भगवान हैं, यहीं पर, इसी समय हैं; और सर्वदा व सर्वत्र भी हैं. यदि नहीं दिखाई देते, तो दोष हमारे बुरे कर्मों का है.
जब लगे कि -- ध्यान, ध्याता, व ध्येय; -- दर्शन, दृष्टा, व दृश्य; -- उपासना, उपासक, व उपास्य; --- ये सब एक हो गए हैं, तब समझना चाहिए कि आध्यात्मिक उन्नति हो रही है। यही मुक्ति व मोक्ष का मार्ग है।
भगवान हमारे माध्यम से स्वयं साधना करते हैं, हम तो निमित्त मात्र हैं। कर्ता होने का भाव मिथ्या 'अहंकार' है, और कुछ पाने का भाव 'लोभ' है। यह लोभ और अहंकार -- सबसे बड़ी हिंसा है। लोभ और अहंकार से मुक्ति -- 'अहिंसा' है, जो हम सब का परम धर्म है।
भगवान कहते हैं ---
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
अर्थात् -- इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो।।
[ बायें हाथसे भी बाण चलानेका अभ्यास होनेके कारण अर्जुन सव्यसाची कहलाता है ]
समाज में कदम-कदम पर हर ओर छाई हुई हर तरह की भयंकर कुटिलता (छल, कपट, झूठ) व विपरीत परिस्थितियों के होते हुए भी मैं अपनी आस्था पर पूरी श्रद्धा, विश्वास और निष्ठा से दृढ़ हूँ|
भगवान की पूर्ण कृपा है| जब उनका निरंतर साथ है तो किसी से कोई अपेक्षा नहीं है| वे हर समय अपने हृदय व स्मृति में रखते हैं| उन की कृपा सब पर बनी रहे|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अप्रेल २०२२
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