Wednesday, 9 August 2017

प्राण-तत्व पर मेरे अनुभूतिजन्य विचार .....

प्राण-तत्व पर मेरे अनुभूतिजन्य विचार .....
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जगन्माता ही प्राण हैं, वे ही प्रकृति हैं, और वे ही प्राण-तत्व हैं | परमात्मा के मातृरूप की कृपा से ही यह समस्त सृष्टि जीवंत है | वे जगन्माता ही प्रकृति हैं, और वे ही प्राण-तत्व के रूप में जड़-चेतन सभी में व्याप्त है | एक जड़ धातु के अणु में भी प्राण हैं, और एक प्राणी की चेतना में भी | प्राण-तत्व की व्याप्तता और अभिव्यक्ति विभिन्न और पृथक पृथक है | एक मनुष्य जैसे जीवंत प्राणी की चेतना में भी जब तक प्राण विचरण कर रहा है, उसकी साँसे चलती हैं | प्राण के निकलते ही उसकी साँसे भी बंद हो जाती हैं | जगन्माता ही प्राण हैं | उन्होंने ही इस सृष्टि को धारण कर रखा है और अपनी विभिन्नताओं में सभी प्राणियों में और सभी अणु-परमाणुओं में स्थित हैं| वे ही ऊर्जा हैं, वे ही विचार हैं, वे ही भक्ति हैं और वे ही हमारी परम गति हैं |
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और भी स्थूल रूप में बात करें तो इस सृष्टि को श्रीराधा जी ने ही धारण कर रखा है, वे ही इस सृष्टि की प्राण हैं | परमप्रेम की उच्चतम अभिव्यक्ति श्रीराधा जी हैं | परमात्मा के प्रेमरूप पर ध्यान करेंगे तो निश्चित रूप से श्री राधा जी के ही दर्शन होंगे |
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

अभ्यास और वैराग्य .....

अभ्यास और वैराग्य पर लिखकर अनेक मनीषियों ने अपनी लेखनी को धन्य किया है| अभ्यास और वैराग्य की परिणिति है .... समभाव |
अभ्यास और वैराग्य से ही मन वश में होता है | समभाव ही स्थितप्रज्ञता है, यही ज्ञानी होने का लक्षण है | यही ज्ञान है |
भक्ति का अर्थ है परमप्रेम | स्वयं परम प्रेममय हो जाना ही भक्ति है | भक्ति की परिणिति भी समभाव ही है | अतः भक्ति और ज्ञान दोनों एक ही हैं | इनमें कोई अंतर नहीं है |
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मेरी स्वभाविक रूचि वेदांत और योग दर्शन में है | उपनिषदों और गीता को ही प्रमाण मानता हूँ | अब तो मेरी निजानुभुतियाँ ही मार्गदर्शन करती हैं | इष्ट है .... केवल आत्म-तत्व जिसे मैं परमशिव कहता हूँ | परमशिव ही मेरे इष्ट हैं |
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"अभ्यास- वैराग्याभ्यां तन्निरोधः" | महर्षि पातंजलि ने भी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के ये दो साधन वैराग्य और अभ्यास ही बताए हैं | मन को समझा बुझा कर युक्ति से नियंत्रित किया जा सकता है बलपूर्वक नहीं | यह युक्ति .... वैराग्य और अभ्यास ही हैं |
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आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्तियों को सादर नमन !
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

भारत छोड़ो आन्दोलन .....

भारत छोड़ो आन्दोलन .....
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भारत छोडो आन्दोलन द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ८ अगस्त १९४२ को महात्मा गाँधी द्वारा मुम्बई के अगस्त क्रांति मैदान से आरम्भ किया गया था| यह एक बहुत विराट देशव्यापी आन्दोलन था जिसका लक्ष्य भारत से ब्रितानी साम्राज्य को समाप्त करना था| पूरे देश में इस आन्दोलन को अंग्रेजों ने बड़ी निर्दयता और निर्ममता से कुचल दिया था| गाँधी जी को फ़ौरन गिरफ़्तार कर लिया गया था| जयप्रकाश नारायण भूमिगत हो गए थे| फिर श्री लालबहादुर शास्त्री ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया| "करो या मरो" का नारा गांधीजी ने दिया था जिसे लालबहादुर शास्त्री जी ने "मरो नहीं, मारो" बना दिया|
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मेरे विचार से आन्दोलन का समय एक गलत राजनीति से प्रेरित था| ९ अगस्त १९२५ को पं.रामप्रसाद 'बिस्मिल' के नेतृत्व में दस जुझारू कार्यकर्ताओं ने काकोरी काण्ड किया था जिसकी यादगार ताजा रखने के लिये पूरे देश में प्रतिवर्ष ९ अगस्त को "काकोरी काण्ड स्मृति-दिवस" मनाने की परम्परा भगत सिंह ने आरम्भ कर दी थी जिसमें बहुत बड़ी संख्या में नौजवान एकत्र होते थे| गांधीजी चाहते थे कि जनता उसे भूल जाए| इसलिए उन्होंने इस आन्दोलन का समय आठ और नौ अगस्त को रखा|
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विद्यालयों में पढ़ाया तो हमें यही गया था कि स्वतन्त्रता इसी आन्दोलन के कारण मिली| पर यह झूठ था| बड़े होकर ही हमें पता चला कि आज़ादी मिली थी तो अन्य कारणों से जिसे कभी भी विद्यालयों में पढ़ाया नहीं गया था|
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हमें आज़ादी मिली थी निम्न दो कारणों से :----

(१) द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति तक अंग्रेजी सेना की कमर टूट गयी थी और वह भारत पर अपना नियंत्रण रखने में असमर्थ थी| भारतीय सैनिकों ने अँगरेज़ अफसरों के आदेश मानने और उन्हें सलामी देना बंद कर दिया था| नौसेना ने विद्रोह कर दिया और अँगरेज़ अधिकारियों को बंदी बना लिया| इससे अँगरेज़ बहुत अधिक डर गए थे और उन्होंने भारत छोड़ने का निर्णय ले लिया|
(२) नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना की और अपनी स्वतंत्र सेना बनाकर भारत की स्वतन्त्रता के लिए युद्ध आरम्भ कर दिया| वे इतने अधिक लोकप्रिय हो चुके थे कि उन्हें भारत के प्रधानमंत्री बनने से कोई नहीं रोक सकता था| अँगरेज़ भयभीत थे| उन्होंने भारत का अधिक से अधिक नुकसान किया, भारत को अधिक से अधिक लूटा, विभाजन किया और अपने मानसपुत्र को सता हस्तांतरित कर के भारत से चले गए|
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सत्य सनातन धर्म की जय | भारत माता की जय | हर हर महादेव | जय श्रीराम |
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

ब्रह्म मुहूर्त में ब्रह्मचिन्तन ही करना चाहिए, शयन नहीं ....

ब्रह्म मुहूर्त में ब्रह्मचिन्तन ही करना चाहिए, शयन नहीं|
उठते ही अनुभूति करें कि माँ भगवती की गोद में सो रहे थे, बिस्तर पर नहीं|
उठते ही एक गहरी साँस लें और पूरी देह को चार-पाँच क्षणों के लिए तनावयुक्त कर के तनावमुक्त कर लें| शरीर के किसी भी अंग में कोई तनाव न रहे|
पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुँह कर के पद्मासन या सिद्धासन या सुखासन में बैठ जाएँ| अपने इष्ट देव को मानसिक प्रणाम करें|
अपना प्रिय कोई भजन मानसिक रूप से गाएँ जिससे भक्ति भाव जागृत हो|
कुछ देर तक अजपा-जप करें|
कुछ देर बंद कानों से जो ध्वनि सुनाई देती है, उसे सुनें| उसके साथ ओंकार का मानसिक जप करें|
उषः पान (रात्रि को ताम्बे के पात्र में रखा जलपान) करें| फिर शौचादि से निवृत होकर, स्नान कर के संध्या कर्म करें|
पूरे दिन परमात्मा को अपनी स्मृति में रखें|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

क्या श्रावणी उपाकर्म और रक्षाबंधन का सम्बन्ध हयग्रीवावतार से है ? ...

क्या प्राचीन काल से चले आ रहे श्रावणी उपाकर्म और वर्तमान में रक्षाबंधन का सम्बन्ध भगवान् विष्णु के हयग्रीवावतार से है ? विद्वानों से प्रार्थना है कि प्रामाणिक ज्ञान प्रदान करें |
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जैसा कि बड़े-बूढों से सुनते आये हैं उसके अनुसार एक कालखंड में वेदों का ज्ञान लुप्त हो गया था| ब्रह्मा जी भी वेदों को भूल गए थे| तब भगवान विष्णु ने हयग्रीव का अवतार लेकर वेदों का ज्ञान ब्रह्मा जी को पुनश्चः प्रदान किया| उस दिन श्रावण माह की पूर्णिमा थी| तब से श्रावणी उपाकर्म ब्राह्मण वर्ण के लोग मनाते आये हैं, जिसमें यज्ञोपवीत बदला जाता है|
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उपरोक्त विषय पर पौराणिक कथा इस प्रकार है ......
एक समय की बात है क‌ि भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी बैकुण्ठ में विराजमान थे| उस समय देवी लक्ष्मी के सुंदर रूप को देखकर भगवान विष्णु मुस्कुराने लगे| देवी लक्ष्मी को ऐसा लगा कि विष्णु भगवान उनके सौन्दर्य की हँसी उड़ा रहे हैं| देवी ने इसे अपना अपमान समझ लिया और ब‌िना सोचे भगवान विष्णु को शाप दे दिया कि आपका सिर धड़ से अलग हो जाए|
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उसी समय के आसपास की बात है| हयग्रीव नाम का एक परम पराक्रमी दैत्य हुआ| उसने सरस्वती नदी के तट पर जाकर भगवती महामाया की प्रसन्नता के लिए बड़ी कठोर तपस्या की| वह बहुत दिनों तक बिना कुछ खाए भगवती के मायाबीज एकाक्षर महामंत्र का जाप करता रहा| उसकी इंद्रियां उसके वश में हो चुकी थीं| सभी भोगों का उसने त्याग कर दिया था| उसकी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती ने उसे तामसी शक्ति के रूप में दर्शन दिया| भगवती महामाया ने उससे कहा .... ‘‘महाभाग! तुम्हारी तपस्या सफल हुई, मैं तुम पर परम प्रसन्न हूँ| तुम्हारी जो भी इच्छा हो मैं उसे पूर्ण करने के लिए तैयार हूँ| वत्स! वर माँगो|’’
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भगवती की दया और प्रेम से ओत-प्रोत वाणी सुनकर हयग्रीव की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा| उसके नेत्र आनंद के अश्रुओं से भर गए| उसने भगवती की स्तुति करते हुए कहा .... ‘‘कल्याणमयी देवि, आपको नमस्कार है| आप महामाया हैं| सृष्टि, स्थिति और संहार करना आपका स्वाभाविक गुण है| आपकी कृपा से कुछ भी असंभव नहीं है| यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे अमर होने का वरदान देने की कृपा करें|’’
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देवी ने कहा, ‘‘दैत्य राज, संसार में जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु निश्चित है| प्रकृति के इस विधान से कोई नहीं बच सकता| किसी का सदा के लिए अमर होना असंभव है| अमर देवताओं को भी पुण्य समाप्त होने पर मृत्यु लोक में जाना पड़ता है| अत: तुम अमरत्व के अतिरिक्त कोई और वर माँगो|"
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हयग्रीव बोला, ‘‘अच्छा, तो हयग्रीव के हाथों ही मेरी मृत्यु हो| दूसरे मुझे न मार सकें| मेरे मन की यही अभिलाषा है| आप उसे पूर्ण करने की कृपा करें|’’
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"ऐसा ही हो", यह कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गईं| हयग्रीव असीम आनंद का अनुभव करते हुए अपने घर चला गया| वह दुष्ट देवी के वर के प्रभाव से अजेय हो गया| त्रिलोकी में कोई भी ऐसा नहीं था, जो उस दुष्ट को मार सके| उसने ब्रह्मा जी से वेदों को छीन लिया और देवताओं तथा मुनियों को सताने लगा| यज्ञादि कर्म बंद हो गए और सृष्टि की व्यवस्था बिगडऩे लगी| ब्रह्मादि देवता भगवान विष्णु के पास गए, किन्तु वे योगनिद्रा में निमग्र थे| उनके धनुष की डोरी चढ़ी हुई थी| ब्रह्मा जी ने उनको जगाने के लिए वम्री नामक एक कीड़ा उत्पन्न किया| ब्रह्मा जी की प्रेरणा से उसने धनुष की प्रत्यंचा काट दी| उस समय बड़ा भयंकर शब्द हुआ और भगवान विष्णु का मस्तक कटकर अदृश्य हो गया| सिर रहित भगवान के धड़ को देखकर देवताओं के दुख की सीमा न रही| सभी लोगों ने इस विचित्र घटना को देखकर भगवती की स्तुति की| भगवती प्रकट हुई| उन्होंने कहा, ‘‘देवताओ चिंता मत करो| मेरी कृपा से तुम्हारा मंगल ही होगा| ब्रह्मा जी एक घोड़े का मस्तक काटकर भगवान के धड़ से जोड़ दें| इससे भगवान का हयग्रीवावतार होगा| वे उसी रूप में दुष्ट हयग्रीव दैत्य का वध करेंगे|’’ ऐसा कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गई।
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भगवती के कथनानुसार उसी क्षण ब्रह्मा जी ने एक घोड़े का मस्तक उतारकर भगवान के धड़ से जोड़ दिया| भगवती के कृपा प्रसाद से उसी क्षण भगवान विष्णु का हयग्रीवावतार हो गया| फिर भगवान का हयग्रीव दैत्य से भयानक युद्ध हुआ| अंत में भगवान के हाथों हयग्रीव की मृत्यु हुई| हयग्रीव को मारकर भगवान ने वेदों को ब्रह्मा जी को पुन: समर्पित कर दिया और देवताओं तथा मुनियों का संकट निवारण किया| हयग्रीव भगवान विष्णु के चौदह अवतारों में से एक थे| इनका सिर घोड़े का और शरीर मनुष्य का था|
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हयग्रीव की कथा महाभारत के शान्ति पर्व के अनुसार यह है ....
कल्पान्त में जब यह पृथ्वी जलमग्न हो गयी तब विष्णु को पुन: जगत सर्जन का विचार हुआ| वह जगत की विविध विचित्र रचना का विषय सोचते हुए योगनिद्रा का अवलम्बन कर जल में सो रहे थे| कुछ समय के पश्चात भगवान ने कमल मध्य दो जलबिन्दु देखे| एक बिन्दु से मधु और दूसरे से कैटभ की उत्पत्ति हुई| उत्पन्न होते ही दैत्यों ने कमल के मध्य ब्रह्मा को देखा| दोनों सनातन वेदों को ले रसातल में चले गये| वेदों का अपहरण होने पर ब्रह्मा चिन्तित हुए कि वेद ही मेरे चक्षु हैं जिन के अभाव में लोकसृष्टि कैसे कर सकूँगा| उन्होंने वेदोद्धार के लिए भगवान विष्णु की स्तुति की| स्तुति सुन भगवान ने हयग्रीव की मूर्ति धारण कर वेदों का उद्धार किया|
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अब विद्वान् मनीषी प्रामाणिक ज्ञान प्रदान करें| साभार धन्यवाद !
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

हे हरि, यहाँ सिर्फ तुम ही हो .....

हे हरि, यहाँ सिर्फ तुम ही हो .....
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मुझ में जो व्यक्त हो रहा है उस देवत्व को नमन ! मैं परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्ति हूँ | मेरे चारों ओर मंत्रमय प्रकाश रूपी एक दिव्य जीवंत कवच है जो सब प्रकार की नकारात्मकताओं से निरंतर रक्षा कर रहा है |
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हर विचार, हर भाव, एक पर्यटक की तरह मेरे पास आता है जिसका अतिथि की तरह स्वागत है, पर उसके निवास के लिए मेरे पास कोई स्थान नहीं है | वे आएँ, उनका स्वागत है, पर तुरंत बापस भी चले जाएँ | मेरा हृदय कोई धर्मशाला नहीं है | इसमें निवास सिर्फ परमात्मा का है |
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मैं निःसंग हूँ | किसी का साथ नहीं करता | मेरा जन्म-मरण का शाश्वत एकमात्र साथी परमात्मा है जो सदा निरंतर मेरे साथ है | उसे अन्य किसी का साथ पसंद नहीं है |
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यह जीवन एक स्वतन्त्रता संग्राम है | इस मायावी युद्ध में विजयी होना हम सब का परम कर्तव्य है | यहाँ योद्धा परमात्मा स्वयं हैं, यह युद्ध और शत्रु आदि सब उनकी ही माया है |
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उन्हीं की परम कृपा से यह सब दिखाई दे रहा है | वे ही इन आँखों से देख रहे हैं, वे ही इस दिमाग से सोच रहे हैं, वे ही ये पंक्तियाँ लिख रहे हैं| वे ही सर्वत्र हैं, उनके सिवाय किसी अन्य का अस्तित्व नहीं है | उन्हीं के वचन हैं ...
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति | तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||"
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

साधना में रुकावट डालने वाले राग-द्वेष, काम, क्रोध आदि से मुक्त कैसे हों? ....

साधना में रुकावट डालने वाले राग-द्वेष, काम, क्रोध आदि से मुक्त कैसे हों?
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विषय परायणता से मुक्त कैसे हों? इसका कोई सामान्य उत्तर नहीं है| प्रत्येक व्यक्ति को जिन परिस्थितियों में वह है, उसका मूल्यांकन कर अपना उत्तर स्वयं ढूँढ़ना होगा कि वह उन परिस्थितियों से ऊपर कैसे उठ सकता है| प्रत्येक व्यक्ति की समस्या भी अलग है और समाधान भी अलग| एक ही उत्तर सभी के लिए नहीं हो सकता|
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फिर भी कुछ सामान्य उत्तर जो हो सकते हैं, वे हैं ...... सत्संग, स्वाध्याय, कुसंग का त्याग, सात्विक पवित्र आहार, नियमित दिनचर्या और नियमित साधना आदि|
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इस संसार में हमने बहुत अधिक कष्ट पाए हैं जो निश्चित रूप से हमारे कर्मों के ही फल थे| अब शांति से बैठकर विचार करें कि ऐसे हमारे कौन से कर्म हो सकते हैं जिनका हमें यह फल मिला है| जो संचित कर्म हैं उन से कैसे मुक्त हों, व ऐसे कर्मों से कैसे बचें जिन से इन कष्टों की पुनरावृति न हो? सार की बात यह है कि पूर्वजन्मों में हमने ऐसे अच्छे कर्म नहीं किये जिनसे हम जीवनमुक्त हो सकते थे, अन्यथा यह कष्टमय जन्म लेने को बाध्य नहीं होते| अब जीवनमुक्त होने की दिशा में आगे बढ़ें| मन में दृढ़ संकल्प होगा तो मार्गदर्शन भी मिलेगा|
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कभी निराश न हों| जीवन की कटुताओं और बुरे अनुभवों को याद न करें| भगवान की यह सृष्टि निश्चित रूप से सुव्यवस्थित है| इसमें कोई अव्यवस्था नहीं है| अपनी हर समस्या का समाधान भगवान में ही ढूंढें| उत्तर अवश्य मिलेगा|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||