Wednesday, 19 October 2016

परमात्मा सब सिद्धांतों, मत-मतान्तरों, परम्पराओं और सम्प्रदायों से परे है ...

परमात्मा सब सिद्धांतों, मत-मतान्तरों, परम्पराओं और सम्प्रदायों से परे है ...
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जो आदि, अनंत और अगम है क्या उसे कुछ सिद्धांतों, मत-मतान्तरों, परम्पराओं और सम्प्रदायों के बंधन में बाँध सकते हैं?
हम परमात्मा का साक्षात्कार चाहते हैं, उससे कम कुछ भी नहीं|
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आस्तिक-नास्तिक मतों के विवादों; शैव, वैष्णव, शाक्त और गाणपत्य आदि सम्प्रदायों के मतभेदों; साकार-निराकार के विवादों और अनेक सारे मत-मतान्तरों की उलझनों से हमें अपनी चेतना को ऊपर उठाना है|
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भगवान साकार भी है और निराकार भी| सारे आकार उसी के हैं| सारे मत और सिद्धांत उसी में समाहित हैं| वह सब से ऊपर है| जहाँ इनका सहारा चाहिए, इनका सहारा लो, पर इनमें बंधो मत|.
महत्व सिर्फ भक्ति यानि परम प्रेम का है| जिससे भी आपकी भक्ति बढ़े वह सही है, और जिससे आपकी भक्ति घटे वह गलत है|
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हम भगवान के हैं और भगवान हमारे हैं |
ॐ तत्सत | ॐ ॐ ॐ ||

ग्रंथिभेद ......

ग्रंथिभेद ......
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मूलाधार चक्र से आज्ञाचक्र तक का क्षेत्र अज्ञानक्षेत्र है| जब तक चेतना इस क्षेत्र में है तब तक मनुष्य अज्ञान में ही रहता है| आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश करने पर ही ज्ञानक्षेत्र में प्रवेश होता है| इसमें चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में ही रहती है, तभी ज्ञानलाभ होना आरम्भ होता है| सहस्त्रार से आगे पराक्षेत्र है|
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साधक को ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि और रूद्रग्रंथि का भेदन करना पड़ता है| मणिपूर चक्र के नीचे ब्रह्म ग्रन्थि, वहाँ से विशुद्धि चक्र तक विष्णु ग्रन्थि, तथा उससे ऊपर रुद्र ग्रन्थि है|
मुण्डकोपनिषद् के ३ मुण्डक इन ३ ग्रन्थियों के भेदन हैं|
दुर्गा सप्तशती के ३ चरित्र भी उसी अनुसार हैं|
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मणिपुर चक्र में १० दल हैं| उसको भू समानान्तर काटोगे तो ऊपर अनाहत चक्र की ओर ५ दल व नीचे की ओर ५ दल आएँगे|
नीचे के ५ दल, स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार चक्र मिल कर के हुए ब्रह्माग्रंथि|
ऊपर के ५ दल से विशुद्धि चक्र तक विष्णु ग्रंथि|
और उसके ऊपर रूद्र ग्रंथि है|
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भगवान बांके बिहारी श्रीकृष्ण की त्रिभंग मुद्रा इन्हीं तीन ग्रंथियों के भेदन का प्रतीक है|
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ललिता सहस्रनाम में ग्रन्थित्रय के स्थानों का वर्णन इस प्रकार है .....
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मूलाधारैकनिलया ब्रह्मग्रन्थि विभेदिनी |
मणिपूरान्तरुदिता विष्णुग्रन्थि विभेदिनी ||८९||
आज्ञाचक्रान्तरालस्था रुद्रग्रन्थि विभेदिनी |
सहस्राराम्बुजारूढा सुधासाराभिवर्षिणी ||९०||
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भगवान आदि शंकराचार्य ने भी सौंदर्य लहरी में उपरोक्त का दृष्टान्त दिया है|
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मुण्डकोपनिषद (२/२/७-९) में विष्णुग्रंथि भेद के बारे में .....
मनोमयः प्राण शरीरनेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं सन्निधाय |
तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपममृतं यद्विभाति ||७||
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः |
क्षीयन्ते चास्यकर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ||८||
हिरण्मये परे कोषे विरजं ब्रह्म निष्कलम्।
तच्छुभ्रं ज्योतिषां ज्योतिषां ज्योतिस्तद्यदात्मविदो विदुः ||९||
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मुण्डकोपनिषद (३ /१-३) में रुद्रग्रन्थि भेद के बारे में .....
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकषीति ||१||
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः |
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशस्य महिमानमिति वीतशोकः ||२||
यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्।
तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति ||३||.
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मुंडकोपनिषद (३/२) में ब्रह्मग्रंथि भेद के बारे में .....
वेदान्तविज्ञान सुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे॥६॥
गताः कलाः पञ्चदशप्रतिष्ठा देवाश्च सर्वे प्रतिदेवताषु।
कर्माणि विज्ञानमयश्च आत्मा परेऽव्यये सर्व एकी भवन्ति॥७॥
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तः गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८॥
स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्या ब्रह्मवित् कुले भवति।
तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तो भवति॥९॥
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श्रीमद्भागवत् में भी इसका वर्णन है|
दुर्गासप्तशती में भी असुर वध ..... ह्रदय ग्रंथि भेदन का ही प्रतीक है|
स्पष्ट है कि ग्रन्थिभेदन अत्यंत महत्वपूर्ण है|
ग्रंथियाँ सुषुम्ना में प्राण प्रवाह को बाधित करती है| ये ग्रन्थियां इड़ा एवम् पिंगला के संगम बिंदु पर बनती हैं|
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विष्णुतीर्थ की सौन्दर्य लहरी की हिन्दी टीका के अनुसार ब्रह्मग्रंथि का स्थान मूलाधार में, विष्णु ग्रन्थि का स्थान हृदय में और रुद्रग्रन्थि का स्थान आज्ञा चक्र में समझना चाहिये|
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(यह एक गोपनीय गुरुमुखी विद्या है जो गुरु द्वारा ही शिष्य को प्रत्यक्ष दी जाती है)
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जैसे समुद्र में मिलने पर नदी का अलग नाम-रूप समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार परात्पर पुरुष से मिलने पर साधक का अपना कोई नाम रूप नहीं रह जाता| जो परंब्रह्म को जानता या पाता है (विद् = जानना, पाना, साक्षात्कार), वह ब्रह्म ही हो जाता है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

हम जीवभाव से ऊपर उठकर शिवत्व को प्राप्त हों ....... यही हमारे जीवन का वास्तविक उद्देश्य है .......

हम जीवभाव से ऊपर उठकर शिवत्व को प्राप्त हों ....... यही हमारे जीवन का वास्तविक उद्देश्य है .......
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मनुष्य ..... पशु, असुर और देवता ..... इन तीनों का मिलाजुला रूप है|
हर व्यक्ति में एक पशु छिपा है, पर साथ साथ एक असुर और देवता भी है|
मनुष्य इन तीनों का मिलाजुला रूप है| कभी कौन सा गुण अधिक हो जाता है, कभी कौन सा|
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सभी जीव जीवन भर आश्रय और भोजन की खोज में इधर उधर भटकते और परिश्रम करते है एवं प्रायः आपस में लड़ते झगड़ते रहते है| अधिकांश जीव अपने निवास और क्षेत्र के लिए जीवन भर संघर्ष करते है| कई बार तो अपना जीवन साथी चुनने के लिए भी आपस में लड़ते है| उन्हें जीवन भर यही सब कुछ करना पड़ता है और फिर वे अगली पीढ़ी को जन्म दे कर और तैयार कर के मर जाते है| उनका केवल एक ही उद्देश्य दिखाई देता है .....अगली पीढ़ी को तैयार करना|
मनुष्य भी धन संपत्ति, सुख सुविधाओं, घर, नौकरी, व्यवसाय, जीवन में सफलता आदि के लिए जीवन भर परिश्रम, प्रतिद्वंदिता और संघर्ष करता है| फिर विवाह और संतानोत्पति कर अगली पीढ़ी को तैयार करके मर जाता है|
क्या मनुष्य जीवन का यही उद्देश्य है कि वह अगली पीढ़ी को तैयार करे और मर जाए? अब मनुष्य में छिपे पशुत्व, असुरत्व और देवत्व पर विचार करते हैं|
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(1) काम वासनाओं का सदैव चिंतन ही पशुता है|
मनुष्य में और पशु में अंतर है ही कहाँ? आध्यात्मिक रूप से तो जो भी पाश में बंधा है वह पशु है, जिसको पाश से मुक्ति पशुपतिनाथ की कृपा से ही मिलती है| पर यहाँ उसके लौकिक अर्थ पर विचार हो रहा है|
काम वासनाओं का सदैव चिंतन ही पशुता है| कई मामलों में तो पशु भी मनुष्य से श्रेष्ठ हैं| पशु अपनी काम वासनाओं और उदर की पूर्ति प्रकृति के चक्र के अनुसार ही करता है| पर अधिकाँश मनुष्यों के तो जीवन का लक्ष्य ही है काम वासनाओं और जिह्वा के स्वाद कि पूर्ति| विवाह कि संस्था धीरे धीरे समाप्त होती जा रही है| दोनों लिंगों के लिए विवाह एक शोषण का माध्यम बनता जा रहा है|
कुछ पंथ और सम्प्रदाय भी ऐसे हैं जिन में कामुकता को प्रश्रय और काम वासना की पूर्ति ही जीवन का ध्येय है| हमारी वृत्तियाँ पशुओं के समान या उनसे भी बुरी ही है क्या?
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(2) अधर्म से धन एकत्र करना, दूसरों को पीड़ित व दुखी करना, झूठ-कपट, अहंकार और लालच ..... ये आसुरी यानि राक्षसी प्रवृति है|
राग-द्वेष और अहंकार मनुष्य को राक्षस बनाते है| अपने विचारों कि श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए और अपने जीभ के स्वाद के लिए दूसरों कि ह्त्या और जनसंहार करना राक्षसों का कार्य है| इस राक्षसी प्रवृत्ति ने पता नहीं इस सृष्टि में कितने जन संहार किये है, कितने हज़ारों करोड़ मनुष्यों की हत्याएँ की हैं और पता नहीं कितनी अति उन्नत सभ्यताओं को नष्ट किया है| इस पृथ्वी पर लगता है आजकल असुरों यानि राक्षसों, दानवों और पिशाचों का ही राज्य है|
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(3) सद्भाव, करुणा और परोपकार ..... देवत्व के लक्षण हैं|
करुणा, समष्टि के कल्याण की भावना, परोपकार आदि के कार्य देवत्व को व्यक्त करते हैं|
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मनुष्य कभी पशु, कभी राक्षस तो कभी देवता भी बन जाता है| सृष्टि में जितने भी अच्छे कार्य हो रहे उसके पीछे मनुष्य का देवत्व है| यह सृष्टि यदि टिकी हुई है तो मनुष्य के देवत्व के कारण ही टिकी हुई है|
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मनुष्य जीवन की एक ही विशेषता है कि सभी मनुष्य अपना कर्म करने के लिए स्वतंत्र हैं परंतु अन्य जीव नहीं| मनुष्य स्वयं को मुक्त कर सकता है पर अन्य जीव नहीं| मनुष्य में विवेक है बस यही उसे पशुओ और असुरों से अलग करता है|
मनुष्य जीवन कि सबसे बड़ी विशेषता एक ही है कि मनुष्य चाहे तो परमात्मा को प्राप्त कर सकता है जो देवताओं के लिए भी संभव नहीं है|
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हम जीवभाव से ऊपर उठकर शिवत्व को प्राप्त हों ....... यही हमारे जीवन का वास्तविक उद्देश्य है|
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सभी को हार्दिक मंगल शुभ कामनाएँ| धन्यवाद|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

उस पेड़ का पतन सुनिश्चित है जो अपनी जड़ों की चिंता नहीं करता .....

उस पेड़ का पतन सुनिश्चित है जो अपनी जड़ों की चिंता नहीं करता .....
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भारत की अस्मिता और प्राण सनातन धर्म है जिसे अब हम हिंदुत्व कहते हैं| बिना सनातन धर्म यानि हिंदुत्व के भारत भारत नहीं है| अगर हिन्दू , सनातन धर्म को जीवन की प्राथमिकता नहीं बनाएगा .... तो हर हिन्दू का जीवन समस्याग्रस्त होना सुनिश्चित है| भारत की आत्मा आध्यात्मिकता है| भारत में धर्म की पुनर्स्थापना के लिए हमें आध्यात्म की ओर लौटना होगा और स्वयं को दैवीय शक्तियों से युक्त कर बलशाली होना होगा| स्वयं सब प्रकार से शक्तिशाली बनकर ही हम धर्म और राष्ट्र की रक्षा कर सकेंगे|
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हमारा चरित्र श्वेत कमल की भाँति इतना उज्जवल हो जिसमें कोई धब्बा ना हो| हमारे आदर्श और हमारा चिंतन उच्चतम हो| इसका एकमात्र उपाय है हमें अपनी मानसिकता बदली होगी और जीवन का केंद्र बिंदु परमात्मा को बनाना होगा| कम से कम इतना तो हम कर ही सकते हैं कि जीवन का हर कार्य परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए पूर्ण मनोयोग से करें, हर समय परमात्मा का स्मरण रखें, और अपने आचरण को और विचारों को सही रखें| जीवन में अपने विवेक के अनुसार जो भी सर्वश्रेष्ठ हम कर सकते हैं वह करें, तभी धर्म की रक्षा होगी|
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यह कार्य स्वयं से ही आरम्भ करना होगा| समाज और राष्ट्र के कर्णधारों को ही नहीं सभी को इस विषय पर विचार करना होगा| अन्यथा विनाश हम देख ही रहे हैं|
धर्मनिरपेक्षतावाद (सेकुलरिज्म) और जातिगत आरक्षण भारत की जड़ें खोद रहे हैं|
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धर्म की रक्षा उसके पालन से होती है, सिर्फ बातें करने से या राजनीति से नहीं| वर्तमान में यह देख कर खेद होता है कि हम सिर्फ नाम के लिए ही हिन्दू रह गए हैं| अपने धर्म को जानने व समझने का प्रयास ही नहीं करते|
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आप सब को नमन ! आप सब के ह्रदय में परमात्मा है, उसकी सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप में हो|
ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||