) इस से पूर्व श्रुति भगवती ने कहा है कि खाया हुआ अन्न पचाए जाने पर तीन भागों में विभक्त हो जाता है| सब से स्थूल अंश मल बन जाता है, मध्यम अंश शरीर को पुष्ट करता है, और अन्न का अणुत्तम अंश अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) बन जाता है|
"अन्नमशितं त्रेधा विधियते । तस्य यः स्थविष्टो धातुस्तत्पुरीषं भवति , यो मध्यमस्तन्मांसं , यो अणिष्ठः तन्मनः ॥" (छान्दोग्य उपनिषद् ६.५.१)
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(२) श्रुति भगवती कहती है कि जो जल हम पीते हैं उसका स्थूलतम भाग मूत्र बन जाता है, मध्यम भाग रक्त बन जाता है, और सूक्ष्मतम भाग प्राण रूप में परिणित हो जाता है|
"आपः पीतास्त्रेधा विधीयन्ते | तासां यः स्थविष्ठो धातुस्तन्मूत्रं भवति यो मध्यस्तल्लोहितं योऽणिष्ठः स प्राणाः ||"
(छान्दोग्य श्रुति ६.५.२)
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अतः आध्यात्म मार्ग के पथिक को अपने खान-पान के बारे में बहुत अधिक सतर्क रहना चाहिए| भोजन (खाना-पीना) एक यज्ञ है जिसमें साक्षात परब्रह्म परमात्मा को ही भोजन अर्पित किया जाता है जिस से पूरी समष्टि का भरण पोषण होता है| जो हम खाते-पीते हैं वह वास्तव में हम नहीं खाते-पीते हैं, स्वयं भगवान ही उसे वैश्वानर जठराग्नि के रूप में ग्रहण करते हैं| अतः परमात्मा को निवेदित कर के ही भोजन करना चाहिए| बिना परमात्मा को निवेदित किये हुए किया हुआ भोजन पाप का भक्षण है| भोजन भी वही करना चाहिए जो भगवान को प्रिय है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मई २०१८
मेरी दृष्टी में पीने के पानी की बिक्री अधर्म है| बोतलबंद पानी की बिक्री के स्थान पर निःशुल्क सब को अपनी अपनी बोतल में पीने योग्य पानी दिया जाना चाहिए| प्रकृति द्वारा प्रदत्त जीवन के लिए अत्यावश्यक जल का बाजारीकरण नहीं होना चाहिए|
ReplyDeleteआज से तीस चालीस वर्ष पूर्व तक भारत में किसी ने सोचा भी नहीं होगा पानी को बेचने के बारे में| समर्थवान लोग प्याऊ लगवाते थे, कुँए खुदवाते थे, मनुष्यों की ही नहीं पशु-पक्षियों तक की प्यास बुझाने के लिए जल की व्यवस्था करते थे| जल-दान बहुत बड़ा दान और पुण्य का काम है|