Wednesday 19 October 2016

ग्रंथिभेद ......

ग्रंथिभेद ......
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मूलाधार चक्र से आज्ञाचक्र तक का क्षेत्र अज्ञानक्षेत्र है| जब तक चेतना इस क्षेत्र में है तब तक मनुष्य अज्ञान में ही रहता है| आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश करने पर ही ज्ञानक्षेत्र में प्रवेश होता है| इसमें चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में ही रहती है, तभी ज्ञानलाभ होना आरम्भ होता है| सहस्त्रार से आगे पराक्षेत्र है|
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साधक को ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि और रूद्रग्रंथि का भेदन करना पड़ता है| मणिपूर चक्र के नीचे ब्रह्म ग्रन्थि, वहाँ से विशुद्धि चक्र तक विष्णु ग्रन्थि, तथा उससे ऊपर रुद्र ग्रन्थि है|
मुण्डकोपनिषद् के ३ मुण्डक इन ३ ग्रन्थियों के भेदन हैं|
दुर्गा सप्तशती के ३ चरित्र भी उसी अनुसार हैं|
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मणिपुर चक्र में १० दल हैं| उसको भू समानान्तर काटोगे तो ऊपर अनाहत चक्र की ओर ५ दल व नीचे की ओर ५ दल आएँगे|
नीचे के ५ दल, स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार चक्र मिल कर के हुए ब्रह्माग्रंथि|
ऊपर के ५ दल से विशुद्धि चक्र तक विष्णु ग्रंथि|
और उसके ऊपर रूद्र ग्रंथि है|
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भगवान बांके बिहारी श्रीकृष्ण की त्रिभंग मुद्रा इन्हीं तीन ग्रंथियों के भेदन का प्रतीक है|
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ललिता सहस्रनाम में ग्रन्थित्रय के स्थानों का वर्णन इस प्रकार है .....
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मूलाधारैकनिलया ब्रह्मग्रन्थि विभेदिनी |
मणिपूरान्तरुदिता विष्णुग्रन्थि विभेदिनी ||८९||
आज्ञाचक्रान्तरालस्था रुद्रग्रन्थि विभेदिनी |
सहस्राराम्बुजारूढा सुधासाराभिवर्षिणी ||९०||
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भगवान आदि शंकराचार्य ने भी सौंदर्य लहरी में उपरोक्त का दृष्टान्त दिया है|
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मुण्डकोपनिषद (२/२/७-९) में विष्णुग्रंथि भेद के बारे में .....
मनोमयः प्राण शरीरनेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं सन्निधाय |
तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपममृतं यद्विभाति ||७||
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः |
क्षीयन्ते चास्यकर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ||८||
हिरण्मये परे कोषे विरजं ब्रह्म निष्कलम्।
तच्छुभ्रं ज्योतिषां ज्योतिषां ज्योतिस्तद्यदात्मविदो विदुः ||९||
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मुण्डकोपनिषद (३ /१-३) में रुद्रग्रन्थि भेद के बारे में .....
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकषीति ||१||
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः |
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशस्य महिमानमिति वीतशोकः ||२||
यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्।
तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति ||३||.
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मुंडकोपनिषद (३/२) में ब्रह्मग्रंथि भेद के बारे में .....
वेदान्तविज्ञान सुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे॥६॥
गताः कलाः पञ्चदशप्रतिष्ठा देवाश्च सर्वे प्रतिदेवताषु।
कर्माणि विज्ञानमयश्च आत्मा परेऽव्यये सर्व एकी भवन्ति॥७॥
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तः गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८॥
स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्या ब्रह्मवित् कुले भवति।
तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तो भवति॥९॥
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श्रीमद्भागवत् में भी इसका वर्णन है|
दुर्गासप्तशती में भी असुर वध ..... ह्रदय ग्रंथि भेदन का ही प्रतीक है|
स्पष्ट है कि ग्रन्थिभेदन अत्यंत महत्वपूर्ण है|
ग्रंथियाँ सुषुम्ना में प्राण प्रवाह को बाधित करती है| ये ग्रन्थियां इड़ा एवम् पिंगला के संगम बिंदु पर बनती हैं|
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विष्णुतीर्थ की सौन्दर्य लहरी की हिन्दी टीका के अनुसार ब्रह्मग्रंथि का स्थान मूलाधार में, विष्णु ग्रन्थि का स्थान हृदय में और रुद्रग्रन्थि का स्थान आज्ञा चक्र में समझना चाहिये|
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(यह एक गोपनीय गुरुमुखी विद्या है जो गुरु द्वारा ही शिष्य को प्रत्यक्ष दी जाती है)
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जैसे समुद्र में मिलने पर नदी का अलग नाम-रूप समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार परात्पर पुरुष से मिलने पर साधक का अपना कोई नाम रूप नहीं रह जाता| जो परंब्रह्म को जानता या पाता है (विद् = जानना, पाना, साक्षात्कार), वह ब्रह्म ही हो जाता है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

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