Saturday, 23 April 2022

मेरे लिए 'कृपा' शब्द का अर्थ है -- कुछ करो और पाओ ---

 मेरे लिए 'कृपा' शब्द का अर्थ है -- कुछ करो और पाओ। बिना करे तो कुछ मिलेगा नहीं। ऐसा क्या करें जिस से इस जीवात्मा का कल्याण हो, और यह परमशिव को उपलब्ध हो?

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गुरु महाराज ने मार्ग दिखा दिया, सारे संदेह दूर कर दिये, परमशिव की अनुभूति भी करा दी, लेकिन बापस वहीं लाकर छोड़ दिया जहाँ से यात्रा आरंभ की थी। अब यह सारी यात्रा स्वयं को ही करनी होगी। भगवान ने कृपा कर के इस अकिंचन को एक निमित्त मात्र बना दिया है और कर्ता वे स्वयं बन गए हैं। यह भी गुरुकृपा से ही संभव हुआ है। देने के लिए मेरे पास प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। सब कुछ तो उन्हीं का है। इस प्रेम पर भी उन्हीं का अधिकार है।
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सारे उपदेश, सारे सिद्धान्त और सारे नियम भूल चुका हूँ। मुझ अकिंचन को कुछ भी आता-जाता नहीं है। सामने कूटस्थ सूर्य मण्डल में साक्षात भगवान बैठे हुये हैं। पूर्ण एकाग्रता के साथ दृष्टि उन्हीं पर टिकी है। उन्हीं को देख रहा हूँ और उन्हीं को सुन रहा हूँ। यही मेरा कर्मयोग है, यही मेरा भक्तियोग है, यही मेरा ज्ञानयोग है, यही मेरा वेदपाठ है, और यही मेरा वेदान्त है। उन्हीं को देखते देखते और सुनते इस शरीर की आयु बीत जाए, और कुछ भी नहीं चाहिए।
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आगे से और कुछ लिखने की भी इच्छा अब नहीं रही है। जो लिखा गया सो लिखा गया। बस यही पर्याप्त है। हे गुरु महाराज, आपको नमन करता हूँ --
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||"
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२४ अप्रेल २०२२

अज़ान का उद्देश्य और अर्थ ---

यह मान्यता है कि सत्य को जानने, और अपनी सही जानकारी के लिए प्रत्येक हिन्दू को, अर्थ सहित अच्छी तरह समझ कर, जीवन में कम से कम एक बार, बाइबिल के old व सारे new Testaments, और कुरानशरीफ व अन्य सभी महत्वपूर्ण मज़हबों/पंथों के ग्रंथ अवश्य पढ़ने चाहियें। पढ़ कर उनकी तुलनात्मक विवेचना भी करनी चाहिए। तभी तो पता चलेगा कि इन में क्या लिखा है। कोई भी जानकारी प्रामाणिक होनी चाहिए, सुनी-सुनाई बातों से काम नहीं चलेगा। मैंने सभी का तुलनात्मक अध्ययन किया है।
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आज मैं मस्जिदों से दी जाने वाली अज़ान का उद्देश्य और अर्थ बता रहा हूँ| इस पर कोई भी प्रतिक्रिया अपने मन में ही रखें। मेरे फेसबुक पेज पर कोई नकारात्मक टिप्पणी न करें।
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रामदान (रमज़ान) का मुक़द्दस महीना चल रहा है (मंगलवार १३ अप्रेल २०२१ से बुधवार १२ मई २०२१)। मस्जिदों से अज़ान की बाँग दिन में पाँच बार ध्वनि-विस्तारक यंत्रों के माध्यम से बड़े जोर से दी जाती है। इस का अर्थ और उद्देश्य सभी को पता होना चाहिए। अज़ान इस तरह दी जाती है ---
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(१) अल्लाहु अकबर (चार बार)।
“अल्लाहु अकबर” का अर्थ होता है -- “अल्लाह महान है।"
(२) अशहदु अन ला इलाहा इल्लल्लाह (दो बार)।
“अशहदु अन ला इलाहा इल्लल्लाह” का अर्थ होता है “मैं गवाही देता हूँ; कोई उपास्य नहीं सिवाय अल्लाह के।”
(३) अशहदु अन्ना मुहमदन रसूल्लुल्लाह (दो बार)।
“अशहदु अन्ना मुहमदन रसूल्लुल्लाह” का अर्थ होता है “मैं गवाही देता हूँ; मुहम्मद साहब ही अल्लाह के रसूल (दूत) हैं।“
(४) हैया ‘अल-सलाह (दो बार)।
“हैया ‘अल-सलाह” का अर्थ होता है “आओ नमाज़ की तरफ़।“
(५) हैया ‘अलल फ़लाह (दो बार)।
“हैया ‘अलल फ़लाह” का अर्थ होता है “आओ सफ़लता की ओर।“
(६) अल्लाहु अकबर (दो बार)।
“अल्लाहु अकबर” का अर्थ होता है -- “अल्लाह महान है।"
(७) ला इलाहा इल्लल्लाह (एक बार)
“ला इलाहा इल्लल्लाह” का अर्थ होता है “कोई उपास्य नहीं सिवाय अल्लाह के।“
पुनश्च: --- सुबह की पहली नमाज़ में एक पंक्ति अधिक जोडते हैं शायद -- "अस्सलातु खैरूम मिनन्नउम्" अर्थात् - "सोने से अच्छा प्रार्थना करना है।" इसका मुझे ठीक से पता नहीं है।
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मेरा एकमात्र उद्देश्य किसी भी तथ्य को यथावत् बताना है, किसी की भी प्रशंसा या निंदा करना नहीं। धन्यवाद !! मेरे लिखने मे कोई भूल हुई है तो मनीषी लोग मुझे क्षमा करें।
२४ अप्रैल २०२१

शिव ही विष्णु हैं, और विष्णु ही शिव हैं ---

 "ॐ नमः शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे। शिवस्य हृदयं विष्णु: विष्णोश्च हृदयं शिव:॥"

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मनुष्य की बुद्धि जो ईश्वर की ऊंची से ऊंची परिकल्पना कर सकती है, वह शिव और विष्णु की है। तत्व रूप में दोनों एक हैं। शिव ही विष्णु हैं, और विष्णु ही शिव हैं। अतः हमें ध्यान शिव या विष्णु के विराट रूप का ही करना चाहिए। ध्यान में सफलता के लिए हमारे में इन बातों का होना आवश्यक है:---
(1) भक्ति यानि परम प्रेम।
(2) परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा।
(3) दुष्वृत्तियों का त्याग।
(4) शरणागति और समर्पण।
(5) आसन, मुद्रा और यौगिक क्रियाओं का ज्ञान।
(6) दृढ़ मनोबल और बलशाली स्वस्थ शरीर रुपी साधन।
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ध्यान हमेशा परमात्मा के अनंत ज्योतिर्मय ब्रह्मरूप और नाद का होता है। हम बह्म-तत्व में विचरण और स्वयं का समर्पण करें, -- यही आध्यात्मिक साधना है। परमात्मा के प्रति परम प्रेम और शरणागति हो तो साधक परमात्मा को स्वतः ही उपलब्ध हो जाता है।
ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२४ अप्रेल २०२१

विद्वता का अहंकार -- हमारा सबसे बड़ा आंतरिक शत्रु है ---

 विद्वता का अहंकार -- हमारा सबसे बड़ा आंतरिक शत्रु है, जो हमारी शांति को छीन कर हमें निरंतर भटकाता है। इसे तुरंत भगवान को समर्पित कर देना चाहिये। गीता में भगवान हमें निष्काम, निःस्पृह, निर्मम, और निरहंकार होने का उपदेश देते हैं --

"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति॥२:७१॥"
अर्थात् जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित, ममभाव रहित, और निरहंकार हुआ विचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त करता है॥
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अब प्रश्न यह उठता है कि-- निष्काम, निःस्पृह, निर्मम और निरहंकार कैसे हुआ जाये? ये तो विरक्त सन्यासी के ही सारे गुण हैं, जो यदि संकल्प मात्र से ही आ जायें तो सारे विश्व में ही शांति का साम्राज्य छा जाये। कामनाओं और भोगों को अशेषतः त्यागना एक अति-मानवीय कार्य है, जिसके लिए निरंतर सत्संग, ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय सद्गुरु का मार्गदर्शन, कठोर नियमित आध्यात्मिक साधना, व दृढ़ मनोबल और बलशाली स्वस्थ शरीर रुपी साधन की आवश्यकता है।
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उपरोक्त सब होने पर भी एक बहुत बड़ी बाधा हमारा सूक्ष्म अहंकार है -- कुछ जानने का, कुछ होने का, व अपनी विद्वता और श्रेष्ठता का। इस सूक्ष्म अहंकार से मुक्त होने के लिए हमें अपनी अपरा और परा प्रकृति, दोनों को समझकर, इन दोनों से ऊपर उठना पड़ेगा। यहीं पर हमें मार्गदर्शन के लिए एक सद्गुरु की आवश्यकता है जो स्वयं ब्रहमनिष्ठ व श्रौत्रीय हो।
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जैसा मुझे समझ में आया है, उसके अनुसार हमारा जीवरूप -- परा प्रकृति है, और पञ्च-महाभूत व हमारा अंतःकरण -- अपरा प्रकृति है। इन दोनों से ही ऊपर उठना पड़ेगा। गीता में और रामचरितमानस के उत्तरकांड में इसे बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है, लेकिन फिर भी सद्गुरु आचार्य का मार्गदर्शन आवश्यक है।
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हम यह शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हैं, जिसका संबंध सिर्फ परमात्मा से है। हम अनन्य भक्ति द्वारा अपना अहं भाव त्याग कर परमात्मा से जुड़ें और गीता में बताई हुई ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त हों। अपने पाप-पुण्य और कर्मफल सब भगवान को बापस कर दें। हम पापी हों या पुण्यात्मा, अच्छे हों या बुरे, सदा परमात्मा के साथ एक हैं। पाप और पुण्य -- हमें छू भी नहीं सकते। हमारी कोई कामना, या ममता नहीं है, इस संसार में जो कुछ भी है, वह परमात्मा है, जिन से परे अन्य कुछ भी नहीं है। हम यह देह नहीं, सब गुणों से परे पारब्रह्म परमात्मा के साथ एक हैं।
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रामचरितमानस के उत्तर कांड में इसे समझाया गया है, जिसका स्वाध्याय स्वयं को ही करना होगा --
"सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी।।
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाई।।
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।।
तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी।।
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई।।
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी।।
अस संजोग ईस जब करई। तबहुँ कदाचित सो निरुअरई।।
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई।।
जप तप ब्रत जम नियम अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा।।
तेइ तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई।।
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा।।
परम धर्ममय पय दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बनाई।।
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै। धृति सम जावनु देइ जमावै।।
मुदिताँ मथैं बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी।।
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता।।
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावैं ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ।।
तब बिग्यानरूपिनि बुद्धि बिसद घृत पाइ।
चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ।।
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि।
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि।।
एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय।।
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब।।
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अंत में यह याद रखें कि --
"सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥"
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आप सब महात्माओं को नमन !! आप सब महान आत्माएँ हैं, कोई सामान्य व्यक्ति नहीं। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२४ अप्रेल २०२१

जिसका हम ध्यान करते हैं, वही हम बन जाते हैं ---

 जिसका हम ध्यान करते हैं, वही हम बन जाते हैं। परमात्मा हमें प्राप्त नहीं होते, बल्कि समर्पण के द्वारा हम स्वयं ही परमात्मा को प्राप्त होते हैं। कुछ पाने का लालच -- माया का एक बहुत बड़ा अस्त्र है। जीवन का सार कुछ होने में है, न कि कुछ पाने में। जब सब कुछ परमात्मा ही हैं, तो प्राप्त करने को बचा ही क्या है? आत्मा की एक अभीप्सा होती है, उसे परमात्मा का विरह एक क्षण के लिए भी स्वीकार्य नहीं है। इसी को परमप्रेम या भक्ति कहते हैं।

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कल रात्री के ध्यान में वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण ने एक बात तो स्पष्ट बता दी कि तुम्हारे जीवन में कुछ भी अच्छा नहीं है। हर कदम पर लाखों कमियाँ ही कमियाँ हैं। एक ही अच्छाई है कि तुम्हें मुझसे प्रेम है, और कुछ भी अच्छा नहीं है। इसी प्रेम ने तुम्हारी हर बुराई को ढक रखा है। जब भगवान स्वयं यह बात कह रहे हैं तो माननी ही पड़ेगी। अपनी हर बुराई और अच्छाई -- सब कुछ उन्हें बापस लौटा रहा हूँ। इस पाप की गठरी को कब तक ढोता रहूँगा?
अवशिष्ट जीवन उन्हीं के ध्यान, चिंतन, और स्मरण में बीत जाये, और कुछ भी नहीं चाहिए।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२३ अप्रेल २०२२

त्रिगुणातीत होना ही मुक्ति है ---

त्रिगुणातीत होना ही मुक्ति है ---
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राम-राज्य तभी स्थापित हो सकता है जब रावण का संहार हो चुका हो। लेकिन समस्या तो यह है कि महिषासुर, हिरण्यकशिपु, रावण और कंस आदि ये सब अमर हैं। ये कभी मरते ही नहीं हैं। मरने का नाटक करते हैं, और घूम-फिर कर बापस लौट आते हैं, और यह सारी सृष्टि इन्हीं से चल रही है। इनके बिना सृष्टि नहीं चल सकती। सारी सृष्टि तीन गुणों से ही चल रही है।
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण हमें त्रिगुणातीत होने को कहते हैं। यह त्रिगुणातीत होना ही मुक्ति है। ऐसी जीवनमुक्त आत्माओं के लोक अलग ही होते हैं। पृथ्वी पर बड़े सौभाग्य से ऐसे महात्माओं के दर्शन होते हैं। इस सृष्टि में कुछ भी निःशुल्क नहीं है। हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। आध्यात्म में भगवान की प्राप्ति भी तभी होती है जब हम उन्हें अपना पूर्ण प्रेम (Total and unconditional love) बिना किसी शर्त के देते हैं।
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सबसे अच्छा तो यही है कि हम अपना सब कुछ भगवान को अर्पित कर दें। कुछ भी अपने पास बचा कर न रखें। हमारे पास अपना है ही क्या? सब कुछ तो भगवान का है। सिर्फ प्रेम ही हमारा अपना है जिसे भगवान मांगते हैं। अब आगे आप समझदार हैं। अपने विवेक के प्रकाश में जो भी करना चाहते हैं, वह करें।
मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२३ अप्रेल २०२२
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राम-राज्य तभी स्थापित हो सकता है जब रावण का संहार हो चुका हो। लेकिन समस्या तो यह है कि महिषासुर, हिरण्यकशिपु, रावण और कंस आदि ये सब अमर हैं। ये कभी मरते ही नहीं हैं। मरने का नाटक करते हैं, और घूम-फिर कर बापस लौट आते हैं, और यह सारी सृष्टि इन्हीं से चल रही है। इनके बिना सृष्टि नहीं चल सकती। सारी सृष्टि तीन गुणों से ही चल रही है।
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण हमें त्रिगुणातीत होने को कहते हैं। यह त्रिगुणातीत होना ही मुक्ति है। ऐसी जीवनमुक्त आत्माओं के लोक अलग ही होते हैं। पृथ्वी पर बड़े सौभाग्य से ऐसे महात्माओं के दर्शन होते हैं। इस सृष्टि में कुछ भी निःशुल्क नहीं है। हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। आध्यात्म में भगवान की प्राप्ति भी तभी होती है जब हम उन्हें अपना पूर्ण प्रेम (Total and unconditional love) बिना किसी शर्त के देते हैं।
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सबसे अच्छा तो यही है कि हम अपना सब कुछ भगवान को अर्पित कर दें। कुछ भी अपने पास बचा कर न रखें। हमारे पास अपना है ही क्या? सब कुछ तो भगवान का है। सिर्फ प्रेम ही हमारा अपना है जिसे भगवान मांगते हैं। अब आगे आप समझदार हैं। अपने विवेक के प्रकाश में जो भी करना चाहते हैं, वह करें।
मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२३ अप्रेल २०२२

उपासना की गहनता और दीर्घता दोनों को ही बढ़ाना पड़ेगा ---

 उपासना की गहनता और दीर्घता दोनों को ही बढ़ाना पड़ेगा ---

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ईश्वर के साम्राज्य में कई बार हमें कुछ घटनाओं का आभास सा हो जाता है, लेकिन स्पष्टता नहीं होती। वह आभास भी बहुत अधिक आकर्षक और आनंदमय होता है। तब पता चलता है कि जहाँ हम खड़े हैं, वह तो कुछ भी नहीं है, असली चीज तो बहुत आगे है। अतः पीछे मुड़कर मत देखो, आगे बढ़ते रहो। मनुष्य को भटकाने वाली दो ही चीजें है -- उसका लोभ और उसका अहंकार। इनको सकारात्मक दिशा में मोड़ो तो इनसे भी कोई अहित नहीं होगा।
यह बात में अपने अनुभव से कह रहा हूँ कि सूक्ष्म जगत में अनेक महान आत्माएँ हैं जो हमारा हित चाहती हैं और निरंतर हमारा मार्गदर्शन करती रहती हैं। हमें और भी अधिक समय देना होगा, और और भी अधिक गहराई में जाना पड़ेगा।
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इस समय सबसे बड़ा आकर्षण तो पुराण-पुरुष भगवान श्रीकृष्ण का है। जब तक उनका प्रत्यक्ष साक्षात्कार नहीं होता तब तक कहीं कोई विश्राम नहीं है। यही रामकाज है।
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥" (भगवद्गीता)
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥११:३९॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥"
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मेरी बात यदि आपको बुरी लगी हो, तो कोई बाध्यता नहीं है इन शब्दों को पढ़ने की। लेकिन मैं चुनौती देकर यह बात कहता हूँ कि यदि आपने इन शब्दों को भूल से भी पढ़ लिया है तो ये आपको चैन से नहीं बैठने देंगे। परमात्मा के प्रति प्रेम आपके हृदय में जाग उठा है, जो आपको भगवत्-प्राप्ति के लिए बेचैन कर देगा। आगे का कार्य तो स्वयं भगवान का है, जिन्होने मुझे निमित्त बनाकर गीता के ये शब्द यहाँ मुझसे लिखवाये हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
२२ अप्रेल २०२२

त्रिगुणातीत वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण पद्मासन में शांभवी मुद्रा में ध्यानस्थ हैं ---

 मेरे में हिमालय से भी बड़ी बड़ी लाखों कमियाँ और लाखों असफलताएँ हैं। लेकिन परमप्रिय परमात्मा के महासागर में वे एक छोटे-मोटे कंकर-पत्थर से अधिक बड़ी नहीं हैं। वे वहाँ भी शोभा दे रही हैं। जब से उनसे प्रेम हुआ है, सारी कमियाँ और असफलताएँ महत्वहीन हो गई हैं। परमात्मा अनंत हैं, उनके अनंत रूप हैं, लेकिन आजकल परमात्मा का एक ही रूप सदा सामने आता है --

त्रिगुणातीत वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण पद्मासन में शांभवी मुद्रा में ध्यानस्थ हैं। उन्होने खेचरी मुद्रा भी लगा रखी है और अपने स्वयं के परमशिव रूप का ध्यान कर रहे हैं। उनके सिवाय कोई अन्य है ही नहीं। वे स्वयं ही यह सारी सृष्टि बन गए हैं। एकमात्र अस्तित्व उन्हीं का है। मेरा भी उनसे पृथक कोई अस्तित्व नहीं है।
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मुझे खेचरी मुद्रा की सिद्धि नहीं है। यह युवावस्था में सिद्ध होती है, अब इस आयु में यह असंभव है। अर्धखेचरी से ही काम चल जाता है, अतः संतुष्ट हूँ। जो युवा हैं, उन्हें खेचरी सिद्ध कर लेनी चाहिए। इसके लिए किसी हठयोग प्रशिक्षक से मार्गदर्शन लें। श्यामाचारण लाहिड़ी महाशय द्वारा बताई हुई तालव्य-क्रिया इसमें सहायक है। पद्मासन में भी आजकल मुझे कठिनाई होने लगी है। भगवान से ही प्राप्त निर्देशानुसार ध्यान के समय किसी भी परिस्थिति में कमर सीधी रहनी चाहिए, चाहे आसन कोई सा भी हो। कुर्सी पर बैठकर ध्यान करने की भी अनुमति है। कुर्सी के नीचे एक ऊनी कंबल बिछी हो तो बहुत अच्छा है।
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परमशिव की अनुभूति निज प्रयास से नहीं होती। वह किसी सिद्ध ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु के आशीर्वाद और कृपा से ही होती है। अतः उसके बारे में और लिखने का आदेश नहीं है। पहले कई बार लिख चुका हूँ।
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बिना भक्ति के एक कदम भी आगे की प्रगति नहीं हो सकती। अतः भक्ति और सदाचार दोनों ही आवश्यक हैं। हर तरह के कुसंग का त्याग करना पड़ता है। प्रकाश और अंधकार साथ-साथ नहीं रह सकते। जो कुवासनाओं का त्याग नहीं कर सकते उन्हें ध्यान नहीं करना चाहिए, अन्यथा वे तुरंत आसुरी शक्तियों के शिकार हो जाते हैं। वे पूर्ण भक्तिभाव से सिर्फ जपयोग ही करें।
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हिमालय से भी बहुत बड़ी-बड़ी मेरी लाखों कमियाँ और असफलताएँ भी परमात्मा के मार्ग में शोभा दे रही हैं, लेकिन मेरी दृष्टि निरंतर परमात्मा की ओर ही है। जब से परमात्मा से प्रत्यक्ष संवाद स्थापित हो पा रहा है तब से मेरी अपनी स्वयं की कमियों और विफलताओं का कोई महत्व नहीं रहा है। भगवान ही सर्वत्र हैं, उनके सिवाय कोई भी अन्य नहीं है। वे स्वयं ही स्वयं को नमन कर रहे हैं, और स्वयं ही स्वयं को आशीर्वाद भी दे रहे हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२२ अप्रेल २०२२

हमारी उपासना तेलधारा की तरह अखंड निरंतर बनी रहे ---

 गुरुकृपा से हमारी उपासना तेलधारा की तरह अखंड निरंतर बनी रहे। उसके टूटते ही बहुत अधिक हानि हो जाएगी, जिसका पता भी तुरंत नहीं चलेगा।

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मेरे आसपास सूक्ष्म जगत के अनेक देवता भी हैं, और अनेक असुर भी। मैं उनका दास नहीं हूँ इसलिए वे न तो मेरा कुछ भला कर सकते हैं, और न कुछ बुरा। यह मेरे ऊपर है कि मैं उनसे क्या काम लूँ, लेकिन उसके लिए मुझे उनका दास बनना पड़ेगा। फिर जो करना है, वह वे ही करेंगे। फिर भी दुर्बलता के कुछ क्षणों में अवसर मिलते ही आसुरी शक्तियाँ हावी होकर मेरा बहुत अधिक अहित कर जाती हैं, और कर भी रही हैं। यह बात मैं ही जानता हूँ, किसी को बता भी नहीं सकता। एक देवासुर संग्राम सूक्ष्म जगत में निरंतर सभी के साथ चल रहा है।
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मेरा लक्ष्य है सिर्फ परमात्मा की प्राप्ति, अतः मुझे उन देवों व असुरों से कोई सरोकार नहीं है। यदि उपकरण ही बनना है तो भगवान का बनेंगे, न कि देवताओं और असुरों के। ये देवता भी आध्यात्मिक मार्ग में बाधक हैं। सहायक हैं तो सिर्फ गुरु रूप में परमात्मा। वे हमारे साथ एक होकर हमें अपने लक्ष्य परमात्मा तक पहुंचाते हैं।
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अतः दृष्टि सदा सीधी सामने परमात्मा की ओर ही रहे। इधर उधर कहीं भी झाँक कर न देखें। परमात्मा का ध्यान निरंतर तेलधारा की तरह बना रहे। उस धारा के टूटते ही हम आसुरी शक्तियों के शिकार हो जाएगे। उस धारा की निरंतरता बनी रहे, वही हमारी रक्षा कर सकती है। मैं जो भी लिख रहा हूँ, वह अपने अनुभवों से लिख रहा हूँ।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२१ अप्रेल २०२२

सत्य-सनातन-धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण कब होगा? ---

 सत्य-सनातन-धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण कब होगा? ---

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मनुष्य की प्रज्ञा निरंतर विकसित हो रही है। सत्य को जानने की जिज्ञासा भी निरंतर बढ़ रही है। जिस दिन आधुनिक विज्ञान द्वारा मनुष्य की प्रज्ञा पूर्ण रूप से यह मान लेगी कि आत्मा शाश्वत है, और कर्मफलों की प्राप्ति व पुनर्जन्म सत्य हैं, उसी दिन से इब्राहिमी मज़हबों (Abrahamic Religions) से लोगों की आस्था समाप्त होनी प्रारम्भ हो जाएगी, और सत्य-सनातन-धर्म की ओर आकर्षण बढ़ने लगेगा।
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पृथ्वी से अज्ञान का अंधकार तो पूरी तरह कभी भी नहीं मिट सकता, अन्यथा सृष्टि ही नष्ट हो जाएगी। पृथ्वी पर यदि सभी पापी हो जाएँ, या सभी पुण्यात्मा हो जाएँ तो यह पृथ्वी उसी क्षण नष्ट हो जाएगी। पाप और पुण्य यानि अंधकार और प्रकाश, का ही यह सारा खेल है जिसे हम सृष्टि कहते हैं। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ अप्रेल २०२२

मैं साँस नहीं ले रहा, यह समस्त सृष्टि मेरे माध्यम से साँस ले रही है ---

 मैं साँस नहीं ले रहा, यह समस्त सृष्टि मेरे माध्यम से साँस ले रही है। यह देह साक्षात् परमात्मा का एक उपकरण है। स्वयं परमात्मा इस उपकरण से साँस ले रहे हैं। मेरा होना, और यह पृथकता का बोध एक भ्रम मात्र है। जो कुछ भी इस ब्रह्मांड में और उससे परे, सृष्ट और असृष्ट है, वह मैं हूँ। मुझ से परे अन्य कुछ भी नहीं है। मैं यह देह नहीं, परमात्मा की सर्वव्यापकता और पूर्णता हूँ।

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ब्रह्ममुहूर्त में उठकर पूरी निष्ठा और श्रद्धा-विश्वास से भगवान का ध्यान करें। आप पायेंगे कि आप अकेले नहीं हैं, आप के साथ सूक्ष्म जगत के अनेक सिद्ध संत-महात्मा हर समय हैं। उनकी पवित्र उपस्थिती का आभास ध्यान में निश्चित रूप से होगा। मुझे भी अनेक बार हुआ है।
ॐ नमः शिवाय !! ॐ नमो भगवते वसुदेवाय !!
१९ अप्रेल २०२२

परमात्मा की सर्वव्यापकता पर ध्यान करने से कामनाओं का ह्रास होने लगता है ---

 परमात्मा की सर्वव्यापकता पर ध्यान करने से कामनाओं का ह्रास होने लगता है ---

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हमारी कामनाएँ ही हमारे बंधन हैं जो हमें बार बार जकड़ कर इस संसार में लाते हैं। हम आत्मा की सर्वज्ञता को नहीं जानते, इसलिये कामना करते है। कामना का मूल अज्ञान है। श्रुति भगवती कहती है --
"यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥" (कठोपनिषद्/२/३/१४)
(अस्य हृदि श्रिताः सर्वे ये कामाः यदा प्रमुच्यन्ते अथ मर्त्यः अमृतः भवति। अत्र ब्रह्म समश्नुते॥)
अर्थात् -- जब मनुष्य के हृदय में आश्रित प्रत्येक कामना की जकड़ ढीली पड़ जाती है, तब यह मर्त्य (मानव) अमर हो जाता है; वह यहीं, इसी मानव शरीर में 'ब्रह्म' का रसास्वादन करता है।
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यदि यह भाव निरंतर बना रहे कि मैं तो भगवान का एक नौकर यानि दास मात्र हूँ, या मैं उनका परम प्रिय पुत्र हूँ, और जो उनकी इच्छा होगी वह ही करूँगा, या वह ही हो रहा है जो उनकी इच्छा है, तो साधन मार्ग से साधक च्युत नहीं हो सकता। या फिर यह भाव रहे कि 'मै' तो हूँ ही नहीं, जो भी हैं, वे ही हैं, और वे ही सब कुछ कर रहे हैं। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि साधना की किस उच्च स्थिति में हम हैं। परमात्मा का स्मरण सदा बना रहे। राग-द्वेष और अहंकार कामना उत्पन्न करते हैं। कामना अवरोधित होने पर क्रोध को जन्म देती है। ये काम और क्रोध दोनों ही नर्क के द्वार हैं जो सारे पाप करवाते हैं। कर्ता तो सिर्फ परमात्मा है, परमात्मा से पृथक कोई कामना नहीं हो।
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आप सब महान आत्माओं को नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
ॐ नमः शिवाय !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ ॐ ॐ॥
१९ अप्रेल २०२२

दरिद्रता एक बहुत बड़ा अभिशाप है, लेकिन अधर्म से पैसा बनाना तो सब से बड़ा "पापों का पाप" है ---

 दरिद्रता एक बहुत बड़ा अभिशाप है, लेकिन अधर्म से पैसा बनाना तो सब से बड़ा "पापों का पाप" है ---

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कमाने से बहुत अधिक आसान है खर्च करना। कम कमाई से घर-गृहस्थी चलाना बहुत ही कठिन है। वर्तमान में बहुत ही खराब समय चल रहा है, अतः कम से कम खर्च में काम चलाना सीखें। कहीं दरिद्रता का महादुःख न देखना पड़े। दरिद्रता -- चाहे वह भौतिक हो या आध्यात्मिक, बहुत ही दुःखद है। आध्यात्मिक दरिद्रता तो भौतिक दरिद्रता से भी अधिक दुःखदायी है।
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किसी दिन अचानक ही सब कुछ छोड़कर हमें इस संसार से चले जाना होगा। कोई हमारे साथ नहीं होगा, और हम भी किसी के साथ नहीं होंगे। साथ सिर्फ परमात्मा का ही शाश्वत है। निरंतर हरिःचिंतन करते रहना चाहिए, पता नहीं कौन सी साँस अंतिम हो।
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मन में यदि काम-वासना यानि यौन-सुख के भाव ही निरंतर आते हैं तो यह खतरे की घंटी है। ऐसी स्थिति में अगला जन्म किसी पशु योनि में होना निश्चित है। अपनी भोजन की आदतें, संगति और वातावरण बदलना पड़ेगा। कुसंग तो किसी भी परिस्थिति में नहीं होना चाहिए। हमारा अगला जन्म कहाँ, किस परिस्थिति में होगा, इसकी कोई सुनिश्चितता नहीं है। अंत समय में जैसी मति होगी, वैसी ही गति होगी। कर्मफलों का सिद्धान्त भी सत्य है, पुनर्जन्म भी सत्य है, और आत्मा की शाश्वतता भी सत्य है। यमदूत किसी को क्षमा नहीं करते। भगवान का अनुग्रह ही मुक्त कर सकता है।
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जो प्रभुप्रेम में गहरी डुबकी लगाएगा उसी को मोती मिलेंगे। अंततः वह स्वयं ही प्रभु के साथ एक हो जाएगा। डूबेगा, खो जाएगा, लौटकर खबर भी न दे सकेगा नमक के पुतले की तरह।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
१८ अप्रेल २०२२

भगवान का कार्य तो करना ही पड़ेगा, कोई विकल्प नहीं है ---

 भगवान का कार्य तो करना ही पड़ेगा, कोई विकल्प नहीं है ---

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मुझे भगवान ने एक काम दिया था, जो मैंने सत्यनिष्ठा (ईमानदारी) से नहीं किया, सौ बहाने बनाए और हज़ार शिकायतें कीं। भगवान ने कुछ नहीं कहा।
कई बार भगवान ने उस काम को पूरा करने को कहा, लेकिन फिर भी मैं बहाने ही बनाता रहा। अब की बार भगवान ने बड़े प्रेम से स्पष्ट कह दिया है कि कितने भी बहाने बनाओ, कुछ लाभ नहीं है। वह काम तो करना ही पड़ेगा, अन्यथा अनेक जन्म और लेने पड़ेंगे। इस जन्म में नहीं किया तो अगले जन्मों में करना होगा। लेकिन वह काम तो करना ही होगा। उसके बिना मुक्ति नहीं है। भगवान का धैर्य भी मानना ही पड़ेगा।
अब उनका काम निश्चित रूप से पूरा होगा। करेंगे तो वे ही, मैं तो निमित्त मात्र ही रहूँगा। देरी से अक्ल (सुबुद्धि) आई है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ अप्रेल २०२२
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जिस कार्य की मैं बात कर रहा हूँ, वह है "आत्म-साक्षात्कार" यानि ईश्वर की प्राप्ति। हमारे सारे धर्मग्रंथ और सारे संत-महात्मा यही बार बार बार बहुत ही ऊंची आवाज में कह रहे हैं। हमारा लक्ष्य परमात्मा है, कोई विचारधारा, मज़हब या रिलीजन नहीं। सामने भगवान स्वयं है, मार्ग स्पष्ट है, कोई संशय नहीं है। लेकिन कष्ट तो स्वयं को ही उठाना पड़ेगा। जिसको प्यास लगी हो वही पानी पीएगा। ईश्वर को कोई प्राप्त नहीं करना चाहता, सब को उनका ऐश्वर्य ही चाहिए। कोई दो लाख में से एक व्यक्ति ही ईश्वर को पाने की अभीप्सा रखता है।
!! ॐ ॐ ॐ !!

हे प्रभु, अब इसी समय मुझे आपकी सहायता की आवश्यकता है ---

 हे प्रभु, अब इसी समय मुझे आपकी सहायता की आवश्यकता है। कुछ परेशानियों में फंस कर असहाय हो गया हूँ। अन्य कोई है भी नहीं, जो मेरी सहायता कर सके। मेरी माँगें आपको माननी ही पड़ेंगी (आप वचनबद्ध हैं) ---

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(१) मैं किसी भी तरह की साधना/उपासना, और आपका निरंतर स्मरण करने में असमर्थ हूँ। सारे प्रयास विफल हो गए हैं। जन्म-जन्मांतरों तक भटकने की कोई आकांक्षा नहीं है। अभीप्सा की अग्नि बहुत अधिक कष्ट दे रही है। इसी क्षण से अब मेरे माध्यम से आप स्वयं ही अपने स्वयं का स्मरण, ध्यान, व साधना/उपासना आदि सब करोगे। आपकी एक भी श्वास व्यर्थ नहीं जानी चाहिए। हर श्वास पर आप अपना स्मरण करोगे। जो कुछ भी है, वह आप ही हैं, मैं नहीं। यह पृथकता का मिथ्या बोध समाप्त हो।
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(२) आपका दिया हुआ यह अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) मेरे लिए अब फालतू का सामान हो गया है, इसका बोझ अब और नहीं ढो सकता, अतः इसे तुरंत बापस ले लो। कभी माँगूँ तो भी बापस मत देना। मुझे इसी क्षण जीवनमुक्त कर अपने साथ एक करो। किसी कामना का जन्म ही न हो।
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और कुछ भी नहीं चाहिए। मैं स्वयं ही पथ हूँ, और स्वयं ही लक्ष्य हूँ। मैं स्वयं ही अनंत और उस से भी परे का अस्तित्व हूँ। मेरे अस्तित्व का अंत आप हैं, कोई या कुछ भी अन्य नहीं। जो आप हैं वह ही मैं हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ अप्रेल २०२२

हम मानसिक दास क्यों बन जाते हैं? ---

 हम मानसिक दास क्यों बन जाते हैं? मानसिक दासता एक बड़ी दुःखद स्थिति है, जिसका कारण -- राग और द्वेष हैं। गीता में इस विषय पर बड़ा स्पष्ट मार्गदर्शन है। भगवान हमें वीतराग होकर स्थितप्रज्ञ और निःस्पृह होने का उपदेश और आदेश देते हैं।

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लेकिन उपासना तो स्वयं को ही करनी पड़ेगी। पूर्ण भक्ति से ऊर्जादायी व्यायाम, अजपा-जप (हंसः योग), नादानुसंधान, क्रिया योग, ज्योतिर्मय ब्रह्म के ध्यान, निरंतर स्मरण आदि से ऊर्जा, उत्साह, प्राणशक्ति, व सुख-शान्ति मिलती है, जो अन्यत्र कहीं भी नहीं है। उनमें चित्त निरंतर लगा रहे। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१५ अप्रेल २०२२

निकट भविष्य में भारत एक अखंड धर्मनिष्ठ राष्ट्र होगा, जिसकी राजनीति सत्य-सनातन-धर्म होगी ---

 निकट भविष्य में भारत एक अखंड धर्मनिष्ठ राष्ट्र होगा, जिसकी राजनीति सत्य-सनातन-धर्म होगी ---

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मैं वह दिन देखने के लिए जीवित रहूँ या न रहूँ, इसका महत्व नहीं है। लेकिन यह पूर्णतः सत्य है कि निकट भविष्य में भारत एक अखंड धर्मनिष्ठ राष्ट्र होगा, जिसकी राजनीति सत्य-सनातन-धर्म होगी। कालचक्र की दिशा अब बदली हुई है, जिसे रोकने का सामर्थ्य किसी में नहीं है। धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा भी होगी, वैश्वीकरण भी होगा, और इस समय छाया हुआ असत्य का अंधकार भी दूर होगा।
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सत्यनिष्ठ अखंड भारत के मार्ग में आने वाले वे हिन्दू भी मिट जाएँगे जो इस राष्ट्र के योग्य नहीं हैं। ढूँढने से भी कोई धर्म-निरपेक्ष या अधर्मी पूरे भारत में नहीं मिलेगा। इस पृथ्वी पर एक ही राष्ट्र है जो भारत है, अन्य सब कलिकाल की भ्रांतियाँ हैं। राष्ट्र उसे कहते हैं जो चारों पुरुषार्थों द्वारा प्रजा का रञ्जन करे। भारत की शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ेगी। भारत अपने स्वभाविक परम वैभव को पुनश्च प्राप्त करेगा। असत्य और अंधकार की शक्तियाँ मिट जाएंगी। ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१५ अप्रेल २०२२

पृथ्वी का भार बहुत अधिक बढ़ गया है, महाप्रलय की संभावना है ---

 पृथ्वी का भार बहुत अधिक बढ़ गया है, महाप्रलय की संभावना है ---

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पृथ्वी का भार हमारे बुरे विचारों से ही बढ़ता है, और हमारे प्रज्ञापराधों से ही महाविनाश यानि महाप्रलय होती है। हमारा विवेक यानि प्रज्ञा ही हमारी रक्षा करती है, और प्रज्ञापराध ही हमारा महाविनाश करेंगे। धीरे-धीरे पूरी पृथ्वी की जनसंख्या घटते-घटते बहुत ही कम रह जाएगी, ऐसा मुझे कई बार आभास होता है। हो सकता है पूरी पृथ्वी पर मात्र ३६ लाख के लगभग ही मनुष्य बच जाएँ, और सारी मनुष्यता नष्ट हो जाये।
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यह आणविक युद्ध से भी संभव है और महाप्रलय से भी संभव है जो किसी भी क्षण हो सकती है। एक सत्य-धर्मनिष्ठ नए युग का प्रारंभ होगा। कोई भ्रष्ट, रिश्वतखोर, चोर, आतताई और अधर्मी इस पृथ्वी पर नहीं बचेगा। ये सब कीड़े-मकोड़े जैसी पशु-योनियों में कष्ट पाते भटक रहे होंगे, या नर्क की भयानक यंत्रणाओं का भोग पा रहे होंगे।
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पुराणों की कथाओं को पढ़ें तो एक बात तो स्पष्ट हो जाती है की पृथ्वी तभी रसातल में गयी जब उस पर पाप बहुत अधिक बढ़ गया। पृथ्वी पर पाप तभी बढ़ता है जब हमारे विचार प्रदूषित होते हैं। इस समय पृथ्वी पर पाप बहुत अधिक बढ़ गया है, इतना अधिक कि मुझे तो कोई सुधार नहीं दिखाई देता।
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पृथ्वी अपनी धूरी का चक्कर १६१० किलोमीटर प्रति घंटे की गति से २३ घंटे ५६ मिनट और ४ सेकंड में पूरा करती है। सूर्य की परिक्रमा करने में पृथ्वी को ३६५ दिन ५ घंटे ४८ मिनट और ४६ सेकंड लगते हैं। पृथ्वी अपने अक्ष पर २३ डिग्री ३० मिनट झुकी हुई है। पृथ्वी की गति के समय (२३ घंटे ५६ मिनट और ४ सेकंड) में थोड़ा सा भी परिवर्तन हो जाए तो इस बात की पूरी संभावना है कि पृथ्वी का अपने अक्ष पर झुकाव बदल जाएगा जो वर्तमान में २३ डिग्री ३० मिनट है। पृथ्वी के अपने झुकाव पर थोड़े से भी परिवर्तन से ध्रुवों की स्थिति बदल जायेगी। ध्रुवों की स्थिति का थोड़ा सा भी परिवर्तन सारी पृथ्वी की जलवायु को बदल देगा। दोनों ध्रुवों पर जमी बर्फ एक बार तो पिंघल जायेगी, उस से आधी से अधिक पृथ्वी जलमग्न हो जायेगी। इसी को महाप्रलय कहते हैं जो वैज्ञानिक रूप से पूर्णतः संभव है।
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भगवान सभी का भला करें। ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१३ अप्रेल २०२२

धर्म एक ही है जो हमारा स्वधर्म है, अन्य सब परधर्म (अधर्म) हैं ---

 धर्म एक ही है जो हमारा स्वधर्म है, अन्य सब परधर्म (अधर्म) हैं, जो बड़े भयावह हैं; हमारा स्वधर्म ही हमारी रक्षा करेगा ---

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यहाँ थोड़ा विचार करते हैं कि हमारा स्वधर्म क्या है? "परमात्मा से अहैतुकी परम प्रेम" -- पूरी मनुष्य जाति का स्वभाविक स्वधर्म है (अन्य सब अधर्म है)। यही आत्म-साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति का हेतु है जो जीवन का परम लक्ष्य है। नारद भक्ति सूत्रों, और शांडिल्य सूत्रों में इसी को 'भक्ति' बताया गया है। यही परमधर्म है, और यही सनातन-धर्म का सार है। हम परमात्मा के प्रति समर्पित होकर जीवन का हर कार्य करें, यही धर्म का पालन है। हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म भी हमारी रक्षा करेगा। बिना धर्म का पालन किये हम निराश्रय और असहाय हैं।
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताई हुई ध्यान की विधि से अपने दिन का आरम्भ करें, दिन में हर समय भगवान को अपनी चेतना में रखें, यदि भूल जाएँ तो याद आते ही पुनश्चः उन्हें अपनी चेतना में जीवन का केंद्रबिंदु बनाएँ। उनके उपकरण मात्र बनें, यानि उन्हें अपने माध्यम से हर कार्य करने दें। रात्रि को सोने से पहिले यथासंभव गहनतम ध्यान करके ही सोयें। जैसा हम सोचते हैं वैसा ही हम बन जाते हैं। निरंतर भगवान का ध्यान करेंगे तो स्वतः ही भगवान के सारे गुण हमारे में भी खिंचे चले आयेंगे, और हमारी सारी विकृतियाँ स्वतः ही दूर हो जायेंगी। "ध्यान" क्या है? इसे भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में बहुत अच्छी तरह समझाया है। भगवान कहते हैं --
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥६:२५॥"
अर्थात् - " शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥"
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आचार्य शंकर के अनुसार -- धैर्य से धारण की हुई धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा शनैः शनैः अर्थात् सहसा नहीं, क्रम-क्रम से उपरति को प्राप्त करे। तथा मन को आत्मा में स्थित करके अर्थात् यह सब कुछ आत्मा ही है, उससे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, इस प्रकार मन को आत्मा में अचल करके अन्य किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे। यह योग की परम श्रेष्ठ विधि है। (उपरोक्त श्लोक का शंकर भाष्य)
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आगे भगवान कहते हैं --
"यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
अर्थात् - यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे॥"
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यह अस्थिर और चञ्चल मन जहाँ-जहाँ विचरण करता है, वहाँ-वहाँ से हटाकर इस को एक परमात्मा में ही लगाये। भगवान कहते हैं ---
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- "जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।" He who sees Me everywhere and sees everything in Me, he never becomes separated from Me, nor do I become separated from him.
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण का वचन है --
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् - "इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥"
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जब भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है तो उसकी पालना हमें करनी ही होगी। अन्य सारे उपाय अति जटिल और कठिन हैं, अतः सबसे सरल मार्ग के रूप में स्वभाविक रूप से धर्म का पालन हमें करना ही चाहिए, तभी धर्म हमारी रक्षा करेगा। धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है, और धर्म की रक्षा ही हमारी स्वयं की रक्षा है॥ ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१२ अप्रेल २०२२